Published on Jan 02, 2023 Updated 0 Hours ago

दो भागों की सीरीज़ के दूसरे हिस्से में आज जब हिंद प्रशांत क्षेत्र, भू-राजनीति के केंद्र में आ रहा है, तो ज़रूरी हो गया है कि लोकतांत्रिक देशों को चाहिए कि वो इस इलाक़े में सामरिक रूप से अहम ठिकानों पर स्थित द्वीपीय देशों को चीन के प्रभाव क्षेत्र में आने से रोकने के लिए काम करें.

बड़ी शक्तियां और छोटे द्वीप: लोकतांत्रिक ताक़तों को भी मदद के लिये हाथ बढ़ाना होगा!

पहले लेख में हमने बताया था कि प्रशांत क्षेत्र में हो रहे बदलावों से वैश्विक समुदाय के हित सीधे तौर पर जुड़े हैं. सबसे बुनियादी स्तर पर इस इलाक़े का जलवायु परिवर्तन का अनुभव बाक़ी दुनिया के लिए आने वाले समय का संकेत देगा. और, भू सामरिक मामले में इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियां इस बात का पूर्वाभास कराती हैं कि वैश्विक सामरिक संतुलन में क्या बदलाव आने वाला है. लोकतांत्रिक देश, प्रशांत क्षेत्र से संवाद करने और मदद करने की ज़िम्मेदारी इस इलाक़े में अपने ‘मशाल धारक’ ऑस्ट्रेलिया के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं. क्योंकि चुनौती दो व्यवस्थाओं के बीच मुश्किल संघर्ष में जीतने की है.

इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक प्रयासों में मज़बूती लाने में भारत अपने सामरिक वज़न के ज़रिए महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है. भारत के विकास की कहानी और हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक बड़ी ताक़त के तौर पर भारत के प्रेरणादायक मूल्य की अनदेखी नहीं की जा सकती.

ख़ुशक़िस्मती से ऑस्ट्रेलिया के मौजूदा सामरिक विशेषज्ञ उस पुरानी सोच के कायल नहीं है कि प्रशांत को उनका ‘अपना इलाक़ा’ बने रहना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया ने इस क्षेत्र में हमेशा से न्यूज़ीलैंड के साथ मिलकर काम किया है, जो प्रशांत क्षेत्र का एक छोटा मगर उपयोगी साझीदार रहा है और पॉलीनेशिया के उप-क्षेत्र में तो अपने पुराने संबंधों के चलते उसकी ख़ास उपोगियता रही है. लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया समान विचार वाले उन देशों के साथ मिलकर भी काम करने को तैयार है, जो इस क्षेत्र से दूर स्थित हैं.

इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक प्रयासों में मज़बूती लाने में भारत अपने सामरिक वज़न के ज़रिए महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है. भारत के विकास की कहानी और हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक बड़ी ताक़त के तौर पर भारत के प्रेरणादायक मूल्य की अनदेखी नहीं की जा सकती. अगर लोगों के बीच संपर्क से ऑस्ट्रेलिया को प्रशांत से सकारात्मक संपर्क का मंच मिलता है, तो यही बात भारत के मामले में भी सच है. इस क्षेत्र में और विशेष रूप से फिजी में भारतीय मूल के लोग काफ़ी संख्या में हैं. इसके अलावा अप्रवास के नए दौर के में कारोबारी यात्राएं और अंतरराष्ट्रीय रोज़गार के कारण, भारतीय मूल के काफ़ी लोग इस पूरे इलाक़े में प्रभावी ओहदों में काम करने आए हैं. ये लोग महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं, और इन्हें सामरिक संपत्ति के तौर पर देखा जा सकता है.

इन संपर्कों की बुनियाद पर ही भारत और फिजी ने अक्टूबर में घोषणा की थी कि प्रतिष्ठित विश्व हिंदी सम्मेलन 2023 में फिजी के नादी में होगा. ये चतुर जन कूटनीति है; इससे भारत को हिंदी को वैश्विक भाषा के तौर पर पेश करने का मौक़ा मिलता है. इससे ये तर्क भी मज़बूत होता है कि प्रशांत क्षेत्र के साथ आर्थिक और सुरक्षा संवाद बढ़ाने के लिए एक सांस्कृतिक मंच पहले से मौजूद है.

ऐसे संवादों के लिए प्रतिबद्धता साफ़ तौर पर बढ़ रही है. फिर चाहे द्विपक्षीय हो या चतुष्कोणीय सुरक्षा गठबंधन (Quad) के माध्यम से. हाल के वर्षों में भारत और ऑस्ट्रेलिया ने अपना रक्षा और सुरक्षा सहयोग नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है. इसे व्यापक द्विपक्षीय सामरिक साझेदारी और जापान व अमेरिका के साथ क्वॉड के ज़रिए आगे बढ़ाया जा रहा है. दोनों देशों के सुरक्षा संबंधों में समुद्री क्षेत्र पर अधिक ज़ोर है. इससे पता चलता है कि दोनों देशों की नौसेनाएं हिंद और प्रशांत क्षेत्र में अपनी ताक़त का जो प्रदर्शन करना चाहती हैं, उनमें काफ़ी समानताएं हैं. पिछले महीने भारत और ऑस्ट्रेलिया, क्वॉड के अन्य सदस्यों के साथ फिलीपींस सागर में साझा युद्धाभ्यास के ज़रिए अपने सहयोग में ताज़गी लाए थे. फिलीपींस सागर, दोनों महासागरों को जोड़ने वाला प्रमुख समुद्री इलाक़ा है. हिंद महासागर में मिलकर काम करते हुए, भारत और ऑस्ट्रेलिया ने भविष्य में द्वपक्षीय समुद्री निगरानी में सहयोग के लिए भी एक ठोस मंच बनाया है. दोनों ही देशों के नौसैन्य सिद्धांत, हिंद महासागर को स्थायी सामरिक हित वाला क्षेत्र कहते हैं.

हाल के वर्षों में भारत का उच्च स्तरीय संवाद निश्चित रूप से पूरब की ओर झुकता दिखा है. भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने और क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए इस साल दो बार ऑस्ट्रेलिया का दौरा कर चुके हैं. पॉपुआ न्यू गिनी के विदेश मंत्री ने सार्वजनिक रूप से ये संकेत दिया था कि अगले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब क्वॉड शिखर सम्मेलन के लिए ऑस्ट्रेलिया आएंगे, तो वो उनके देश का दौरा भी कर सकते हैं. भारत के किसी शासनाध्यक्ष का प्रशांत क्षेत्र के सबसे बड़े देश का ये पहला दौरा होगा. 

प्रशांत क्षेत्र के देश भी AUKUS के एलान से हैरान रह गए थे. वो प्रशांत क्षेत्र में रक्षा व्यय में बड़े इज़ाफ़े की घोषणा से ख़ुश नहीं हुए थे. उन्हें इस बात से विशेष दिक़्क़त हुई थी कि ऑस्ट्रेलिया की परमाणु शक्ति से लैस पनडुब्बियां इस क्षेत्र में तैनात की जाएंगी.

ये सबकुछ बहुत स्वागतयोग्य है. क्वॉड की उभरती भू-राजनीतिक अहमियत और ‘हिंद प्रशांत को मुक्त एवं खुला’ बनाए रखने के इसके स्पष्ट रूप से घोषित लक्ष्य को गढ़ने में भारत की केंद्रीय भूमिका है. सामरिक ख़तरे, जोख़िम सहने की क्षमता और सामरिक संस्कृति को लेकर अलग अलग नज़रिया होते हुए भी क्वॉड के सदस्य देशों के लिए इस क्षेत्र की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की काफ़ी गुंजाइश है. भारत के सामने तो ख़ास तौर से चीन के पलटवार का ख़तरा है और इसीलिए वो अपने सामरिक नज़रिए में बाक़ी सदस्यों से काफ़ी अलग सोच रखता है. बाक़ी देशों की तरह भारत सिर्फ़ अमेरिका के साथ औपचारिक सैन्य गठबंधन के भरोसे नहीं रह सकता है और अपनी सामरिक स्वायत्तता बनाए रखने की दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते भारत हमेशा बहुपक्षीय संवादों पर ध्यान केंद्रित रखेगा.

इन मतभेदों के बाद भी, क्वॉड देशों के बीच सहयोग मज़बूत ही होगा क्योंकि चीन, नियम आधारित व्यवस्था को लगातार चुनौती दे रहा है. विकास और सैन्य क्षेत्रों में अपने सहयोग को बढ़ाकर और ‘हिंद महासागर’ में अपने मौजूदा मज़बूत सहयोग के साथ साथ क्वॉड को अपनी सामूहिक ऊर्जा को प्रशांत क्षेत्र में थोड़ा ज़्यादा लगाना होगा. इसमें कोई शक नहीं कि जब प्रधानमंत्री अल्बानीज़ अगले साल कैनबरा में क्वॉड में अपने समकक्षों की मेज़बानी करेंगे, तो ऑस्ट्रेलिया की सरकार अपना कुछ ध्यान प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित करना चाहेगी.

ये सहयोग केवल सैन्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है. 2021 में प्रशांत क्षेत्र में मूलभूत ढांचे के विकास की नई परियोजनाओं की शिनाख्‍त के लिए विशेषज्ञों के समूह, क्वॉड इन्फ्रास्ट्रक्चर को-ऑर्डिनेशन ग्रुप की स्थापना का मक़सद, क्वॉड के सदस्य देशों द्वारा इस क्षेत्र में चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से होड़ लगाने और मूलभूत ढांचे में निवेश की इच्छाशक्ति दिखाना ही था.

क्वॉड का हर देश समानांतर रूप से एक दूसरे से सुरक्षा और विकास के संपर्क मज़बूत करने में लगा हुआ है. इन सब में भारत और जापान का रिश्ता सबसे दृढ़ है और हर देश के अमेरिका से काफ़ी मज़बूत सामरिक संबंध हैं. पिछले एक साल के दौरान, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने द्विपक्षीय सुरक्षा साझेदारी के समझौते पर दस्तख़त किए हैं. इसके अलावा दोनों देशों ने एक दूसरे की सेनाओं द्वारा, एक दूसरे के सैन्य अड्डों और बंदरगाहों के इस्तेमाल के लिए भी समझौता किया है. ऑस्ट्रेलिया ये मानता है कि जापान, प्रशांत क्षेत्र के विकास में उसका स्थायी समर्थक रहा है; ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बाद, जापान इस क्षेत्र को द्विपक्षीय मदद देने वाला तीसरा बड़ा देश है. इस क्षेत्र में चीन के सैन्य संपर्कों के बुरे असर को लेकर जापान और ऑस्ट्रेलिया के विचार एक जैसे हैं. दोनों देश प्रशांत क्षेत्र की विकास परियोजनाओं में व्यापक सहयोग करते हैं.

हाल में अमेरिका ने भी कुछ अतिरिक्त मदद बढ़ाई है. सितंबर में उसने पहली अमेरिका प्रशांत साझेदारी रणनीति का एलान किया, और सोलोमन समेत प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों को ये समझाने में सफल रहा है कि वो इससे जुड़े हुए रूप-रेखा समझौते को अपना लें, जिसके पीछे विकास के लिए अमेरिका के ख़र्च में काफ़ी वृद्धि की ताक़त है. इसके पहले अमेरिका ने एलान किया था कि वो क्षेत्र में अपने कूटनीतिक प्रभाव को बढ़ाएगा और सोलोमन द्वीप समूह, टोंगा और किरीबाती में अपने कूटनीतिक मिशन स्थापित करेगा. हाल के वर्षों में इनमें से हर देश कुछ हद तक चीन के क़रीब गया है.

कुछ सम्मान तो दिखाओ 

ये ज़रूरी है कि लोकतांत्रिक देश इस क्षेत्र में मिलकर काम करने में नई ऊर्जा लगाएं. लेकिन उससे भी अहम तो ये है कि प्रशांत क्षेत्र के देशों को ये महसूस हो कि उनसे सलाह मशविरा किया गया और उन्हें पूरा सम्मान दिया गया. सितंबर 2021 में ऑकस (AUKUS) साझेदारी का एलान किया गया था. ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन के रिश्ते मज़बूत करने की ये अहम पहल है. ऑस्ट्रेलिया के मीडिया ने इस एलान में फ्रांस के साथ उचित संवाद में नाकामी के मुद्दे को ख़ूब उछाला. नए गठबंधन में शामिल होने की हड़बड़ी में ऑस्ट्रेलिया ने प्रशांत क्षेत्र के इस अहम साझीदार के साथ पनडुब्बियों के समझौते को तोड़कर उसका अपमान किया गया था.

वैसे फ्रांस ऐसा महसूस करने वाला इकलौता देश नहीं था. प्रशांत क्षेत्र के देश भी AUKUS के एलान से हैरान रह गए थे. वो प्रशांत क्षेत्र में रक्षा व्यय में बड़े इज़ाफ़े की घोषणा से ख़ुश नहीं हुए थे. उन्हें इस बात से विशेष दिक़्क़त हुई थी कि ऑस्ट्रेलिया की परमाणु शक्ति से लैस पनडुब्बियां इस क्षेत्र में तैनात की जाएंगी. इनमें से कई देशों ने बीसवीं सदी में परमाणु परीक्षणों की तकलीफें झेली हैं और उन्होंने अपनी भड़ास इस एलान पर निकाली. फिजी के प्रधानमंत्री फ्रैंक बैनिमारामा ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया और उसके ऑकस साझीदारों को उस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसे प्रशांत क्षेत्र अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानता है. उन्होंने कहा कि, ‘अगर हम ख़रबों डॉलर मिसाइलों और ड्रोन और परमाणु पनडुब्बियों पर ख़र्च कर सकते हैं, तो हम जलवायु परिवर्तन से निपटने पर भी पैसे ख़र्च कर सकते हैं.’ पूरे क्षेत्र के नेताओं ने कहा कि अगर उनसे इस बारे में सलाह मशविरा किया गया होता या फिर पहले से बता दिया गया होता, तो बेहतर होता.

ऑकस में काफ़ी संभावनाएं हैं. लेकिन इसके जन्म की कहानी इस बात की याद दिलाती है कि अगर मक़सद किसी क्षेत्र में प्रभाव बनाने का है, तो ये समझना ज़रूरी है कि उस इलाक़े में लोग रहते हैं और उनके नज़रिए का सम्मान भी किया जाना चाहिए. आख़िर, प्रशांत कोई निर्जन इलाक़ा तो है नहीं.


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