अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और निजता का अधिकार जैसे राजनीतिक और नागरिक अधिकार मानवाधिकार की पहली पीढ़ी थे. काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और संस्कृति का अधिकार जैसे आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार मानवाधिकार की दूसरी पीढ़ी हैं. 70 के दशक में मानवाधिकार की तीसरी पीढ़ी यानी कथित सामूहिक अधिकार जैसे कि शांति का अधिकार, विकास का अधिकार और पर्यावरण का अधिकार को लेकर एक नई बहस की शुरुआत हुई. सूचना क्रांति होने के साथ मानवाधिकार की चौथी पीढ़ी यानी साइबर अधिकार या डिजिटल अधिकार को लेकर बहस की शुरुआत हुई.
वास्तव में तकनीक और मानवाधिकार के बीच एक आपसी संबंध है. कई सदियों के दौरान तकनीक के विकास ने इस बात को प्रभावित किया कि लोग कैसे अपने स्वाभाविक मानवाधिकार का आनंद ले सकते हैं. तकनीक में हुई नई प्रगति ने हमेशा राजनीतिक और नियंत्रण से जुड़ी चर्चाओं को जन्म दिया है.
वास्तव में तकनीक और मानवाधिकार के बीच एक आपसी संबंध है. कई सदियों के दौरान तकनीक के विकास ने इस बात को प्रभावित किया कि लोग कैसे अपने स्वाभाविक मानवाधिकार का आनंद ले सकते हैं. तकनीक में हुई नई प्रगति ने हमेशा राजनीतिक और नियंत्रण से जुड़ी चर्चाओं को जन्म दिया है.
गुटेनबर्ग प्रेस से लेकर टेलीग्राफ़ तक
एक अच्छा उदाहरण इतिहास है जिसमें बताया गया है कि किस तरह संचार तकनीक ने सूचना के अधिकार के इस्तेमाल को प्रभावित किया है. ये बात मध्य काल तक जाती है.
1450 में गुटेनबर्ग के द्वारा प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने शक्ति की संरचना को चुनौती दी: कैथोलिक चर्च ने पहले तो बाइबिल को छापने और इस पवित्र पुस्तक को ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने के मामले में नये अवसर का स्वागत किया लेकिन उसे तुरंत ये एहसास हुआ कि तकनीक की वजह से चर्च की आलोचना करने वाले पैम्फलेट का छपना भी संभव हो गया है. इसके बाद तुरंत ही एक कट्टर सेंसरशिप व्यवस्था का उदय हुआ जिसने 1557 में पोप पॉल IV की निगरानी में पहले रोमन इंडेक्स लिब्रोरम प्रोहिबिटोरम (ऐसी पुस्तकों की सूची जिसे रोमन कैथोलिक चर्च के द्वारा धर्म और नैतिकता के लिए ख़तरनाक माना गया) को जन्म दिया. इसके तहत स्थानीय बिशप की मंज़ूरी के बाद ही किताबों की छपाई की अनुमति दी गई. ऐसा नहीं होने पर लेखकों को सज़ा मिल सकती थी और कुछ मामलों में तो उन्हें जान से भी हाथ धोना पड़ सकता था.
इस दमन के ख़िलाफ़ जॉन मिल्टन ने 1644 में एरियोपैजिटिका लिखी थी जिसमें उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की मांग की थी. एथेंस के प्राचीन लोकतंत्र, जहां कारोबार की जगह यानी एरियोपैग में खुली और स्वतंत्र बहस होती थी, का संदर्भ देते हुए उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक स्वाभाविक अधिकार बताया था जो किसी सरकार (या चर्च) के द्वारा नहीं दिया जाता बल्कि हर व्यक्ति को जन्मजात मिला हुआ है. उनके विचारों को फ्रांस की क्रांति में मानवाधिकार पर घोषणापत्र (1791) और अमेरिका के संविधान के पहले संशोधन में जगह दी गई.
20वीं शताब्दी की शुरुआत में जब वायरलेस रेडियो टेलीग्राफ़ी का उदय हुआ तो 1865 की पेरिस संधि की तर्ज पर 1906 में बर्लिन रेडियो टेलीग्राफ़ी कन्वेंशन की शुरुआत हुई. ये न सिर्फ़ सीमा पार वायरलेस संचार के लिए आगे बढ़ने का संकेत था बल्कि अलग-अलग सरकारों के द्वारा दखल के लिए आगे बढ़ने का इशारा भी था.
1791 के पहले संशोधन से लेकर 1948 के सार्वभौमिक घोषणापत्र तक हमारी प्रगति का इतिहास सरकार की शक्ति और व्यक्तिगत अधिकार के बीच संबंध की कहानी कहता है. 17वीं और 18वीं शताब्दी में सूचना और संचार आम तौर पर स्थानीय मामले थे जिन पर किसी देश की सीमा के भीतर नियंत्रण किया जाता था. 19वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय यात्रा और सीमा के पार संचार के लिए नये अवसर तेज़ी से बढ़ने लगे थे. लेकिन सत्ता में बैठे राजाओं को इस बात का डर था कि अगर सूचनाओं का आदान-प्रदान बिना किसी नियंत्रण के हुआ तो उनकी पकड़ कमज़ोर हो सकती है. सितंबर 1819 में उन्होंने बोहेमिया (अब चेक गणराज्य का एक हिस्सा) के एक स्पा में कार्ल्सबैड डिक्री पर दस्तख़त किए जिसके तहत लोगों के द्वारा सूचनाओं को फैलाने पर नियंत्रण का एक सरकारी तौर-तरीक़ा पेश किया गया. कार्ल्सबैड डिक्री वास्तव में सेंसरशिप का एक औज़ार था और ये सीमा के पार संचार को नियंत्रित करने की पहली अंतर्राष्ट्रीय संधि बन गई.
टेलीग्राफ़ के आविष्कार ने कार्ल्सबैड डिक्री के द्वारा स्थापित संचार पर नियंत्रण की प्रणाली से बाहर निकलने का एक अवसर प्रस्तुत किया. ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि तुरंत ही अलग-अलग सरकारों ने हस्तक्षेप करते हुए इस पर भी नियंत्रण करना शुरू कर दिया और इस तरह उन्होंने टेलीग्राम के ज़रिए संचार पर नियंत्रण के अपने संप्रभु अधिकार को दोहराया. 1850 में प्रशिया (जर्मनी का एक राज्य) और ऑस्ट्रिया की सरकारों के बीच पहले द्विपक्षीय टेलीग्राफ समझौते पर ड्रेस्डेन में हस्ताक्षर हुए. 15 वर्षों के बाद फ्रांस के सम्राट नेपोलियन III ने एक बहुपक्षीय टेलीग्राफ़ संधि का प्रस्ताव दिया. पेरिस सम्मेलन (1865) में अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ़ यूनियन (वर्तमान के अंतर्राष्ट्रीय टेलीकम्युनिकेशन यूनियन या ITU का पुराना रूप) की स्थापना हुई. उपकरणों को एक-दूसरे से जोड़ने, काम-काज की प्रक्रिया, खातों के निपटारे, मानक, अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ़ अल्फाबेट के रूप में मोर्स कोड का इस्तेमाल, इत्यादि को लेकर तकनीकी नियमों के बाद समझौता करने वाले पक्षों ने अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ़ कन्वेंशन के अनुच्छेद 4 में देश की सुरक्षा के लिए “ख़तरनाक” या राष्ट्रीय क़ानून, सार्वजनिक व्यवस्था या नैतिकता का उल्लंघन करने वाले किसी भी तरह के ट्रांसमिशन को रोकने के लिए अपने अधिकार को सुरक्षित रखा.
एक उपसमूह- जिसने UNGA की तीसरी समिति की अध्यक्षता करने वाले एलिनोर रूज़वेल्ट के अनुरोध पर क़ानूनी रूप से ग़ैर-बाध्यकारी मानवाधिकार पर घोषणापत्र के लिए मसौदा तैयार करने का काम किया- ने सबके लिए मान्य भाषा ढूंढ़ निकाली और जिन 35 शब्दों पर सहमति तैयार हुई थी उसे संयुक्त राष्ट्र के पास भेज दिया.
20वीं शताब्दी की शुरुआत में जब वायरलेस रेडियो टेलीग्राफ़ी का उदय हुआ तो 1865 की पेरिस संधि की तर्ज पर 1906 में बर्लिन रेडियो टेलीग्राफ़ी कन्वेंशन की शुरुआत हुई. ये न सिर्फ़ सीमा पार वायरलेस संचार के लिए आगे बढ़ने का संकेत था बल्कि अलग-अलग सरकारों के द्वारा दखल के लिए आगे बढ़ने का इशारा भी था. ऐसी ही बात रेडियो प्रसारण के साथ भी हुई जो 30 के दशक में राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) में बहुपक्षीय बातचीत का विषय बन गया. 1936 में शांति के उद्देश्य के लिए रेडियो प्रसारण को लेकर जेनेवा समझौते पर दस्तख़त किए गए.
मानव अधिकार पर एक सार्वभौमिक घोषणा
इन सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के व्यक्तिगत मानवाधिकार का कोई ज़िक्र नहीं था. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध और नाज़ी दुष्प्रचार के अनुभवों के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 59 (1) को अपनाया जिसमें सूचना की स्वतंत्रता को मूलभूत मानवाधिकार और सभी तरह की स्वतंत्रता के मापदंड की तरह घोषित किया गया. इस प्रस्ताव में सूचना की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता पर एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया गया जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत सूचना और संचार के अधिकार की सुरक्षा के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी रूप-रेखा का निर्माण करना था.
जेनेवा सम्मेलन की शुरुआत अप्रैल 1948 में हुई लेकिन जल्द ही इस पर शीत युद्ध की छाया पड़ गई. सोवियत संघ का भरोसा इस बात में था कि सीमा के पार सभी संचार का उद्देश्य “विश्व शांति के काम” आना है और ख़तरनाक दुष्प्रचार पर रोक लगनी चाहिए. लेकिन अमेरिका का नज़रिया था कि सूचना की स्वतंत्रता पहली प्राथमिकता है. दृष्टिकोण की इस लड़ाई के कारण बात आगे नहीं बढ़ सकी. कोई सर्वसम्मति नहीं बन पाई और सम्मेलन नाकाम हो गया.
दिलचस्प बात ये है कि एक उपसमूह- जिसने UNGA की तीसरी समिति की अध्यक्षता करने वाले एलिनोर रूज़वेल्ट के अनुरोध पर क़ानूनी रूप से ग़ैर-बाध्यकारी मानवाधिकार पर घोषणापत्र के लिए मसौदा तैयार करने का काम किया- ने सबके लिए मान्य भाषा ढूंढ़ निकाली और जिन 35 शब्दों पर सहमति तैयार हुई थी उसे संयुक्त राष्ट्र के पास भेज दिया. ये 35 शब्द मानवाधिकार पर सार्वभौमिक घोषणापत्र का अनुच्छेद 19 बन गये जो इस प्रकार है, “हर किसी को राय बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है; इसमें बिना किसी हस्तक्षेप के अपनी राय रखने की स्वतंत्रता और सीमा की परवाह किए बिना किसी मीडिया के ज़रिए सूचना और विचारों को मांगने, हासिल करने और पहुंचाने का अधिकार शामिल है”. इस अधिकार को अनुच्छेद 29 से संतुलित किया गया जो कहता है कि “अपने अधिकारों और स्वतंत्रता का इस्तेमाल करते हुए हर कोई सिर्फ़ उन्हीं प्रतिबंधों के दायरे में रहेगा जो पूरी तरह क़ानून के द्वारा उचित मान्यता सुरक्षित करने के उद्देश्य के लिए और दूसरों के अधिकारों एवं स्वतंत्रता के सम्मान के लिए तथा नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था एवं एक लोकतांत्रिक समाज में सामान्य कल्याण की न्याय संगत आवश्यकता को पूरा करने के लिए तय किए गए हैं”.
ये अधिकार 1966 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR) के माध्यम से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय क़ानून बन गए. इस अनुबंध में मानवाधिकार पर सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 19 की भाषा को दोहराया गया है और पाबंदियों के लिए औचित्य को ये कहते हुए स्पष्ट रूप से बताया गया है कि “ये क़ानून में प्रावधान किए गए और ज़रूरी ही होंगे : (ए) अधिकारों और दूसरों की प्रतिष्ठा के मामले में; (बी) राष्ट्रीय सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था या सार्वजनिक स्वास्थ्य या नैतिकता के संरक्षण के लिए”.
मानवाधिकार की चौथी पीढ़ी की तरफ़?
मानवाधिकार पर सार्वभौमिक घोषणापत्र एवं नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध ने बदलते तकनीकी माहौल में अपना महत्व नहीं खोया है. ये अंतरव्यक्तिक और सीमा पार संचार में क्रांति लाने वाली सभी तरह की नई बातों से निपटने में पर्याप्त रूप से लचीले हैं.
निस्संदेह संतुलित स्वरूप का एक दूसरा पहलू भी है. अनुबंध के अनुच्छेद 19, पारा 3 की अस्पष्ट परिभाषा इसकी व्यापक व्याख्या की अनुमति देती है. इसका ग़लत इस्तेमाल सूचना के अधिकार को कम करने में किया जा सकता है. सार्वजनिक व्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़ क्या ख़तरा है, इसकी व्याख्या करने का ज़िम्मा अभी भी सरकारों के पास है. यहां तक कि सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रतिबंध लगाना भी अब विवादित चर्चा का हिस्सा है जो हाल के दिनों में कोविड-19 महामारी के दौरान उदाहरण के साथ स्पष्ट हुआ था.
निश्चित तौर पर, गुटेनबर्ग के आविष्कार से लेकर अब तक दुनिया काफ़ी बदल गई है लेकिन समस्याओं का स्वरूप नहीं बदला है. अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में तर्कों की तुलना से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में काफ़ी कम परिवर्तन आया है. कंटेंट पर नियंत्रण और सूचना की स्वतंत्रता स्थायी मुद्दे हैं.
लेकिन ये बहस अधिकार के स्वरूप को लेकर नहीं है बल्कि ठोस राजनीतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों में समझने और उसे लागू करने को लेकर है. ये बेहद स्वाभाविक है और एक बहुसांस्कृतिक एवं बहुध्रुवीय विश्व में वास्तविकता के बारे में बताती है. इसके अलग-अलग मतलब निकाले जाएंगे, अलग-अलग वैचारिक दृष्टिकोण होंगे और अलग-अलग राजनीतिक एवं आर्थिक हित भी होंगे. और एक सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं.
निश्चित तौर पर, गुटेनबर्ग के आविष्कार से लेकर अब तक दुनिया काफ़ी बदल गई है लेकिन समस्याओं का स्वरूप नहीं बदला है. अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में तर्कों की तुलना से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में काफ़ी कम परिवर्तन आया है. कंटेंट पर नियंत्रण और सूचना की स्वतंत्रता स्थायी मुद्दे हैं. तानाशाह और अधिनायक नियंत्रण और सेंसरशिप को तरजीह देते हैं जबकि उदारवादी सूचना के मुक्त प्रवाह को प्राथमिकता देते हैं.
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