Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 24, 2021 Updated 0 Hours ago

आर्थिक सुधारों ने आर्थिक विकास की रफ़्तार तेज़ की और इनसे दुनिया से संवाद करने का भारत का तौर तरीक़ा भी बदला

आर्थिक सुधारों ने भारत की ‘विदेश नीति’ संबंधी संवाद को कैसे प्रभावित किया है

राष्ट्रों को अपनी विदेश और सुरक्षा संबंधी नीतियों के पैमाने बदलने में बहुत लंबा वक़्त लगता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति के कई स्रोत होते हैं: अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से लेकर उसके घरेलू राजनीतिक मक़सद, समाज की बुनियाद कहे जाने वाले सांस्कृतिक कारकों से लेकर फ़ैसले लेने वालों की निजी ख़ूबियां और उनकी धारणाएं विदेश नीति को प्रभावित करती हैं. आमतौर पर इससे किसी भी देश की विदेश नीति के ढांचे को एक निरंतरता मिलती है. बहुत से देशों की तरह दुनिया को देखने का भारत नज़रिया भी पारंपरिक रूप से इन अलग- अलग कारणों से प्रभावित और परिवर्तित होता आया है.

लेकिन, कई बार ऐसे दौर भी आते हैं जब राष्ट्र ऐसे चौराहे पर खड़े होते हैं, जहां मंज़िल, रास्ते और ज़रिये तीनों में आमूल-चूल बदलाव करके उन्हें नए सिरे से निर्धारित करना पड़ता है. ऐसे मोड़ बहुत ही कम आते हैं. लेकिन, जब वो आते हैं, तो राष्ट्रों को निर्णायक चुनाव करने पड़ते हैं. अब जबकि भारत 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की तीसवीं सालगिरह मना रहा है, तो ये मौक़ा इस बात का विश्लेषण करने का भी है और ये स्वीकार करने का भी है कि किस तरह इन सुधारों ने पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की विदेश नीति की दशा दिशा तय की है. भारत के नीति निर्माता इस बात के लिए मजबूर हुए कि वो अपने देश के राजनीतिक और आर्थिक उभार को स्वीकार करें और विदेश नीति में उसी के हिसाब से बदलाव करें. जब वैश्विक शक्ति संतुलन में किसी भी देश की हैसियत बढ़ती है, तो उसका सामना इस सवाल से होता है कि वो बड़ी ताक़त बने या न बने. हालांकि, किसी भी देश की ये विकल्प चुनने की आज़ादी हक़ीक़त में कुछ संरचनात्मक कारकों पर निर्भर होती है. ये बात सच है कि अगर आज दुनिया के देशों की पायदान में भारत का कद बढ़ा है, और इसकी बुनियाद शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद रखी गई थी.

अब जबकि भारत 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की तीसवीं सालगिरह मना रहा है, तो ये मौक़ा इस बात का विश्लेषण करने का भी है और ये स्वीकार करने का भी है कि किस तरह इन सुधारों ने पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की विदेश नीति की दशा दिशा तय की है.

पूरे शीत युद्ध के दौरान भारत इस बात को लेकर चिंतित रहा था कि कहीं वो दो महाशक्तियों, अमेरिका और सोवियत संघ के आपसी झगड़े में न फंस जाए. ऐसे में ये भारत का अपने लिए गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का चुनाव करना सही फ़ैसला ही था. क्योंकि, इससे भारत को अपनी विदेश नीति संबंधी फ़ैसले लेने की स्वायत्तता कम से कम सिद्धांत तौर पर तो मिली हुई थी. तीसरी दुनिया की एकजुटता के नारे के पीछे, असल में एक सोचा समझा समीकरण था. इसका मक़सद भारत के अहम हितों की रक्षा करना था. भारत के ऐसे हितों की अपनी सीमाएं थीं, क्योंकि तब भारत की आर्थिक और सैन्य क्षमताएं भी सीमित ही थीं. पाकिस्तान की सुरक्षा संबंधी रणनीति ही भारत के लिए फ़ौरी ख़तरा थी- ऐसे में पाकिस्तान को लेकर भारत का जुनून वाजिब भी था.

लेकिन, पाकिस्तान से इतर भारत की विदेश नीति में स्पष्टता की भारी कमी थी- ये बात 1962 में चीन के हाथों भारत की हार के सदमे से साफ़ ज़ाहिर हो गई थी. इस बात के सबूत भी बहुत कम हैं कि भारत के पास पाकिस्तान को लेकर भी कोई स्पष्ट रणनीति थी. पाकिस्तान के साथ बार बार युद्ध हुए और भारत ये युद्ध लड़ता रहा. भारत ने कभी इस बात का आकलन करने के बारे में नहीं सोचा कि क्या ऐसी कोई नीति बनाई जा सकती है, जिससे पाकिस्तान के साथ इन युद्धों को रोका जा सके. हम अपनी पीठ ये कहकर थपथपाते रहे कि इनमें से कोई भी युद्ध भारत ने नहीं शुरू किया और भारत जंग में तभी कूदा जब उस पर हमला किया गया. लेकिन, इससे ये तल्ख़ सच्चाई नहीं छुप सकती कि भारत की विदेश और सुरक्षा संबंधी नीति में एक बड़ा नीतिगत ख़ालीपन था.

शीत युद्ध के बाद की विदेश नीति

शीत युद्ध का ख़ात्मा भारत के लिए आपदा में अवसर लेकर आया. इसने भारत के नीति निर्माताओं को मजबूर किया कि वो विदेश नीति को नई आर्थिक और राजनीतिक हक़ीक़त के हिसाब से ढालें- देश को ऐसे झटके की सख़्त ज़रूरत थी. बदले हुए हालात में भारत की विदेश नीति की बहुत सी अहम धारणाओं की समीक्षा ज़रूरी हो गई थी. दुनिया का नक़्शा बदल गया था. इससे भारत की विदेश और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी रणनीति के सामने नए संभावनाएं दिखने लगी थीं.

इस मौक़े पर भारत के आर्थिक सुधारों ने देश को तेज़ आर्थिक विकास की राह पर डाला, जिससे भारत बड़ी ताक़तों की वैश्विक राजनीति का हिस्सा बन गया. जब नई सदी के नए दशक का आग़ाज़ हुआ, तो ऐसा लग रहा था कि भारत दुनिया की एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरने के मुहाने पर खड़ा है. अनमने ढंग से ही सही, मगर भारत नई विश्व व्यवस्था का अभिन्न अंग बनने के बेहद क़रीब पहुंच गया था- क्योंकि जैसे ही भारत की अर्थव्यवस्था ने अच्छे नतीजे देने शुरू किए, वैसे ही उसका लोकतंत्र दुनिया को बेहद आकर्षक लगने लगा.

1990 के दशक की शुरुआत वो दौर था, जब एक के बाद एक कमज़ोर सरकारों ने भारत को आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक रूप से नेतृत्वविहीन बना दिया था. दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही थी और भारत की अर्थव्यवस्था ढह रही थी. भारत के सामने हज़ारों चुनौतियां खड़ी थीं और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई नेतृत्व नहीं था, जो भारत को इस मुश्किल से निकाल सके. मंडल- मंदिर विवाद- अयोध्या का विवाद और जाति पर आधारित आरक्षण के मसले से देश के विघटन का ख़तरा मंडरा रहा था. इस मुश्किल दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सत्ता में आए. नरसिम्हा राव को उनकी अपनी पार्टी तक के वरिष्ठ नेताओं का समर्थन नहीं हासिल था. राव की पार्टी में ही प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले नेताओं की भरमार थी. 

नरसिम्हाराव की निर्णय न ले पाने की छवि से इतर, सच ये है कि वो देश के सबसे निर्णायक नेताओं में से एक थे. नरसिम्हा राव ने अपने समय के सभी अहम मसलों पर जो फ़ैसले लिए वो पिछले दो दशकों से भारत के उभार में अहम भूमिका निभा रहे हैं.

नरसिम्हाराव की निर्णय न ले पाने की छवि से इतर, सच ये है कि वो देश के सबसे निर्णायक नेताओं में से एक थे. नरसिम्हा राव ने अपने समय के सभी अहम मसलों पर जो फ़ैसले लिए वो पिछले दो दशकों से भारत के उभार में अहम भूमिका निभा रहे हैं. नरसिम्हा राव ने आर्थिक सुधारों को उस वक़्त राजनीतिक रूप से स्वीकार्य बनाया, जब ख़ुद उनकी अपनी पार्टी उनके सबसे महत्वाकांक्षी क़दम को रोकना चाह रही थी.

1990 के दशक की शुरुआत में भारत की विदेश नीति के सामने भी वैसी ही विशाल चुनौतियां थीं, जैसी आर्थिक समस्याएं थीं. दुनिया अचानक एकध्रुवीय हो गई थी और भारत का प्रमुख सहयोगी देश सोवियत संघ का दुनिया के नक़्शे से नाम-ओ-निशान तक मिट गया था. भारत को अब अपनी आर्थिक नीति को विदेश नीति से ज़्यादा असरदार तरीक़े से जोड़ना था. नरसिम्हा राव को ये एहसास हो गया था कि अगर आर्थिक सुधारों को सफल बनाना है तो भारत को पश्चिम और ख़ास तौर से अमेरिका के सहयोग की ज़रूरत होगी. इसीलिए उन्होंने दुनिया के सामरिक ढांचे में अमेरिका की अहमियत को स्वीकार करते हुए भारत के साथ उसके संबंधों में नई जान डालने की बुनियाद रखी. मध्य-पूर्व में भी नरसिम्हा राव ने वो साहस दिखाया, जो उनसे पहले के किसी भारतीय नेता ने नहीं दिखाया था. उन्होंने 1992 में इज़राइल के साथ पूरे कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के साथ साथ ईरान से भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया और 1993 में तेहरान का ऐतिहासिक दौरा किया. 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद नरसिम्हा राव, ईरान जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे. चूंकि, विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र पश्चिम से पूरब की ओर जा रहा था, तो भारत को ‘लुक ईस्ट’ की विदेश नीति की शुरुआत करनी पड़ी, जिससे भारत के आर्थिक भविष्य को पूर्वी एशिया की तेज़ी से तरक़्क़ी करती अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ा जा सके. भारत को सिर्फ़ आर्थिक प्रगति के लिए ही आसियान (ASEAN) देशों के साथ अपने संबंध का दायरा नहीं बढ़ाना था, बल्कि चीन के बढ़ते प्रभाव के चलते भी भारत के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो गया था.

1990 के दशक के शुरुआती दौर का असर आज हम भारत की विदेश नीति के हर क्षेत्र में देख सकते हैं: गुटनिरपेक्षता से हटते हुए मुद्दों पर आधारित गठबंधन बनाना; मध्य पूर्व में भारत का नाज़ुक संतुलन बनाना; चीन के साथ टिकाऊ संतुलन बनाना; विश्व के अहम इलाक़ों के संबंध में ज़्यादा ठोस रक्षा कूटनीति अपनाना; भारत की लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट नीतियों के तहत भारत का पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया से संबंध मज़बूत करना; और एनडीए सरकार द्वारा पोखरण-2 परमाणु परीक्षण करने के बाद लगे प्रतिबंधों का सामना करने लायक़ आर्थिक ताक़त जुटाना.

ये नरसिम्हा राव का ही दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व था जिसने 1990 के दशक की शुरुआत में आर्थिक सुधारों को टिकाऊ बनाया और उन्हें जारी रखने को लेकर देश में एक व्यापक राजनीतिक आम सहमति बनाई. जैसे ही इन आर्थिक सुधारों के फ़ायदे सामने आने लगे, तो भारत का राजनीतिक वर्ग और महत्वाकांक्षी होने लगा. नरसिम्हा राव के उत्तराधिकारियों ने आर्थिक सुधारों का सिलसिला आगे भी जारी रखा. कई बार ये सुधार गुपचुप तरीक़े से लागू किए गए, तो कई बार खुलकर इनका बखान हुआ. तीन दशक पहले जिन आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी, उनसे ऐसा माहौल बना जिससे अटल बिहारी वाजपेयी, आई के गुजराल, एच डी देवेगौड़ा, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी जैसे अलग-अलग राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले नेता उनकी वक़ालत करने लगे. इसका नतीजा ये हुआ कि आर्थिक सुधार भारत की राजनीतिक परिचर्चा के केंद्र में आ गए. इससे नई संभावनाएं पैदा हुईं. नए गठबंधन बने.

1991 के आर्थिक सुधारों का विश्व में भारत की हैसियत पर असर

बहुत जल्द, आर्थिक सुधारों ने भारत के बारे में लोगों को अपनी राय बदलने को मजबूर कर दिया. लोगों ने भारत के आर्थिक उभार की भविष्यवाणी करनी करनी शुरू कर दी. सुधारों से आर्थिक विकास को नई रफ़्तार मिली और इससे दुनिया से संवाद करने का भारत का तौर- तरीक़ा भी बदल गया. आज दुनिया की बड़ी-बड़ी शक्तियां भारत को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लगा रही हैं. आज भारत दुनिया के सभी अहम मंचों का हिस्सा है. जलवायु परिवर्तन से लेकर समुद्री सुरक्षा तक, उभरती तकनीकों से लेकर भूमंडलीकरण तक, आज अगर भारत अपने लिए एक नई भूमिका गढ़ रहा है, तो इसके पीछे आर्थिक सफलता से आया आत्म-विश्वास ही है. पिछले क़रीब डेढ़ साल के दौरान ही भारत ने जहां एक तरफ़ कोविड-19 महामारी की वजह से आई तबाही का मुक़ाबला किया है, वहीं दूसरी तरफ़ उसने अपनी सीमा पर आक्रामक हो रहे चीन को पीछे धकेला है. महामारी के दौरान जब अमेरिका समेत दुनिया के बड़े-बड़े औद्योगिक देश अपने घरेलू संकट से जूझ रहे थे, तब भारत इस महामारी से निपटने को लेकर दुनिया में आम राय क़ायम करने में अग्रणी भूमिका निभा रहा था. इसी दौरान भारत अपनी सीमा पर चीन के घुसपैठिए सैनिकों से भी भिड़ंत कर रहा था.

1990 के दशक के शुरुआती दौर का असर आज हम भारत की विदेश नीति के हर क्षेत्र में देख सकते हैं: गुटनिरपेक्षता से हटते हुए मुद्दों पर आधारित गठबंधन बनाना; मध्य पूर्व में भारत का नाज़ुक संतुलन बनाना; चीन के साथ टिकाऊ संतुलन बनाना; विश्व के अहम इलाक़ों के संबंध में ज़्यादा ठोस रक्षा कूटनीति अपनाना

चीन के ख़िलाफ़ भारत का आक्रामक रुख़, कई बरस से भारत की सामरिक नीति का हिस्सा रहा है. जिस समय पश्चिमी देश चीन के साथ अच्छे ताल्लुक़ बनाने में मशगूल थे, उस समय भी भारत, चीन को कई मोर्चों पर चुनौती दे रहा था. भारत दुनिया का पहला प्रमुख देश था, जिसने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की ये कहते हुए खुलकर आलोचना की थी कि ये तो देशों को निगलने वाला इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट है. बीआरआई को लेकर भारत की उस आलोचना पर आज पूरी दुनिया में आम सहमति है. चीन के कड़े ऐतराज़ के बावजूद अगर आज ये माना जाता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र पश्चिम से पूरब की ओर है, तो इसकी बड़ी वजह यही है कि भारत ने इसका पूरे उत्साह से समर्थन किया था. अगर भारत ने अपनी विदेश नीति के चुनाव को स्पष्ट न किया होता, तो आज भी क्वॉड का गठन एक ख़्वाब ही होता.

भारत ने कई मोर्चों पर चीन को मज़बूती से चुनौती दी है, और महामारी के वैश्विक समाधान के विकल्प दुनिया को उपलब्ध कराए हैं. ज़ाहिर है, भारत ये ऐसा अपने राष्ट्रीय हित साधने के लिए ही किया है. लेकिन, ऐसा करते हुए भारत ने वैश्विक समुदाय को भी एकजुट किया है. अब जबकि दुनिया की बड़ी ताक़तें चीन को चुनौती देने के लिए एक साथ आ रही हैं, तो भारत के रूप में उन्हें एक मज़बूत साझीदार और भरोसेमंद साथी मिला है. हो सकता है कि विश्व मीडिया के एक वर्ग को इस बात पर यक़ीन न हो, लेकिन आज दुनिया की बड़ी ताक़तें अगर भारत की ओर झुक रही हैं, तो वो निश्चित रूप से उसे एक मज़बूत साझीदार के रूप में देखती हैं.

भारत का चीन के सामने डटकर खड़े रहना और विश्व शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाना ही हमारे दौर की असली कहानी है. इसकी वजह से दुनिया के सामरिक समीकरण पहले ही बदल रहे हैं और विश्व के उभरते शक्ति संतुलन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ने वाला है. लेकिन, ये सब इसी वजह से संभव हो सका, क्योंकि 1991 में देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत से इसके लिए माहौल बना.

संसाधनों की क्षमता के किसी भी पैमाने पर देखें, तो आज भारत विश्व व्यवस्था की उभरती हुई शक्ति है- अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर इसके प्रभाव साफ़ तौर पर दिखते हैं. भारत ने अपनी बढ़ी हुई समृद्धि का फ़ायदा उठाकर अपनी सैन्य और कूटनीतिक क्षमता का भी विस्तार किया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि भारत दुनिया के मौजूदा शक्ति संतुलन का अपने हक़ में इस्तेमाल करने में सफल रहा है.

अपनी तमाम घरेलू चुनौतियों के बावजूद, भारत का चीन के सामने डटकर खड़े रहना और विश्व शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाना ही हमारे दौर की असली कहानी है. इसकी वजह से दुनिया के सामरिक समीकरण पहले ही बदल रहे हैं और विश्व के उभरते शक्ति संतुलन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ने वाला है. लेकिन, ये सब इसी वजह से संभव हो सका, क्योंकि 1991 में देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत से इसके लिए माहौल बना. आर्थिक सुधारों ने सुनिश्चित किया कि भारत की क्षमताएं उसकी राजनीतिक, आर्थिक और वैश्विक आकांक्षाओं को गढ़ने का काम कर सकें. अगर आज भारत ये कहने लायक़ बना है कि वो विश्व व्यवस्था का अग्रणी खिलाड़ी बनना चाहता है- वो महज़ नियमों का पालन करने के बजाय नियम बनाने वाला बनना चाहता है- भारत को ये आत्म-विश्वास इसीलिए मिल सका क्योंकि भारत की आर्थिक प्रगति का सिलसिला जारी है. अगर आज भारत दुनिया के एक ज़िम्मेदार वैश्विक साझीदार की भूमिका निभा सकता है, तो इसकी बड़ी वजह वो आर्थिक क्षमताएं हैं, जिन्होंने ये संभावनाएं पैदा कीं.

चीन के ख़िलाफ़ भारत का आक्रामक रुख़, कई बरस से भारत की सामरिक नीति का हिस्सा रहा है. जिस समय पश्चिमी देश चीन के साथ अच्छे ताल्लुक़ बनाने में मशगूल थे, उस समय भी भारत, चीन को कई मोर्चों पर चुनौती दे रहा था. 

अब जबकि विश्व व्यवस्था ज़्यादा प्रतिद्वंदी दौर की ओर बढ़ रही है. बड़ी ताक़तें खुलकर एक दूसरे से होड़ लगा रही हैं. ज़्यादातर वैश्विक संस्थाएं अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा पा रही हैं और आर्थिक भू-मंडलीकरण खंड-खंड हो रहा है. ऐसे में इनमें से ज़्यादातर परिचर्चाओं के केंद्र में भारत ही है. क्योंकि, एक लोकतांत्रिक भारत का पांच ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था बनने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर बढ़ना एक ऐसा सच है, जो न सिर्फ़ विश्वसनीय है बल्कि उसे पोसना भी व्यर्थ नहीं जाएगा. अगर आज भारत के नीति निर्माता इतना बड़ा ख़्वाब देख पा रहे हैं, तो ये तीन दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की ही देन है. उन सुधारों ने ही दशकों से रूढ़िवादी आर्थिक नीतियों में क़ैद भारत की छुपी हुई ऊर्जा को बंदिशों से आज़ाद किया था. 1990 के दशक की शुरुआत से आज तक भारतीय विदेश नीति ने लंबा सफर तय किया है. लेकिन, ये बात एकदम साफ़ है कि भारत की आज की विदेश नीति को गढ़ने में तीस साल पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने अहम भूमिका अदा की है.

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