Authors : Ovee Karwa | Sahil Deo

Published on Jul 27, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत के शहरी संकुलन में विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सेवा होने के बावजूद, गांवों में स्थिती दयनीय बनी हुई है जहां स्वास्थ्य सेवा में भीड़भाड़ और कम फंड की समस्या बनी हुई है. 

Healthcare in India: भारत में स्वास्थ्य सेवा इतना महंगा क्यों है?
Healthcare in India: भारत में स्वास्थ्य सेवा इतना महंगा क्यों है?

अगर आप भारत में हो और आप बीमार पड़ गये हो तो आप क्या करोगे?

हो सकता है कि वे आपका इलाज मुफ़्त में कर दें,परंतु इस बात की भी पूरी गुंजाइश हैं कि खुद डॉक्टर ही वहाँ से गायब होंगे, और आपको अपने पूरे दिन के रोज़गार से हाथ धोकर, पूरा दिन, कतार में खड़े होकर अपनी बारी के आने का इंतज़ार करना होगा. इन दोनों अस्पतालों में, डॉक्टर2-2.5 मिनट से भी कम समय में आपके बीमारी जान लेंगे और आपके मेडिकल इतिहास के बारे में तो शायद ही कोई सवाल पूछा जाएगा.

जब आपके पास डॉक्टर का नुस्ख़ा होगा, तोआप किसी निजी फार्मेसी या जन औषधि केंद्र जा सकते हो. इस बात पर निर्भर करते हुए कि आप किस स्थिति में हो, आप ये दवाईयां सार्वजनिक अस्पताल से निःशुल्क भी ले सकते हो. आपका प्रिस्क्रिप्शन विभिन्न प्रकार का हो सकता है; उनमें दवाईयों के नामया तो जेनेरिक लिखे होंगे या फिर किसी ब्रांडेड दवा का नाम भी लिखा हो सकता है, (इसके बावजूद कि ब्रांडेड नाम के इस्तेमाल की मनाही हो चुकी है). अगर वो ब्रांडेड नाम है, तो फिर आपका फार्मासिस्ट आपको हुबहू वही दवा दे देगा जो नुस्ख़े में लिखा गया है. लेकिन अगर वो  नाम दवा के मॉल्युक्यूल या अणु के हिसाब से लिखा है, तो फिर आपका फार्मासिस्ट उस अणु या सोल्युशन के नाम से आपके लिये दवा ढूंढ सकता है.अगर आप ‘बिना ब्रांड वाले जेनेरिक’ दवा से अवगत हैं और उसकी प्रभाव शीलता पर भरोसा करते हैं, तो (आपकी बीमारी पर निर्भर करते हुए)[i] ये10 -200% सस्ता विकल्प होता है. हालांकि, आपको इसके लिए पूछना पड़ेगा, कई-एक बार.

अगर आप ‘बिना ब्रांडवाले जेनेरिक’ दवा से अवगत हैं और उसकी प्रभावशीलता पर भरोसा करते हैं, तो (आपकी बीमारी पर निर्भर करते हुए) ये10 -200%सस्ता विकल्प होता है. हालांकि, आपको इसके लिए पूछना पड़ेगा, कई-एक बार.  

जन औषधि केंद्र में अगर दवाईयां उपलब्ध होती हैं तो आपको बेहद सस्ते दर पर दवाईयां मिल जायेंगी.बहुत संभव है के ये उपलब्ध नहीं होंगी. दूसरी चेतावनी ये है कि न ही आपको और न आपके डॉक्टर को ये पता होगा की आपके निकट कोई जन औषधि केंद्र भी मौजूद है.

स्वास्थ्य सेवाएं इतनी महंगी क्यों?

ये आपकी बीमारी पर निर्भर करेगा कि जिन दवाईयों की ज़रूरत आपको है उनकी इनकी कीमत प्रबंधनीय होती है या हद से ज़्यादा,और अगर आपके मरीज़ को अस्पताल में दाख़िल करने की ज़रूरत नहीं पड़ती है तो, तो इलाज का समूचा ख़र्च आप के द्वारा उठाया जाएगा. जैसा कि कहा गया है, कि सन् 2018 में, स्वास्थ्य पर -भारत द्वारा किया गया ‘आउट ऑफ पॉकेट व्यय (OOPE )विश्व भर में सबसे ज्यादा 63 प्रतिशत हैं. स्वास्थ्य सेवा लेने के लिए विश्व के चंद गरीब देशों की तुलना में भारतीय अपनी ज़ेब से भारी भरकम कीमत अदा करते हैं. अब प्रश्न ये उठता है, कि आख़िर क्यों एक देश जिसे ‘विश्व का फार्मासिस्ट कहा जाता हैं, वो खुद अपने ही देशवासियों के लिए स्वास्थ्य सेवा को इतना महंगा बना देती है?

एक भारतीय जितना अपने स्वास्थ्य की देखभाल पर खर्च करता है, उसमें से दवाओं पर आने वाले प्रतिशत (गांवों में 72%, शहरों में 70 %), उसके बाद अस्पताल में भर्ती (दाखिला, टेस्ट , परामर्श) और अस्पताल से छुट्टी (परिवहन, भोजन आदि) के खर्चे होते हैं. [ii]

कहा गया है, कि सन्2018 में, स्वास्थ्य पर -भारत द्वारा किया गया ‘आउट ऑफ पॉकेट व्यय (OOPE )विश्व भर में सबसे ज्यादा 63 प्रतिशत हैं. स्वास्थ्य सेवा लेने के लिए विश्व के चंद गरीब देशों की तुलना में भारतीय अपनी ज़ेब से भारी भरकम कीमत अदा करते हैं.

भारत, विश्व में कुछ सस्ती दवाओं एवं वैक्सीन उत्पादन करने वाला मुख्य केंद्र है. स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत, भारतीय फार्मास्युटिकल बाजार पर पेटेंटयुक्त पश्चिमी दवाओं का प्रभुत्व रहा है, जो देश के आम नागरिक की पहुंच से दूर रहा है. 1970 के पेटेंट एक्ट ने उत्पाद और उसकी पेटेंट प्रक्रिया को ख़त्म कर दिया, जिसका सीधा मतलब ये होता है कि अब भारत के पास अपने इंजीनियरों को रिवर्स करके दवाओं का उत्पाद अपने घर पर ही कर सकें. हजारों की संख्या में निर्माण करने वाले फर्मों की बढ़ोत्तरी हुई और सन्1980 आते-आते, भारत-विश्व को सस्ती और प्रभाशाली दवाओं और वैक्सीन निर्यात कर रहा था. परंतु यहीं पर विरोधाभास भी है: दवाएं काफी सस्ती होती जा रही थी और वृहत पैमाने पर उपलब्ध भी थी, लेकिन लोग उसे खरीद नहीं पा रहे थे और ये चिंता का विषय बना रहा क्योंकि ये दवाईयां OOPE का बड़ा हिस्सा बनी रही. ये समझने के लिए कि ऐसा क्यों हुआ, हमें भारत में दवाओं के प्रकार को समझना अत्यंत आवश्यक है.

भारतीयों द्वारा इस्तेमाल की जानी वाली औषधियां मुख्यतः नामचीन जेनेरिक, अधिकृत जेनेरिक, गैरब्रांडेड जेनेरिक, और ब्रांडेड पेटेंटयुक्त औषधियां होती हैं. ब्रांडेड जेनेरिक औषधि, सबसे ज्य़ादा (आंकड़ों के अनुसार कुल भागीदारी के70-80 प्रतिशतया फिर90प्रतिशत तक) इस्तेमाल की जाने वाली औषधि है. ब्रांडेड जेनेरिक गैर-पेटेंटेड दवाएं हैं, जिन्हें कोई अमुक ब्रांड उत्पादक अपने ब्रांड नाम से बेचता हैं. दूसरी ओर, गैर-ब्रांड वाली दवाएं, किसी ब्रांड विशेष के नाम से नहीं जानी जाती हैं. दोनों ही लगभगएक जैसी ही प्रभावशाली हैं,  परंतु बेहतर गुणवत्ता की धारणा को मजबूती देने हेतु, उत्पादक ब्रांडों के नाम का उपयोग करती हैं. हालांकि, ब्रांडेड जेनेरिक फ़र्मों के खिलाफ़ बिगुल बजाने वालों ने इन ब्रांडेड जेनेरिक फर्मों के तथाकथित सुरक्षा के दावों को दरकिनार कर अनैतिक आचरण का पालन करने के इनके प्रयासों के ऊपर सभी का ध्याना खींचने पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है. हालांकि, हाल ही में नकली और घटिया क्वॉलिटी के गैर-ब्रांडेड जेनेरिक औषधि संबंधी घटनाएं चिंता का विषय हैं, उन्हे क्वॉलिटी कंट्रोल संबंधी कठोर नियमों की मदद से ही निपटा जा सकता है.

ब्रांडयुक्त भेदभाव

यही वो ब्रांडयुक्त भेदभाव है जो ब्रांडेड जेनेरिक दवाईयों को ग़ैर-ब्रांडेड दवाईयों की तुलना में महंगा बना देती है. इस कठोर प्रतिद्वंद्विता की दौड़ में, भारत में, विभिन्न फार्मा कंपनियाँ व्यापक तौर पर ब्रांडयुक्त भेदभाव और दृष्टव्य तक़नीक आदि का इस्तेमाल करती है. वे मार्केटिंग प्रतिनिधि, की मदद से डॉक्टर तक अपनी पहुँच बनाते हैं, और उनकेअपनी ब्रांड के प्रमोशन के बदले इन्सेंटिव और मुफ़्त वेकैशन और कॉन्फ्रेंस आदि का प्रलोभन देते हैं. इस इंडस्ट्री के विकास के दौर से ऐसे अनैतिक आचरण प्रयोग में रहे हैं, और राज्यों नें इसका संज्ञान लिया और त्वरित कार्यवाही के ज़रिए हाल में ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया.

मरीज़ द्वारा हेल्थकेयर के मामले में किसी डॉक्टर द्वारा निर्देशित किसी खास ब्रांड से ‘समझौता ना करने’ का रवैया किसी मरीज़ द्वारा ग़ैर ब्रांड दवा को चुनने की संभावना को प्रभावी ढंग से कम कर देता है.

पहेली का दूसरा पहलू

अब हमें इस पहेली के दूसरे पहलू की ओर रुख़ करना चाहिए: पिछले तीन दशकों में डॉक्टर और बड़े हेल्थकेयर सुविधाएं प्रदान करने वाले और भारत में तृतीय श्रेणी का देखभाल करने की दशा पूरी तरह से बदल गई है, जिसे अमूमन हेल्थकेयर के क्षेत्र में ‘कॉर्पोरेटाइजेशन या निगमीकरण’ का आरोप झेलना पड़ता है. पहले देश भर में तीसरी श्रेणी की हेल्थकेयर सेवा के प्रदाता चैरीटेबल ट्रस्ट अथवा फाउंडेशन द्वारा संचालित हुआ थे,इसलिए वे सेवा को मुनाफ़े से ज्य़ादा महत्व देते थे.1980 के उपरांत, वे लोग जो बड़े अस्पताल आदि खोलने को इच्छुक होते थे, उन्हें राज्य द्वारा मुफ़्त जमीन (रियायती किराये पर) मुहैया करायी जाती थी, और निर्धन वर्ग को मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के एवज़ में टैक्स मेंभारी रियायतऔर फायदे दिए जाते थे. इस वजह से निजी, कॉर्पोरेट, लाभकारी सेवा प्रदाताओं में भारी उछाल आयी. ये अस्पताल स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बेहतर गुणवत्ता प्रदान करने के लिए नवीनतम ‘स्टेट ऑफ़ द आर्ट’ तक़नीक का संयोजन करती हैं. ये सारे ख़र्च मरीज़ वहन करते हैं. निस्संदेह, येऔषधि के वैज्ञानिकी विकास के महत्व को कमतर करने का कोई कुत्सित प्रयास नहीं हैं, लेकिनकॉर्पोरेट अस्पतालों मे इलाज की कीमत को ऊंचा करने को लेकर एक तीखी/महत्वपूर्ण आलोचना का मुद्दा ज़रूर है. दूसरी तरफ, निजी चिकित्सक, चार्ज किये जाने वाले शुल्क के संबंध में बहुत ही कम नियमों के दायरे मे आते हैं. क्लीनिकल (पंजीकरण एवं नियामक) स्थापना एक्ट, 2010 के अंतर्गत मरीजों को दिए जाने वाली चिकित्सा को और भी ज्य़ादा पारदर्शी बनाए जाने की अपेक्षा जतायी जाती है, परंतु देशभर के भीतर कई डॉक्टर एसोसिएशन ने इस नियामक के अमलीकरण पर विरोध दर्ज किया है.

भारत में तृतीय श्रेणी का देखभाल करने की दशा पूरी तरह से बदल गई है, जिसे अमूमन हेल्थकेयर के क्षेत्र में ‘कॉर्पोरेटाइजेशन या निगमीकरण’ का आरोप झेलना पड़ता है. पहले देश भर में तीसरी श्रेणी की हेल्थकेयर सेवा के प्रदाता चैरीटेबल ट्रस्ट अथवा फाउंडेशन द्वारा संचालित हुआ थे,इसलिए वे सेवा को मुनाफ़े से ज्य़ादा महत्व देते थे.

पब्लिक सेक्टर स्थित अस्पतालें मरीजों के समक्ष मुद्दों का एक विशाल दायर बना देते हैं. ज्य़ादातर मरीज़, स्वच्छता की कमी और असम्मान जनक उपचार की वजह से वहाँ जाना पसंद नहीं करते हैं. न्यूनतम वित्तीय इंसेटिव की वजह से संभवतः सार्वजनिक अस्पतालों में डॉक्टरों की अनुपस्थिति के कई उदाहरण मिलेंगे.हर 2000 व्यक्ति के ऊपर सिर्फ़ एक बिस्तर की उपलब्धता बताती है कि विश्वसनीय बुनियादी ढांचे और टेक्नोलॉजी की भारी कमी है.

तीसरा अहम मुद्दा है राज्य

इस पहेली का तीसरा अहम मुद्दा है राज्य. जनसंख्या एवं उसके लिए ज़रूरी स्वास्थ्य सेवा के मद्देनज़र, सार्वजनिक अस्पतालों और प्राइमरी स्वास्थ्य सेवा केंद्र आदि में काफी कम निवेश हैं. राज्यों ने ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर के ज़रिए औषधियों की कीमत को ऐतिहासिक तौर पर नियंत्रित करने की कोशिस की है, विशेषकर व्यापक एवं जानलेवा बीमारियों की रोकथाम करने हेतु, अणु कणिकाओं की कीमत में वृद्धि को रोकने के लिये. हालांकि, दवाइयाँ, अब भी OOPE का एक बड़ा हिस्सा है क्योंकि वे राज्य द्वारा वित्त पोषित नहीं होते हैं.दवाओं को वित्तीय मदद प्रदान करने और सप्लाई-चेन हितधारकों के मार्जिन को टालने के लिए, तमिलनाडु और राजस्थान जैसे कुछ राज्य उत्पादकों से सस्ती और ग़ैर ब्रांडेड दवाएं हासिल करती हैं और फिर केंद्रीयकृत एजेंसियों के माध्यम से सीधे-सीधे मरीजों तक पहुंचाने का काम करती है. ये सेवा अगर निजी प्रदाताओं को भी मिल जाती है तो दवाओं के लिए OOPEको आंशिक तौर पर बदला जा सकता है.

विभिन्न इंश्योरेंस स्कीम को शुरू कर, जिसे भारत पिछले एक-डेढ़ दशक से करता आ रहा है, ख़ासकर स्वास्थ्य सेवा के निजी प्रभुत्ववादी बाज़ार में, एक व्यावहारिक प्रगतिशील कदम है, हालांकि, वे मुख्य रूप से, अस्थिर औरगंभीर रूप से बीमार मरीजों की ज़रूरतों को पूरा करते हैं, जो बार-बार बीमार पड़ने वाले आउट पेशेंट मरीजों के खर्चे को राहत नहीं देते हैं.

हेल्थ केयर के प्रमुख हितधारकों के साथ आने पर ही दिशा में ठोस काम मुमकिन है.येभारत में स्वास्थ्य सेवा के उद्भव को ढूँढकर उनकी पहचान करने का काम करती है, ताकिउस तक पहुँच पाने और समझ पाने में आसानी हो. फार्मास्युटिकल उद्योग के प्रसार ने, विश्व भर में लोगों को सस्ती दावा मुहैया करा पाने में सफल रहा है, परंतु भारत में, अनैतिक प्रथाओं में वृद्धि के कारण, दवाओं की उपलब्धता पर रोक लगा दी है. शहरी समूह में हमारे पास विश्व स्तरीय स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हैं, परंतु सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में भीड़-भाड़ और कम वित्त-पोषण अब भी जारी हैं. बीमा अधिग्रहण धीमा है, और स्वास्थ्य सेवाओं को लेने के लिए लोग अब भी अपनी संपत्ति बेचने को मजबूर हैं.स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने और उसकी वहनीयता/सामर्थ्य की दिशा में इस तरह की प्रमुख चेतावनी ये दिखलाती है कि, स्वास्थ्य हमेशा से ही राजनैतिक अनिवार्यता रहा है, और सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा तभी संभव है जब वो  बजट , राजनीति और आर्थिक प्राथमिकता की सूची में सबसे उपर हो.


[i]एंटी-कैंसर की अणुओं के मध्य कीमत का फर्क 7-154% और मधुमेह के लिए 150-183% तक हैं.

[ii]एनएसएसओ स्वास्थ्य सर्वे (2017-18) के 75वें राउंड के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 33% और शहरी क्षेत्र में 26% बीमारियों का इलाज इन सरकारी अस्पतालों में किया गया था. निजी अस्पतालों ने ग्रामीण क्षेत्र के 21% और शहरी क्षेत्र के 27% बीमारियों का इलाज किया. बुनियादी स्वास्थ्य सेवे के संदर्भ में, ग्रामीण क्षेत्र में 41% और शहरी क्षेत्र में 44% बीमारियों का निदान निजी डॉक्टर एवं क्लिनिक द्वारा किया गया. बचे हुए 5.2% ग्रामीण और 2.2 प्रतिशत शहरी क्षेत्र में बीमारियों का इलाज अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता और चैरिटेबल/ट्रस्ट/ एनजीओ-चालित अस्पताल द्वारा किया गया.

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Ovee Karwa

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Ovee is a Research Associate at CPC Analytics. She has done her bachelor's in Literary and Cultural Studies and is interested in understanding power oppression ...

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Sahil Deo

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Non-resident fellow at ORF. Sahil Deo is also the co-founder of CPC Analytics, a policy consultancy firm in Pune and Berlin. His key areas of interest ...

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