भारत सरकार ने 24 मई को ट्विटर को एक नोटिस भेजा था, जिसकी काफ़ी चर्चा हो रही है. लेकिन, इस बात के इर्द गिर्द चल रही बहस और घटनाओं के चलते आप अपना ध्यान उस बड़े विवाद से मत हटा लीजिएगा कि ये परिचर्चा प्रशासन चलाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संप्रभु शक्ति से जुड़े नियम तय करने को लेकर है. नियमन की अभिव्यक्ति को इस मुद्दे पर जिस तरह से लागू करने की कोशिश की गई है, या फिर इसे लेकर आम तौर पर जो विरोध जताया जा रहा है, उस हवाले से हम बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनियों के उभार, उनकी शक्तियों और अहंकार से जुड़े विषयों का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं. छोटी अवधि में ट्विटर को भेजे गए सरकार के नोटिस का विवाद वक़्ती ही रहेगा और ख़ुद ब ख़ुद शांत भी हो जाएगा. लेकिन, इस विवाद से उठी बड़ी बहस को यहीं पूर्ण विराम नहीं दिया जा सकता है. ये भारत पर तो असर डालता ही है. लेकिन, इस विवाद की प्रतिध्वनि पूरी दुनिया में ऐसी कंपनियों के ग्राहकों और सरकारों के बीच सुनी जा सकती है. इस परिचर्चा से जो भी निष्कर्ष निकलेगा वो विशाल तकनीकी कंपनियों के नियमन का वैश्विक मानक बनेगा.
किसी कारोबारी संस्था के वैचारिक पूर्वाग्रह उसके कारोबार करने के तरीक़े को नहीं तय कर सकते. फिर बात चाहे भारत की हो या बाक़ी दुनिया की. लेकिन, ट्विटर का हालिया बर्ताव, जिसके अंतर्गत इसने 18 मई को दो बीजेपी प्रवक्ताओं के दो ट्वीट (इस पर सुबह 11.05 बजे और इस ट्वीट पर सुबह 11.08 बजे) ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ का लेबल चस्पां किया, वो यही दिखाता है कि ट्विटर अपने वैचारिक पूर्वाग्रह को अपने कारोबार चलाने के तौर तरीक़ों पर भी लागू कर रहा है. इस ट्वीट के लिए बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा के ख़िलाफ़ FIR दर्ज कर ली गई है, जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की युवा कांग्रेस इकाई के राष्ट्रीय अभियान के प्रभारी श्रीवत्स ने ट्वीट करके जानकारी दी है. अब इस मामले की जांच की जा रही है, जिससे संबित पात्रा के ट्वीट की प्रामाणिकता की पड़ताल की जा सके. लेकिन, ट्विटर ने जांच पूरी होने से पहले ही जिस तरह इस पर हेर-फेर वाले मीडिया का टैग लगाया, उससे लगता है कि ट्विटर कम से कम इस मामले की जांच को प्रभावित करने की कोशिश तो कर ही रहा है, या फिर उसने इससे भी एक क़दम आगे जाकर अपनी वैचारिक तुष्टि के लिए ये क़दम उठाया है. संबित पात्रा की तरह जिन अन्य लोगों के ट्वीट को ‘मैनीपुलेटेड मीडिया’ बताकर ट्विटर ने इनका ख़ास वर्गीकरण किया, उनमें बीजेपी के राज्यसभा सांसद विनय सहस्रबुद्धे, बीजेपी की राष्ट्रीय सोशल मीडिया प्रभारी प्रीति गांधी, आंध्र प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सह-प्रभारी सुनील देवधर, बीजेपी की मीडिया पैनलिस्ट चारू प्रज्ञा और बीजेपी की दिल्ली इकाई के महासचिव कुलजीत सिंह चहल के ट्वीट शामिल हैं.
सबसे अहम बात तो ये है कि सरकार की ट्विटर को भेजी ये अनौपचारिक चिट्ठी ये कहती है कि अपने मंच पर कंटेंट पेश करने में दख़ल देना उसके ‘माध्यम’ होने की स्थिति पर सवालिया निशान लगाया है.
हो सकता है कि ट्विटर सही हो. इन बीजेपी नेताओं के ट्वीट में जानकारी को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया हो. इस लिहाज़ से देखें तो बीजेपी नेताओं के ट्वीट पर ये लेबल चस्पां करना, ट्विटर की ‘बनावटी और तोड़-मरोड़कर पेश किए गए मीडिया संबंधी नीति’ के लिहाज़ से उचित क़दम लगेगा. इस संबंध में ट्विटर की नीति तीन भागों में विभाजित है. पहला तो ये कि क्या ट्वीट के कंटेंट से छेड़-छाड़ की गई है? दूसरा ये कि क्या इसे छल प्रपंच से शेयर किया गया है? और तीसरा ये कि इससे सार्वजनिक सुरक्षा को ख़तरा है और इससे गंभीर क्षति हो सकती है. उदाहरण के लिए ख़ुद से तय किए गए नियमन की नीतियों, नफ़रत भरे और हिंसक भाषण वाले कंटेंट हटाने की यूज़र की अपील पर ट्विटर अगर ये क़दम उठाता है, तो उसे जो उचित लगे वो करना सही है. जैसा कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब और दूसरे बहुराष्ट्रीय ऑनलाइन मंच करते हैं.
लेकिन, ट्विटर इस मामले में ग़लत भी हो सकता है. अगर संबित पात्रा के ट्वीट की जांच में ये साबित होता है कि वो सही हैं, तो इसका मतलब ये होगा कि ट्विटर ने अपनी ओर से हड़बड़ी दिखाई. कहा जा रहा है कि सरकार ने ट्विटर को पत्र लिखकर कहा था कि वो बीजेपी नेताओं के ट्वीट से ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ का टैग हटा ले, क्योंकि अभी ‘क़ानून और व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियां इस मामले की जांच कर रही हैं.’ सरकार ने ट्विटर से ये भी कहा था कि वो ‘जांच की प्रक्रिया में दख़लंदाज़ी न करे.’ सबसे अहम बात तो ये है कि सरकार की ट्विटर को भेजी ये अनौपचारिक चिट्ठी ये कहती है कि अपने मंच पर कंटेंट पेश करने में दख़ल देना उसके ‘माध्यम’ होने की स्थिति पर सवालिया निशान लगाया है. दूसरे शब्दों में कहें तो, भारत सरकार ने ट्विटर के ‘सरकार’ को अपनी मनमर्ज़ी चलाने के बजाय, देश के संप्रभु क़ानूनों का पालन करने को कहा.
अमेरिका में राजनीतिक बदलाव और ट्विटर की नीति
शायद, ट्विटर ने ये हिमाकत करने की ज़ुर्रत, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के क़दमों के चलते दिखाई है. दस दिन पहले, जब बाइडेन को सत्ता में आए हुए 114 दिन ही हुए थे, तब जो बाइडेन ने एक ऐसे क़ानून को रद्द कर दिया था, जिसके तहत सोशल मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चुनिंदा तरीक़े से काम करने और अपने यूज़र्स को नैतिकता का सबक़ सिखाने पर सवाल उठाए गए थे. इस क़ानून के अंतर्गत सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा अपनी वैचारिक प्राथमिकताओं को मज़बूत करने और अपने से मेल न खाने वाले विचारों, राजनीति और लोगों को अपने मंच से सेंसर करने पर सवाल उठाए गए थे. अमेरिका का ये क़ानून बस एक साल पुराना था और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस क़ानून यानी कार्यकारी आदेश 13925- ऑनलाइन सेंशरशिप रोकने का क़दम- पर 28 मई 2020 को दस्तख़त किए थे. इस क़ानून से सोशल मीडिया की विशाल कंपनियों ट्विटर, इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और यू-ट्यूब (TIFY) द्वारा अमेरिका के संविधान के पहले संशोधन के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार मांगने पर सवाल उठाए गए थे. अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन उसके लोकतंत्र की बुनियाद और बेहद पवित्र माना जाता है.
कुल मिलाकर कहें तो डोनाल्ड ट्रंप के हस्ताक्षर से जारी इस आदेश ने ऑनलाइन मंचों पर दो सवाल उठाए गए थे. पहला तो घरेलू था कि ट्विटर कुछ ख़ास ट्वीट की इस तरह से चेतावनी वाले लेबल लगा रहा था, जो उसके राजनीतिक पूर्वाग्रह को ज़ाहिर करने वाला था. और इस आदेश का वैश्विक आयाम ये था कि ये ऑनलाइन मंच ‘चीन’ जैसी विदेशी सरकारों द्वारा ‘आक्रामकता और ग़लत जानकारियों के प्रसार’ को आगे बढ़ाकर उनसे मुनाफ़ा कमा रहे हैं. इसके लिए ये कंपनियां ऐसे सर्च इंजन बना रही हैं, जो ‘मानव अधिकार’ जैसे विषय को खोजने को ब्लैकलिस्ट कर रही हैं. ये कंपनियां चीन के साथ अनुसंधान वाली साझेदारियां स्थापित कर रही हैं, जिससे चीन की सेना को फ़ायदा होता है और चीन के दुष्प्रचार को भी शोहरत मिलती है. डोनाल्ड ट्रंप का ये क़ानून उन ट्विटर यूज़र की नाराज़गी की अभिव्यक्ति करता था, जो ट्विटर के वैचारिक झुकावों से मेल नहीं खाते थे. इस क़ानून से इन ऑनलाइन मंचों को न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अख़बार के समान मिलने वाले संवैधानिक संरक्षण को ख़त्म कर दिया गया था. इस क़ानून ने बड़े असरदार तरीक़े से ये कहा था कि या तो आप एक मीडिया कंपनी हो सकते हैं या फिर ऑनलाइन मंच.
ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद, ट्विटर ने निष्पक्ष होने का अपना चोला उतार फेंका और ट्रंप को स्थायी तौर पर अपने मंच से हटा दिया, जबकि इसमें हितों का टकराव साफ़ दिख रहा था. ट्रंप के ट्विटर अकाउंट को स्थायी तौर पर निलंबित करने पर ट्विटर ने जो सफ़ाई दी, वो पूरी तरह से एक संपादकीय फ़ैसले जैसी मालूम होती है: ‘सार्वजनिक हित का हमारा ढांचा इसलिए है जिससे कि जनता चुने हुए पदाधिकारियों और विश्व नेताओं की बातों को सीधे सुन सके. ये ढांचा इस सिद्धांत पर बनाया गया है कि आम जनता को सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही सार्वजनिक तौर पर सुनिश्चित करने का पूरा अधिकार है. हालांकि हमने पिछले कई वर्षों से लगातार ये बात स्पष्ट की है कि नेताओं के खाते पूरी तरह से नियमों के दायरे से ऊपर नहीं हैं और ये अपने ट्विटर अकाउंट का इस्तेमाल हिंसा भड़काने जैसे कामों के लिए नहीं कर सकते हैं. हम अपनी नीतियों और उन्हें लागू करने को लेकर पारदर्शिता को बनाए रखेंगे.’
अगर भारत इस मामले में दख़ल देने का विकल्प चुनता है, तो हम सोशल मीडिया पर किस तरह का नियमन चाहते हैं? ये सिद्धांतों पर आधारित हो या नियमों पर?
अमेरिका द्वारा किए गए नीतिगत बदलावों को भारत को किसी भी क़ीमत पर अपने क़ानून बनाने और न्याय देने की प्रक्रिया में घुसपैठ नहीं करने देना चाहिए. अगर संबित पात्रा दोषी हैं, तो उनकी जवाबदेही भारत के जांच अधिकारी तय करेंगे और संबित पात्रा अपने हक़ की लड़ाई भारतीय अदालतों में लड़ेंगे. ट्विटर के बनावटी ‘सरकार’ की इस मामले में कोई भूमिका नहीं बनती है. कोई भी वास्तविक सरकार, और भारत की सरकार तो क़तई ऐसी दख़लंदाज़ी को स्वीकार नहीं कर सकती. उम्मीद के मुताबिक़, इस संदर्भ में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के उपायुक्त के दफ़्तर ने ट्विटर को एक नोटिस भेजा है: ‘जांच के दौरान हमें पता चला है कि आपको इस विषय से जुड़े मामलों की जानकारी है और आपके पास इस विषय से जुड़ी कुछ सामग्री भी है. इसीलिए आपसे गुज़ारिश की जाती है कि आप सभी संबंधित दस्तावेज़ों के साथ ये नोटिस भेजने वाले अधिकारी के दफ़्तर में पेश हों, जिससे इस मामले की जांच को आगे बढ़ाया जा सके.’
विचार करने के पांच कारण
वैसे तो सरकार और ऑनलाइन मंचों के बीच लुका छिपी का ये खेल अभी जारी रहेगा. लेकिन, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और ख़ास तौर से ट्विटर के अस्तित्व को लेकर कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं, जिनके जवाब तलाशने का सिलसिला जारी रहना चाहिए. हालांकि, इससे वो मूल बहस ख़त्म नहीं हो जाती जो- ग्राहक और यूज़र साझेदार की अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़ी है और जिस स्वतंत्रता को बढ़ावा देने का ये मंच दावा करते हैं. क्योंकि, ये बहस हम सबको प्रभावित करती है. जो बात नागरिकों पर असर डालती है, वो नीतिगत मामलों के सबसे बड़े किरदार यानी सरकार की सोच पर निश्चित रूप से असर डालेगी. नागरिकों, कंपनियों और सरकारों के इस तीन भागीदारों से जुड़े पांच विषय हैं जिन पर परिचर्चाएं जारी रहनी चाहिए.
पहली, तो यही है कि ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यू-ट्यूब मीडिया कंपनियां हैं या तकनीक के मंच? अगर वो संपादकीय चुनाव के अधिकार का उपयोग, जिसमें किसी को अपने मंच से हटाना या उसकी लैबेलिंग करना शामिल है, तो वो मीडिया हैं और भारत में मानहानि के कमज़ोर क़ानूनों के आगे उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने की कोशिश बेहद कमज़ोर साबित होगी. लेकिन, अगर वो ऑनलाइन मंच हैं, तो उन्हें हर तरह की राय को ज़ाहिर करने का मौक़ा देना होगा. फिर इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो राय उनकी विचारधारा या राजनीतिक पसंद से मेल खाती है या नहीं. निश्चित रूप से नफ़रत भरे बयानों और हिंसा भड़काने वाले बयानों पर नियंत्रण करना ज़रूरी होगा. लेकिन, ये क़दम भी अमेरिकी नहीं, भारतीय क़ानूनों के हिसाब से उठाने होंगे.
दूसरी बात ये है कि भारत हमेशा चुनाव के मोड में रहता है. 2022 में दो बड़े राज्य अपने नए विधायकों और सरकार का चुनाव करेंगे. वहीं, 2024 में भारत में आम चुनाव होने हैं. ऐसे में इन तकनीकी कंपनियों (TIFY) के बर्ताव में पक्षपात और ख़ास झुकाव होने का मतलब ये होगा कि ये मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करने और भारत के लोकतंत्र में घुसपैठ की कोशिश करेंगे. अमेरिका, यही आरोप रूस पर लगाता रहा है. अब चूंकि रूस और अमेरिका के अपने अपने तर्क हैं, जो हमारे सामने हैं, तो भारत ऐसी बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकता. हां, अगर ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यू-ट्यूब ख़ुद को ‘मीडिया’ कहलाने का विकल्प चुनते हैं, तो वो ख़ुद को मिले अधिकारों और आज़ादियों का इस्तेमाल करना जारी रखेंगे और अपने मंच पर अपनी राजनीतिक और वैचारिक पसंद को आगे बढ़ाने का सिलसिला भी जारी रखेंगे.
तीसरा सवाल ये है कि क्या सरकार को चुपचाप बैठे रहकर विचारधारा को जारी रहने देना चाहिए या कोई क़दम उठाना चाहिए? याद रहे कि जो सरकार आज है, वो शायद कल सत्ता में न रहे. जैसा कि ट्रंप और जो बाइडेन का अनुभव हमें दिखाता है कि आज के क़ानून को आगे चलकर बदला भी जा सकता है. इसके अलावा अगर सिद्धांत नियमन का है, तो ये नागरिकों के हितों के पहले सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए. अगर कोई आज इस बात का जश्न मना रहा है कि उसके वैचारिक विरोधी पर कोई ख़ास टैग चिपका दिया गया है और इससे उसके राजनीतिक या वैचारिक हित सधते हैं. तो यही जश्न आगे चलकर उसे परेशान भी कर सकता है. ऐसे में नागरिकों के हितों को सर्वोपरि रखने का सिद्धांत नियम-क़ानून तय करने की प्रक्रिया को आसान बना देता है.
चौथी बात ये कि अगर भारत इस मामले में दख़ल देने का विकल्प चुनता है, तो हम सोशल मीडिया पर किस तरह का नियमन चाहते हैं? ये सिद्धांतों पर आधारित हो या नियमों पर? जितने बड़े पैमाने पर ये बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनियां काम करती हैं, वैसे में नियमों पर आधारित व्यवस्था को लागू कर पाना असंभव होगा; और अगर ऐसा किया भी जाता है, तो इसमें बदलाव की प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहेगी. हां, इससे न्याय करना भी आसान होगा क्योंकि कंपनियां कुछ ख़ास क़ानूनी प्रावधानों का हवाला देंगी और क़ानून की भावना के बजाय उसके शब्दों की मदद से ख़ुद को बचाने की कोशिश करेंगी. वहीं दूसरी तरफ़, अगर भारत इन ऑनलाइन मंचों के लिए सिद्धांतों पर आधारित नियामक प्रक्रिया का विकल्प चुनता है और क़ानून की भावना को शब्दों के ऊपर तरज़ीह देता है, तो इससे कारोबार करने की राह तो आसान होगी. लेकिन, टकराव की सूरत में निर्णय किसी जज की प्राथमिकताओं और पसंद के भरोसे रहेगा.
और पांचवीं बात, हमें ये तय करने की ज़रूरत है कि क्या ट्विटर, इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और यू-ट्यूब (TIFY) निजी हित की पूर्ति करते हैं या सार्वजनिक हित की. संरचनात्मक रूप से ये निजी कंपनिया हैं; ये शेयर बाज़ारों में सूचीबद्ध हैं. लेकिन, वास्तविकता ये है कि उनकी ताक़त का दायरा अर्थशास्त्र की सीमाओं से परे जाता है. दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को अपने मंच से हटा देना, ये जताता है कि ‘असल में मार्क जुकरबर्ग और जैक डोर्सी ने क़ानून बनाने वालों पर वार किया है.’ जैसा कि जैसा वसंत धर ने लिखा था, ‘भले ही सांसद क़ानून बनाते हों. लेकिन जुकरबर्ग और डोर्सी ने उन्हें ये दिखाया है कि सर्वोच्च शक्ति किसके पास है.’ वसंत धर इन कंपनियों के राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं. भारत में इस विचार के नाकाम हो जाने की आशंकाएं हैं. लेकिन, इन दोनों ध्रुवों से बीच का कोई रासता निकाला जा सकता है. जैसे कि एक नियामक अधिकारी नियुक्त किया जाए, जो इन कंपनियों के सीईओ या निदेशकों के बोर्ड के बजाय, सरकार के तत्वावधान वाली निगरानी व्यवस्था के प्रति जवाबदेह हो. इस व्यवस्था में तकनीक, प्रशासन, ग्राहकों के अधिकारों और औद्योगिक क़ानूनों के विशेषज्ञों को शामिल किया जा सकता है. शायद हमें ऑनलाइन मंचों के लिए एक नए वर्ग की ज़रूरत है, जो सार्वजनिक भी हो और निजी भी. ये एक ऐसा वर्ग हो जो अभिव्यक्ति के साथ साथ, मुनाफ़ा कमाने की भी गुंजाइश बनाए रखे.
ऑनलाइन मंचों से जुड़ी ये बहस न तो भारत तक सीमित है और न ही इसने अकेले भारत सरकार को उलझाकर रखा है. जर्मनी और फ्रांस पहले ही इस मामले में चिंता जताकर भागीदार बन चुके हैं. जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल के मुख्य प्रवक्ता स्टेफन सीबर्ट ने कहा था कि, ‘एक चुने हुए राष्ट्रपति के खाते को पूरी तरह से बंद करने के क़दम को लेकर चांसलर मर्केल चिंतित हैं.’ सीबर्ट ने मर्केल के हवाले से कहा कि, ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी में दख़ल दिया जा सकता है. लेकिन, ये क़ानून के माध्यम से होना चाहिए और संसद द्वारा तय दायरों के भीतर होना चाहिए, न कि किसी कॉरपोरेट फ़ैसले का नतीजा.’ डोनाल्ड ट्रंप के सोशल मीडिया अकाउंट बंद करने पर फ्रांस ने इससे भी एक क़दम आगे जाकर अपनी चिंता जताई थी. इस मुद्दे पर फ्रांस के यूरोपीय मामलों के जूनियर मिनिस्टर क्लीमेंट ब्यून ने ब्लूमबर्ग से कहा था कि, ‘ट्विटर और फ़ेसबुक से ट्रंप को हटाने का फ़ैसला जनता को करना चाहिए, न कि कंपनी के सीईओ को. बड़ी ऑनलाइन कंपनियों के नियमन के लिए सार्वजनिक क़ानून बनने चाहिए.’
देर सबेर दूसरे लोकतांत्रिक देश भी इस बहस में शामिल होंगे. कल ट्रंप को इन मंचों पर प्रतिबंधित किया गया; आज संबित पात्रा पर लेबल लगाया गया है; हो सकता है कि कल दुनिया के किसी और हिस्से में किसी और नेता को वैचारिक रूप से पूर्वाग्रही और राजनीतिक रूप से दख़लंदाज़ी करने वाले इन मंचों के आगे झुकना पड़े. इनमें वो नेता भी हो सकते हैं, जो आज ट्विटर के उठाए क़दमों पर ख़ुशी जता रहे हैं और इस तरह से इन निजी कंपनियों को किसी देश की संप्रभु और चुनी हुई सरकार से ज़्यादा वैधानिकता और ताक़त प्रदान कर रहे हैं. ये स्वीकार्य नहीं हो सकता है. कम से कम भारत में तो क़तई नहीं और इक्कीसवीं सदी में और भी नहीं. ट्विटर के ‘सरकार’ को भारत सरकार का आदेश मानना ही होगा. उनकी मनमर्ज़ी नहीं चलेगी.
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