Published on Jul 16, 2022 Updated 0 Hours ago

किसी व्यक्ति की पसंद और अधिकार पर विश्व जनसंख्या दिवस के ज़ोर को देखते हुए महिलाओं के बीच बिना कारण बच्चेदानी निकालने को लेकर जागरुकता पैदा करने के लिए पर्याप्त नीतियों को अपनाने की ज़रूरत है.

#विश्व जनसंख्या दिवस 2022: भारत में बच्चेदानी निकालने (हिस्टरेक्टमी) का प्रचलन, परेशानी और नीति

भारत में बच्चेदानी निकालने का प्रचलन

मेडिकल सर्जरी करवाने को अक्सर पूरी तरह से शारीरिक मुद्दे के रूप में देखा जाता है. हालांकि जिस तरह से नीतिगत, लैंगिक, श्रेणी और दूसरे सामाजिक सूचकों से सर्जरी करवाना पेचीदा रूप से जुड़ा है, उसे देखते हुए ऐसा नज़रिया बहुत भोला-भाला है. हिस्टरेक्टमी यानी आंशिक रूप से या पूरी तरह अपना गर्भाशय या बच्चेदानी निकलवाना (कभी-कभी गर्भाशय ग्रीवा यानी वो जगह जहां मां के पेट में बच्चा बढ़ता है और उसके आसपास के टिशू निकलवाना) भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं. सीज़ेरियन सेक्शन यानी बच्चे के जन्म के लिए सर्जरी के बाद हिस्टरेक्टमी दुनिया भर में महिलाओं पर की जाने वाली सबसे सामान्य सर्जरी है. कई ऐसे देश जहां बड़ी संख्या में बच्चेदानी निकलवाने की सर्जरी होती थी, वहां ये संख्या घट रही है लेकिन भारत में इस सर्जरी में बढ़ोतरी हो रही है. इसे देखते हुए भारत में इस सर्जरी के प्रचलन, कारणों और परिणामों का विश्लेषण ज़रूरी है. 

सीज़ेरियन सेक्शन यानी बच्चे के जन्म के लिए सर्जरी के बाद हिस्टरेक्टमी दुनिया भर में महिलाओं पर की जाने वाली सबसे सामान्य सर्जरी है. कई ऐसे देश जहां बड़ी संख्या में बच्चेदानी निकलवाने की सर्जरी होती थी, वहां ये संख्या घट रही है लेकिन भारत में इस सर्जरी में बढ़ोतरी हो रही है.

चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (2015-16) में पहली बार भारत में बच्चेदानी निकलवाने के मामले में ईकाई स्तर के आंकड़े इकट्ठा किए गए. 15-49 वर्ष की जिन 7,00,000 महिलाओं को सर्वे में शामिल किया गया उनमें से 22,000 ने बच्चेदानी निकलवाने की सर्जरी करवाई थी. राष्ट्रीय स्तर पर इस उम्र वर्ग में बच्चेदानी निकलवाने वाली महिलाओं की मौजूदगी जहां 3.2 प्रतिशत थी वहीं आंध्र प्रदेश में ये सबसे ज़्यादा (8.9 प्रतिशत) और असम में सबसे कम (0.9 प्रतिशत) थी. बच्चेदानी निकलवाने वाली महिलाओं की संख्या ग्रामीण भारत में ज़्यादा थी और ज़्यादातर ऑपरेशन प्राइवेट अस्पतालों में किए गए थे. जहां तक बात 45 वर्ष से ज़्यादा उम्र की महिलाओं की है तो भारत में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी (2017-18) में पाया गया कि 45 वर्ष से ज़्यादा उम्र की 11 प्रतिशत महिलाओं ने बच्चेदानी निकलवाने का ऑपरेशन करवाया है. इस उम्र में बच्चेदानी निकलवाने का ऑपरेशन सबसे ज़्यादा आंध्र प्रदेश (23.1 प्रतिशत) और पंजाब (21.2 प्रतिशत) में होता है यानी इसका ये मतलब है कि पांच में से कम-से-कम एक उम्रदराज महिला ने बच्चेदानी निकलवाने का ऑपरेशन करवाया है. 45 वर्ष से ज़्यादा उम्र की महिलाओं में बच्चेदानी निकलवाने का सबसे कम ऑपरेशन पूर्वोत्तर के राज्यों में होता है. 

बच्चेदानी निकालने के कारण 

भारत में हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन में हाल के दिनों में बढ़ोतरी को देखते हुए ये पूछना मुनासिब है कि ऐसा क्यों है. जो सबसे सामान्य कारण सामने आए हैं उनमें माहवारी के दौरान खून बहना या दर्द, ट्यूमर या गांठ बनना, सर्वाइकल डिस्प्लेसिया जो कि कैंसर से पहले की एक स्थिति है, पेड़ू में इन्फेक्शन (पीआईडी) और गर्भाशय के टिशू का असामान्य रूप से मोटा होना (एंडोमेट्रियल हाइपरप्लासिया) शामिल हैं. इनके अलावा कभी-कभी कैंसर और बच्चे के जन्म के बाद काफ़ी ज़्यादा खून बहना भी कारण हैं. 

ये कोई संयोग नहीं है कि ज़्यादातर हिस्टरेक्टमी सर्जरी प्राइवेट अस्पतालों में होती है. इसकी मिसाल इस तरह दी जा सकती है कि 1997 से पहले जहां सिर्फ़ 43 प्रतिशत हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन प्राइवेट अस्पतालों में होते थे, वहीं 2016 में ये संख्या बढ़कर 74 प्रतिशत पर पहुंच गई.

तब भी दो बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने योग्य हैं. पहली बात, ये कोई संयोग नहीं है कि ज़्यादातर हिस्टरेक्टमी सर्जरी प्राइवेट अस्पतालों में होती है. इसकी मिसाल इस तरह दी जा सकती है कि 1997 से पहले जहां सिर्फ़ 43 प्रतिशत हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन प्राइवेट अस्पतालों में होते थे, वहीं 2016 में ये संख्या बढ़कर 74 प्रतिशत पर पहुंच गई. इसके अलावा ये भी कोई संयोग नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत, जहां ज़्यादातर सर्जरी सरकारी अस्पतालों में होती है, में बच्चेदानी निकलवाने का प्रचलन सबसे कम है. रिसर्च से पता चलता है कि प्राइवेट अस्पतालों के डॉक्टर मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कभी-कभी उस स्थिति में भी बच्चेदानी निकलवाने के ऑपरेशन की सलाह देते हैं जब ये ज़रूरी नहीं है. ऐसी ग़रीब और अशिक्षित महिलाओं के भी मामले हैं जिनके साथ ऑपरेशन के नाम पर धोखा किया जाता है. डॉक्टर बनकर कुछ ठग या अस्पताल उन्हें सर्जरी कराने के लिए कहते हैं और इस तरह कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के इलाज के लिए आरक्षित सरकारी फंड से पैसा हासिल करते हैं. 

दूसरी बात, ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों में मज़दूरी करने वाली महिलाओं को उनके ठेकेदारों द्वारा कठोर काम करने के लिए कहा जाता है जिसका नतीजा स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों के रूप में सामने आता है. चूंकि इन महिलाओं में माहवारी से जुड़ी जागरुकता की कमी है या वो डॉक्टर के पास नहीं जा पाती हैं, ऐसे में हालत बिगड़ने पर या अंतिम उपाय के तौर पर डॉक्टर उन्हें बच्चेदानी निकलवाने की सलाह देते हैं. बेहद कम उम्र की महिलाओं के साथ भी ऐसा होता है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के द्वारा कराए गए एक अध्ययन से ये भी पता चलता है कि महिलाओं की बच्चेदानी निकलवाने के ग़ैर-ज़रूरी ऑपरेशन की फीस चुकाने के लिए जो कर्ज़ लिया गया उसकी वजह से कई परिवारों को कर्ज़ के जाल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ा. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के बीड ज़िले में हाल के समय में असाधारण रूप से ज़्यादा बच्चेदानी निकलवाने के मामले सामने आए हैं. ये मामले उन महिलाओं के बीच ख़ास तौर पर ज़्यादा दिखे हैं जो पड़ोस के ज़िलों में गन्ना काटने के लिए जाती हैं. और ज़्यादा छानबीन करने से इस बात की पुष्टि हुई कि स्थानीय डॉक्टर ने उन्हें बच्चेदानी निकलवाने की सलाह दी. डॉक्टर ने माहवारी से जुड़े दर्द और योनी से डिस्चार्ज की शिकायत के बाद सर्जरी कराने के लिए कहा था. 

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के द्वारा कराए गए एक अध्ययन से ये भी पता चलता है कि महिलाओं की बच्चेदानी निकलवाने के ग़ैर-ज़रूरी ऑपरेशन की फीस चुकाने के लिए जो कर्ज़ लिया गया उसकी वजह से कई परिवारों को कर्ज़ के जाल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ा.

बच्चेदानी निकालने की छिपी हुई क़ीमत 

ग़ैर-ज़रूरी होने के बावजूद बच्चेदानी निकालने का ऑपरेशन करने पर मामला गंभीर हो सकता है क्योंकि इस ऑपरेशन के कई साइड-इफेक्ट होते हैं. साथ ही ऑपरेशन के बाद भी मरीज़ पर असर होता है. महाराष्ट्र विधान परिषद के द्वारा कराए गए एक अध्ययन से पता चला कि बीड में ऑपरेशन करवाने वाली 13,861 महिलाओं में से 45 प्रतिशत से ज़्यादा ने ऑपरेशन के बाद जोड़ों में दर्द, पीठ दर्द, डिप्रेशन, अनिद्रा इत्यादि का अनुभव किया. दूसरे अध्ययनों से पता चला कि ऑपरेशन के बाद अंडाशय की दिक़्क़तें (ओवेरियन रिज़र्व रिडक्शन), दिल की बीमारी में बढ़ोतरी और जल्दी ऑस्टियोपोरोसिस समेत कई तरह के साइड इफेक्ट देखे जा सकते हैं. सर्जरी के बाद वज़न में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी भी सामान्य है जिसका ख़राब असर महिलाओं की फुर्ती और उनके काम करने की क्षमता पर पड़ता है. हिस्टरेक्टमी से जुड़ी एक और परेशानी है डायबिटीज़ होने की आशंका में बढ़ोतरी. सेहत पर ये ख़तरनाक असर भारत में बच्चेदानी निकालने के ऑपरेशन के इर्द-गिर्द नीति और क़ानून के बारे में सवाल उठाते हैं. 

नीतियां और क़ानून 

एक तरफ़ ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य से जुड़े स्कैंडल के समाधान के लिए केंद्र सरकार ने सरकारी अधिकारियों, स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में पैरवी करने वालों और समुदाय के दूसरे प्रतिनिधियों को मिलाकर एक टास्क फोर्स बनाया ताकि ग़ैर-ज़रूरी बच्चेदानी निकालने के ऑपरेशन को लेकर जागरुकता फैलाई जा सके और देश के अलग-अलग हिस्सों में हिस्टरेक्टमी के मामलों पर निगरानी रखी जा सके. दूसरी तरफ़ 2019 में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने भी भारत में हिस्टरेक्टमी के ऑपरेशन को लेकर सख़्त दिशानिर्देश का मसौदा तैयार करने पर काम शुरू किया था. स्त्री रोग विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व करने वाले पेशेवर संगठन फेडरेशन ऑफ ऑब्सटेट्रिक एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटीज़ ऑफ इंडिया ने भी 2019 में एक अभियान शुरू किया था जिसका शीर्षक ‘बच्चेदानी को बचाओ’ रखा गया था. इस अभियान का मक़सद बच्चेदानी को निकालने के बदले बच्चेदानी और उससे जुड़े टिशू की समस्या का ऑपरेशन के बिना इलाज करने के लिए डॉक्टर को प्रशिक्षित करना, इसकी वक़ालत करना था. इसके अलावा, ख़बरों के मुताबिक़ आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत केंद्र सरकार ऐसा आईटी सिस्टम बनाने के लिए काम कर रही है जो इस बात का संकेत देगा कि बच्चेदानी निकालने का ऑपरेशन पर्याप्त मंज़ूरी के बिना किया गया था और अभी और ज़्यादा मंज़ूरी की ज़रूरत है. इस योजना के तहत हिस्टरेक्टमी और सीज़ेरियन सेक्शन जैसे ऑपरेशन सरकारी अस्पतालों में भी हो सकेंगे. वैसे दूसरे जानकारों ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया है कि इस आदेश की वजह से हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन करवाने में महिलाओं को दिक़्क़त होगी. साथ ही इससे प्राइवेट सेक्टर को नियमों के दायरे में लाकर चिकित्सकीय नैतिकता के उल्लंघन से जुड़े असली मुद्दे के निपटारे के बदले महिलाओं को ज़रूरत के वक़्त ऑपरेशन कराने में दिक़्क़त होगी. 

स्त्री रोग विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व करने वाले पेशेवर संगठन फेडरेशन ऑफ ऑब्सटेट्रिक एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटीज़ ऑफ इंडिया ने भी 2019 में एक अभियान शुरू किया था जिसका शीर्षक ‘बच्चेदानी को बचाओ’ रखा गया था.

वैसे तो सरकार की तरफ़ से इस तरह की पहल तारीफ़ के लायक हैं लेकिन इस बात के बारे में बहुत कम जानकारी है कि इन्हें कितने असरदार ढंग से लागू किया गया है और क्या इनकी वजह से ग़ैर-ज़रूरी हिस्टरेक्टमी के ऑपरेशन की दर में कमी लाने में मदद मिली है. ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपने शरीर, सेहत और लाइफस्टाइल पर किसी महिला के अधिकार को, लाभ या ‘श्रम उत्पादकता’ जैसे आर्थिक फ़ायदों से किसी भी क़ीमत पर बदला नहीं जा सकता. इस बार के विश्व जनसंख्या दिवस पर ये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जिसकी थीम किसी व्यक्ति की पसंद और अधिकार को बनाए रखने की ज़रूरत के इर्द-गिर्द घूमती है. इस तरह इस मुद्दे पर लगातार आंकड़े जमा करना, ऑपरेशन के बारे में जागरुकता बढ़ाना और समय पर क़ानून को लागू करना ज़रूरी है. इससे ये सुनिश्चित किया जा सकता है कि हिस्टरेक्टमी किसी महिला के द्वारा अपनी पसंद को चुनने का तरीक़ा है न कि उनकी राह में रुकावट डालने का. 

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