Author : Nilanjan Ghosh

Expert Speak India Matters
Published on Mar 08, 2024 Updated 0 Hours ago

नौकरी और रोज़गार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने से ना सिर्फ बेहतर कार्यकुशलता और स्थायी विकास का लक्ष्य हासिल हो सकता है बल्कि लैंगिक समानता वाली दुनिया का सपना भी पूरा होगा.

डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी जनसंख्या के आधार पर मिलने वाले फायदों से कैसे लाभ उठायें?

डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी जनसंख्या से मिलने वाले लाभ को अधिकतम कैसे किया जाए, ये जानने से पहले इस बात को समझना ज़रूरी है कि डेमोग्राफिक डिविडेंड का मतलब क्या है. किसी भी देश की जनसंख्या के अलग-अलग आयुवर्गों की उत्पादन क्षमता का अधिकतम इस्तेमाल कर उससे होने वाले आर्थिक विकास को डेमोग्राफिक डिविडेंड कहा जाता है. इसका फायदा लेने के लिए ये ज़रूरी है कि आबादी का जो हिस्सा काम कर सकता है, उसे विकास की योजनाओं में भागीदारी दी जाए. भारत में अभी नौकरी और रोजगार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. अगर महिलाओं की उत्पादन क्षमता का पूरा इस्तेमाल किया जा सके तो भारत भी ज्य़ादा जनसंख्या से होने वाले फायदों (डेमोग्राफिक डिविडेंड) का लाभ उठा सकेगा. यही वजह है कि 2024 के अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का संदेश एकदम स्पष्ट है. ये संदेश समावेशी विकास का है. महिलाओं को विकास की योजनाओं में भागीदारी देने का है. लैंगिक विविधता को प्रोत्साहित करने और महिला सशक्तिकरण ज़ोर देने का है. महिला दिवस का ये संदेश तब आया है जब 2023 में भारत की अध्यक्षता में हुई जी-20 की बैठक में महिलाओं के नेतृत्व में विकास को मुख्य मुद्दा माना गया. ग्लोबल साउथ के ज्य़ादातर देशों में आम तौर पर महिलाओं को जिस भूमिका में देखा जाता है, अगर उससे तुलना करें तो महिलाओं की भूमिका को लेकर आया ये बदलाव बड़ी बात है. पहले महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बात की जाती थी. अब महिलाओं के नेतृत्व में विकास की बात की जा रही है. जी-20 के घोषणापत्र में चार मुख्य बिंदुओं पर ज़ोर दिया गया है. पहला, आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण में बढ़ोत्तरी. दूसरा, डिजिटल क्षेत्र में लैंगिक विभाजन को कम करना. तीसरा, महिलाओं के लिए खाद्य सुरक्षा, पोषण और उनकी सेहत में सुधार. चौथा, जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में हर लैंगिक समुदाय की हिस्सेदारी. इतना ही नहीं जी-20 की बैठक में महिला सशक्तिकरण के लिए एक कार्यकारी समूह भी बनाया गया है. ये कार्यकारी समूह जी-20 के महिला मंत्रियों के पैनल की मदद करेगा. इस पैनल की एक बैठक 17 जनवरी 2024 को हो चुकी है.

कोनेल और पियर्स ने 2015 में किए अपने अध्ययन में ये पाया कि समाज के अलग-अलग स्तरों में लैंगिक भेदभाव को किस तरह संस्थागत रूप दे दिया जाता है. ऐसा होने के कई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि कुछ खास परिस्थितियों में लैंगिक समानता और विकास को नए तरीके से परिभाषित किया जाए.


महिलाओं के नेतृत्व में विकास को लेकर इन दिनों चल रही बहस का सम्मान करते हुए इस लेख में हम इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा कर रहे हैं. सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि महिलाओं के नेतृत्व में विकास का ये विचार लैंगिक समानता (SDG 5)  से भी आगे जाता है. SDG 5 के तहत नौ लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं. इनमें से छह लक्ष्य अंतिम नतीजों से जुड़े हैं जबकि तीन लक्ष्य क्रियान्वयन से संबंधित हैं. जहां तक लैंगिक समानता की बात है तो ये महिलाओं को हिस्सेदारी और इंसाफ देने का नैतिकता से जुड़ा विषय है, जबकि विकास अलग मुद्दा है. महिलाओं के नेतृत्व में विकास को लेकर अब जो बहस शुरू हुई है उसमें कार्यकुशलता को बढ़ावा देने और स्थायी विकास जैसे मुद्दे शामिल किए गए हैं. ये मुहिम समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी, कार्यकुशलता और स्थायी विकास से जुड़ी है. 

हालांकि, कई लोगों का ये विचार हो सकता है कि विकास जैसे मुद्दों पर निष्पक्ष चर्चा के लिए लैंगिक तटस्थता बरतनी चाहिए लेकिन हकीकत ये है कि विकास को लेकर होने वाली चर्चा स्वभाविक तौर पर कोई ना कोई स्टैंड ले लेती है. स्त्री और पुरुष का मुद्दा हर बहस में आ जाता है. फिर चाहे इसे लेकर नई नीतियां बनानी हों, उन्हें अमलीजामा पहनाना हो. ये इस धारणा को भी चुनौती देती है कि लैंगिक समानता का मतलब फैसला लेने की प्रक्रिया में महिलाओं भागीदारी बढ़ाने तक सीमित है. अगर हम लिंगभेद पर पारम्परिक दृष्टिकोण को देखें तो ये पाते हैं कि इसमें बहस को स्त्री और पुरुष के बीच के जैविक/शारीरिक अंतर तक समेट दिया जाता था. इस मुद्दे को लैंगिक और घरेलू हिंसा रोकने तक ही सीमित समझा जाता था. कोनेल और पियर्स ने 2015 में किए अपने अध्ययन में ये पाया कि समाज के अलग-अलग स्तरों में लैंगिक भेदभाव को किस तरह संस्थागत रूप दे दिया जाता है. ऐसा होने के कई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि कुछ खास परिस्थितियों में लैंगिक समानता और विकास को नए तरीके से परिभाषित किया जाए. वेंडी हरकोर्ट ने इसे बहुत अच्छे तरीके से व्यक्त किया है. उनके मुताबिक समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव का रूप अलग होता है इसलिए लैंगिक समानता के लिए स्थानीय और वैश्विक ताकतों को मिलकर काम करना होगा. 

लैंगिक विषमता 

जब हम लैंगिक समानता की बात करते हैं तो इसमें हम कुछ खास इलाकों और देशों में महिलाओं और किन्नर समाज की लंबे समय से की जा रही उपेक्षा को शामिल करते हैं. महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर हैं, समाज में अधिकारों को लेकर लंबे समय से जो ढांचा बना हुआ है, उसकी वजह से ये हालात बने हुए हैं. आज भी 49 देशों में घरेलू हिंसा से बचाव के लिए कोई कानून नहीं हैं. 39 देशों में विरासत के समान अधिकार नहीं हैं. फिर भी ये कहा जा सकता है कि विकास की योजना में अब जिस तरह लैंगिक समानता की बात की जा रही है, वो सराहनीय पहल है. इसका एक पहलू कार्यकुशलता से भी जुड़ा है. महिलाओं को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाने से ना सिर्फ़ गरीबी दूर होगी बल्कि आने वाली पीढ़ी को शिक्षित भी बनाया जा सकेगा. महिलाओं को अब तक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी के तौर पर ही देखा जाता था लेकिन अब विकास में उनकी सक्रिय भागीदारी की बात की जा रही है. 

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन का मानना है कि स्थायी विकास के लक्ष्य (SDGs) इन्हीं चार अवधारणओं पर निर्भर हैं. सबसे अहम बात ये है कि लैंगिक समानता मुहिम में मिलने वाली सफलता से ही ये तय होगा कि विकास के क्षेत्र में हमें कितनी कामयाबी मिलेगी.

महिलाओं की इस नई भूमिका को मान्यता तब मिलनी शुरू हुई जब 1970 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपनी विकास परियोजनाओं में महिलाओं को शामिल किया. इसी के बाद विकास में महिलाएं (WID) प्रस्ताव सामने आया, जो 1980 के दशक में लैंगिक विकास (GID) में बदल गया. इसके ज़रिए विकास के काम में महिलाओं की भूमिका को व्यापाक रूप में देखा जाने लगा.

लैंगिक समानता को लेकर अब जो भी चर्चा होती है, उसमें स्थायी विकास एक अहम मुद्दा होता है. इसे लेकर चार मुख्य विचार सामने आए हैं. ये विचार सामाजिक, मानवीय, भौतिक और प्राकृतिक पूंजी से जुड़े हैं. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन का मानना है कि स्थायी विकास के लक्ष्य (SDGs) इन्हीं चार अवधारणओं पर निर्भर हैं. सबसे अहम बात ये है कि लैंगिक समानता मुहिम में मिलने वाली सफलता से ही ये तय होगा कि विकास के क्षेत्र में हमें कितनी कामयाबी मिलेगी.

सऊदी अरब के तेल भंडारों में आ रही कमी को लेकर 2015 में मैकिन्से की एक रिपोर्ट आई थी. सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था का आधार ही तेल है. इस रिपोर्ट में तेल भंडार खत्म होने के बाद के सऊदी अरब के भविष्य पर चर्चा की गई थी. मैकिन्से ने ये सुझाव दिया कि सऊदी अरब को अब सरकार केंद्रित अर्थव्यवस्था की बजाए बाज़ार केंद्रित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ना चाहिए. इसके साथ ही कामगारों की संख्या में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया. ये ऐसा सुझाव है जो सऊदी अरब जैसे रूढ़िवादी सोच वाले देश की सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देगा. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कम होती प्राकृतिक पूंजी की भरपाई मानवीय पूंजी से करनी होगी. इससे अर्थव्यवस्था में विविधता आएगी. स्थायी विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता कम होगी. इसे ही जनसंख्या से मिलने वाला फायदा (डेमोग्राफिक डिविडेंड) कहा जाता है. अगर कर्मचारी प्रशिक्षित होंगे, कामगारों की संख्या में हर वर्ग की भागीदारी होगी तो आर्थिक विकास भी तेज़ी से होगा.

विकास का ये मॉडल सऊदी अरब में ही नहीं बल्कि भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में भी लागू किया जा सकता है. तेज़ी से शहरीकरण के बावजूद भारत अभी डेमोग्राफिक डिविडेंड का उतना फायदा नहीं उठा सका है क्योंकि नौकरी और रोज़गार में अभी भी महिलाओं की भागीदारी कम है. लेकिन पिछले कुछ सालों से महिला उद्यमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है. सरकार की तरफ से महिला उद्यमियों की मदद के लिए मुद्रा, जनधन आधार मोबाइल (JAM) जैसी योजनाएं चलाई गई हैं. इन्हें जनधन बैंक अकाउंट और आधार कार्ड से जोड़ा गया है जिससे महिला उद्यमियों को दी जाने वाली रकम सीधे उनके बैंक खाते में जा रही है. अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में महिला उद्यमियों की भागीदारी बहुत ज़रूरी है, खासकर सेवा क्षेत्र. हालांकि अभी इनमें से कई क्षेत्रों और औपचारिक उद्योग का रूप नहीं मिला है. ये याद रखना भी ज़रूरी है कि जब उद्यमियों की संख्या बढ़ती है तो रोज़गार और आय में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी होती है. भारत में महिलाओं कामगारों की संख्या बढ़ाने के बहुत अवसर हैं. 2022-23 के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक (PLFS) भारत में पुरुष कामगारों की हिस्सेदारी 76 प्रतिशत जबकि महिलाओं की भागीदारी 37 फीसदी है. इस सर्वे में एक गौर करने वाली बात ये है कि 15 से 49 साल के बीच के कामगारों की श्रेणी में महिला और पुरूषों की भागीदारी करीब बराबर (54.5) फीसदी है.  

अगर आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जाती है तो आर्थिक वृद्धि और विकास में विविधता तो आएगी ही, साथ ही डेमोग्राफिक डिविंडेड का भी पूरा फायदा उठाया जा सकेगा. 

 निष्कर्ष

महिलाओं और पुरूषों की उत्पादक क्षमता को लेकर कई अध्ययन हुए हैं. इनमें ये पाया गया कि कुछ क्षेत्रों में महिलाओं की उत्पादन क्षमता पुरूषों से बेहतर होती है लेकिन फिर भी कुछ अज्ञात वजहों से महिलाओं का वेतन पुरूषों की तुलना में कम है. हालांकि, महिला और पुरूषों की उत्पादन क्षमता को लेकर बहस और विवाद होता रहेगा लेकिन ये चीज बिल्कुल साफ दिखती है कि भारत ही नहीं बल्कि ग्लोबल साउथ के देशों में नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी कम है. आर्थिक विकास की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने की काफी गुंजाइश है. अगर आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जाती है तो आर्थिक वृद्धि और विकास में विविधता तो आएगी ही, साथ ही डेमोग्राफिक डिविंडेड का भी पूरा फायदा उठाया जा सकेगा.

कुल मिलाकर इस लेख का सार आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना है. महिलाओं को ज्य़ादा प्रतिनिधित्व और समान काम के बदले समान वेतन देकर ही समानता, कार्यकुशलता और स्थायी विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.

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