Author : Swati Prabhu

Published on Jun 03, 2021 Updated 0 Hours ago

ग्लोकलाइज़ेशन का आशय वैश्विक कारकों के स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल और प्रतिनिधित्व से है.

ग्लोकलाइज़ेशन और टिकाऊ विकास के लक्ष्य

इस बात में अब किसी को शक नहीं है कि दुनिया में फैली महामारी ने बिल्कुल अलग और नाटकीय ढंग से हमारे जीवन में आमूलचूल बदलाव ला दिए हैं. इस वक़्त ऐसा लग सकता है कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण जैसे मुद्दे फ़ौरी तौर पर ठंडे बस्ते में चले गए हैं. हालांकि महामारी से आए इन बदलावों के मद्देनज़र समावेशी वैश्विक प्रशासन तंत्र के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मज़बूत संस्थानों के गठन की ज़रूरत पूरी शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है. आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था घनिष्ठ रूप से आपस में जुड़ी हुई है. इसके चलते नाज़ुक आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े दबाव और असुरक्षाएं खुलकर सबके सामने आ गई हैं. इतना ही नहीं बाज़ार के बर्ताव भी बेपर्दा हो गए हैं. वास्तव में ये महामारी न सिर्फ़ वैश्वीकरण की प्रक्रिया बल्कि सतत विकास से जुड़े लक्ष्यों (एसडीजी) के लिए भी परीक्षा की घड़ी साबित हो रही है. वायरस हर प्रकार के अवरोधों, दीवारों और सरहदों को तोड़ता हुआ बेहद तेज़ गति से पूरी दुनिया में फैल गया है. इसने आज की निहायत वैश्वीकृत दुनिया की अंतर्निहित कमज़ोरियों और नज़ाक़त की पोल खोलकर रख दी है. ऐसे में अब वैश्वीकरण की प्रक्रिया को पलटने से जुड़ी चर्चाएं तेज़ हो गई हैं. इसके साथ ही दुनिया में अब वैश्विक और स्थानीयता के सम्मिश्रण वाली नीति यानी ग्लोकलाइज़ेशन को अपनाए जाने की ज़रूरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी है. कोविड-19 और जलवायु परिवर्तन से उपजी परिस्थितियों ने एक लंबे समय से जारी टिकाऊ विकास के विमर्श और बहुपक्षवाद के क्षणभंगुर स्वभाव के बारे में हमें कई ख़ास जानकारियां प्रदान की हैं. ये हमारे मौजूदा आर्थिक तंत्र के नाज़ुक स्वभाव और कमज़ोरियों को प्रदर्शित करते हैं. मौजूदा व्यवस्था सीधे तौर पर पर्यावरण के पतन और ख़तरनाक महामारियों के प्रसार को बढ़ावा देने के लिए ज़िम्मेदार है. इस संदर्भ में हमारी व्यवस्था को वैश्विक और स्थानीय के मिश्रण से तैयार नीतियों के हिसाब से संचालित करने या वैश्विक प्रशासन के लिए ऐसे ही मिश्रण से तैयार तंत्र की स्थापना करने की बात कही जा रही है. एक ऐसा तंत्र जो हमारे ‘साझा वैश्विक हितों’ की रक्षा सुनिश्चित करे. इनसे आने वाले वर्षों के लिए नए और संभावनाओं से भरपूर मार्ग प्रशस्त हो सकते हैं. 

ग्लोकल बनाम ग्लोबल 

1990 के दशक की शुरुआत में धुर-वैश्वीकरण के प्रादुर्भाव ने भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए अनेक रास्ते खोल दिए. इसने इन देशों को आर्थिक तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने के अवसर प्रदान किए. लाखों लोगों के लिए रोज़गार मुहैया कराने, पूंजी का प्रवाह सुनिश्चित करने, तकनीकी उन्नयन आदि में वैश्वीकरण सहायक सिद्ध हुआ. बहरहाल वैश्वीकरण का ये गुब्बारा पहली बार 2008 में फूटा. उस साल दुनिया में आए वित्तीय संकट ने वैश्वीकरण को गंभीर चोट पहुंचाई. इसके तत्काल बाद दुनिया में एक नई परिकल्पना ने आकार लिया जो ‘स्लोबलाइज़ेशन’ के नाम से जाना जाता है. इसका अर्थ है वैश्वीकरण की रफ़्तार में ज़रूरी ब्रेक लगाकर उसे धीमा करना. एक दशक बाद जब वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट से उबरकर एक बार फिर से अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही थी, स्लोबलाइज़ेशन एक बार फिर हमारे सामने खड़ा है. इस बार ये कोविड-19 महामारी के रूप में हमारे सामने है. वैश्वीकरण के बुलबुले को गंभीर चोट पहुंची है. ये चोट जायज़ भी है. हालांकि इसका मतलब ये कतई नहीं है कि वैश्वीकरण पूरी तरह से एक अनचाही घटना है. डीएचएल ग्लोबल कनेक्टेडनेस इंडेक्स 2020 के एक ताज़ा अध्ययन में इस बात को रेखांकित किया गया है कि इस भयंकर महामारी के चलते आए उतार-चढ़ावों के बावजूद वैश्वीकरण एक बार फिर से पटरी पर लौट आएगा. दिलचस्प रूप से इस अध्ययन में ये बात भी सामने आई है कि प्रचलित मान्यताओं के उलट दुनिया में वैश्वीकरण का अनुपात अब भी काफ़ी कम है. 

डीएचएल ग्लोबल कनेक्टेडनेस इंडेक्स 2020 के एक ताज़ा अध्ययन में इस बात को रेखांकित किया गया है कि इस भयंकर महामारी के चलते आए उतार-चढ़ावों के बावजूद वैश्वीकरण एक बार फिर से पटरी पर लौट आएगा.

ये बात भी सच है कि विकसित और विकासशील देशों में मौजूद पारस्परिक संपर्क की चरम स्थिति के मद्देनज़र टिकाऊ हालात तैयार करना अत्यावश्यक है.  वैश्वीकरण की प्रक्रिया में ये लक्ष्य आज तक हासिल नहीं हो सका है. इसी संदर्भ में ग्लोकलाइज़ेशन का अहम विचार सामने आता है. ग्लोकलाइज़ेशन का आशय वैश्विक कारकों के स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल और प्रतिनिधित्व से है. 

वैसे तो अक्सर इस शब्दावली का प्रयोग कारोबारी मसलों को लेकर किया जाता है, लेकिन ग्लोकलाइज़ेशन सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्यों में भी समान रूप से लोकप्रिय है. मौजूदा संदर्भ में इसे पर्यावरण संबंधी दायरों में भी समुचित स्थान दिेए जाने की दरकार है. कोविड महामारी का सामना कर चुकी दुनिया में वैश्वीकरण के एक परिष्कृत स्वरूप को अपनाए जाने की ज़रूरत है. ये स्वरूप सतत या टिकाऊ विकास जैसे दुनिया के व्यापक हितों के बारे में जागरूकता के साथ वैश्विक और स्थानीय कारकों के समावेश से लिया जा सकता है. महामारी से उत्पन्न परिस्थितियों ने हवाई और रेल यात्रा को कम से कम  करने पर ज़ोर दिया है. लोगों को दूरस्थ रहकर घर से काम करना पड़ा है. उन्हें अपनी ज़रूरतों के सामानों को स्थानीय स्रोतों से जुटाने पर मजबूर होना पड़ा है. इस तरह से चाहे-अनचाहे हमें ऐसी गतिविधियां अपनानी पड़ी हैं जिनसे कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है. ऐसे में ग्लोकलाइज़ेशन हमें वैश्वीकरण का एक प्रभावी विकल्प प्रदान कर सकता है. 

ग्लोकलाइज़ेशन, डिग्रोथ और सतत विकास से जुड़े लक्ष्य (एसडीजी)

संयुक्त राष्ट्र और उसकी विशिष्ट संस्थाओं के  तालमेल से तय किए गए सतत विकास से जुड़े लक्ष्य स्वभाव से ही सर्वसमावेशी हैं. आर्थिक समानता, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक संघर्षों का समाधान- ये तमाम मुद्दे इसमें सम्मिलित हैं. इन लक्ष्यों का दायरा व्यापक है, लिहाजा इनकी प्राप्ति के लिए भी नाना प्रकार के प्रयास किए जाने की आवश्यकता है. बहरहाल कोविड-19 महामारी के चलते इन प्रयासों में जो अवरोध खड़े हुए हैं उनसे ग्लोकलाइज़ेशन पर नए सिरे से बल दिया जाने लगा है. इसके तहत न केवल आर्थिक तरक्की बल्कि पर्यावरण के प्रति जागरूकता और आर्थिक समानता पर भी समान रूप से ध्यान देने की बात सामने है. 

इस संदर्भ में आर्थिक डिग्रोथ की परिकल्पना अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के विकास लक्ष्यों के प्रति एक अधिक यथार्थवादी और टिकाऊ विकल्प मुहैया कराती है. इसी कड़ी में अर्थव्यवस्थाओं का स्थानीयकरण बेहद तर्कसंगत उदाहरण है.  मौजूदा महामारी ने ज़मीनी स्तर पर सक्रिय स्थानीय निकायों, क्षेत्रीय एजेंसियों, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) और दूसरे नॉन-स्टेट किरदारों को सतत विकास से जुड़ी परिचर्चाओं में शामिल करने की ज़रूरत को रेखांकित किया है. मौजूदा परिस्थितियों से अगर हमने सही सबक़ सीख लिया तो एजेंडा 2030 की प्राप्ति की दिशा में काफ़ी हद तक मदद मिल सकती है. मौजूदा वक़्त में हम पर्यावरण से जुड़ी मुहिमों और जलवायु कार्ययोजनाओं में कई स्वरूपों में ग्लोकलाइज़ेशन की झलक देख सकते हैं. चाहे एक्सटिंक्शन रिबेलियन (या एक्सआर), फ़्राइडेज़ फ़ॉर द फ़्यूचर या इको-नीड्स जैसे आंदोलन हों, इन सब से स्थानीय नेतृत्व का स्वरूप सामने आया है. कुछ विवादों और टूलकिट को लेकर छिड़े घमासानों को छोड़ दे तो ये संगठन वर्चुअल माध्यमों पर विरोध-प्रदर्शनों और ऑनलाइन बैठकों के ज़रिए न सिर्फ़ यूरोप बल्कि भारत में भी समान रूप से सक्रिय हैं. यहां इनका ज़ोर ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) के उत्सर्जन में कमी लाने, हवाई यात्राओं में कटौती करने, उत्पादन के स्थानीय स्रोतों को बढ़ावा देने और सतत या टिकाऊ उपभोग और अभ्यासों के बारे में जागरूकता का प्रचार-प्रसार करने पर है. डिग्रोथ का विचार इस वक़्त यूरोपीय संघ (ईयू) जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं और उसके यूरोपियन ग्रीन डील जैसे कार्यक्रमों के लिए ही ज़्यादा मुफ़ीद लग सकता है. भारत जैसे देश के लिए ये फ़िलहाल एक दूर की कौड़ी है. कोविड लॉकडाउन के चलते पैदा आर्थिक मुश्किलों और प्रवासी मज़दूर संकट के मद्देनज़र भारत की विकास यात्रा में इस वक़्त पर्यावरण के साथ न्याय सुनिश्चित करते हुए आर्थिक तरक्की से संतुलन बिठाने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. 

क्षेत्रीय या देशों की स्थानीय एजेंसियों को सिर्फ़ इसमें शामिल करने मात्र से ही बात नहीं बनेगी. बहुपक्षीय, अंतरराष्ट्रीय यासरकारी संगठनों और नॉन-स्टेट किरदारों के बीच संवाद, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर एक चौड़ी खाई मौजूद है.

ग्लोकलाइज़ेशन को एक और माध्यम से अमल में लाया जा सकता है. विकासशील देशों के दूर-दराज़ के इलाक़ों में रहने वाली स्थानीय आबादी के पास संसाधनों के समुचित इस्तेमाल का बेहतरीन कौशल मौजूद है. उनके इस ज्ञान कौशल और ज़मीन पर मौजूद वास्तविकताओं का सदुपयोग किया जा सकता है. व्यापक वैश्विक प्रशासन से जुड़े इन वैश्विक और स्थानीय कारकों की गतिविधियों में समन्वय, गठजोड़ और सामंजस्य बिठाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. हालांकि क्षेत्रीय या देशों की स्थानीय एजेंसियों को सिर्फ़ इसमें शामिल करने मात्र से ही बात नहीं बनेगी. बहुपक्षीय, अंतरराष्ट्रीय या सरकारी संगठनों और नॉन-स्टेट किरदारों के बीच संवाद, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर एक चौड़ी खाई मौजूद है. इन तमाम किरदारों के बीच विश्वास बहाल करने और प्रशासन से जुड़ी परिचर्चाओं को सार्थक मोड़ देने के लिए इस दरार को पाटना नितांत आवश्यक हैं. 

हालांकि सबपर या हर मामले में समान रूप से लागू होने वाला फ़ॉर्मूला लागू कर पाना कठिन है. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस वक़्त इस ख़तरनाक वायरस से पार पाने के लिए जूझ रही है. जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर भी जंग काफ़ी लंबे समय तक चलने वाली है. जलवायु और सामाजिक रूप से आपातकालीन परिस्थितियों में वैश्विक कारकों में वैश्विक औऱ स्थानीयता का मिश्रित स्वरूप धीरे-धीरे शामिल किए जाने की ज़रूरत है. अगर इस रास्ते पर चलना संभव हो पाता है तो सतत या टिकाऊ विकास से जुड़ी कहानी में अगले कुछ वर्षों या शायद 2030 से पहले ही उल्लेखनीय बदलाव लाने की दिशा में कामयाबी पाई जा सकती है.

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