Published on Jan 02, 2023 Updated 0 Hours ago

दो भागों की इस सीरीज़ में इस बात का मूल्यांकन किया जा रहा है कि क्या प्रशांत क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया की जगह अब भी वही है, जैसा पहले माना जाता था.

बड़ी ताक़तें और छोटे द्वीप: प्रशांत महासागर और ऑस्ट्रलिया के बीच संवाद पर एक अपडेट

प्रशांत क्षेत्र में जो भू-सामरिक मुक़ाबला चल रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम ही स्तरीय कवरेज होती है. कई बार ये बात ऑस्ट्रेलिया को लेकर भी सही लगती है, जहां इस मुद्दे को मीडिया में कभी-कभार ही तवज्जो दी जाती है, जबकि ये इलाक़ा ऑस्ट्रेलिया के क़रीब है. उन लोगों को तो ये इलाक़ा निश्चित रूप से बहुत दूर लगता होगा, जो यहां सामरिक दिलचस्पी लेते हैं. इस बारे में जो भी सार्वजनिक संवाद होता है, उसे सुनकर ऐसा लगता है कि ये ख़ाली पड़ा सुनसान इलाक़ा है, जहां चीन, पश्चिमी देशों के साथ जान की बाज़ी लगाने वाली होड़ में जुटा है, और पश्चिमी देशों की अगुवाई इस इलाक़े में उनका प्रमुख प्रतिनिधि ऑस्ट्रेलिया कर रहा है. ये मुक़ाबला वास्तविक है और दांव पर बहुत कुछ लगा है. लेकिन, इस सामान्य परिचर्चा में अक्सर इस इलाक़े के लोगों की अनदेखी की जाती है. न उनकी चुनौतियों के बारे में सोचा जाता है, न प्राथमिकताओं और न ही उनकी आकांक्षाओं को तवज्जो दी जाती है.

यहां लोग रहते हैं और उनका अपना प्रतिनिधित्व है

दुनिया के सबसे बड़े महासागर में बहुत से विविधता भरे, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध समुदाय आबाद हैं. इनमें से कुछ इलाक़े के सबसे बड़े देश पापुआ न्यू गिनी के खुरदरे इलाक़ों में रहते हैं. अन्य समुदाय छोटे छोटे द्वीप समूहों में रहते हैं, जो इस विशाल समुद्री क्षेत्र में स्थित हैं. ज़्यादातर देश मछलियों के भंडार से लबरेज़ हैं और उनके यहां ऐसे खनिजों के भंडार पाए जाने की संभावनाएं भी अधिक हैं, जो भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम साबित होने वाले हैं. लेकिन, इनमें से बहुत से देश विकास की गंभीर चुनौतियों का सामना भी कर रहे हैं, जिनकी स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएं तेज़ी से बढ़ रही आबादी की ज़रूरतें पूरी कर पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

यहां के लोग एक बेहतर और टिकाऊ भविष्य की उम्मीद लगाए हुए हैं और उस मंज़िल तक पहुंचने को लेकर उनके अपने विचार हैं. प्रशांत क्षेत्र द्वीप मंच की ब्लू पैसिफिक महाद्वीप के लिए 2050 की रणनीति, इस क्षेत्र को सुरक्षित लचीला और समृद्ध बनाने का एक सामूहिक दृष्टिकोण पेश करते हैं. प्रशांत क्षेत्र के लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी चिंताओं के बारे में एकजुट हैं. उनके लिए ये वास्तव में अस्तित्व के लिए ख़तरा है और उन्हें पता है कि उनका अपना अनुभव, बाक़ी दुनिया के भविष्य की झांकी बनेगा. निश्चित रूप से यही कारण है कि प्रशांत में जो कुछ हो रहा है उसमें हमारी बुनियादी दिलचस्पी होती है.

चीन का उभार: प्रशांत क्षेत्र में दांव पर क्या लगा है?

इस इलाक़े में वैश्विक समुदाय की दिलचस्पी इसलिए भी है कि यहां की घटनाओं से पता चलेगा कि विश्व को दिखाने के लिए चीन की क्या ख़्वाहिशें हैं, और उससे अंतरराष्ट्रीय सामरिक संतुलन में क्या बदलाव आएंगे. इस क्षेत्र की हर सैन्य शक्ति के साथ चीन का संपर्क निश्चित रूप से बढ़ गया है. फिर चाहे वो फिजी हो, पापुआ न्यू गिनी, टोंगा या फिर वानुआतू. सैन्य मूलभूत ढांचे और अन्य सहयोगी सेवाओं से लेकर सैनिकों की ट्रेनिंग और दूसरे देशों को वाहन और जहाज़ तोहफ़े में देने तक, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से इस क्षेत्र के देशों को सैन्य मदद का सिलसिला बहुत बढ़ गया है. और ये यक़ीन न करने की कोई वजह नहीं बनती कि चीन जिस तरह हिंद महासागर और दक्षिणी चीन सागर में आक्रामक समुद्री रणनीति अपना रहा है, वही नज़रिया प्रशांत महासागर के लिए उसकी रणनीति के मूल में है. पूरी दुनिया में अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने में सक्षम बनने के लिए चीन की नौसेना को प्रशांत क्षेत्र में भी अपने सैनिक अड्डों की मदद चाहिए होगी.

लोवी इंस्टीट्यूट के पैसिफिक एड मैप के मुताबिक़, 2020 में चीन का क्षेत्र में योगदान गिरकर केवल 18.7 करोड़ डॉलर रह गया था. जो इस इलाक़े के विकास के ‘पारंपरिक’ साझीदारों जैसे कि ऑस्ट्रेलिया से मिलने वाली मदद की तुलना में तो वैसे भी काफ़ी कम है.

ख़ुद प्रशांत क्षेत्र के निवासियों के लिए, इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती सामरिक दिलचस्पी कई जोखिमों से भरी है. प्रशांत क्षेत्र के देशों ने साथ मिलकर, यहां के राजनेताओं को चीन से मिलने वाली वित्तीय मदद में पारदर्शिता की कमी को लेकर चिंता जताई है. उन्होंने चीन की ‘क़र्ज़ वाली कूटनीति’ के प्रयासों से अपनी संप्रभुता के लिए पैदा होने वाले ख़तरों को लेकर भी आशंकाएं ज़ाहिर की हैं. इसी दौरान, स्थानीय समुदायों ने चीन की सरकारी कंपनियों द्वारा, जनता के हितों और चिंताओं की अनदेखी करके सीधे राष्ट्रीय नेताओं के साथ परियोजनाओं के सौदे करने की प्रवृत्ति का भी खुला विरोध किया है. चीन के प्रतिनिधियों को अक्सर ये समझने में मुश्किल होती है कि प्रशांत महासागर के देशों का रवैया ऐसा नहीं रहा है.

इन देशों के नागरिक समूहों के प्रतिनिधि इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता और राजनीतिक आकांक्षाओं की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को लेकर चीन का जो रवैया है, वो इस देश की सरकारों को ग़लत दिशा में जाने को प्रेरित कर रहा है. उदाहरण के लिए वानुआतू में अपनी भूमिका को लेकर वहां के मीडिया की सोच को प्रभावित करने के लिए चीन ने स्थानीय मीडिया के प्रति बेहद आक्रामक रवैया अपनाया है और स्थानीय अधिकारियों पर भी उसका साथ देने के आरोप लगे हैं. हमने भी सोलोमन द्वीप समूह और किरीबाती में सरकारों द्वारा राजनीतिक विरोध से निपटने के तरीक़ों को चिंता के भाव से देखा है. इन देशों में भी चीन का काफ़ी असर है.

इस समय किसका पलड़ा भारी है?

आमतौर पर ये माना जाता है कि ख़र्च के मामले में पूरे प्रशांत क्षेत्र में चीन ने प्रतिद्वंदी पश्चिमी देशों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. हालांकि ये कहना ठीक होगा कि ये बिल्कुल ग़लत तस्वीर पेश की गई है.

इस प्रतिद्वंदिता की वास्तविक स्थिति समझने के लिए हमें उस वक़्त से ये देखना होगा, जब इस इलाक़े में ‘बड़े मुक़ाबले’ की चर्चा अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र में आई थी. विशेषज्ञ इस इलाक़े में लंबे समय से सामरिक मुक़ाबले को देखते आ रहे हैं. लेकिन, जनता की जागरूकता तो मुख्य रूप से 2018 से पहली बार बढ़ी है. उस साल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) की बैठक पापुआ न्यू गिनी की राजधानी पोर्ट मोरेसबी पहुंचे थे. इस इलाक़े में चीन के किसी सर्वोच्च नेता का ये पहला दौरा था. पोर्ट मोरेसबी में उस वक़्त अचानक हर जगह ‘चीन की मदद’ बोर्ड नज़र आने लगे थे. हड़बड़ी में उन सड़कों का रंग-रोग़ किया गया था, जहां से महान नेता को गुज़रना था. शी जिनपिंग के इस दौरे के दौरान इलाक़े में चीनी नौसेना की उपस्थिति पर भी ग़ौर किया गया था. जिनपिंग ने उस वक़्त वित्तीय चुनौतियों का सामना कर रहे अपने मेज़बान देश को भारी आर्थिक मदद देने का भी एलान किया था.

हाल के वर्षों में चीन की विकास संबंधी नई मदद, कुछ ही देशों, विशेष रूप से किरीबाती और सोलोमन द्वीप समूह तक सीमित रही है. ये वो देश हैं, जिन्होंने हाल के वर्षों में ताइवान से कूटनीतिक संबंध तोड़कर चीन से रिश्ते जोड़े हैं. वैसे तो इलाक़े के ज़्यादातर देशों पर क़र्ज़ का बोझ है. लेकिन, टोंगा, समोआ और वानुआतू जैसे कमज़ोर देशों पर तो चीन का भारी क़र्ज़ है.

अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस ख़बर की ख़ूब चर्चा हुई थी. कहा गया था कि प्रशांत क्षेत्र मे चीन का विजयी काफ़िला तेज़ी से आगे बढ़ रहा है.

सच तो ये है कि पापुआ न्यू गिनी को जो क़र्ज़ देने का वादा किया गया था, वो कभी नहीं मिले. इस क्षेत्र के विकास में चीन से अधिक आर्थिक मदद मिलने का ख़्वाब भी पूरा नहीं हुआ. इस साल नवंबर में अपडेट किए गए लोवी इंस्टीट्यूट के पैसिफिक एड मैप के मुताबिक़, 2020 में चीन का क्षेत्र में योगदान गिरकर केवल 18.7 करोड़ डॉलर रह गया था. जो इस इलाक़े के विकास के ‘पारंपरिक’ साझीदारों जैसे कि ऑस्ट्रेलिया से मिलने वाली मदद की तुलना में तो वैसे भी काफ़ी कम है. चीन का ये निवेश 2008 के बाद से इस इलाक़े में सबसे कम था. और ये हाल उस साल था, जब महामारी के असर के कारणष इस इलाक़े के विकास के लिए कुल अंतरराष्ट्रीय मदद रिकॉर्ड 4.2 अरब डॉलर के स्तर पर जा पहुंची थी.

यहां तक कि इस क्षेत्र को चीन से रियायती दरों पर मिलने वाली पूंजी भी बहुत लोगों के यक़ीन से काफ़ी कम है. प्रशांत क्षेत्र के देशों को ज़्यादातर विदेशी क़र्ज़ एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय संगठनों से मिला है. ये दोनों संस्थान मिलकर 2020 में क्षेत्र के आधे से ज़्यादा विदेशी क़र्ज़ के मालिक हैं. इस क्षेत्र के विकास के लिए चीन की आर्थिक मदद 2019 में सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई थी, जिसमें हाल के वर्षों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं देखा गया है. ये हाल बदल सकता है अगर चीन की कुछ सरकारी कंपनियों के निवेश आगे बढ़ते हैं, जैसे कि पापुआ न्यू गिनी में रामू II पनबिजली परियोजना.

जैसा कि अन्य लोगों ने भी कहा है कि हाल के वर्षों में प्रशांत क्षेत्र के लिए चीन की वित्तीय मदद में गिरावट के कई कारण हो सकते हैं. हो सकता है कि प्रशांत क्षेत्र के नेता चीन के क़र्ज़ के प्रस्ताव के प्रति ज़्यादा सशंकित हों. ये पूरी दुनिया में चीन द्वारा दिए जाने वाले क़र्ज़ में गिरावट के चलन का ही एक भाग हो. इससे जुड़े जोख़िम या फिर चीन की अपनी घरेलू चुनौतियां. इन सब कारणों से ही शायद चीन की सरकारी कंपनियों द्वारा क़र्ज़ देने की रफ़्तार धीमी हो चुकी है; हालांकि चीन के क़र्ज़ पहले ही उसकी नज़र में एक उपयोगी काम पूरा कर चुके हैं. इससे चीन की सरकारी कंपनियों (SOE) को इस क्षेत्र में पांव जमाने का मौक़ा मिल गया है. ये बात पापुआ न्यू गिनी (PNG) के बारे में तो ख़ास तौर से सच साबित होती है. क्योंकि पापुआ न्यू गिनी में सक्रिय चीन की सरकारी कंपनियों की संख्या 2018 में जिनपिंग के दौरे के 12 महीनों के भीतर दोगुनी हो गई थी. ये कंपनियां निर्माण, ऊर्जा, संसाधनों, खुदरा, व्यापार, दूरसंचार और वित्त क्षेत्र में सक्रिय हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि पापुआ न्यू गिनी में मूलभूत ढांचे के विकास की 80 प्रतिशत परियोजनाओं के ठेके इन्हीं कंपनियों के पास हैं.

आकार से फ़र्क़ नहीं पड़ता

प्रशांत के प्रति चीन के नज़रिए का आकलन अगर इस क्षेत्र में उसके द्वारा दी वाली मदद और रियायती क़र्ज़ के आधार पर किए जाने का मतलब इस सोच पर चलना है कि इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने और साझेदारी हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक देशों को केवल अपनी वित्तीय शक्ति दिखानी होगी- प्रशांत क्षेत्र को विकास और वित्तीय मदद के लिए और पैसे देने होंगे.

अब अगर लोकतांत्रिक देशों के तरकश में चीन से मुक़ाबला करने के लिए यही तीर हैं, तो समझिए कि जंग का फ़ैसला तो पहले ही चीन के हक़ में हो चुका है. मदद की योजनाएं उपयोगी हो सकती हैं. स्वास्थ्य और मानवीय मदद ने पिछले दशकों में बहुतों की ज़िंदगियां बचाई हैं. शिक्षा और प्रशासनिक कार्यक्रम हाशिए पर पड़े लोगों के लिए उपयोगी साबित हो रहे हैं. लेकिन, प्रशांत क्षेत्र के नेता जानते हैं कि विदेशी मदद से उनकी अर्थव्यवस्था मे कभी बदलाव नहीं आएगा; केवल राष्ट्रीय नेतृत्व और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि से ही वो लक्ष्य हासिल हो सकता है. विदेशी मदद को ये नेता उम्मीद के अनुरूप बहुत भाव नहीं देते हैं, तो इसकी एक वजह ये भी है. (इसकी दूसरी वजह ये भी है कि राजनेताओं को विदेशी मदद से होने वाली तरक़्क़ी में अपने लिए कोई ख़ास फ़ायदा नहीं दिखता है.) इसी तरह से मदद, एकजुटता दिखाने का एक ताक़तवर प्रतीक भले हो सकता है, इससे प्रभाव ख़रीदा नहीं जा सकता. वो तो केवल लगातार गहरे संबंधों से ही हासिल होता है, जो सम्मान पर आधारित होता है.

किसी भी स्थिति में चीन ने वो ज़िम्मेदारियां उठाने की महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई है, जो आमतौर पर प्रशांत क्षेत्र के पारंपरिक साझीदार जैसे कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड उठाते आए हैं और क्षेत्र को प्रमुखता से मदद देते रहे हैं. इसमें क्षमता का निर्माण, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशासन और सुधार जैसे तमाम सहयोग शामिल हैं. इस इलाक़े में चीन के ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ (BRI) के असर को लेकर तमाम चर्चाओं के बावुजूद चीन, ऑस्ट्रेलिया द्वारा स्थापित इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस फैसिलिटी फॉर पैसिफिक (AIFFP) से मुक़ाबला करने की कोशिश नहीं करेगा. ऑस्ट्रेलिया के पिछले बजट में भी AIFFP को दी जाने वाली मदद में काफ़ी बढ़ोत्तरी की थी. चीन का आकलन शायद ये है कि उसे इस स्तर पर होड़ लगाने की ज़रूरत नहीं है. 

हमें व्यापक क्षेत्रीय कैनवास के नीचे देखने और इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि चीन की वित्तीय मदद कहां पर केंद्रित है. हाल के वर्षों में चीन की विकास संबंधी नई मदद, कुछ ही देशों, विशेष रूप से किरीबाती और सोलोमन द्वीप समूह तक सीमित रही है. ये वो देश हैं, जिन्होंने हाल के वर्षों में ताइवान से कूटनीतिक संबंध तोड़कर चीन से रिश्ते जोड़े हैं. वैसे तो इलाक़े के ज़्यादातर देशों पर क़र्ज़ का बोझ है. लेकिन, टोंगा, समोआ और वानुआतू जैसे कमज़ोर देशों पर तो चीन का भारी क़र्ज़ है.

ये चिंता करने की काफ़ी गुंजाइश है कि चीन की कुछ ख़ास देशों को निशाना बनाकर चलाई जा रही क़र्ज़ की कूटनीति के इस इलाक़े में भी श्रीलंका जैसे नतीजे देखने को मिल सकते हैं. चीन ने हंबनतोता बंदरगाह पर उस वक़्त क़ब्ज़ा कर लिया था, जब श्रीलंका उससे लिया हुआ क़र्ज़ नहीं लौटा पाया था.

सोलोमन द्वीप समूहों की कहानी

सोलोमन द्वीप समूह के हालिया अनुभव से ये साफ़ हो जाता है कि चीन का असल मक़सद अगर इलाक़े में सैनिक अड्डा बनाना है, तो उसके लिए बड़ी क्षेत्रीय होड़ लगाने की ज़रूरत नहीं है. पिछले साल तक ये माना जा रहा था कि सोलोमन द्वीप समूह में ऑस्ट्रेलिया की स्थिति का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता है. क्योंकि ऑस्ट्रेलिया ने 2000 के दशक में वहां संघर्ष के दौरान मदद के सफल अभियान चलाए और जब 2021 में फिर हिंसा भड़की तो सबसे पहले ऑस्ट्रेलिया से ही मदद मांगी गई थी.

ऐसे में 2022 में जब मीडिया के माध्यम से ये ख़बर दी गई कि सोलोमन द्वीप समूह के प्रधानमंत्री मानासेह सोगावारे खुफिया तौर पर इस इलाक़े में चीन के साथ पहले द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते की वार्ता कर रहे हैं, तो सबको सदमा लगा था. स्थानीय स्तर पर इसके विरोध में अंतरराष्ट्रीय रणनीतिकार भी शामिल हो गए और उन्होंने कहा कि ये समझौता होता है तो चीन को सोलोमन द्वीप समूह में अपने सैनिक और पुलिस कर्मचारी भेजने का अधिकार मिल जाएगा. वो अपने नौसैनिक अड्डे भी बना सकेगा. लेकिन, इस दबाव के आगे सोगावारे नहीं झुके और उन्होंने चीन के साथ सुरक्षा समझौते पर दस्तख़त कर ही दिए. ये ऑस्ट्रेलिया और उसके लोकतांत्रिक सहयोगियों के लिए बड़ा झटका था. इसके बाद ऑस्ट्रेलिया के चुनाव अभियान में ये आरोप भी लगे कि उस वक़्त की स्कॉट मॉरिसन सरकार ने प्रशांत क्षेत्र में ‘हथियार डाल दिए’ हैं.

ये घटनाएं जताती हैं कि चीन इस इलाक़े में ‘सत्ताधारी वर्ग’ को क़ाबू करने की रणनीति पर चल रहा है. चीन के काम करने का मॉडल यहां उसके साझीदार देशों सत्ताधारी नेताओं के लिए भी उपयोगी है. इससे राजनेताओं को फंड सीधे मिल जाता है, जो लोकतांत्रिक देशों की तुलना में बेहतर विकल्प है. क्योंकि लोकतांत्रिक देश जो मदद देते हैं, वो उनके करदाताओं का पैसा होता है और मदद पाने वाले देश को उसकी पाई-पाई के ख़र्च का हिसाब देना पड़ता है. सोलोमन द्वीप समूह के प्रधानमंत्री के कार्यालय ने ख़ुद इस बात की पुष्टि की है कि उसने चीनी सरकार के पैसे को देश के ज़्यादातर संसद सदस्यों के बीच पिछले साल दो बार बांटा था.

ये केवल सोलमन द्वीप समूह का मसला नहीं है. किरीबाती को भी 2019 में तब काफ़ी वित्तीय मदद देने का वादा किया गया था, जब उसने ताइवान के बजाय चीन से कूटनीतिक संबंध स्थापित किए थे. उस समय चीन, किरीबाती के राष्ट्रपति तानेती मामाऊ का समर्थन हासिल करने में उसी तरह सफल रहा था, जैसे उसने सोलोमन के प्रधानमंत्री सोगावारे का सहयोग हासिल किया था. 2021 में ख़बर आई थी कि चीन की सरकार किरीबाती को कांटोन द्वीप पर एक सैन्य हवाई अड्डा बनाने की संभावनाएं तलाशने वाला अध्ययन करने में मदद कर रही है. ये द्वीप पूर्वी एशिया और अमेरिका के ठीक बीच में बेहद अहम सामरिक ठिकाने पर है.

ये भी संभव है कि सोलोमन द्वीप समूह और किरीबाती के अधिकारियों को वास्तव में ये विश्वास हो कि चीन के इरादे नेक हैं.

जवाब दिया जा रहा है

2022 के आम चुनाव के बाद, ऑस्ट्रेलिया में लेबर पार्टी की नई सरकार ने इस इलाक़े के देशों के साथ संक्रिय संवाद शुरू किया है ताकि क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया की स्थिति मज़बूत बनाई जा सके. इसमें उच्च स्तर के कई दौरे और मदद की नई घोषणाएं शामिल हैं. हाल ही में, 13 दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वोंग ने वानुआतू के साथ सुरक्षा का एक व्यापक समझौता किया और ये संकेत दिया कि ऑस्ट्रेलिया, इस इलाक़े के अन्य देशों के साथ भी इसी तरह के समझौते करने का इरादा रखता है. ऐसा लगता है कि सोलोमन द्वीप समूह के साथ भी ऑस्ट्रेलिया के राजनीतिक संबंध सुधरे हैं. ये बात दोनों देशों के नेताओं के बीच की गर्मजोशी और सोगावारे के इस वादे से ज़ाहिर होती है कि वो चीन को अपने देश में नौसैनिक अड्डा नहीं बनाने देंगे. इसी बीच, इस साल मई में चीन के विदेश मंत्री वैंग यी के इस क्षेत्र के अभूतपूर्व दौरे के बावुजूद, चीन को इस क्षेत्र की निगरानी के लिए सुरक्षा और आर्थिक सौदे के प्रस्ताव को वापस लेने को तब मजबूर होना पड़ा था, जब कुछ द्वीपीय देशों ने निगरानी, साइबर सुरक्षा और सर्विलांस के प्रस्तावों को लेकर चिंता जताई थी.

इसके साथ साथ चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया के अपने रिश्ते भी स्थिर हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया की नई सरकार ने मुक्त व्यापार और मानव अधिकारों के सिद्धांतों पर अड़े रहने के साथ ही अपने पूर्ववर्तियों की टकराव वाली भाषा से किनारा कर लिया है. नवंबर में बाली में G20 के शिखर सम्मेलन के दौरान चीन के राष्ट्रपति और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के बीच द्विपक्षीय मुलाक़ात भी हुई थी. जो इस स्तर पर पिछले छह साल में हुई पहली बैठक थी. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वोंग के चीन के दौरे पर जाने का एलान भी किया गया है. वैसे रिश्तों में आ रहे इस सुधार का ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि इलाक़े के लिए होड़ ख़त्म हो गई है. रिश्तों में सुधार के बावजूद, नवंबर महीने की शुरुआत में चीन और ऑस्ट्रेलिया ने कुछ दिनों के अंतर से सोलोमन द्वीप समूह को हथियार देने की नुमाइश की थी. लेकिन, अभी भी इस बात की उम्मीद बनी हुई है कि आगे चलकर इस होड़ को सावधानी से नियंत्रित किया जा सकता है.

महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रशांत क्षेत्र से संवाद में ऑस्ट्रेलिया की नई सरकार इस बात को लेकर अधिक सावधान है कि वो ऐसे क्षेत्र से जुड़ रहे हैं, जिसके निवासियों की अपनी अलग राय और अस्तित्व है. अब ऑस्ट्रेलिया के नेता क्षेत्रीय साझेदारियों को लेकर अधिक सम्मान देने वाले नज़रिए पर चल रहे हैं और इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि वो ‘साझीदारों’ की चिंताएं सुनने के लिए राज़ी हैं. ऑस्ट्रेलिया के मंत्री अब इसे ‘हमारा अपना इलाक़ा’ नहीं कहते हैं. अब जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक झुकने वाला नज़रिया अपनाकर, नई सरकार ये संकेत देने की भी बेहतर स्थिति में है कि वो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों की चिंताओं को बहुत गंभीरता से लेती है. ऑस्ट्रेलिया ने शर्म अल-शेख़ में जलवायु सम्मेलन (COP27) का फ़ायदा उठाते हुए इस इलाक़े में भी संयुक्त राष्ट्र के जलवायु संधि से जुड़े सदस्यों का सम्मेलन आयोजित किया था. भले ही ऑस्ट्रेलिया द्वारा जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद करने को लेकर कुछ देश आशंकित हों, फिर भी ऐसे सम्मेलनों की काफ़ी प्रतीकात्मक अहमियत है.

हाल में जनता की तमाम नाराज़गियों के बाद भी, ऑस्ट्रेलिया काफ़ी मज़बूत स्थिति में है. मदद की रक़म से ज़्यादा प्रशांत क्षेत्र के साथ ऑस्ट्रेलिया के चहुंमुखी संबंध उसे ये हैसियत देते हैं. सिर्फ़ यही कारण नहीं कि ऑस्ट्रेलिया बरसों से मानवीय क्षमता के निर्माण के साथ मानवीय मदद देता आया है. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया, प्रशांत क्षेत्र के उभरते मध्यम वर्ग के लिए शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र और कुछ लोगों के लिए संपत्ति में निवेश का केंद्र भी है. ऐसी व्यापक साझीदारी, चीन की पारंपरिक सहज नीति के दायरे से बाहर की चीज़ है.

हालांकि, ऑस्ट्रेलिया अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के भरोसे नहीं रह सकता है और उसे उन तनावों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो क्षेत्र के देशों के साथ उसके अपने रिश्तों में पैदा होने ही हैं. जब साझीदारों के बीच आर्थिक असंतुलन हो, तो रिश्ते कभी भी आसान नहीं होते. अब मुक़ाबला पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा कड़ा है और ऑस्ट्रेलिया को चीन की ताक़तवर स्थिति से निपटना है, तो उसे क्षेत्र के बाहर के देशों से भी मदद की आवश्यकता पड़ेगी.


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