Author : Manish Vaid

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 07, 2025 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद भारत और अमेरिका के बीच कई क्षेत्रों में अब भी सहयोग बढ़ाए जा सकते हैं.

भारत और अमेरिका के बीच ऊर्जा के क्षेत्र में बेहतर होते संबंध

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रणनीतिक सहयोग और नीतिगत बदलाव लंबे समय से भारत और अमेरिका के बीच ऊर्जा संबंध को दशा-दिशा देते रहे हैं. बेशक, ऐतिहासिक रूप से दोनों देश विभिन्न ऊर्जा क्षेत्रों में जुड़े रहे हैं, लेकिन वॉशिंगटन और नई दिल्ली में बदलती राजनीतिक प्राथमिकताओं के कारण स्वच्छ ऊर्जा में आपसी साझेदारी अक्सर चुनौतियों से टकराती रही है. इस आलेख में भारत और अमेरिका के बीच ऊर्जा संबंधों में असहमति व सहमति के प्रमुख क्षेत्रों और भविष्य में सहयोग के संभावित रास्तों की पड़ताल की गई है.

नीतिगत उतार-चढ़ाव

भारत और अमेरिका के बीच स्वच्छ ऊर्जा में आपसी सहयोग लंबे समय से बदलती राजनीतिक प्राथमिकताओं से तय होता रहा है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका की प्राथमिकता भारत को जीवाश्म ईंधन का निर्यात बढ़ाना था, जो ट्रंप प्रशासन के ‘ऊर्जा प्रभुत्व’ एजेंडे के साथ जुड़ा हुआ था. इस रणनीति को जो बाइडन के शासनकाल में बदल दिया गया और अक्षय ऊर्जा में सहयोग को प्राथमिकता देना शुरू किया गया. हालांकि, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में फिर से जीवाश्म ईंधन पर ध्यान दिया जा रहा है और कार्यकारी आदेशों द्वारा तेल और गैस की खोज व उत्पादन के लिए अधिक जमीन को पट्टे पर देने की बात कही गई है, तरलीकृत प्राकृतिक गैस (LNG) के टर्मिनल पर प्रतिबंध हटा दिए गए हैं और नई पवन ऊर्जा परियोजनाओं को टाल दिया गया है. बेशक, कम समय के ऊर्जा व्यापार को बढ़ावा दिया गया है, लेकिन इन कदमों ने स्वच्छ ऊर्जा के स्थिर प्रयासों को प्रभावित किया है.

जीवाश्म ईंधन को किनारे रख दें, तो रूस से भारत का बढ़ता कच्चा तेल आयात दूसरा क्षेत्र है, जिसको लेकर अमेरिका और भारत में भिन्नताएं हैं. भले ही इस व्यावहारिक नीति से ऊर्जा सुरक्षा मज़बूत होती है, लेकिन यह अमेरिका के साथ रणनीतिक विश्वास को कम कर सकता है. 

एक निर्णायक कार्यकारी आदेश द्वारा राष्ट्रीय ऊर्जा आपातकाल की घोषणा की गई, नियम संबंधी रुकावटों को ख़त्म करते हुए जीवाश्म ईंधन के उत्पादन को व्यवस्थित किया गया और हाइड्रोकार्बन को लेकर अमेरिकी प्रशासन की प्रतिबद्धता को मज़बूत बनाया गया है. भले ही इस नीतिगत बदलाव से तुरंत आर्थिक लाभ मिल सकता है, लेकिन यह 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन की क्षमता हासिल करने की भारत की महत्वाकांक्षी योजना की राह को जटिल बना सकता है. भारत के लिहाज़ से देखें, तो अमेरिका की अस्थिर ऊर्जा नीति के कारण उस पर लंबे समय तक भरोसा करने को लेकर सवाल उठता है.

जीवाश्म ईंधन को किनारे रख दें, तो रूस से भारत का बढ़ता कच्चा तेल आयात दूसरा क्षेत्र है, जिसको लेकर अमेरिका और भारत में भिन्नताएं हैं. भले ही इस व्यावहारिक नीति से ऊर्जा सुरक्षा मज़बूत होती है, लेकिन यह अमेरिका के साथ रणनीतिक विश्वास को कम कर सकता है. इसके अलावा, अमेरिका के साथ भारत का बढ़ता LNG व्यापार, ऊर्जा सुरक्षा के लिए भले फ़ायदेमंद है, लेकिन इससे कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी के प्रयासों पर असर पड़ता है. भारत को LNG निर्यात बढ़ाने से, जिसको प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण और आपूर्ति विश्वसनीयता से प्रोत्साहन दिया जाता है, ऊर्जा ज़रूरतें तुरंत पूरी हो जाती हैं, लेकिन इससे स्वच्छ ऊर्जा अपनाने के भारत के प्रयासों को झटका लगने का ख़तरा है.

भारत आपूर्ति शृंखलाओं को मज़बूत करने और इलेक्ट्रिक गाड़ियों व बैटरियों के लिए कर-लाभ पाने के लिए अमेरिका के साथ अपने महत्वपूर्ण खनिज सौदों को आगे बढ़ाने के लिए इच्छुक है.

टकराव का एक और मुद्दा परमाणु ऊर्जा है. अमेरिका-भारत 123 असैन्य परमाणु समझौता में, जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान फिर से ज़ोर दिया गया है, भारत में अमेरिका द्वारा तैयार रिएक्टरों की कल्पना की गई है. मगर, भारत के सिविल न्यूक्लियर डैमेज ऐक्ट (CLNDA) के तहत सख़्त दायित्व प्रावधानों के कारण निजी निवेश पर रोक लग गई है. यह सही है कि हाल की बजट घोषणाओं में विदेशी खिलाड़ियों को आकर्षित किया गया है, लेकिन उच्च पूंजी लागत और भूमि अधिग्रहण जैसी संरचनात्मक चुनौतियां अब भी रुकावट बनी हुई हैं. परमाणु सुरक्षा और भारत के परमाणु दायित्व कानूनों से जुड़े आर्थिक जोखिमों पर चिंताएं भी विदेशी निवेश को रोकती हैं.

 

संबंध वाले क्षेत्र और संभावित प्रतिबद्धताएं

राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद, कई क्षेत्रों में मज़बूत आपसी सहयोग बना हुआ है. भारत की स्वच्छ ऊर्जा महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाला एक प्रमुख खिलाड़ी अमेरिका ही है, जो अक्षय ऊर्जा, LNG और महत्वपूर्ण खनिजों में निवेश करता है. दोनों देश प्राकृतिक गैस की तरफ आगे बढ़ने को लेकर समान सोच रखते हैं और लंबी अवधि के LNG अनुबंध से आपूर्ति में स्थिरता सुनिश्चित की गई है. इस साझा हित का एक उदाहरण गेल (इंडिया) लिमिटेड और सबाइन पासा लिक्विफैक्शन LLC के बीच 20 साल का समझौता है.

तकनीकी नवाचार भी आपसी सहयोग का एक अन्य क्षेत्र है. सहयोगी अनुसंधान और विकास पहल, जैसे कि यूएस-इंडिया ट्रांसफॉर्मिंग द रिलेशनशिप यूटिलाइज़िंग स्ट्रैटिजिक टेक्नोलॉजी (TRUST) महत्वपूर्ण खनिजों, सेमीकंडक्टर व स्वच्छ ऊर्जा तकनीक में सहयोग को और मज़बूत बनाती है. 

महत्वपूर्ण खनिजों के रणनीतिक महत्व को पहचानते हुए, दोनों देश अनुसंधान व शोध में भी सहयोग को प्रोत्साहन दे रहे हैं और पूरी मूल्य शृंखला में निवेश को बढ़ावा दे रहे हैं. भारत आपूर्ति शृंखलाओं को मज़बूत करने और इलेक्ट्रिक गाड़ियों व बैटरियों के लिए कर-लाभ पाने के लिए अमेरिका के साथ अपने महत्वपूर्ण खनिज सौदों को आगे बढ़ाने के लिए इच्छुक है. इस क्षेत्र में चीन के दबदबे को तोड़ने के लिए बहुआयामी रणनीति की ज़रूरत है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान के साथ बहुपक्षीय साझेदारी, घरेलू खनिज की खोज में निवेश और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत समर्थन देना शामिल है. बेशक, क्वॉड (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का समूह) महत्वपूर्ण खनिजों में क्षेत्रीय सहयोग का एक अहम मंच है, लेकिन सदस्य देशों की अलग-अलग ऊर्जा प्राथमिकताएं राह में मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं.

अपने ऊर्जा भविष्य को आकार देने की क्षमता हासिल करने की भारत की आकांक्षा वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी को लचीला बनाने में मदद करने वाली है. 

इसके अलावा, देनदारी संबंधी चिंताओं को कम करने के लिए द्विपक्षीय व्यवस्था बनाने के साथ-साथ प्रौद्योगिकी के लेन-देन और स्थानीय निर्माण के प्रति प्रतिबद्धताएं संबंधों में विस्तार का एक व्यावहारिक रास्ता है. यह नीति उन्नत छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों सहित तत्काल परमाणु उपयोग में तेज़ी ला सकती है, जिससे भारत को बुनियादी ढांचे की सीमाओं व सुरक्षा संबंधी आशंकाओं को दूर करने में मदद मिल सकेगी.

 

निष्कर्ष

साफ है, अमेरिका के साथ भारत की ऊर्जा साझेदारी रणनीतिक जुड़ाव और प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं से गुथी हुई हैं. भले ही राजनीतिक अस्थिरता के कारण चुनौतियां पैदा होती हैं, लेकिन बाजार-संचालित सहयोग, तकनीकी प्रगति और अलग-अलग क्षेत्रों में आपसी सहयोग से स्थिरता भी आती है. बहुपक्षीय गठबंधनों के माध्यम से अपनी ऊर्जा सुरक्षा को मज़बूत करके और महत्वपूर्ण खनिजों में निवेश करके, भारत अस्थिर नीति से अपना बचाव कर सकता है. इस साझेदारी की सफलता इसी बात पर निर्भर करेगी कि भारत अपनी तात्कालिक ऊर्जा जरूरतों को लंबी अवधि के टिकाऊ लक्ष्यों के साथ किस तरह संतुलित कर पाता है. इसमें नीतिगत अनुमान लगाना, नवाचार को बढ़ावा देना और नए दौर के ईंधन को अपनाना महत्वपूर्ण कदम साबित होगा. कुल मिलाकर, कहने का अर्थ यही है कि अपने ऊर्जा भविष्य को आकार देने की क्षमता हासिल करने की भारत की आकांक्षा वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी को लचीला बनाने में मदद करने वाली है. 


(मनीष वैद ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में जूनियर फेलो हैं)

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