Author : Karan Bhasin

Expert Speak India Matters
Published on Apr 20, 2024 Updated 0 Hours ago

वर्तमान घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के तरीक़ों में जिस प्रकार से बदलाव किए गए हैं, उसने पिछले सर्वेक्षणों के साथ इसकी तुलना को लेकर बेमतलब की बहस छेड़ दी है.

घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण: अनुमानों की तुलना को लेकर तर्कहीन और बेमानी बहस

कुछ समय पहले ही भारत में घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण जारी किया गया है, लेकिन जब से इस सर्वेक्षण के नतीज़े सामने आए हैं, तभी से इनको लेकर तमाम तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं. इन चर्चाओं में इस ताज़ा सर्वेक्षण की पूर्व में किए गए सर्वेक्षणों के साथ तुलना की जा रही है. कई लोगों ने वर्तमान घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के तौर-तरीक़ों में किए गए बदलावों को लेकर जारी संक्षिप्त विवरण का ग़लत तरीक़े से विश्लेषण किया है, ऐसा करने के पीछे उनका मकसद पिछले सर्वेक्षण से तुलना करना और सवाल उठाना है. हालांकि, सर्वेक्षण की फैक्ट शीट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि वर्तमान सर्वे के अनुमानों का पिछले सर्वेक्षण के समान अनुमानों से तुलना नहीं की जा सकती है.

सर्वेक्षण की फैक्ट शीट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि वर्तमान सर्वे के अनुमानों का पिछले सर्वेक्षण के समान अनुमानों से तुलना नहीं की जा सकती है.

दरअसल, वर्तमान सर्वेक्षण के नतीज़ों और अनुमानों की पिछले सर्वेक्षण से तुलना करने में आने वाली चुनौतियों का जो मुद्दा उछाला जा रहा है, उसकी जड़ में कहीं कहीं इस बार के सर्वे में किए गए दो तरह के बदलाव हैं. पहला बदलाव यह है कि वर्तमान सर्वेक्षण में नई उपभोग वस्तुओं को शामिल किया गया है और दूसरा बदलाव यह है कि उपभोक्ताओं से तीन अलग-अलग विषयों से जुड़े प्रश्न पूछे गए हैं. गौरतलब है कि पहले सिर्फ़ एक ही प्रश्नावली के आधार पर सर्वेक्षण किया जाता था. जहां तक सर्वेक्षण में उपभोग की नई-नई वस्तुओं को शामिल किए जाने की बात है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस बार उपभोग व्यय सर्वेक्षण दस वर्षों से भी अधिक समय के बाद किया गया है. ज़ाहिर है कि पिछले एक दशक के दरम्यान उपभोग की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं को लेकर व्यापक स्तर पर बदलाव आया है. यानी इस लंबी अवधि में लोगों द्वारा उपभोग की जाने वास्तुएं बदल चुकी हैं और अब तमान नई-नई सेवाएं ऐसी चुकी हैं, जिनका उपयोग किया जा रहा है. इन बदली हुई सेवाओं का एक सटीक उदाहरण ओटीटी प्लेटफॉर्म हैं, जिनका एक दशक पहले कोई नामोनिशान नहीं था.

घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण

वर्तमान घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के अनुमानों का पुरानी वस्तुओं और सेवाओं से तुलना करने का मुद्दा कोई नया नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ़ भारत में ही हो रहा है. सच्चाई यह है कि दुनिया के दूसरे देशों में भी इस तरह का मुद्दा उठता रहता है. भारत में जो लोग तुलना के इस मुद्दे को तूल दे रहे हैं उन्हें अमेरिका के ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिक्स यानी श्रम सांख्यिकी ब्यूरो (BLS) की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों को खंगालना चाहिए, जिसमें वहां किए गए उपभोग व्यय सर्वेक्षणों के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध है. ज़ाहिर है कि अमेरिका में व्यापक शोध करने के बाद श्रम सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा अपने महंगाई के आंकड़ों को अपडेट करने के लिए उपभोग व्यय और मूल्य के आंकड़ों का इस्तेमाल करते समय इसका समुचित समन्वय किया गया है.

एक समय ऐसा था, जब भारत में लोगों द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं में ट्रांजिस्टर और ग्रामोफोन जैसी चीज़ें शामिल थीं, लेकिन अब यह चीज़ें कहीं देखने को भी नहीं मिलती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या 2022 के उपभोग व्यय सर्वेक्षण में इन चीज़ों के बारे में सवाल पूछा जाना क्या उचित था? इसका जवाब है कि शायद अब ऐसे सवाल बेमानी हो चुके हैं. ऐसे में सबसे पहले इसके बारे में गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि आख़िर उपभोग व्यय सर्वेक्षण का मकसद क्या है. गौरतलब है कि इस सर्वेक्षण का उद्देश्य उन प्रासंगिक वस्तुओं के उपभोग के बारे में जानकारी जुटाना, जो यह बता सकें कि लोगों के व्यय और उपभोग का ताज़ा रुझान क्या है, यानी वे किन चीज़ों में ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि उपभोग से जुड़ी यह विस्तृत जानकारी ग़रीबी, मुद्रास्फ़ीति और डिप्लेटर्स आदि की गणना के लिए महत्वपूर्ण होती है. डिफ्लेटर एक ऐसा मूल्य होता है जो किसी आधार अवधि के संदर्भ में समय के साथ मूल्य सूचकांक के माध्यम से आंकड़ों को मापने की अनुमति देता है. इसलिए, यदि उपभोग की जाने वाली वस्तुओं की सूची में बदलाव आता है तो स्पष्ट है कि इसकी अपनी विशेषताओं के कारण इसका इनमें से किसी भी विषय पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता है.

भारत में जो लोग तुलना के इस मुद्दे को तूल दे रहे हैं उन्हें अमेरिका के ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिक्स यानी श्रम सांख्यिकी ब्यूरो (BLS) की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों को खंगालना चाहिए, जिसमें वहां किए गए उपभोग व्यय सर्वेक्षणों के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध है.

दूसरा, मुद्दा सर्वेक्षण के दौरान लोगों की राय जानने के तरीक़े का है. इस बार के सर्वेक्षण में उपभोक्ताओं से उनकी राय जानने के लिए कई बार उनसे संपर्क साधा गया है. जबकि वर्ष 2011 में किए गए घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के दौरान सर्वेक्षण टीम एक ही बार लोगों तक पहुंची थी और एक ही प्रश्नावली के आधार पर सवाल पूछे थे और इस पूरी प्रक्रिया में चार घंटे से भी ज़्यादा लगे था. चार घंटे लंबे सवाल-जवाब से उत्तर देने वाले उकता जाते थे. उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी बार-बार नहीं ख़रीदी जाने वाली टिकाऊ वस्तुओं एवं स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सामाजिक सेवाओं पर उपभोग व्यय को लेकर केंद्रित सर्वेक्षणों में इन वस्तुओं पर ख़र्च करने और इनका उपयोग करने के बारे में व्यापक आंकड़े मिले हैं. जबकि इसकी तुलना में चार घंटे लंबे उपभोग व्यय सर्वेक्षण में उतने सटीक आंकड़े नहीं मिले थे. कहने का तात्पर्य यह है कि जब ऐसी वस्तुओं के बारे में जानकारी हासिल करने की बात हो, भविष्य में जिनके उपभोग में बढ़ोतरी की उम्मीद हो, तो लंबे-चौड़े सवालों से जो निष्कर्ष निकलता है, उसमें ग़लतियां होने की संभावना ज़्यादा रहती है. एनएसएस ने इस दिक़्क़त को समझा और इस बार जब घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण किया गया, तो लंबी प्रश्नावली को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला लिया गया. इससे उम्मीद थी कि सर्वे में शामिल लोगों को घंटों तक सवालों का जवाब देने के थकाऊ दौर से नहीं गुजरना पड़ेगा और इससे उपभोग व्यय से जुड़े सटीक आंकड़े भी एकत्र हो पाएंगे.

हालांकि, कुछ लोगों का तर्क है कि जिस प्रकार से वर्तमान सर्वेक्षण में अलग-अलग मुद्दों पर बार-बार लोगों से प्रश्न पूछे गए हैं, उसने इस बार के सर्वेक्षण की पिछले उपभोग व्यय सर्वेक्षण से तुलना करना असंभव बना दिया है. वर्तमान सर्वेक्षण के विरुद्ध जब इस तरह की बात कही जाती है, तो निश्चित तौर पर इसमें उन खामियों की अनदेखी कर दी जाती है, जो चार घंटे लंबी प्रश्नावली के जवाब हासिल करने के दौरान पैदा होती हैं. यानी सर्वेक्षण की थकाऊ प्रक्रिया से त्रुटिपूर्ण आंकड़े एकत्र होने की प्रबल संभावना होती है. जबकि, अलग-अलग विषयों से जुड़े सवालों को जब तीन बार में लोगों से पूछा जाता है, तो इससे आंकड़े जुटाने में त्रुटि होने की संभावना कम हो जाती है और उपभोग व्यय की सटीक जानकारी जुटाने में मदद मिलती है. स्टैटिस्टिक्स यानी सांख्यिकी का सबसे बड़ा मकसद ही सटीक आंकड़ों को एकत्र करना है. हालांकि, समय को पीछे नहीं लौटाया जा सकता है और चाहकर भी वर्ष 2011 के सर्वेक्षण में तीन प्रश्नावलियों को नहीं पूछा जा सकता था, इसलिए इस बार के सर्वेक्षण में इस कमी को पूरा किया गया है, ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा सकें और उनका सटीक विश्लेषण किया जा सके.

ग़रीबी रेखा

इसके अलावा, ग़रीबी रेखा को लेकर भी ज़बरदस्त बहस की जा रही है और तरह-तरह के तर्क दिए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस बार के सर्वेक्षण में तीन-तीन बार परिवारों से आंकड़े जुटाए गए हैं, इसलिए तेंदुलकर ग़रीबी रेखा को 10 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है. तर्क दिया जा रहा है कि वर्तमान सर्वेक्षण में जो तरीक़ा अपनाया गया है, उससे उपभोग व्यय के बारे में बेहतर और सटीक जानकारी मिलती है, इसलिए आनुपातिक ग़रीबी अनुमान हासिल करने के लिए वास्तविक ग़रीबी रेखा (महंगाई को समायोजित करते हुए) को 10 प्रतिशत तक बढ़ाने की ज़रूरत है. हालांकि, इस तर्क में एक गड़बड़ी यह है कि इसमें उपभोग व्यय से जुड़े आंकड़े हासिल करने के लिए निर्धारित समयावधि के मुताबिक़ ग़रीबी रेखा का आधार तय किया जाता है. दुनिया के दूसरे देशों में ग़रीबी रेखा का निर्धारण करने के लिए जो युक्तियां प्रचलित हैं, उससे यह बहुत अलग है और एक हिसाब से विरोधाभासी भी है. ज़ाहिर है कि उपभोग व्यय सर्वेक्षण का मकसद लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं और उन पर किए जाने वाले ख़र्च का विस्तृत विवरण हासिल करना है. वहीं, ग़रीबी रेखा को निर्धारित करने का उद्देश्य उस सीमा का अनुमान लगाना है, जिसके नीचे के परिवारों को ग़रीब माना जाता है. इसलिए, यह बिलकुल तर्कहीन बात है कि अगर सर्वेक्षण में आंकड़े जुटाने की अवधि में बदलाव किया जाता है, तो ग़रीबी रेखा का आधार भी बदला जाना चाहिए. ग़रीबी रेखा देखा जाए तो ग़रीबों का निर्धारण करती है और इसे उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आधार पर तय किया जाता है. अर्थात ग़रीबी रेखा को निर्धारित करने में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उपभोग व्यय सर्वेक्षण कितने समय में किया गया.

जिस प्रकार से वर्तमान सर्वेक्षण में अलग-अलग मुद्दों पर बार-बार लोगों से प्रश्न पूछे गए हैं, उसने इस बार के सर्वेक्षण की पिछले उपभोग व्यय सर्वेक्षण से तुलना करना असंभव बना दिया है.

ग़रीबी रेखा को लेकर विश्व बैंक का ही उदाहरण लें, तो उसकी दो ग़रीबी रेखाएं हैं, यानी- परचेजिंग पावर पैरिटी (PPP) 1.9 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन कमाने वालों और PPP 3.2 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन कमाने वालों के आधार पर दो ग़रीबी रेखाएं निर्धारित की गई हैं. पूरी दुनिया में ग़रीबी रेखा का आकलन इसी फार्मूले के आधार पर किया जाता है. विश्व बैंक की इस ग़रीबी रेखा का इससे कोई मतलब नहीं है कि कोई देश अपना उपभोग व्यय सर्वेक्षण किस प्रकार से करता है. कहने का मतलब है कि यह ग़रीबी रेखा भारत में भी ग़रीबी का निर्धारण करने का भी आधार है, जो कि हाल-फिलहाल तक उपभोग व्यय सर्वेक्षण के लिए एक ही प्रश्नावली पूछता था और अमेरिका के लिए भी यही आधार है, जो आम तौर पर उपभोग व्यय की जानकारी हासिल करने के लिए परिवारों को एक डायरी देता है, जिसमें वे अपने साप्ताहिक ख़र्चों को लिखते हैं. कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि ग़रीबी रेखा निर्धारित करने का इससे कोई मतलब नहीं है कि कोई देश अपने नागरिकों के उपभोग व्यय का आकलन किस तरह से करता है.

अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला और करण भसीन (2024) ने भारत में ग़रीबी रेखा का अनुमान लगाया है और इसके लिए उन्होंने हाल में जारी घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल किया है. उन्होंने वर्ष 2011 के लिए 2011-12 पीपीपी 1.9 अमेरिकी डॉलर ग़रीबी रेखा को लिया है. इसके मुताबिक़ भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी रेखा प्रति व्यक्ति प्रति माह 790 रुपये और शहरी इलाक़ों में 967 रुपये है. यह वर्ष 2011-12 के लिए आधिकारिक तेंदुलकर ग़रीबी रेखा से लगभग 3 प्रतिशत कम है और इसलिए, पीपीपी 1.9 अमेरिकी डॉलर ग़रीबी रेखा भारत की अपनी तेंदुलकर ग़रीबी रेखा के समतुल्य है. इन अर्थशास्त्रियों ने आगे फिर वर्ष 2022-23 के लिए आनुपातिक ग़रीबी रेखा निर्धारित करने के क्रम में मुद्रास्फ़ीति के साथ इन ग़रीबी रेखाओं को अनुकूलित किया. इस पूरी गणना के बाद भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी रेखा 1,452 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 1,752 रुपये प्रतिमाह है. इसके आधार पर देखा जाए तो आधिकारिक ग़रीबी रेखा के मुताबिक़ भारत की ग़रीबी 2 प्रतिशत से भी कम है.

आगे की राह 

उल्लेखनीय है कि हाल के वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है और जिस प्रकार से एक ताज़ा लेख में बताया गया है कि भारत केवल असमानता को कम करने में सफल रहा है, बल्कि अत्यधिक ग़रीबी को समाप्त करने में भी क़ामयाब रहा है. हालांकि, ज़ल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर भारत से और भी बहुत कुछ हासिल करने की उम्मीद है और इसको लेकर विशेषज्ञों की ओर से बहुत कुछ कहा जाना अभी बाक़ी है. ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि वर्तमान घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के तौर-तरीक़ों की पिछले सर्वेक्षण से तुलना करने को लेकर जारी बहस को रोका जाए. साथ ही यह भी आवश्यक है कि अगले दशक के लिए भारत के सामाजिक सुरक्षा नेट, यानी परिवारों को आर्थिक झटकों, प्राकृतिक आपदाओं और अन्य संकटों के असर से बचाने वाले कार्यक्रमों को नए सिरे से निर्धारित करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाए.


करन भसीन एक अर्थशास्त्री हैं, जो कि न्यूयॉर्क में रहते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.