Published on May 22, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत और अमेरिका के लिए छोटे समूहों (Minilaterals) की प्रयोगशाला बना पश्चिमी एशिया

7 मई को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने सऊदी अरब के प्रधानमंत्री और युवराज मोहम्मद बिन सलमान के साथ बैठक की. इस बैठक में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शेख़ ताहून बिन ज़ायद अल नाहयान और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल भी उपस्थित थे. तेज़ी से बदल रहे क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को देखते हुए, हो सकता है कि ऊपरी तौर पर ये बैठक, देशों के एक और छोटे समूह के बनने का संकेत हो. लेकिन, ये मुलाक़ात मध्य पूर्व के लिए अमेरिकी नीति में संशोधन की संभावना को भी रेखांकित करता है और बाइडेन प्रशासन के राज में ये बैठक एक व्यापक नीतिगत परिवर्तन की ओर भी इशारा करती है. हाल ही में एक नीतिगत भाषण में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवान ने समीकरणों में हो रहे इन बदलावों के पांच स्तंभों को रेखांकित किया था; साझेदारियां, विरोधियों को दूर रखना, कूटनीति और तनाव कम करना, एकीकरण और मूल्य. हालांकि, ऐसा लगता है कि इन सिद्धांतों में से विकल्पों के चुनाव को दर्ज़ों में बांटा गया है और अमेरिका बार बार साझेदारियों और एकीकरण की बात करता रहा है. कुछ ख़ास ख़तरों को देखते हुए भयभीत रखने की व्यवस्था विश्वसनीय रूप से बनी हुई है, वहीं मूल्यों के सम्मान को लेकर चिंताओं ने ही शायद इस क्षेत्र की भू-राजनीति को प्रभावित किया है. कम से कम इस वक़्त तो यही लग रहा है.

चीन की बढ़ती मौजूदगी और अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापस बुलाने के कारण शायद अमेरिका को इस क्षेत्र के लिए नई रणनीति अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जिसके तहत वो अफ़ग़ानिस्तान के इर्द गिर्द और इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को मज़बूती दे रहा है

पश्चिमी एशिया (मध्य पूर्व) में अमेरिका की एक रणनीति फिर उभार पर है, जिसके तहत अमेरिका अपनी उपस्थिति के दायरे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. अमेरिका, कई कारणों से इस क्षेत्र के लिए ये नया रवैया अपनाने को मजबूर हुआ है. सऊदी अरब के प्रति मानव अधिकारों को लेकर अमेरिका के सैद्धांतिक रुख़ के अपेक्षित नतीजे नहीं निकल सके हैं. हाल के वर्षों में मध्य पूर्व के कई देशों की दुश्मनी को भुलाकर रिश्ते सुधारने की कोशिश होती देखी गई है. इसमें सऊदी अरब और ईरान के बीच बहुचर्चित समझौता भी शामिल है, जिसमें चीन ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी. इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती मौजूदगी और अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापस बुलाने के कारण शायद अमेरिका को इस क्षेत्र के लिए नई रणनीति अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जिसके तहत वो अफ़ग़ानिस्तान के इर्द गिर्द और इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को मज़बूती दे रहा है और इस क्षेत्र में उभर रहे गठबंधनों और साझेदारियों के इस जाल में अमेरिका अपनी एक मज़बूत मौजूदगी बनाने की कोशिश कर रहा है. और, अगर उसकी सोच यही है तो इस क्षेत्र में उसे ऐसा करने की सख़्त ज़रूरत है, ताकि वो इस क्षेत्र के देशों के साथ सामरिक रूप से भी संबद्ध रहे. क्षेत्रीय स्तर पर अमेरिका की इस कोशिश का मक़सद, इज़राइल के साथ अपनी पक्की दोस्ती के साथ साथ सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे अहम देशों के साथ अपने संबंधों को पुनर्जीवित करना भी है. इस क्षेत्र में अमेरिका की भयभीत रखने की क्षेत्रीय रणनीति की धुरी तो अभी भी इज़राइल ही है. लेकिन, अमेरिका धीरे धीरे अब दूसरे स्तंभों के साथ नज़दीकी बढ़ाकर भी इस धुरी में विविधता लाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, ताकि इस क्षेत्र के तेज़ी से बदल रहे समीकरणों के बीच अपनी मज़बूत स्थिति बनाए रख सके.

अमेरिका की नीति

अमेरिका की मध्य पूर्व नीति का एक बुनियादी तत्व, जिसका ज़िक्र जेक सुलीवन ने अपने भाषण में किया था, वो ये है किदक्षिणी एशिया को मध्य पूर्व से और मध्य पूर्व को अमेरिका से जोड़ा जाए’, वो भी इस तरह जिससे साझा आर्थिक, तकनीकी और कूटनीति हितों को आगे बढ़ाया जा सके. आपस में नज़दीकी से जुड़े  दक्षिणी एशिया और मध्य पूर्व, अमेरिकी नीति की उस कमी को पूरा करते हैं, जहां वो हिंद प्रशांत क्षेत्र पर कुछ ज़्यादा ही ध्यान केंद्रित कर रहा है. इससे मध्य पूर्व के अहमद देशों के हितों का हिंद प्रशांत के विस्तार में वितरण हो जाएगा, जिससे स्वतंत्र एवं खुले हिंद प्रशांत की परिभाषा का और अधिक विस्तार हो सकेगा. लंबी अवधि में भारत के साथ मध्य पूर्व और हिंद प्रशांत क्षेत्र के हितों का मेल, चीन के सामरिक दबदबे को सीमित करेगा और उसकी दबदबे वाली रणनीति को चुनौती देगा.

हालांकि, एक सच्चाई ये भी है कि आपसी संवाद का ये मंच I2U2 (भारत इज़राइल अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात) के प्रत्यक्ष दायरे से बाहर है. इससे रेखांकित होता है कि भले ही इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इस बात पर बहुत ज़ोर देते हो, मगर आने वाले समय में इज़राइल और सऊदी अरब के रिश्ते सामान्य होने की संभावना कम ही है. मध्य पूर्व की क्षेत्रीय भू-राजनीति नाज़ुक बनी हुई है. ईरान और उसके परमाणु कार्यक्रम को लेकर तनाव अभी भी अनसुलझा है. इसके अलावा इस क्षेत्र में अमेरिका द्वारा प्रदान की जाने वाली पारंपरिक सुरक्षा के टिकाऊ और उपयोगी रहने को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. काउंसिल ऑफ़ फॉरेन रिलेशंस में सीनियर फेलो मैक्स बूट ने हाल ही में अपनी ये राय ज़ाहिर की थी कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे देश अब बड़ी तेज़ी से इन निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य शक्ति अब व्यवहारिक कम औरदिखावटीज़्यादा होती जा रही है. अरब खाड़ी के अन्य देशों की राय भी ऐसी ही है, ख़ास तौर से तब और जब बात राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन की आती है.

इस क्षेत्र के देश अब जिस तरह चीन पर दांव लगा रहे हैं, वो तो दिसंबर 2022 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की इस क्षेत्र की बहुचर्चित यात्रा के दौरान दिखी थी. मगर हम इसे अरब राजशाहियों के पूर्ण परिवर्तन के तौर पर नहीं देख सकते हैं. अक़्लमंदी इसी में है कि इसे दो अहम मोर्चों से देखा जाए. पहला, ये बुनियादी तथ्य है कि चीन एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसके बाज़ार की अनदेखी कर पाना अब दुनिया में लगभग किसी भी देश के लिए मुमकिन नहीं है. दूसरा, इस तरह दो बड़े देशों के बीच संतुलन बनाना ग़ैर-पक्षपातपूर्ण भी है और अमेरिका में मौजूद चीन विरोधी लॉबी को भी ताक़तवर बनाता है. ये लॉबी अब अमेरिका के दोनों राजनीतिक दलों में है और इस बात पर सहमत है कि चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका को सख़्त रणनीति पर चलना होगा. इस क्षेत्र के पारंपरिक अमेरिकी साझेदारों द्वार उससे दूरी बनाने की सोच शायद बाइडेन प्रशासन और उसके बाद बनने वाली सरकार को सऊदी अरब से नज़दीकी बढ़ाने और उन मतभेदों को दूर करने के लिए प्रेरित करे, जो वॉशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल ख़शोगी की 2018 में तुर्की में हत्या के बाद से बढ़ते ही जा रहे हैं. ख़शोग्गी की हत्या के लिए अमेरिका ने सऊदी अरब के युवराज मुहम्मद बिन सलमान की कारगुज़ारियों को ज़िम्मेदार ठहराया था.

इस दृष्टिकोण से I2U2 निश्चित रूप से एक ऐसा ब्लूप्रिंट तैयार करने की अच्छी स्थिति में है, जिसको आधार बनाकर भविष्य में तुलनात्मक रूप से इन नए और नाज़ुक कूटनीतिक ढांचों से ठोस नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं.

बुनियादी स्तर पर I2U2 और अब उसी की तरह का एक और मंच सऊदी अरब को उससे जोड़ता है, जिससे भविष्य में उस वक़्त सऊदी अरब को भी तालमेल बिठाने का रास्ता मिलेगा, जब भू-राजनीतिक फ़ैसले एक दूसरे से मेल खाने लगेंगे. उदाहरण के तौर पर, हाल ही में इज़राइल में सियासी उथल-पुथल ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ उसके तनाव को एक बार फिर भड़का दिया है. संयुक्त अरब अमीरात, जो I2U2 और अब्राहम समझौतों में इज़राइल का साझीदार है, ने अल अक़्सा मस्जिद में इज़राइल की कार्रवाई की कड़ी आलोचना की थी, जिसके बाद बेंजामिन नेतन्याहू को UAE की अपनी बहुप्रतीक्षित यात्रा को रद्द कर देना पड़ा था. इसके बावजूद, खुले कूटनीतिक रास्ते जो पहले उपलब्ध नहीं थे, वो अब दोनों ही बातों यानी पूरे क्षेत्र में राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए उपयोगी हैं.

आगे की राह 

I2U2 के बाद इस क्षेत्र में क्वाड सरीखे एक और समूह में भारत को शामिल किए जाने से हिंद प्रशांत क्षेत्र में उसकी बढ़ती भूमिका रेखांकित होती है. इससे ये भी पता चलता है कि हिंद प्रशांत में एक क्षेत्रीय ढांचा खड़ा करने की ज़मीन तैयार करने के लिए अमेरिका कितना बेक़रार है. पहले अमेरिका अपनी क्षेत्रीय नीति, खुले तौर पर भू-राजनीति के आधार पर चलाता था. लेकिन अब मध्य पूर्व को लेकर उसका नया नज़रिया, क्षेत्रीय संवेदनाओं, आर्थिक चिंताओं, और बहुपक्षीयवाद को और असरदार तरीक़े से संतुलित करने की कोशिश लगता है.

भारत के नज़रिए से देखें, तो मध्य पूर्व में ये छोटे छोटे क्षेत्रीय समूह उसको अपने लिए एक अहम भौगोलिक क्षेत्र से एक व्यापक भू-राजनीतिक और भू-राजनीतिक संपर्क का ज़रिया मुहैया कराते हैं. इस दृष्टिकोण से I2U2 निश्चित रूप से एक ऐसा ब्लूप्रिंट तैयार करने की अच्छी स्थिति में है, जिसको आधार बनाकर भविष्य में तुलनात्मक रूप से इन नए और नाज़ुक कूटनीतिक ढांचों से ठोस नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं. ये एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि इस काम के लिए सभी साझीदार देशों को काफ़ी अहम वित्तीय संसाधन और कूटनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक नियामक ताक़त झोंकने की ज़रूरत होगी. बातचीत के मंचों को सफल तरीक़े से कारगर बनाने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करना, वक़्त की अहम मांग है.

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Authors

Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...

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Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...

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