पृष्ठभूमि
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इंसानी आबादी की रिहाइश और आस-पड़ोस के इलाक़ों के लिए हवा की गुणवत्ता के ऊंचे मानक तय कर दिए हैं. इस कसौटी पर भारत के ज़्यादातर इलाक़े हवा की सुरक्षित मानी जाने वाली गुणवत्ता के दायरे से बाहर चले गए हैं. ऐसे में आर्थिक तौर पर संपन्न तबके द्वारा हायतौबा मचाने वाली राजनीति बस शुरू ही होने वाली है. निश्चित तौर पर इस मसले पर ऊंची आवाज़ में अपनी नाराज़गी जताकर वो नीति निर्माताओं का ध्यान- समय और रकम- अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश करेंगे. वो पूरी कोशिश करेंगे कि दूसरों की बजाए उनकी ‘समस्या’ को ज़्यादा तवज्जो मिले. आने वाले वक़्त में मीडिया में भी इसी मुद्दे पर हो-हल्ला मचा रहेगा. इससे जुड़े सवाल पूछे जाएंगे. ख़ासतौर से दिल्ली जैसे नगरीय इलाक़े का जिम्मा संभालने वाले नीति-नियंताओं को कठघरे में खड़ा किया जाएगा. उनसे पूछा जाएगा कि किस तरह समाज के संभ्रांत वर्ग के स्वास्थ्य से जुड़े मसलों पर ध्यान देने में वो नाकाम रहे हैं. हालांकि रईस तबके द्वारा इस नाख़ुशी को सामूहिक तौर पर सबके स्वास्थ्य की फ़िक्र से जोड़कर पेश किया जाएगा…लेकिन हक़ीक़त यही है कि ये सारा मसला समाज के शिक्षित और समृद्ध तबके के अहंकार और आत्ममोह से उपजी बनावटी नाराज़गी का है.
आने वाले वक़्त में मीडिया में भी इसी मुद्दे पर हो-हल्ला मचा रहेगा. इससे जुड़े सवाल पूछे जाएंगे. ख़ासतौर से दिल्ली जैसे नगरीय इलाक़े का जिम्मा संभालने वाले नीति-नियंताओं को कठघरे में खड़ा किया जाएगा. उनसे पूछा जाएगा कि किस तरह समाज के संभ्रांत वर्ग के स्वास्थ्य से जुड़े मसलों पर ध्यान देने में वो नाकाम रहे हैं.
आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रदूषण
ये बात ठीक है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से निपटने के तौर-तरीक़ों की इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. वहीं दूसरी ओर स्थानीय प्रदूषण से दो-दो हाथ करने से जुड़े उपाय अतीत में भी दिखाई देते हैं. औद्योगीकरण की तरफ़ क़दम बढ़ाते वक़्त न्यूयॉर्क और लंदन जैसे शहर बेहद प्रदूषित थे. उस वक़्त यहां ग़रीबी भी ज़्यादा थी. बहरहाल जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती गई ये शहर स्वच्छ होते चले गए. इस प्रक्रिया ने स्थानीय प्रदूषण की समस्या के सिलसिले में कुज़्नेत्स कर्व की धारणा को अपनाए जाने की शुरुआत कर दी. अर्थशास्त्री साइमन कुज़्नेत्स ने 1955 में अपना मशहूर सिद्धांत प्रस्तुत किया था. इसके मुताबिक विकास के शुरुआती चरणों में आय की असमानता धीरे-धीरे बढ़ती जाती है और शिखर पर पहुंचने के बाद उसमें गिरावट आने लगती है. हालांकि कुज़्नेत्स की ये धारणा मौलिक रूप से सीमित दायरे वाली परिस्थितियों के मद्देनज़र पेश की गई थी. 1990 के दशक में विकास अर्थशास्त्रियों ने इस बुनियादी परिकल्पना को व्यापक सैद्धांतिक, प्रामाणिक और राजनीतिक जामा पहना दिया. इस बीच आय और आर्थिक विषमताओं के बीच उल्टे U के आकार की वक्र रेखा को कुज़्नेत्स कर्व के नाम से जाना जाने लगा. आज के दौर में आर्थिक विकास से जुड़े अध्ययनों में इसका व्यापक तौर पर इस्तेमाल होने लगा है. पर्यावरण से जुड़े कुज़्नेत्स कर्व (ईकेसी) की पड़ताल सबसे पहले 1991 में उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते (NAFTA) पर जीन एम. ग्रॉसमैन और एलेन बी. क्रुगर द्वारा प्रस्तुत एक अध्ययन में की गई. अगले साल यानी 1992 में विश्व बैंक की विश्व विकास रिपोर्ट में इस परिकल्पना का प्रचार-प्रसार किया गया.
ईकेसी की परिकल्पना के मुताबिक आर्थिक विकास के शुरुआती वर्षों में स्थानीय पर्यावरण प्रदूषण में बढ़ोतरी होती है. हालांकि प्रति व्यक्ति आय के एक निश्चित स्तर से ऊपर आ जाने के बाद ये रुझान पलट जाता है. बहरहाल, अलग-अलग तरह के प्रदूषणों के लिए ये स्तर अलग-अलग होता है. दूसरे शब्दों में स्थानीय प्रदूषण का प्रति व्यक्ति आय के साथ उल्टे U के आकार का संबंध होता है. इसके मायने ये हैं कि भले ही विकास-यात्रा के शुरुआती दौर में स्थानीय प्रदूषण के पीछे आर्थिक वृद्धि का हाथ होता है पर एक निश्चित बिंदु के बाद यही आर्थिक वृद्धि प्रदूषण घटाने का माध्यम बन जाती है. प्रदूषण से जुड़ी चिंताओं की शुरुआत करने वाले आय के स्तर को प्रति व्यक्ति 4000 अमेरिकी डॉलर के स्तर पर रखा गया है. ये रकम भारत की मौजूदा प्रति व्यक्ति आय (जो इस समय तक़रीबन 2000 अमेरिकी डॉलर है) की दोगुनी है.
तीव्र आर्थिक वृद्धि के शुरुआती वर्षों में स्थानीय प्रदूषण और पर्यावरण में आने वाली गिरावट के आकार से जुड़े प्रभाव प्रदूषण की रोकथाम से जुड़े प्रयासों के सामयिक प्रभावों पर भारी पड़ते हैं. बाद के वर्षों में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार धीमी पड़ जाती है या उसका स्वरूप भारी विनिर्माण से हटकर सेवा क्षेत्र की ओर मुखातिब हो जाता है. नतीजतन ऐसी अवस्था में प्रदूषण कम करने के प्रयासों का सामयिक प्रभाव प्रदूषण और पर्यावरण की गिरावट के आकार से जुड़े प्रभावों से बड़ा हो जाता है. तार्किक रूप से खरा और स्पष्ट होने के बावजूद स्थानीय पर्यावरण प्रदूषण के मामलों में ईकेसी को आख़िरी तर्क के तौर पर स्वीकार नहीं किया गया है. इसकी वैधता को लेकर शैक्षणिक जगत में गरमागरम बहसों का दौर जारी है.
गिलेंस और पेज के अध्ययन को आधार बनाकर जाने-माने अर्थशास्त्री डेनी रोड्रिक ने एक दिलचस्प ब्योरा पेश किया है. उन्होंने ये दर्शाया है कि जब समाज का समृद्ध तबका किसी मसले को ग़रीबों के हितों से जुड़ा बताकर कामयाबी से आगे बढ़ाने लगता है तो उसका सरकार की नीतियों पर सकारात्मक और मज़बूत असर पड़ता है.
ईकेसी ने ‘टिकाऊ विकास’ के विचार पर अपना प्रभाव डाला है. दरअसल इस विचार के तहत ये कहा गया है कि पर्यावरण के सवाल पर हम ‘एक तीर से दो शिकार’ भी कर सकते हैं. इस दृष्टिकोण के तहत पर्यावरण को होने वाले नुकसान को प्राथमिक तौर पर लचर पर्यावरणीय प्रबंधन के नतीजे के तौर पर सामने रखा जाता है. ये भी जताया जाता है कि टेक्नोलॉजी और आर्थिक या क़ानूनी तौर-तरीक़ों के ज़रिए पर्यावरण का ‘प्रबंधन’ किया जा सकता है. मिसाल के तौर पर प्रदूषण करने वालों को हर्जाना भरने के लिए बाध्य किया जा सकता है. और तो और प्रदूषण का एक निर्धारित स्तर भी तय किया जा सकता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यही किया है. विश्व बैंक की विश्व विकास रिपोर्ट 1992 में भी इसी नज़रिए का समर्थन किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक:
‘आर्थिक गतिविधियों में बढ़ोतरी से आख़िरकार पर्यावरण पर बुरा असर पड़ने से जुड़ा विचार टेक्नोलॉजी, पसंदगियों और पर्यावरण पर होने वाले निवेश की स्थिर मान्यताओं पर आधारित है…जैसे-जैसे आय में बढ़ोतरी होती है और निवेश के लिए संसाधनों की उपलब्धता बढ़ती है, पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने की मांग बढ़ती जाती है’
इस विचार से एक बात साफ़ हो जाती है. भले ही पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं की मार सबसे ज़्यादा ग़रीबों पर पड़ती है लेकिन इसके बावजूद वो इस मसले पर सबसे पहले शिकायत करने वालों में शामिल नहीं होते हैं. ग़रीब लोगों को तो पर्यावरण से पहले ज़िंदा रहने से जुड़े तमाम दूसरे मसलों (खाना, पानी और सिर ढकने के लिए छत) से दो-चार होना पड़ता है. पर्यावरण को लेकर सबसे पहली शिकायत दौलतमंद लोगों की ओर से ही आती है. मिसाल के तौर पर जनसंख्या के दबाव से जुड़ी शिकायत कभी कोई ग़रीब नहीं करता. वो तो भीड़ भाड़ वाली बस्तियों में रहता है, जहां 100 वर्ग फ़ीट की जगह पर 10 लोग रह रहे होते हैं. जनसंख्या दबाव की शिकायत वो लोग करते हैं जो बड़े-बड़े घरों में रहते हैं, जहां हर सदस्य के लिए 1000 वर्ग फ़ीट से भी ज़्यादा जगह उपलब्ध होती है. इसी कड़ी में दिल्ली में खुले आसमान के नीचे रहने वाले या सड़कों पर रेहड़ी लगाने वाले लोगों की मिसाल ले सकते हैं. ऐसे लोग चौबीसों घंटे गाड़ियों द्वारा छोड़े गए धुएं के गुबार और सड़कों और निर्माण कार्यों से निकले धूल के बीच सांस लेते रहते हैं. फिर भी ये लोग प्रदूषण का मुद्दा नहीं उठाते. इस मसले को तो वो धनी लोग उठाते हैं जिनका धूल और धुएं से कभी-कभार ही सामना होता है.
हाय-तौबा मचाने वाली सियासत
शुरुआती तौर पर 1990 के दशक में बीजिंग और 2000 के दशक में दिल्ली में प्रदूषण का मुद्दा उठाने के पीछे दोनों जगहों की दौलतमंद प्रवासी बिरादरी का अहम रोल रहा था. दरअसल वो भीड़भाड़ से अलग-थलग अपनी आरामदेह रिहाइशों (या कारों) से बाहर निकलकर कसरत करने या खेलते वक़्त ताज़ी हवा पाना चाहते थे. उन्होंने अपने-अपने परिसरों में हवा की गुणवत्ता मापने वाले निगरानी यंत्र लगा लिए. इतना ही नहीं दिल्ली और बीजिंग में रह रहे ये लोग इन मशीनों के ज़रिए हासिल हवा की गुणवत्ता से जुड़ी जानकारियां पर प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने लगे. वैसे शहर जो प्रदूषण के निपटारे से जुड़े उपायों और तकनीकों को लेकर उनके पैमानों पर खरे नहीं उतर रहे थे, उन्होंने उन शहरों की लानत-मलामत करनी शुरू कर दी. इस कड़ी में उन्होंने ‘बीजिंग कफ़’ जैसे जुमले भी तैयार कर लिए. प्रदूषण पर बड़ी साफ़गोई से हायतौबा मचाती इस सोच के साथ इन देशों का शहरी समृद्ध तबका भी जुड़ने लगा.
PM2.5 का ऊंचा स्तर लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा घर के अंदर रहने के लिए प्रेरित करता है. ऐसे में क़ुदरती तौर पर घर की रोशनदानी बढ़ाने की बजाए आम लोग अपनी खिड़कियों को बंद करने पर ज़ोर देने लगते हैं.
गिलेंस और पेज के अध्ययन को आधार बनाकर जाने-माने अर्थशास्त्री डेनी रोड्रिक ने एक दिलचस्प ब्योरा पेश किया है. उन्होंने ये दर्शाया है कि जब समाज का समृद्ध तबका किसी मसले को ग़रीबों के हितों से जुड़ा बताकर कामयाबी से आगे बढ़ाने लगता है तो उसका सरकार की नीतियों पर सकारात्मक और मज़बूत असर पड़ता है. मिसाल के तौर पर आप्रवासी या प्रदूषण से जुड़े मुद्दों को ले सकते हैं. इस सिलसिले में स्थानीय लोगों द्वारा शुरुआती रोज़गार हासिल करने और उनके मेहनताने पर आप्रवासियों के असर पर ज़ोर दिया जाता है. इसी तरह प्रदूषण को मृत्यु दर से जोड़कर दिखाया जाता है. रोड्रिक ने चेताया है कि इन मसलों पर बढ़-चढ़कर नीतियां बनाते वक़्त सरकारें गफ़लत का शिकार हो सकती हैं. ख़ासतौर से मज़बूत राष्ट्रीय सुरक्षा या सेहतमंद अर्थव्यवस्था को लेकर इस तरह की ग़लतफ़हमी पैदा हो सकती है. इन मसलों पर आर्थिक रूप से संभ्रांत और निर्धन वर्ग के हित एक-दूसरे से आकर जुड़ते हैं. हो सकता है कि इन पर नीतियां बनाते वक़्त सरकार में सबके प्रतिनिधित्व और समावेशी होने की सकारात्मक धारणा बन रही हो, लेकिन रोड्रिक का विचार है कि कई बार ये धारणा ग़लत भी हो सकती है. अर्थशास्त्री रोड्रिक ने आगे दर्शाया है कि जब भी आर्थिक रूप से संभ्रांत तबके और दीन-हीन वर्ग की पसंदगी में मतभेद उभरते हैं, तब रईस तबके की चिंताओं को ही गिना जाता है. इस सिलसिले में उन्होंने सुसंगठित हित समूहों के ज़बरदस्त प्रभावों को रेखांकित किया है. सरकारी नीतियों पर अपना रसूख़ डालने वाले ऐसे समूहों का निर्माण सिर्फ़ आर्थिक रूप से संपन्न तबका या कारोबारी समूह ही कर सकते हैं.
बिना किसी अतिरिक्त प्रयास और नतीजे के अपने हितों को पूरा करवाने (rent-seeking) के लिए लॉबिंग की प्रक्रिया पर गॉर्डन टुलॉक ने शोध कार्यों की अगुवाई की है. इस सिलसिले में उन्होंने दबाव समूहों के प्रभावों को सामने रखा है. उनके मुताबिक ‘ऐसे दबाव समूह कर्मचारियों की कमी झेल रहे, अनुभव-हीन और काम के बोझ तले दबे सरकारी दफ़्तरों में पर्याप्त सूचनाओं और विशेषज्ञ जानकारियों की बाढ़ ला देते हैं. इस तरह से उनके पास नीति-निर्माण से जुड़ी प्रक्रिया का ज़रूरी हिस्सा बनने की ताक़त आ जाती है. लिहाज़ा वो सरकारों और नीति-निर्माताओं की सोच को अपने हिसाब से ज़रूरी मोड़ दे सकते हैं.’ अमीर देशों द्वारा मुहैया कराई गई रकम से चलने वाले थिंक टैंक्स घरेलू और वैश्विक प्रदूषण पर अध्ययन करते हैं. विकासशील देशों की पर्यावरण संबंधी नीतियों पर इनका असर होता है. शोध कार्य में टुलॉक के साथी और नोबेल पुरस्कार विजेता जेम्स बुकानन ने इस सिलसिले में ‘बिना रोमांस वाली राजनीति’ जैसे जुमला इजाद किया है. इस तरह उन्होंने राजनेताओं और नौकरशाहों की भावनाओं को दर्शाने की कोशिश की है. ये लोग तार्किक किरदारों की माफ़िक़ बाज़ार से जुड़े कारकों की तरह हर वो काम करने की जुगत में रहते हैं जिनसे उनके तमाम हित पूरे होते हों. उनके तमाम हित संभ्रांत लोगों का पिछलग्गू बनकर ही पूरे होते हैं.
शहरी प्रदूषण और बिजली की मांग
हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि घरेलू ऊर्जा की मांग का एक अहम निर्धारक तत्व आसपास मौजूद धूलकण वाला प्रदूषण हैं. अब तक इस कारक को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है. विकासशील देशों में खुली हवा में धूलकण का संकेंद्रण विज़िबल रेंज PM2.5 (पार्टिकुलेट मैटर) 20 से 200µg/m3 (प्रति घन मीटर माइक्रोग्राम्स) के बीच बढ़ता-घटता रहता है. इन कणों से स्मॉग या धुंध पैदा होती है. ये इंसानों को दिखाई देती है. नंगी आंखों से PM2.5 कन्सन्ट्रेशंस में 10 µg/m3 और 50 या 100 µg/m3 का अंतर पहचाना जा सकता है. इसके पीछे की परिकल्पना ये है कि PM2.5 का ऊंचा स्तर लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा घर के अंदर रहने के लिए प्रेरित करता है. ऐसे में क़ुदरती तौर पर घर की रोशनदानी बढ़ाने की बजाए आम लोग अपनी खिड़कियों को बंद करने पर ज़ोर देने लगते हैं. इतना ही नहीं वो प्रदूषण से लड़ने के रक्षात्मक उपायों जैसे पोर्टेबल एयर प्यूरीफ़ायर्स से लेकर ज़्यादा ताक़तवर वॉल माउंटेड एसी या हीटर का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं. आसपास के परिवेश में फैले प्रदूषण से निपटने के लिए लोगों के इस रक्षात्मक बर्ताव से ऊर्जा की मांग बढ़ जाती है. इतना ही नहीं इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ जाता है. ऊर्जा की इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के पीछे लगाई गई जुगत से भी ग्रीन हाउस गैसों का निर्माण होता है. इस रक्षात्मक बर्ताव के पर्यावरणीय न्याय से जुड़े प्रभाव भी पाए गए हैं. ग़रीब परिवार के पास इस तरह के रक्षात्मक पूंजीगत साजोसामानों में ख़र्च करने के लिए न तो ज़रूरी संसाधन होते हैं और न ही वो इस तरह की चीज़ों पर ख़र्च करना पसंद करते हैं. इन सामानों में बंद खिड़कियों के पास लगे एयर कंडीशनर्स और प्यूरिफ़ायर्स शामिल हैं. ये चीज़ें कुछ हद तक घर के अंदर पार्टिकल के स्तर को कम करने में मददगार साबित होती हैं.
शैक्षणिक सहायता
कई अध्ययनों में प्रदूषण के स्तर और स्वास्थ्य के बीच कारण संबंधी मज़बूत रिश्ते की ओर इशारा किया गया है. ऐसे अध्ययनों में आमतौर पर प्रश्नोत्तर पर आधारित सर्वेक्षणों पर निर्भर सांख्यिकीय और ग्राफ़िक्स से जुड़ी तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है. ये सर्वेक्षण छोटे जनसमूहों के बीच किया जाता है. इन अध्ययनों में अनिवार्य रूप से शहरी निवासियों के स्वास्थ्य और वहां के प्रदूषण स्तरों के बीच संबंध स्थापित किया जाता है. इस सिलसिले में इस बात को रेखांकित किया जाता है कि प्रदूषण के कालखंड के दौरान डॉक्टरों के पास इलाज के लिए जाने की संख्या और मृत्यु की घटनाएं सामान्य से ऊपर पाई जाती है. इस कड़ी में कई आलोचकों का विचार है कि इन अध्ययनों में इस्तेमाल किए गए तौर-तरीक़े प्रदूषण और स्वास्थ्य समस्याओं के बीच साफ़ संबंध स्थापित करने के लिहाज़ से पर्याप्त नहीं हैं. उनका विचार है कि आंकड़ों के इतने छोटे समूह का विश्लेषण करते वक़्त बहुत ज़्यादा सतर्क रहने की आवश्यकता होती है. कई अध्ययनों में तो वायु प्रदूषण के प्रभाव मापने के लिए प्रश्नावलियों और प्रतिक्रिया दर्ज कराने के दूसरे स्वैच्छिक उपायों के इस्तेमाल पर ही सवाल खड़े किए गए हैं. इनमें तर्क दिया गया है कि ऊंचे प्रदूषण स्तरों पर समाचार माध्यमों द्वारा फैलाई गई जागरूकता दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. ऐसे में सर्वे में दर्ज कराई गई प्रतिक्रियाओं के इन समाचारों द्वारा प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना रहती है. मिसाल के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वायु गुणवत्ता के नए मानक जारी किए जाने और मीडिया में उसके व्यापक प्रचार-प्रसार के बाद स्वास्थ्य पर प्रदूषण के प्रभावों से जुड़ी शिकायतों की तादाद बढ़ने के आसार हैं. कुछ अध्ययनों में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि प्रदूषण के चलते ‘मारे गए’ लोगों में पहले से ही कोई न कोई गंभीर बीमारी रही होगी. ऐसे में हो सकता है कि प्रदूषण से उनकी मौत बस कुछ दिन पहले आ गई हो.
यहां जो बात की जा रही है उसका मतलब ये कतई नहीं है कि शहरी प्रदूषण कोई समस्या नहीं है. बेशक़ ये एक गंभीर समस्या है. बहरहाल इसे जो तवज्जो मिल रही है उसकी वजह ये है कि इसका असर रईसों पर पड़ता है. शारीरिक वृद्धि को रोकने वाली, कुपोषण के रूप में सामने आने वाली और आख़िरकार बीमारियों और मौत का कारण बनने वाली ग़रीबी की ओर ज़रूरत के हिसाब से ध्यान नहीं दिया जाता. इसकी वजह ये है कि ये तमाम मसले रईसों की चिंता का सबब नहीं हैं. ग़रीबों से जुड़े मामलों के निपटारे की कोशिश करने वाले राजनीतिक नेतृत्व के सत्ता से बेदख़ल हो जाने की आशंका रहती है. इसकी वजह ये है कि समाज का संभ्रांत तबका धन के पुनर्वितरण से जुड़ी नीतियों के ख़िलाफ़ रहता है. अमीरों पर प्रदूषण का प्रभाव ग़रीबों के मुक़ाबले काफ़ी कम होता है. ज़ाहिर है कि शहरी प्रदूषण पर खाते-पीते रईस लोगों द्वारा मचाई जाने वाली हायतौबा ‘उनके निजी स्वार्थ’ से प्रेरित होती है. साफ़ है कि इस हो-हल्ले के पीछे की वजह ‘अपने से अलग’ लोगों के प्रति उनकी चिंता तो कतई नहीं होती. ग़ौरतलब है कि ईंधन और दूसरे सामानों के उपभोग पर लगाए गए टैक्स से वसूली गई रकम सार्वजनिक ख़र्चों के मुक़ाबले मामूली होती है. इस तरह के करों का बोझ ग़रीबों पर सबसे ज़्यादा पड़ता है. इसकी वजह ये है कि इन सामानों की ख़रीद पर निर्धन वर्ग की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ख़र्च होता है. ऐसे में शहरी इलाक़ों में प्रदूषण कम करने के उपायों (जैसे इलेक्ट्रिक कारों की ख़रीद और इस्तेमाल) को सस्ती दर पर मुहैया कराने पर होने वाले ख़र्च से सार्वजनिक धन के वितरण की दिशा दूसरी ओर मुड़ती है. निश्चित तौर पर ये ग़रीबों की ओर से अमीरों को दी गई सब्सिडी की तरह है.
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