राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लोक स्वास्थ्य के लिहाज से कचरा प्रबंधन और वायु प्रदूषण सबसे अहम मुद्दे बनते जा रहे हैं। कचरे के प्रबंधन और निष्पादन की खराब और जहरीली व्यवस्था से दिल्ली की हवा की दशा और खराब हो रही है। इसके अलावा, गंगा राम अस्पताल की ओर से किए गए अध्ययन में पता चला है कि दिल्ली की 50% आबादी फेफड़े के कैंसर के खतरे की जद में है, भले ही वह धुम्रपान नहीं करते हों। संभवतः समय आ गया है जब इस मामले में हमें खतरे की घंटी को तुरंत सुन लेना चाहिए।
प्रदूषण और स्वास्थ्य पर लैंसेट आयोग की रिपोर्ट में 2015 के दौरान 25.1 लाख मौतों के साथ भारत को प्रदूषण से होने वाली मौतों के मामले में सबसे ऊपर रखा गया है। इसके अलावा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से जारी वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2017 (दिल्ली) भी दिखाती है कि 2017 के दौरान पूरे वर्ष में सिर्फ 45 दिन ही ऐसे थे जब दिल्ली की हवा की गुणवत्ता संतोषजनक रही। इस वर्ष मई तक दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में सिर्फ एक ही दिन ऐसा रहा जब हवा की गुणवत्ता संतोषजनक बताई जा सके। एयर क्वालिटी इंडेक्स के मानकों के मुताबिक संतोषजनक वायु दिवस स्वीकार्य हैं; इसके बावजूद स्वसन तंत्र संबंधी समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए इस दौरान मुश्किल आती है।
दिल्ली की वायु गुणवत्ता खतरनाक रफ्तार से गिर रही है। इसके मुख्य कारणों में डीजल, पेट्रोल और कोयले के दहन से होने वाला (50%), बायोमास जलाने से (20%) और उद्योगों से (20%) होने वाला प्रदूषण शामिल है। इसके अलावा धूल भी एक अहम कारण है। इन मामलों में कचरा प्रबंधन व्यवस्था जिस तरह दिल्ली के वायु प्रदूषण को बढ़ाती है, उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। बिजली संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन की ही तरह शहर में मौजूद कचरा प्रबंधन व्यवस्था भी दिल्ली की पहले से ही बेहद खराब हो चुकी हवा में खतरनाक अवयव घोलती हैं।
दिल्ली में कचरा प्रबंधन के लिए जिम्मेवार पांच नगर निगम यह काम दो तरीके से करते हैं। रोजाना दिल्ली में 9,500 टन कचरा पैदा होता है, जिसे या तो तीन सुनिश्चित लैंडफिल साइट पर गिराया जाता है या फिर इन्हें तीन ‘कचरे से ऊर्जा’ तैयार करने वाले प्लांट तक पहुंचाया जाता है जो राष्ट्रीय राजधानी में बनाए गए हैं।
लैंडफिल साइट पर निगमों के कचरे में मिले खाद्य कचरे के ऑर्गेनिक डिकंपोजीशन से काफी खतरनाक गैसें निकलती हैं। यहां पैदा होने वाली गैसों में लगभग 50% मीथेन है। कार्बन डायऑक्साइड का हिस्सा 45% होता है और बाकी में नाइट्रोजन, ऑक्सिजन, हाइड्रोजन और दूसरी गैसें होती हैं। उत्सर्जन के दो मुख्य अवयव जो कार्बन डायऑक्साइड और हाइड्रोजन हैं, इन्हें जीएचजी (ग्रीनहाउस गैस) माना गया है जो दिल्ली की वायु गुणवत्ता को और खराब कर रही हैं।
इस कचरे को निपटाने की जो वैकल्पिक व्यवस्था है वह पर्यावरण और विभिन्न जीवों के लिए इससे uभी ज्यादा खतरनाक है। कचरे से ऊर्जा तैयार करने वाले प्लांट से निकलने वाला उत्सर्जन भी इन पर गंभीर प्रभाव डालता है। दिल्ली में स्थित कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों में चार तरह के कचरे पहुंचते हैं। ये हैं — प्लास्टिक कचरा, एलेक्ट्रॉनिक कचरा, बायोमेडिकल कचरा और निर्माण और निर्माण को गिराए जाने से पैदा हुआ कचरा। इस कचरे को जलाया जाना ना सिर्फ बेहद अनुपयोगी है, बल्कि बहुत खतरनाक भी है, क्योंकि इससे बहुत खतरनाक उत्सर्जन होता है। यह ध्यान देना बेहद जरूरी है कि इस प्रक्रिया में जैविक इंधन आधारित ऊर्जा स्रोत (जिसमें कोयला, इंधन बिजली संयंत्र शामिल हैं) से होने वाले उत्सर्जन से ज्यादा सीओ2 प्रति मेगावाट प्रति घंटे का उत्सर्जन होता है। टुकड़ों में बांटे गए क्लोरिनेटेड प्लास्टिक और निगम का ठोस कचरा जिसे उपयोग के बिंदू या स्रोत पर अलग-अलग नहीं किया जाता, वे बेहद जहरीले तत्व उत्सर्जित करते हैं। इनमें डायऑक्सिन, फर्नेस, हैवी मेटल और दूसरे प्रदूषणकारी तत्व शामिल हैं जो कैंसर तक के कारण बनते हैं। इन इनसिनरेटर से जहरीली राख और धूल भी पैदा होती है जिसे लैंडफिल में पहुंचाना जरूरी होता है। इस राख में हैवी मेटल और गैस के रूप में प्रदूषण शामिल होता है जो जहरीला होता है और भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर देता है।
वर्ष 2013 में सुखदेव विहार, नई दिल्ली के नागरिकों ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में वाद दायर किया था जिसमें तिमारपुर ओखला के कचरे से ऊर्जा तैयार करने वाले संयंत्र को बंद करने का अनुरोध किया गया था। इसे दिसंबर, 2014 तक प्रदूषण सीमा का उल्लंघन करता पाया गया था। इसके बावजूद प्राधिकरण ने इसे बंद करने के खिलाफ फैसला दिया। इसने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति को ज्यादा सख्त गुणवत्ता जांच के लिए कहा और पर्यावरण मुआवजे के तौर पर 25 लाख रुपये का जुर्माना तय किया, क्योंकि इसने दिसंबर, 2014 तक अनुपालन नहीं किया। इन रिपोर्ट के सामने आऩे और इन्हें एनजीटी के सामने पेश किए जाने के बावजूद इस संयंत्र को सीबीसीबी/डीपीसीसी और एनजीटी से अगले आदेश के आने तक अपनी अधिकतम क्षमता से संचालित किए जाने को हरी झंडी दे दी गई। आज की तारीख तक, इस संयंत्र की अंतिम एंबिएंट एयर क्वालिटी रिपोर्ट श्रीराम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल रिसर्च की ओर से दिसंबर, 2015 में पेश की गई थी। नतीजे आए हुए लगभग तीन साल हो गए हैं। इन्हें निचे दी गई टेबल में देखा जा सकता है —यह साफ देखा जा सकता है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के फैसले के कुछ ही महीनों के बाद, दिसंबर, 2015 तक यह संयंत्र 12 में से पांच श्रेणियों में प्रदूषण की तय सीमा का उल्लंघन कर रहा था। ये श्रेणियां हैं — रेस्पिरेबल पर्टिकुलेट मैटर (पीएम 10), फाइन पर्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5), ओजोन (ओ 3), बेजीन (सी6 एच6) और निकेल (एनआई)। ये सभी पर्यावरण और लोक स्वास्थ्य के लिए बेहद जहरीले और खतरनाक हैं। यहां एक और बिंदू अहम है कि ये नतीजे सिर्फ 24 घंटे की अवधि के उत्सर्जन की जांच पर आधारित हैं। अगर यह महीने या साल भर की अवधि की जांच पर आधारित हो तो इससे और गंभीर नतीजे दिखेंगे।
ऊपर बताए मामले से स्पष्ट है कि पर्यावरण संबंधी अन्याय कैसे हो रहा है और किस तरह कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए हजारों लोगों को कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों से निकलने वाले उत्सर्जन को अपनी सांसों के जरिए शरीर में उतारने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जब इन मामलों को न्यायिक व्यवस्था के दरवाजे पर लाया गया तो इनके फैसले संयंत्रों को संचालित करने वाले कारपोरेट के हित में ही गए और इन संयंत्रों की वजह से प्रदूषण झेलने वाले हजारों लोग जिस तरह बीमारियों से ग्रसित होने को मजबूर हैं, उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला।
इसके बावजूद यह सवाल उठता है कि ‘दिसंबर, 2015 में ऐसे नतीजे मिलने के बावजूद इस पर और जांच क्यों नहीं करवाई गईं?’ इस मामले से संबंधित सबसे ताजा खबर 2017 में आई थी जिसमें दर्शाया गया था कि सीबीसीबी किस तरह एंबिएंट एयर क्वालिटी की नियमित जांच करने में अक्षम हैं। न्यायिक व्यवस्था, प्रदूषण पर नियंत्रण रखने वाली एजेंसियों और ऐसी परियोजनाओं को बनाने वाले कारपोरेट के बीच संबंध पर एक बार फिर से ध्यान देने की जरूरत है।
ऐसी चर्चा के बीच शहर में गाजीपुर और नरेला में स्थित कचरे से ऊर्जा बनाने वाले दो अन्य संयंत्र को आसानी से नजरअंदाज कर दिए जाने का खतरा भी है। ये दोनों संयंत्र 36 मेगावॉट बिजली पैदा करते हैं, लेकिन दोनों में से किसी में भी नियमित रूप से उत्सर्जन संबंधी उल्लंघन की नियमित जांच की व्यवस्था नहीं है। सुखदेव विहार के संयंत्र के पास रहने वाले लोगों की ओर से रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने तो राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के दरवाजे खटखटा दिए थे, लेकिन बाकी दोनों संयंत्र ऐसी जगहों पर स्थित हैं जो शहर के कम विकसित इलाके हैं। इन संयंत्रों के आस-पास रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इनके कुप्रभाव को समझने इन संयंत्रों के संचालन को जारी रखने के खिलाफ प्रदर्शन करने की अक्षमता यह भी दिखाती है कि पर्यावरण को ले कर राजधानी में किस तरह का वर्ग विभेद भी मौजूद है।
ये कचरे से ऊर्जा तैयार करने वाले संयंत्र कोई 21वीं सदी की ही देन नहीं हैं, बल्कि 19वीं शताब्दी से ही इन्हें हरित विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। पिछले तीन दशकों में बहुत से शोधों में इन संयंत्रों के हानिकारक प्रभाव को समझने की कोशिश की गई है साथ ही वैकल्पिक तरीके भी सुझाए गए हैं, जिनसे इन्हें सुरक्षित तरीके से संचालित किया जा सके। वायु प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए तात्कालिक समाधान में कचरे को अलग-अलग करने की उपयुक्त व्यवस्था स्थापित करना, कचरे का पुनर्वर्गीकरण और कचरे से ऊर्जा पैदा करने वाले संयंत्रों के आस-पास एंबिएंट एंयर क्वालिटी के अध्ययन के लिए उपयुक्त उपकरण की व्यवस्था शामिल हैं। इसी तरह दीर्घकालिक उपायों के तौर पर ऑटोक्लेव और माइक्रोवेव लो हीटिंग जैसी तकनीक के विकल्प जो बायोमेडिकल कचरे के दहन से पहले उन्हें संक्रमणमुक्त कर सकते हैं उन्हें अपनाना हो सकता है। इससे कचरे के दहन के उपरांत पैदा होने वाले डायऑक्सिन और फरनेस की मात्रा कम हो जाएगी।
दिल्ली में हवा की गुणवत्ता में आ रही खराबी की दर अभूतपूर्व है और इसकी वजह से लोक स्वास्थ्य पर होने वाला कुप्रभाव स्पष्ट है। इसके दो करोड़ नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए राष्ट्रीय राजधानी में क्रमिक रूप से परिवर्तन लाने और जरूरी समाधानों के क्रियान्वयन की जरूरत है। इसे नियामकों और न्यायिक व्यवस्था की मदद से किया जा सकता है।
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