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प्राकृतिक स्रोत आवश्यक तो हैं. लेकिन, पहाड़ी इलाक़ों के शहरों की जल सुरक्षा की जीवन रेखा के तौर पर इनकी अनदेखी होती रही है. इन स्रोतों को शहरों के लिए पानी की साझा पूंजी के तौर पर देखने से ऐसे शहर बनाने का रास्ता निकलेगा, जो जलवायु से चुनौती पाने वाले भविष्य में लचीले होंगे.
Image Source: Getty Images
ये लेख हमारी सीरीज़: विश्व जल सप्ताह 2025 का एक भाग है
तमाम पर्वतीय क्षेत्रों में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण ने सामाजिक और पर्यावरण संबंधी कमज़ोरियों को और गहरा कर दिया है. इसका सबूत हम उत्तराखंड के उत्तरकाशी में हाल ही में आई बाढ़ के दौरान देख चुके हैं. छीजते प्राकृतिक संसाधन और जलवायु परिवर्तन के संकट के साथ साथ बुनियादी सेवाओं पर बढ़ता दबाव, ये सब मिलकर शहरों में पानी की स्थिति को नई दिशा में धकेल रहे हैं और प्राकृतिक जोखिमों को उजागर कर रहे हैं. शहरों में पानी की बढ़ती असुरक्षा से निपटने के लिए हिमालय से लेकर एंडीज पर्वत तक, बसे पर्वतीय शहर बड़े स्तर के आपूर्ति पर आधारित बांध बना रहे हैं, जो पानी को दूर दराज़ के स्रोतों से उठा रहे हैं. इसमें मूलभूत ढांचे का ऊर्जा और लागत के बीच संतुलन बनाने की ज़रूरत पड़ती है, जिससे जलवायु परिवर्तन की वजह से शहर और भी नाज़ुक स्थिति की तरफ़ धकेले जा रहे हैं. इस हक़ीक़त को देखते हुए पहाड़ी झरने, शहरी जल व्यवस्थाओं के एक महत्वपूर्ण मगर अक्सर अनदेखी के शिकार होने वाले तत्व के तौर पर उभर रहे हैं. प्राकृतिक स्रोत, असल में ज़मीन के भीतर के पानी के ख़ुद ब ख़ुद निकल आने का नतीजा होते हैं. ये चश्मे ऐतिहासिक दौर से स्थानीय आबादियों के लिए कारगर साबित होते रहे हैं. हिमालय, एंडीज़ और पूर्वी अफ्रीका के ऊंचे इलाक़ों में बसे बहुत से पर्वतीय शहरों और ख़ास तौर से असंगठित और शहरों के बाहरी इलाक़ों वाली बस्तियों में ये स्रोत पानी की रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं. हालांकि, इनके बेहद अहम होने के बावजूद शहरों में पानी की संगठित आपूर्ति की किसी भी व्यवस्था की योजना बनाने या फिर प्रशासन में इन स्रोतों की अनदेखी की जाती है. जिससे ज़मीन के इस्तेमाल में तब्दीली और जल के स्रोत का क्षरण होने से इन चश्मों के अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो जाता है.
पहाड़ी स्रोत बेहद अहम सामाजिक-पारिस्थितिकी व्यवस्थाएं होते हैं, जो इकोसिस्टम को बहुत सी सेवाएं देते हैं. इनमें खेती और इस्तेमाल के लिए पानी मुहैया कराना शामिल है. ये चश्मे रोज़गार देते हैं, जैव-विविधता को बढ़ाते हैं और साथ ही साथ इनकी सांस्कृतिक और धार्मिक अहमियत भी होती है. अगर कोई सोता पूरे साल प्रति मिनट दस लीटर पानी भी देता है, तो साल भर में उसकी कुल क्षमता 5,000 घन मीटर होती है. इसको अगर हम हिमालय में इस वक़्त मौजूद कम से कम 20 लाख से गुणा करें, तो इसका मतलब है कि इन झरनों से हर साल 25 अरब घन मीटर पानी निकलता है.
कई अध्ययनों में पाया गया है कि हिमालय के नेपाल वाले हिस्से में ग्लेशियर और बर्फ़ पिघलने से छह गुना ज़्यादा पानी भूगर्भ जल से प्राप्त होता है. गंगा नदी पर किए गए ऐसे ही अध्ययनों में भी भूगर्भीय स्रोतो की महत्ता पर बल दिया गया है.
स्रोत, नदियों और नदियों से जुड़े इकोसिस्टम में पानी के बुनियादी प्रवाह को भी सुनिश्चित करते हैं. कई अध्ययनों में पाया गया है कि हिमालय के नेपाल वाले हिस्से में ग्लेशियर और बर्फ़ पिघलने से छह गुना ज़्यादा पानी भूगर्भ जल से प्राप्त होता है. गंगा नदी पर किए गए ऐसे ही अध्ययनों में भी भूगर्भीय स्रोतो की महत्ता पर बल दिया गया है. मोटे तौर पर क़रीब 20 करोड़ भारतीय (15 प्रतिशत से अधिक आबादी) हिमालय, पश्चिमी और पूर्वी घाट, अरावली और दूसरी पर्वत श्रृंखलाओं के पहाड़ी स्रोतों पर निर्भर करती है. इन चश्मों का पानी कम होने से न केवल स्थानीय स्तर पर भूगर्भ जल का भंडार कम होता है, बल्कि इससे नदियों की बनावट पर भी बुरा असर पड़ता है, जिससे लोगों की ज़िंदगी और रोज़ी-रोज़गार ख़तरे में पड़ता है. हिमालय के भारतीय हिस्से में पहाड़ियों या घाटियों के किनारे बसे शहरों के पास घाटी से गुज़रने वाली नदियों तक पहुंच का ज़रिया नहीं होता और वो दूर-दराज़ के स्रोतों से पानी उठाने के लिए बेहद अधिक लागत और ऊर्जा वाली प्रक्रियाओं के भरोसे होते हैं. हालांकि, क़रीब 60 प्रतिशत आबादी, ख़ास तौर से निचले तबक़े के लोग अभी भी अपनी ज़रूरत के पानी के प्राथमिक स्रोत के तौर पर पहाड़ी चश्मों के भरोसे होते हैं. इसके अलावा, भारत के हिमालय क्षेत्र में हर साल औसतन 10 करोड़ पर्यटक भी जाते हैं, जिससे पानी के दुर्लभ संसाधनों पर दबाव और भी बढ़ जाता है.
जलवायु परिवर्तन के साथ मिलकर मानवीय गतिविधियों जैसे कि जंगलों की कटाई, बेलगाम शहरीकरण, ज़मीन के इस्तेमाल में परिवर्तन और विकास के अस्थायी परियोजनाएं, हिमालय में पानी के स्रोतों में आ रही कमी के लिए ज़िम्मेदार हैं. मौसम की भयंकर घटनाएं जैसे कि भूकंप, अचानक बाढ़ का आना और ग्लेशियर की झील के टूटने से भयंकर बाढ़ आने जैसी घटनाओं से चुनौतियां और बढ़ रही हैं. उत्तराखंड पेयजल निगम द्वारा किए गए राज्य के 500 चश्मों के सर्वेक्षण में पता चला है कि 93 स्रोतो का 90 प्रतिशत जल प्रवाह ख़त्म हो चुका है. 268 स्रोतों का 75 से 90 प्रतिशत पानी का प्रवाह समाप्त हो चुका है और बाक़ी के 139 चश्मों ने पिछले तीन सालों के दौरान अपने जल प्रवाह का 50 से 75 हिस्सा गंवा दिया है. वैसे तो भूगर्भ जल के इन स्रोतों के पानी को गहरे स्थानों से निकले और प्राकृतिक फिल्टरिंग की वजह से साफ़ माना जाता है. लेकिन, इनमें सीवेज और ख़राब पानी का बहाव जुड़ने की वजह से हिमालय के बहुत से चश्मों का पानी प्रदूषित हो चुका है. भारत की कश्मीर घाटी में 258 स्रोतों पर किए गए एक अध्ययन को 2022 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया था. इस अध्ययन में पाया गया था कि इन चश्मों में से 6.2 प्रतिशत का पानी प्रदूषित होने की वजह से पीने के लायक़ ही नहीं बचा था.
जल जीवन मिशन और हर घर जल जैसी बहुत सी केंद्रीय योजनाएं पहाड़ी इलाक़ों में प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर हैं. ऐसे में छीजते क़ुदरती चश्मों का मतलब, पानी की तलाश में और दूर तक जाना होगा. शहरी इलाक़ों में स्थित प्राकृतिक स्रोतों की संस्थागत अनदेखी, पानी के प्रबंधन की एक बड़ी दिक़्क़त की तरफ़ इशारा करते हैं, जिसमें पारिस्थितिकी के ज्ञान के बजाय पानी की इंजीनियरिंग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है. इससे शहरी/ ग्रामीण बनाम पारंपरिक/आधुनिक का टकराव दिखाई देता है, जहां स्रोतों को ग्रामीण इलाक़ों का हल समझा जाता है वहीं शहरी इलाक़ों के लिए तकनीकी समाधान और केंद्रीकृत तर्क से जोड़ा जाता है. ये तरीक़ा प्राकृतिक चश्मों को एक विकेंद्रीकृत साझा शहरी संसाधन के तौर पर और भी हाशिए पर धकेल देता है.
पानी के जिन संसाधनों का मिलकर इस्तेमाल होता है, संयुक्त रूप से प्रबंधन किया जाता है और जो सामाजिक पारिस्थितिकी रूप से शहरों के भीतर होते हैं, वो शहरी साझा जल स्रोत कहे जाते हैं. जब संयुक्त दृष्टिकोण से देखा जाए, तो पहाड़ी चश्मे ख़ास तौर से शहरी ग़रीबों के लिए पानी के शहरी मूलभूत ढांचे का अहम हिस्सा होते हैं, जहां पानी की आपूर्ति की संगठित व्यवस्था अक्सर पहुंच पाने में असफल होती है. इसका नतीजा ये होता है कि इस्तेमाल करने वालों की बहुलता और संस्थानों की विविधता के चलते चश्मों पर अक्सर तमाम तरह की दावेदारियां होती हैं. मालिकाना हक़ जताकर पहुंच सीमित की जाती है. जहां आम लोग खुलकर ज़्यादातर स्रोतों से पानी हासिल करते हैं, वहीं कुछ चश्मे ऐसे भी होते हैं जिनका पानी गिने चुने परिवार ही उपयोग करते हैं, और जिन तक सबकी खुली पहुंच नहीं होती. पानी के स्रोतों का इस्तेमाल होटलों और टैंकर से जलापूर्ति करने वालों जैसे कारोबारी उपभोगकर्ता भी बिना किसी नियम क़ायदे के करते हैं. इस जटिलता को देखते हुए पानी के स्रोत के प्रबंधन को भूगर्भ जल संसाधनों के सामुदायिक नेतृत्व वाले समाधान के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए, ताकि चश्मों का लंबे समय तक उपयोग जारी रखने और टिकाऊ व लचीला बनाए रखने के लिए सामुदायिक नेतृत्व सुनिश्चित किया जा सके.
अमूनास का संबंध पूर्व इंका दौर के सामुदायिक प्रशासन से है, जिसे ‘एल कमाचिको’ कहा जाता है, जिसमें समुदाय का हर सदस्य अमुना व्यवस्था के रख-रखाव के लिए ज़िम्मेदार होता है.
पेरू में एंडीज़ पर्वतमाला के अनुभव दिखाते हैं कि इंका सभ्यता से पूर्व प्रकृति पर आधारित पानी के दोहन की नहरें, जिनको ‘अमुनास’ कहा जाता है, और जिनका निर्माण पहाड़ों की ढलान के अनुरूप किया गया था, ताकि झरझरे बेसिन से पूरे बरसात के मौसम के दौरान पेड़ों के बीच से पानी की तेज़ धार का प्रवाह सुनिश्चित हो सके. ये व्यवस्था पानी को ज़मीन के भीतर जाने में मदद करती थी, जो बाद में निचले इलाक़ों में चश्मों के रूप में बाहर आता था और फिर जिसका उपयोग सिंचाई, रोज़ी-रोज़गार और घरेलू ज़रूरतों के लिए किया जाता था और साथ ही साथ सूखे के जोखिम से भी निपटने में मदद मिलती थी. अमूनास का संबंध पूर्व इंका दौर के सामुदायिक प्रशासन से है, जिसे ‘एल कमाचिको’ कहा जाता है, जिसमें समुदाय का हर सदस्य अमुना व्यवस्था के रख-रखाव के लिए ज़िम्मेदार होता है. पेरू के सैन पेड्रो डे कास्टा में लोग हर साल अक्टूबर महीने में एक हफ़्ते के लिए नहरों की सामुदायिक साफ़ सफ़ाई के लिए इकट्ठा होते हैं, ताकि अपने गुज़र चुके पुरखों को श्रद्धांजलि दे सकें. अब पेरू बहुत कामयाबी से अक्वाफोंडो के ज़रिए अमुनास में नई जान डाल रहा है, और रिसर्च करने वाले ये मानते हैं कि घास के मैदानों के संरक्षण और खेती के टिकाऊ तौर तरीक़ों की मदद से ये अमुना, पेरू के शहरों को भविष्य में होने वाली पानी की क़िल्लत से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित होंगे.
भारत में सिक्किम सरकार के ग्रामीण प्रबंधन और विकास विभाग (RMDD) ने धारा विकास कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका मक़सद राज्य की मरती हुई झीलों, चश्मों और पानी की प्राकृतिक धाराओं को हाइड्रोजियोलॉजिकल मैपिंग, कैचमेंट इलाक़े के ट्रीटमेंट, ट्रेंचिंग और जंगलों को दोबारा बहाल करने जैसे उपायों के ज़रिए पुनर्जीवित किया जाए और पानी के स्रोतों को समृद्ध बनाया जाए. इस कार्यक्रम के तहत प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की भूमिका को प्राथमिकता दी जाती है. सूक्ष्म स्तर का योजना निर्माण सामुदायिक जागरूकता और संवाद से शुरू होता है, जिससे काम से संबंधित सभी फ़ैसलों पर सामूहिक परिचर्चा सुनिश्चित होती है और समस्याओं का समाधान पंचायत और गांव स्तर के मंचों पर किया जाता है. इसी तरह नेपाल के समुदाय पर आधारित काठमांडू घाटी के चश्मों को पुनर्जीवित करने के कार्यक्रम, पारंपरिक स्रोतों और पथरीले इलाक़ों के चश्मों का उपयोग करते हैं, ताकि घरेलू और रीति रिवाज संबंधी काम में उपयोग आ सके.
ये सभी उदाहरण ये संकेत देते हैं कि पानी के संयुक्त रूप से प्रबंधन वाले मॉडल आम लोगों के विज्ञान, पारिस्थितिकी पुनर्निर्माण और संस्थागत मान्यता देने के सामूहिक मूल्य को स्वीकार किया जाता है. इन्वेंटरी एंड रिवाइवल ऑफ स्प्रिंग्स इन द हिमालयाज़ फॉर वाटर सिक्योरिटी पर वर्किंग ग्रुप I ने 2018 में अपनी रिपोर्ट में हिमालय क्षेत्र में चश्मों को पुनर्जीवित करने की रूप-रेखा पर आधारित एक राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाने की सिफ़ारिश की थी. वैसे तो ये अहम उपलब्धियां हैं. लेकिन, ऐसे प्रयासों को ग्रामीण क्षेत्रों से आगे बढ़ाना होगा और शहरी जल प्रबंधन को भी इसके दायरे में लाना होगा.
पानी के स्रोतो में पीने के पानी की बढ़ती मांग पूरी करने के अहम विकल्प मुहैया कराने की काफ़ी संभावनाएं हैं. पर्वतीय क्षेत्रों के जल प्रशासन के एक अहम साझा विरसे के तौर पर पहाड़ी स्रोतो और झरनों के संरक्षण पर ध्यान देने की ज़रूरत है. जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौती को देखते हुए स्रोतो के संरक्षण को और गंभीरता से लेने की आवश्यकता है. स्रोतो को बहाल करना, इन समस्याओं के समाधान एक कम ऊर्जा खपत वाला, स्थानीय रूप से अनुकूलन का विकल्प है, जो जलवायु के प्रति सहनशील है और जिससे पहाड़ी शहरों में रोज़ी-रोज़गार और इकोसिस्टम को सुरक्षित बनाया जा सकता है. स्प्रिंगशेड के प्रबंधन का जल के स्रोत पर आधारित ऐसा तरीक़ा चश्मों को पुनर्जीवित करने में काफ़ी संभावनाएं जगाता है जिसमें विज्ञान, साझेदारी और सामुदायिक भागीदारी शामिल हो. इसके लिए पहाड़ी क्षेत्रों के हिसाब से एक व्यापक और हर संदर्भ के मुताबिक़ ख़ास जल प्रबंधन नीति बनाने की ज़रूरत है. सिक्किम की विकास धारा जैसे सफल कार्यक्रम, समुदायों के नेतृत्व वाले प्रयासों के परिवर्तनकारी प्रभाव को दिखाते हैं, जो शहरों में जल प्रशासन की व्यापक नीति निर्माण में उपयोगी साबित हो सकते हैं. लंबी अवधि में सहनशीलता के लिए पहाड़ी शहरों में शहरी जल योजना निर्माण के दौरान स्रोतो को शहरों में जल के मूलभूत ढांचे के एक अहम पहलू के तौर पर देखा जाना चाहिए और संगठित योजना निर्माण की रूप-रेखाओं में उन्हें भी शामिल किया जाना चाहिए.
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Soma Sarkar is an Associate Fellow with ORF’s Urban Studies Programme. Her research interests span the intersections of environment and development, urban studies, water governance, Water, ...
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