पृष्ठभूमि
भारत में घरेलू खपत पर व्यय का आकलन करने के लिए आंकड़ों का पारंपरिक स्रोत, घरेलू खपत पर व्यय का सर्वेक्षण (HCES) रहा है. ये सर्वेक्षण सबसे हाल में 2022-23 में किया गया था. इसके मोटे मोटे नतीजे जारी किए गए थे. 2011-12 में किए गए 68वें सर्वेक्षण के बाद से व्यापक सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी बदलावों ने परिवारों द्वारा ख़र्च करने और खपत करने के तौर तरीक़ों को बदल डाला है. इसके अतिरिक्त, इस दौरान परिवार के सदस्यों की वित्तीय स्वायत्तता, ख़ुदरा सेक्टर के संगठन, समृद्धि के विकास और परिवारों को उपलब्ध होने वाली वस्तुओं और सेवाओं में नयापन लाने वाले बदलाव भी आए हैं.
NSSO का ये भी कहना है कि खपत के लिए व्यय से जुड़े पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में मौजूदा सर्वेक्षण में कई बदलाव भी आए हैं.
परिवारों की आमदनी और ख़र्च का ये सर्वेक्षण नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस (NSSO) करता है. NSSO का ये भी कहना है कि खपत के लिए व्यय से जुड़े पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में मौजूदा सर्वेक्षण में कई बदलाव भी आए हैं. इनमें सर्वेक्षण में शामिल की गई वस्तुओं की संख्या 347 से बढ़ाकर 405 कर दी गई है. इसके अलावा खाद्य पदार्थों, खपत की वस्तुओं, सेवाओं और टिकाऊ सामानों के इस्तेमाल को लेकर सवालों की एक अलग फ़ेहरिस्त बनाई गई है. वहीं, सवालों की एक अलग लिस्ट परिवार के मिज़ाज और आबादी की विशेषताओं के अनुसार तैयार की गई है. जबकि पहले इस सर्वेक्षण के लिए सवालों की एक ही सूची हुआ करती थी. पहले की तुलना में अब सर्वे करने वाले एक बार के बजाय बार बार जाते हैं. इसके अलावा लोगों से सवाल पूछने के पारंपरिक तरीक़ों के बजाय इस बार सर्वेक्षण के दौरान कंप्यूटर की मदद से भी सवाल किए गए. मौजूदा सर्वेक्षण के लिए किए गए बदलावों को देखते हुए, NSSO का कहना है कि इस सर्वे की तुलना पुराने सर्वेक्षणों से करना उचित नहीं होगा. हालांकि, पुराने और व्यय के मौजूदा सर्वेक्षण की तुलना कुछ विशेष पैमानों पर की जा सकती है. इससे परिवारों द्वारा किए जा रहे कुल ख़र्च में से ऊर्जा की हिस्सेदारी में आए बदलावों का संकेत मिल सकता है.
खपत के लिए व्यय में ऊर्जा की हिस्सेदारी
मौजूदा सर्वेक्षण के लिए HCES ने पूरे देश में फैले 8,723 गांवों और 6,115 शहरी मुहल्लों से आंकड़े जुटाए हैं और इनके दायरे में कुल 2 लाख 61 हज़ार 746 परिवार आए हैं. इनमें से एक लाख, 55 हज़ार 14 परिवार ग्रामीण इलाक़ों (59 प्रतिशत) के रहने वाले हैं. तो, एक लाख, छह हज़ार, 732 परिवार शहरी इलाक़ों (41 फ़ीसद) के रहने वाले हैं. ऊर्जा से संबंधित जिन दो चीज़ों को इस सर्वेक्षण में शामिल किया गया था, उनमें ईंधन, रौशनी के लिए बिजली और आवाजाही शामिल है. 2011-12 के सर्वेक्षण (68वां दौर) के मुताबिक़ ईंधन और रोशनी के व्यय में कोक, कोलतार और चिप्स, गोबर, मिट्टी का तेल (सरकारी राशन की दुकानों (PDS या खुले बाज़ार से हासिल), कोयला, LPG और बिजली शामिल है. आवाजाही में सार्वजनिक परिवहन (हवाई, रेलगाड़ी, बस, तिपहिया और अन्य) के इस्तेमाल में लगने वाला भाड़ा, स्कूल बसें और रिक्शा (हाथ से खींचा जाने वाला या फिर मोटर से चलने वाला) शामिल है. निजी दोपहिया और चार पहिया गाड़ियों से चलने में ख़र्च होने वाला पेट्रोल या डीज़ल को शायद ‘आवाजाही के अन्य व्यय’ में शामिल किया गया है.
खाद्य और ग़ैर खाद्य व्यय की तुलना में ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं की मदद में ख़र्च बढने की रफ़्तार कहीं ज़्यादा रही. इसका एक मतलब तो ये हो सकता है कि अन्य वस्तुओं की तुलना में ऊर्जा की क़ीमतें बढ़ीं. या फिर ये मतलब भी हो सकता है कि पहले की तुलना में अब परिवार कहीं ज़्यादा ऊर्जा की खपत कर रहे हैं.
2022-23 के सर्वेक्षण के मुताबिक़, गांवों में प्रति व्यक्ति ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं (ईंधन और रोशनी के साथ आवाजाही) पर मासिक खपत पर व्यय (MPCE) औसतन 536 रुपए था. वहीं शहरों में ये रक़म 959 रुपए थी. ग्रामीण इलाक़ों में प्रति व्यक्ति कुल मासिक खपत (MPCE) पर व्यय 3860 रुपए था, तो शहरी इलाक़ों में यही ख़र्च 6521 रुपए दर्ज किया गया. खपत में परिवार के कुल ख़र्च में ऊर्जा और ऊर्जा सेवाओं की ग्रामीण क्षेत्रों में हिस्सेदारी 13.8 प्रतिशत थी. जबकि, शहरी इलाक़ों में कुल ख़र्च में ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं की हिस्सेदारी 14.7 प्रतिशत थी. 2011-12 के सर्वे के मुताबिक़, ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन, रौशनी के लिए और आवाजाही पर प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च (MPCE) 174 रुपए था और शहरी इलाक़ों में ये व्यय 347 रुपए था. ग्रामीण क्षेत्रों में कुल MPCE 1430 रुपए था, तो शहरी इलाक़ों में ये व्यय 2630 रुपए था. कुल MPCE में ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं (ईंधन, रोशनी और आवाजाही) पर व्यय की हिस्सेदारी ग्रामीण क्षेत्रों में 12 प्रतिशत और शहरी इलाक़ों में 13 फ़ीसद थी. 2011-12 से 2022-23 के बीच शहरी इलाक़ों में MPCE सालाना 8.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी है. वहीं, ग्रामीण इलाक़ों में इसकी वार्षिक वृद्धि दर 9.4 फ़ीसद रही है. ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं के मामले में MPCE ग्रामीण क्षेत्रों में सालाना 10.7 फ़ीसद की दर से बढ़ी, तो इसी दौरान शहरी इलाक़ों में इसकी वार्षिक वृद्धि की दर 9.6 प्रतिशत रही. खाद्य और ग़ैर खाद्य व्यय की तुलना में ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं की मदद में ख़र्च बढने की रफ़्तार कहीं ज़्यादा रही. इसका एक मतलब तो ये हो सकता है कि अन्य वस्तुओं की तुलना में ऊर्जा की क़ीमतें बढ़ीं. या फिर ये मतलब भी हो सकता है कि पहले की तुलना में अब परिवार कहीं ज़्यादा ऊर्जा की खपत कर रहे हैं.
चलन
2011-12 हो या फिर 2022-23 का सर्वेक्षण, जब बात आवाजाही में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा की आती है, तो ग्रामीण इलाक़ों की तुलना में कुल MPCE में ऊर्जा और ऊर्जा से मिलने वाली सेवाओं की MPCE की हिस्सेदारी, शहरी क्षेत्रों में कहीं ज़्यादा पायी गई. इससे पता चलता है कि शहरी इलाक़ों में ख़ास तौर से परिवहन के लिए ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं की खपत कहीं अधिक है. ये सर्वेक्षण के एक प्रमुख निष्कर्ष के अनुरूप है कि ग़ैर खाद्य वस्तुओं की मद में व्यय (जिसमें ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाएं भी शामिल हैं) ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी इलाक़ों में कहीं ज़्यादा है. 2020 के दशक की शुरुआत में पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमत में नाटकीय वृद्धि के बावजूद, ऊर्जा से जुड़ी सेवाओं में MPCE की हिस्सेदारी उसी अनुपात में नहीं बढ़ी. पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमत में इस वृद्धि की एक वजह तो यूक्रेन में युद्ध शुरू होना और दूसरी सब्सिडी में कटौती और टैक्स में बढ़ोतरी रही थी. इससे पता चलता है कि परिवारों में ऊर्जा की खपत में कटौती की गई है.
ऐतिहासिक रूप से जब परिवहन के लिए ऊर्जा के इस्तेमाल को अलग रखा जाता है. तो, कुल MPCE में ऊर्जा का प्रतिशत शहरी इलाक़ों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ जाता है. इसका अर्थ ये है कि कम MPCE वाले परिवार ज़्यादा ग़रीब हैं और उनके ख़र्च का अधिकतर हिस्सा ऊर्जा संबंधी सेवाएं, विशेष रूप से रोशनी और खाना पकाने के लिए ख़रीदने में व्यय हो जाता है. 2001-02 में शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाक़ों में कुल MPCE में रौशनी करने और खाना पकाने की सेवाओं की मद में व्यय 9 प्रतिशत के साथ लगभग बराबर था. लेकिन, बाद के सर्वेक्षणों में दोनों के व्यय की तादाद अलग अलग होती गई है.
ऊर्जा की ग़रीबी की परिभाषा के मुताबिक़, अगर कोई परिवार अपनी मासिक आय के दस प्रतिशत से ज़्यादा हिस्से को ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं पर ख़र्च करता है, तो वो परिवार ‘ऊर्जा के मामले में ग़रीब’ माना जाएगा.
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़, 2023 में प्रति व्यक्ति औसत आमदनी 91 हज़ार 481 रुपए थी. ये आंकड़ा दिखावटी है, जो कि राष्ट्र की कुल आमदनी को प्रति व्यक्ति आमदनी में बराबरी से बांटता है. अधिक व्यावहारिक वस्तुस्थिति के लिए, किसी औसत भारतीय राज्य में किसी ग़रीब परिवार द्वारा अर्जित की जाने वाली न्यूनतम मजदूरी को आधार माना जाना चाहिए. पांच लोगों वाले परिवार में किसी एक अर्ध कुशल कमाऊ पुरुष, खेती में काम करने वाली एक वयस्क महिला और तीन आश्रितों की गिनती की जानी चाहिए. अगर हम ये मान लें कि आर्थिक रूप से सक्रिय दोनों वयस्क महीने में 15 दिन काम करते हैं, तो उनकी मिली जुली पारिवारिक मासिक आय लगभग 14 हज़ार 250 रुपए होगी. ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं की MPCE (जिसमें आवाजाही के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ऊर्जा भी शामिल है) को आधार बनाएं, तो हर परिवार अपनी मासिक आमदनी का 3.2 प्रतिशत हिस्सा ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं के मद में ख़र्च करता है. पश्चिमी दस्तावेज़ों में ऊर्जा की ग़रीबी की परिभाषा के मुताबिक़, अगर कोई परिवार अपनी मासिक आय के दस प्रतिशत से ज़्यादा हिस्से को ऊर्जा और ऊर्जा संबंधी सेवाओं पर ख़र्च करता है, तो वो परिवार ‘ऊर्जा के मामले में ग़रीब’ माना जाएगा. हालांकि, भारत में आमदनी के हिस्से के रूप में ऊर्जा की मद में कम ख़र्च होने का मतलब ये नहीं है कि कोई औसत परिवार ‘ऊर्जा के मामले में ग़रीब’ है. पश्चिमी देशों में 10 फ़ीसद ख़र्च की परिभाषा के लिए रौशनी करने, खाना पकाने, संचार सेवा, परिवहन और सबसे अहम बात आराम के लिए (घर गर्म करने के लिए) ऊर्जा की न्यूनतम खपत को एक आवश्यक न्यूनतम खपत माना जाता है. इसमें आवाजाही के लिए ऊर्जा का इस्तेमाल शामिल नहीं है. अगर कोई परिवार अपनी आमदनी के 10 प्रतिशत से अधिक हिस्से को एक सम्मानजनक और आरामदेह जीवनशैली के लिए आवश्यक ऊर्जा की न्यूनतम मात्रा की खपत में ख़र्च करता है, तो उसे ऊर्जा के मामले में ग़रीब के दर्जे में रखा जाता है. भारत में अगर कोई परिवार अपनी आमदनी का 3-4 प्रतिशत हिस्सा ऊर्जा पर ख़र्च करता है, तो वो शायद ऊर्जा के मामले और आमदनी के मामले में ग़रीब परिवार है, जो सम्मानजनक रहन सहन के लिए आवश्यक न्यूनतम ऊर्जा का भी इस्तेमाल नहीं करता है.
Source: Reports of the National Sample Survey Organisation (NSSO) various issues
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