Author : Rumi Aijaz

Published on Feb 17, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत में परिनगरीय क्षेत्रों के तेजी से शहरीकरण के लिए लक्षित और नियोजित कार्रवाई  की ज़रूरत है जिससे शहरों को स्थायी रूप से विकसित किया जा सके. 

शहरों की परिधि के इलाकों में होने वाले बदलाव को कैसे निर्देशित किया जाए

जैसा कि नाम से ही संकेत मिलता है कि परिनगरीय क्षेत्र (पीयूए) शहरों की परिधि के इलाक़े होते हैं. भारत के पीयूए में  बस्तियां, गांव, शहरी गांव, मलिन बस्तियां, अनधिकृत कॉलोनियां  और जनगणना शहर जैसे अलग-अलग तरह की संरचनाएं पाई जाती हैं. इसके साथ ही  खाली ज़मीन की उपलब्धता के कारण पीयूए में कई नियोजित हाउसिंग कॉलोनियां और टाउनशिप भी उभर कर सामने आई हैं.

पीयूए में होने वाले बदलाव को बढ़ती जनसंख्या घनत्व, भूमि उपयोग और व्यावसायिक तौर तरीकों में परिवर्तन, कम कृषि भूमि, और निर्मित संरचनाओं (आवासीय, वाणिज्यिक, संस्थागत और औद्योगिक) के विकास के रूप में देखा जाता है.

बड़े शहरों से सटे कई पीयूए की ग्रामीण ख़ासियत यहां बसने वाली आबादी के प्रवास के साथ ही कई बदलाव के दौर से गुजर रही हैं.  ऐसे लोग जो ज़्यादा लागत या घरों की अनुपलब्धता के कारण शहरों में रहने में असमर्थ हैं, वे ऐसे इलाके में रहते हैं. इस तरह पीयूए में वैसे लोग रहते हैं जो वहां की मूल आबादी हैं और  कृषि आधारित गतिविधियों में लगे रहते हैं जबकि जो लोग बाहर से पलायन करते हैं वो भी यहां रहते हैं और जो गैर-कृषि गतिविधियों में जुटे रहते हैं.

विकास के रूप में देखा

 पीयूए में होने वाले बदलाव को बढ़ती जनसंख्या घनत्व, भूमि उपयोग और व्यावसायिक तौर तरीकों में परिवर्तन, कम कृषि भूमि, और निर्मित संरचनाओं (आवासीय, वाणिज्यिक, संस्थागत और औद्योगिक) के विकास के रूप में देखा जाता है.

पीयूए में रहने वाले बहुत से लोग इस बदलाव से लाभान्वित होते हैं.  क्योंकि यहां ज्ञान और विचारों का आदान-प्रदान होता है.  नई आय उत्पन्न करने वाली गतिविधियां पैदा होती हैं. इसके साथ ही इन इलाकों में कई प्रतिकूल प्रभाव भी दिखाई देते हैं. यह लेख परिनगरीय क्षेत्रों में देखी गई मूलभूत समस्याओं के बारे में बताता है और उन्हें दूर करने के लिए उपाय भी सुझाता है.

कहा जा सकता है कि जब एक पारिस्थितिकी तंत्र की सहने की क्षमता उसकी सीमा तक पहुंच जाती है तो उसका प्रभावित होना तय है. ठीक ऐसा ही भारत के कई परिनगरीय इलाक़ों में हो रहा है.  शहरीकरण के कारण उत्पन्न दबाव की वज़ह से ये क्षेत्र ज़बर्दस्त तनाव में देखे जा सकते हैं.

कहा जा सकता है कि जब एक पारिस्थितिकी तंत्र की सहने की क्षमता उसकी सीमा तक पहुंच जाती है तो उसका प्रभावित होना तय है. ठीक ऐसा ही भारत के कई परिनगरीय इलाक़ों में हो रहा है.  शहरीकरण के कारण उत्पन्न दबाव की वज़ह से ये क्षेत्र ज़बर्दस्त तनाव में देखे जा सकते हैं.

पहला मुद्दा तो भूमि उपयोग के अंधाधुंध रूपांतरण से जुड़ा हुआ है.  नई संरचनाओं और गैर-कृषि आर्थिक गतिविधियों के बढ़ने से खुले स्थान, हरे-भरे क्षेत्र और खेत तेजी से कम हो रहे हैं. ऐसे बदलाव का कृषक समुदाय के जीवन और आजीविका पर नकारात्मक असर हो रहा है,  जो अंत में गैर-कृषि क्षेत्रों में काम की तलाश में जुट जाते हैं.  हुबली-धारवाड़, जम्मू और पश्चिम बंगाल के जनगणना शहरों में पीयूए क्षेत्र की केस स्टडी ऐसी चिंताओं को उजागर करते हैं.

दूसरी समस्या अनियमित विकास को लेकर है. ज़्यादा मांग के कारण नई संरचनाएं बेतरतीब तरीक़े से बढ़ती ही जा रही हैं. हालत ये है कि कई इमारतें सुरक्षा मानकों पर भी  खरी नहीं उतरती हैं.  इसके अलावा, निजी बिल्डरों द्वारा पीयूए क्षेत्र को धीरे-धीरे उपनिवेश बनाया जा रहा है. वे ग्रामीणों को आकर्षक कीमतों की पेशकश करके उनको ज़मीन बेचने पर राजी करते हैं और जब ज़मीन की क़ीमतें बढ़ जाती हैं तब कृषि योग्य भूमि को अवैध तरीक़े से  हिस्सेदारी कर उसे लोगों को बेचते हैं. ऐसा हैदराबाद और चेन्नई के पीयूए इलाक़े में देखा गया है जहां ग्रामीणों को रियल एस्टेट के दलालों ने गुमराह किया और उनके चक्कर में पड़कर लोगों ने अपनी ज़मीन गवां दी.

अनियोजित संरचनाओं का विकास

पीयूए क्षेत्र में अनौपचारिक/अनियोजित संरचनाओं का विकास जैसे कि झुग्गी बस्तियां और अनधिकृत कॉलोनियां तीसरा मुद्दा है.  मुश्किल ये है कि ऐसी संरचनाएं नियोजित आवासीय या कार्य क्षेत्रों के पास उभरते जा रहे हैं. यहां रहने वाले लोग नियोजित क्षेत्रों में मकान ख़रीदने या किराए पर लेने में असमर्थ होते हैं. तो कई पड़ोसी नियोजित कॉलोनियों में रहने वाले लोगों को घरेलू मदद की सेवाएं देते हैं लेकिन उनके ख़ुद की रहने की स्थिति बेहद दयनीय होती है.  इस प्रकार के विकास के उदाहरण जयपुर और फरीदाबाद में मौजूद हैं.

इन सभी चिंताओं से संबंधित जीवन की निम्न गुणवत्ता का सवाल भी जुड़ा है. इन बसावटों की अवैध स्थिति को देखते हुए,  झुग्गी-झोपड़ी और अनधिकृत कॉलोनियों में बुनियादी सुविधाएं जैसे पानी और स्वच्छता तक मयस्सर नहीं होती हैं.  यही वज़ह है कि यहां रहने वाले लोग अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अवैध रूप से भूजल का दोहन करने लगते हैं  लेकिन पानी की बढ़ती मांग के साथ  मूल आबादी, उनकी फसल और पशुधन की आवश्यकताएं बुरी तरह प्रभावित होती हैं.

पीयूए क्षेत्र में अनौपचारिक/अनियोजित संरचनाओं का विकास जैसे कि झुग्गी बस्तियां और अनधिकृत कॉलोनियां तीसरा मुद्दा है.  मुश्किल ये है कि ऐसी संरचनाएं नियोजित आवासीय या कार्य क्षेत्रों के पास उभरते जा रहे हैं.

इसके बाद ड्रेनेज़ की समस्या सामने आती है. एक ओर जहां अनियमित तरीक़े से नई बिल्डिंग खड़ी की जा रहीं हैं तो वहीं दूसरी ओर ड्रेनेज़ सिस्टम को लेकर कोई व्यवस्था नहीं की गई है. इससे मॉनसून के दौरान जलभराव की समस्या पैदा होती है और फिर ये इलाक़े मच्छरों के पैदा होने की जगह बन जाते हैं, जिसकी वजह से मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियां होती हैं. ऐसे इलाक़ों में कचड़ा फेंकने को लेकर भी प्रबंधन लचर दिखती है. कचड़े को उठाने की कोई सेवा उपलब्ध नहीं होने पर लोग खेती लायक भूमि के इर्द-गिर्द ही कचड़ा फेंकने लगते हैं.

एक और मुद्दा महिला सुरक्षा का है. महिला उत्पीड़न की लगातार होती घटनाएं शहरी जीवन में योगदान करने की उनकी क्षमता को कम करती हैं साथ ही  उनके लिए उपलब्ध मौकों को भी सीमित करती हैं.

फिर, जनसंख्या विस्थापन का भी मुद्दा है. कभी-कभी, झुग्गी-झोपड़ियों और अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले कथित तौर पर ‘अनधिकृत तौर पर कब्ज़ा जमाकर रखने वालों’ को सरकार के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट  जैसे, क्षेत्रीय सड़क / रेल कॉरिडोर के निर्माण के लिए भी हटा दिया जाता है. यह दिल्ली की सीमा से सटे गुरुग्राम में देखा गया जहां लोगों ने सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया.  कई लोग नई जगह पर स्थानांतरण से नाखुश रहे. अन्य मौकों पर  स्थानीय आबादी, जिसमें छोटे किसान/भूमिहीन मज़दूर भी शामिल हैं, शहरीकरण के विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो गए. भूमि उपयोग में बदलाव की वज़ह से भी उनका काम प्रभावित हुआ है.

 अच्छी और भरोसेमंद सार्वजनिक परिवहन सेवाओं तक लोगों की पहुंच भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. शहर के सीमावर्ती इलाक़े में रहने की वज़ह से कई पीयूए क्षेत्र सार्वजनिक परिवहन से ठीक तरह से नहीं जुड़े होते हैं. इससे निजी वाहनों की तादाद में भारी बढ़ोतरी देखी गई है.  यह समस्या ख़ास कर नियोजित आवासीय और कार्य क्षेत्रों में देखी जाती है, जहां हर कामकाजी शख़्स के पास कम से कम एक वाहन तो होता ही है. इसके अलावा, अगर पीयूए क्षेत्र दो शहरों के बीच पड़ता है जैसे दिल्ली और गुरुग्राम, तब किसी भी दिशा में जाने वाले वाहन चालक अक्सर अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए शॉर्टकट रूट अपनाते हैं, जो पीयूए इलाक़े से होकर गुजरती है, जिससे पीयूए इलाक़े में लोगों को भारी भीड़ और वायु प्रदूषण की समस्या का सामना करना पड़ता है.

पीयूए क्षेत्र में नियोजित विकास को सुनिश्चित करना

सरकार विभिन्न स्तरों पर पीयूए में समस्याओं के समाधान के लिए तमाम तरह की कोशिशें कर रही है. दिल्ली में विकास प्राधिकरण की लैंड पूलिंग नीति का मक़सद पीयूए क्षेत्र में नियोजित विकास को सुनिश्चित करना है. क्षेत्रीय स्तर पर कुछ महानगरीय क्षेत्रों ने पीयूए इलाक़ों के लिए स्थानीय योजनाएं भी विकसित की हैं.

भारत में उत्तराखंड सरकार ने विश्व बैंक के समर्थन से परिनगरीय शहरी निवासियों तक पानी पहुंचाने के लिए एक जल आपूर्ति कार्यक्रम शुरू किया है.  देहरादून, रुड़की, हरिद्वार, हल्द्वानी, आदि शहरों के पीयूए में परियोजनाएं शुरू की गई हैं.  हरियाणा में सरकार का लक्ष्य पड़ोस के शहरों में बसने वाले लोगों के लिए ताजी सब्जियां, फल, दूध और मछली जैसी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए परिनगरीय खेती को बढ़ावा देना है.  इस मक़सद के लिए रूस की सरकार ने हरियाणा सरकार से  मदद मांगी है.

दिल्ली में विकास प्राधिकरण की लैंड पूलिंग नीति का मक़सद पीयूए क्षेत्र में नियोजित विकास को सुनिश्चित करना है. क्षेत्रीय स्तर पर कुछ महानगरीय क्षेत्रों ने पीयूए इलाक़ों के लिए स्थानीय योजनाएं भी विकसित की हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर, संविधान (74वां संशोधन अधिनियम) के तहत प्रस्तावित महानगर योजना समितियों (एमपीसी) को महानगरीय क्षेत्र की  नगर पालिकाओं और पंचायतों के बीच सामान्य हित के मामलों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है, जिसमें पीयूए क्षेत्र भी शामिल होते हैं.

इसके साथ ही आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (एमओएचयूए) ने राज्य सरकारों से जनगणना कस्बों में नगर पालिकाओं के गठन की दिशा में कदम उठाने की अपील की है जो मौजूदा समय में बेहतर शासन सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण सरकारों द्वारा शासित हैं. साल 2011 में लगभग 4,000 जनगणना शहर थे जिनमें 54 मिलियन लोग या भारत की 14 प्रतिशत आबादी रहती थी.

इसके अलावा केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय (एमओएएफडब्ल्यू) ने शहरों में भोजन की आपूर्ति को विस्तार देने के लिए  पीयूए क्षेत्र में खाद्य उत्पादन और विविधीकरण को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए हैं. इससे आवश्यक खाद्य वस्तुओं के मूल्य को स्थिर करने में सहायता मिल सकती है.

राष्ट्रीय रूर्बन मिशन के तहत छत्तीसगढ़ के पीयूए में हथकरघा, मधुमक्खी पालन, मुर्गी पालन, सुअर पालन जैसी गतिविधियों में प्रशिक्षण के जरिए महिलाओं को सशक्त बनाया गया है.इसका फायदा यह हुआ है कि इससे रोज़गार सृजन में मदद मिली है.

उपाय जो किए जाने चाहिए

भारत में तेजी से शहरीकरण हो रहा है जबकि शहरों में ज़मीन कम पड़ती जा रही है, ऐसे में पीयूए इलाक़ों पर दबाव लगातार बढ़ता ही जाएगा. कई पीयूए इलाक़ों में जो सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण की समस्याएं दिखती हैं वो इस बात का संकेत हैं कि कानून, नियोजन और शासन की कई ख़ामियां व्याप्त हैं. ऐसे में पीयूए की परंपरागत विशेषता को बनाए रखने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए और नियमित व्यवस्था के तहत यहां भविष्य में विकास की नींव रखी जानी चाहिए. पीयूए की वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए.

  • स्थानीय/क्षेत्रीय/राज्य/राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा सुधार पहलों को बढ़ाया जाना चाहिए.

  • ग्रामीण-शहरी सहयोग की संभावनाओं या भागीदारी का पता लगाया जाना चाहिए.

  • सांविधिक भागीदारी योजनाएं बनाई जानी चाहिए और इसे उपनगरी इलाक़ों में प्रभावी तरीक़े से लागू किया जाना चाहिए.

  • नीति और योजना निर्माण के दौरान शहरों को मज़बूत बनाने में पीयूए के योगदान, ख़ास तौर पर पारिस्थितिक भूमिका को ध्यान में रखा जाना चाहिए.

  • पीयूए क्षेत्र में महिलाओं के बीच गैर-कृषि रोज़गार के मौकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए; लिंग-प्रतिक्रियात्मक हस्तक्षेप जैसे कि डार्क स्पॉट, सुरक्षा ऑडिट, जागरूकता कार्यक्रम, इन क्षेत्रों में शुरू किए जाने चाहिए.

  • पीयूए में समस्याओं के पैदा होने के मूल कारणों को संबोधित किया जाना चाहिए. इसमें पीयूए क्षेत्र में  भूमि निगरानी, प्रवर्तन, डेटा, भूमि उपयोग के नक्शे, विकास नियंत्रण, भवन उपनियम, फंड और तकनीक के क्षेत्र शामिल हैं.

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