पाकिस्तान में फरवरी 2024 में हुए आम चुनावों में धार्मिक-राजनीतिक पार्टियों की भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी गई. 175 रजिस्टर्ड पार्टियों में से 23 (रेखाचित्र 1 देखें) धार्मिक-राजनीतिक पार्टियां थीं जबकि 2018 में ऐसी पार्टियों की संख्या केवल 12 थी. मगर इस बढ़ोत्तरी का नतीजा चुनावी सफलता के रूप में नहीं निकला क्योंकि कई धार्मिक पार्टियों, ख़ासतौर पर छोटी पार्टियों, का वोट शेयर 2013 से लगातार गिर रहा है.
पाकिस्तान में सेना, जिसे अक्सर ‘डीप स्टेट’ यानी सरकार की नीतियों को नियंत्रित करने वाला संगठन भी कहा जाता है, ने ये तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि सरकार पर किसका कब्ज़ा होगा.
पाकिस्तान में सेना, जिसे अक्सर ‘डीप स्टेट’ यानी सरकार की नीतियों को नियंत्रित करने वाला संगठन भी कहा जाता है, ने ये तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि सरकार पर किसका कब्ज़ा होगा. सेना के संरक्षण के बिना सत्ता की बागडोर हासिल करने के लिए मतपत्र के माध्यम से मज़बूत जनादेश प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है. वैसे तो राजनीतिक दलों ने अपनी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए ‘जीत के योग्य’ उम्मीदवारों (जिनका अपने क्षेत्र में बहुत ज़्यादा असर है) का इस्तेमाल करने की रणनीति तैयार की है लेकिन धार्मिक पार्टियों का नेतृत्व ‘बिरादरी सिस्टम’ में अपनी जड़ें होने और सेना के साथ संबंध के बावजूद सरकार के सर्वोच्च पदों तक चढ़ने में नाकाम रहा है.
रेखाचित्र1: पाकिस्तान में धार्मिक पार्टियां और संप्रदाय के हिसाब से उनका जुड़ाव
स्रोत: डॉन
2024 के चुनावों में कमज़ोर प्रदर्शन
धार्मिक पार्टियों का प्रदर्शन 2002 के चुनाव में सबसे अच्छा रहा जब छह पार्टियों का गठबंधन मुत्ताहिदा मजलिए-ए-अमल (MMA) देश में तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बना. ये गठबंधन अमेरिका के “आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध” की नीति और अफ़ग़ानिस्तान में इसकी राजनीतिक बुनियाद के विरोध में सहयोग दिखाने के लिए धार्मिक उग्रवादी संगठनों पर जनरल मुशर्रफ की कार्रवाई की प्रतिक्रिया के रूप में बना था. 2018 में धार्मिक पार्टियों की चुनावी मज़बूती की कुछ झलकियां देखी गई लेकिन इस साल पाकिस्तान के भीतर सरकार के पक्ष और विरोध में उनके फंसने की वजह से उनका चुनावी असर कम रहा (रेखाचित्र 2 देखें). धार्मिक पार्टियां पूरे देश में केवल 12 प्रतिशत वोट हासिल करने में सफल रहीं जबकि 2018 में उन्होंने 2013 के 5 प्रतिशत की तुलना में अपना कुल वोट दोगुना करते हुए 10 प्रतिशत किया था. ये स्थिति तब थी जब जमात-ए-इस्लामी (JI) और तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) मुख्यधारा की दो प्रमुख पार्टियों- PPP और PML-N- को पीछे छोड़कर उम्मीदवार उतारने के मामले में क्रमश: दूसरे और तीसरे नंबर पर रहीं.
रेखाचित्र 2: पाकिस्तान में 2018 और 2024 के आम चुनावों में धार्मिक-राजनीतिक पार्टियों के वोट शेयर के बीच तुलना
स्रोत: गैलप पाकिस्तान
2018 वो साल था जब बरेलवी विचारधारा को मानने वाली अति दक्षिणपंथी पार्टी तह़रीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) ने पहली बार चुनाव लड़ा. उस चुनाव में वो पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी जिसकी वजह से पैगंबर की निर्णायकता का इस्तेमाल करके नवाज़ शरीफ़ की पार्टी को कमज़ोर करने के लिए उसको कथित सैन्य समर्थन के बारे में अटकलें तेज़ हो गईं. जैसा 2018 में देखा गया था, 2024 में भी उसका कुल वोट शेयर स्थिर रहा जबकि उसने सुन्नी तहरीक (ST) के साथ हाथ मिलाया था. सुन्नी तहरीक बरेलवी विचारधारा को मानने वाली एक पार्टी है जो भारत पर देवबंदी जिहादी नेताओं को बढ़ावा देने का आरोप लगाती है. जमात-ए-इस्लामी (JI) जैसी पार्टियां नेशनल असेंबली में एक भी सीट जीतने में नाकाम रहीं; इसके नतीजतन उसके प्रमुख सैराजुल हक़ ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (F) का नेशनल असेंबली की सिर्फ तीन सीट जीतना 1997 की अधूरी यादों को ताज़ा करता है जब ये उम्मीद की गई थी कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की पैठ का असर पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य पर भी पड़ेगा और जिसकी वजह से एक रूढ़िवादी सरकार, ख़ास तौर पर बलूचिस्तान में, की स्थापना हुई थी. हालांकि, पार्टी के सुप्रीमो मौलाना फ़ज़लुर रहमान- जिन्होंने सरकार के साथ अपने अच्छे रिश्तों का इस्तेमाल करके पाकिस्तान के चुनावों में रुकावट से परहेज़ के लिए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के साथ एक समझौता किया था- बलूचिस्तान के सरहदी ज़िले पिशिन से नेशनल असेंबली की सीट जीतने में कामयाब रहे. JUI-F की लोकप्रिय साख और प्रगतिशील गठबंधन के इतिहास- जिसकी वजह से उसे ‘ठेकेदारों की पार्टी’ का दूसरा नाम दिया गया था क्योंकि उसने अतीत में वामपंथी और उदारवादी पार्टियों के साथ हाथ मिलाया था जबकि वर्तमान में वो सरकार विरोधी गठबंधन जैसे कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक मूवमेंट (PDM) के साथ है- को देखते हुए बलूचिस्तान और खैबर-पख़्तूनख़्वा (KP) में उसका प्रदर्शन निराशाजनक माना जा रहा है. इसके अलावा स्थापित पार्टियों की आंतरिक कमज़ोरी ने उसके देवबंदी मदरसों के नेटवर्क को सिंधी राष्ट्रवाद के साथ घुलने-मिलने की इजाज़त दे दी जिसकी वजह से सिंध में उसकी प्रतिष्ठा बच गई.
मुख्यधारा की अपील के लक्ष्य का विश्लेषण
परंपरा को ख़त्म करते हुए धार्मिक दल इस बार मुख्यधारा की राजनीति की तरफ पैंतरेबाज़ी करते हुए नज़र आए. ये बदलाव इन पार्टियों के द्वारा महिलाओं के अधिकारों- जो कि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के लिए एक प्रमुख चिंता है - पर ध्यान देकर अपनी रूढ़िवादी छवि से छुटकारा पाने की कोशिशों से दिखाई पड़ा. उनके वादों, ख़ास तौर पर स्कूलों, डेस्क और सार्वजनिक परिवहन को लिंग के आधार पर अलग करने से जुड़ा वादा, की नज़दीक से पड़ताल करने पर ये साफ होता है कि ये केवल सांकेतिक हैं. महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह तैयार करना महत्वपूर्ण है लेकिन ‘अलग करना’ तेज़ी से उन्हें ‘अकेलापन’ की तरफ धकेल सकता है जो उनके घुलने-मिलने में रुकावट डालता है और लिंग के आधार पर घिसी-पिटी बातों को मज़बूत करता है. ये पैटर्न पाकिस्तान में सोशल मीडिया के इस्तेमाल तक फैला हुआ है. फरवरी के चुनाव में लिंग के आधार पर मतदान केंद्रों को दो भागों (पुरुष और महिला) में बांटना ट्रांसजेंडर समुदाय के द्वारा लैंगिक भेदभाव का सामना करने के पीछे एक कारण था. इसकी वजह से चुनावी प्रक्रिया तक उनकी पहुंच में रुकावट आई.
परंपरा को ख़त्म करते हुए धार्मिक दल इस बार मुख्यधारा की राजनीति की तरफ पैंतरेबाज़ी करते हुए नज़र आए. ये बदलाव इन पार्टियों के द्वारा महिलाओं के अधिकारों- जो कि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के लिए एक प्रमुख चिंता है - पर ध्यान देकर अपनी रूढ़िवादी छवि से छुटकारा पाने की कोशिशों से दिखाई पड़ा.
‘इस्लाम, पाकिस्तान और अवाम’ के नारे का सहारा लेकर TLP ने एक समावेशी घोषणापत्र के ज़रिए ख़ुद को मुख्यधारा की एक पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की. हालांकि उसके शब्द साफ नहीं थे. 2023 में पेट्रोल की कीमत में अचानक बढ़ोतरी और महंगाई के ख़िलाफ़ उसने तीन हफ्तों का लॉन्ग मार्च आयोजित किया था. पार्टी ने महिलाओं को भी जोड़ा और इस बार सामान्य सीटों पर महिला उम्मीदवारों को भी उतारा. साथ ही महिलाओं के अधिकारों की रक्षा, विरासत और अन्य मामलों में उनके कानूनी और शरिया में मिले हक को सुनिश्चित करने के लिए एक विशेष संस्था बनाने का भरोसा दिया.
2023 में ही घोषणापत्र का एलान करने वाली पहली पार्टी जमात-ए-इस्लामी ने क़ुरान और हदीस के मुताबिक महिला अधिकारों का वादा किया. घोषणापत्र में कहा गया: “महिलाओं को उनके पिता या पति की संपत्ति में से हिस्सा देने के लिए तुरंत कदम उठाए जाएंगे. उन्हें सुरक्षित काम-काज का माहौल मुहैया कराया जाएगा, सरकारी नौकरियों में विधवा और तलाक़शुदा महिलाओं के लिए उम्र में रियायत दी जाएगी और मां बनने पर एवं बच्चों के पालन-पोषण के लिए महिलाओं को छुट्टी दी जाएगी”. घोषणापत्र में वित्तीय रूप से महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कानूनों उपायों की बात की गई है. इसके तहत निर्माण और कृषि से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा देने का ज़िक्र है. घोषणापत्र में मुख्य वादा दहेज और ऑनर किलिंग जैसे मुद्दों के समाधान के लिए कानूनी ढांचे में सुधार और समाज में महिलाओं के संपूर्ण अधिकारों के मामले में दूसरी महत्वपूर्ण रुकावटों के इर्द-गिर्द था.
घोषणापत्र में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया था कि ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराया जाएगा जो अपने परिवार की महिला सदस्यों को विरासत में मिली संपत्ति का हिस्सा नहीं देते हैं. साथ ही उन्हें विदेश यात्रा से भी रोका जाएगा. ये बेहद कठोर रुख़ है. लेकिन अंत में पारिवारिक प्रणाली की स्थिरता और रक्षा के लिए पारंपरिक मूल्यों के साथ पारिवारिक संस्थान बनाने का घोषणापत्र का प्रस्ताव वापस रूढ़िवादिता की तरफ ले जाता है क्योंकि एक पारंपरिक परिवार की प्रणाली असमान ताकत के समीकरण, लैंगिक आधार पर काम-काज के बंटवारे और महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के प्रचार के आधार पर काम करता है. ये पारिवारिक प्रणाली की एक समावेशी समझ, जो अपनी परिभाषा में विस्तारित और एकल परिवारों को स्वीकार करती है, से भी मेल नहीं खाता है जिसका इन पार्टियों ने समर्थन करने का दावा किया है.
धार्मिक पार्टियों का मुख्यधारा की तरफ ज़रूरत से ज़्यादा संकेत दिखावे पर अधिक ज़ोर के बारे में बताता है जो उनकी दीर्घकालीन राजनीतिक वैधता में रुकावट डाल सकती है. पंजाब और सिंध में TLP की वोट हथियाने की रणनीति ने बरेलवी विचारधारा को मानने वाली पार्टियों की बुनियाद को तोड़ा है, इससे स्थापित पार्टियों के साथ उनकी सौदेबाज़ी की ताकत कमज़ोर हुई है. इस प्रक्रिया में वो अपने मौजूदा बुनियादी मतदाताओं को भी भ्रमित करते हैं, उन्हें अलग-थलग करते हैं. उदाहरण के लिए, TLP शुरुआत में मुख्यधारा की पार्टियों के रूढ़िवादी वोट पर कब्ज़ा करके सुर्खियों में आई जबकि JUI-F पुराने इस्लामवाद (शरिया लागू करना) से आगे बढ़ी. इस्लामवाद के बाद की राजनीति (लोकतांत्रिक मूल्यों) के ज़रिये मुख्यधारा की पार्टियों के आधार वोट पर कब्ज़ा करने की उनकी गंभीर कोशिशें उनके बुनियादी मतदाताओं, जो कि रूढ़िवादी हैं, को दूर कर सकती हैं.
पाकिस्तान के चुनाव में काफी हद तक किसी धार्मिक पार्टी का अप्रत्याशित विजेता नहीं होना भारत के लिए सकारात्मक समाचार है क्योंकि इन अस्थिर करने वाली ताकतों की जड़ें भारत विरोधी उग्रवाद में है और सेना, TTP, ISKP एवं तालिबान के साथ इनके करीबी संबंध हैं.
इसी तरह उनके मूलभूत वैचारिक बाधाएं राजनीतिक लाभों का विरोध करेंगी. इसका उदाहरण ट्रांसजेंडर- जिन्हें लैंगिक रूप से अल्पसंख्यकों में गिना जाता है और जिनका ज़िक्र PPP, PML-N, PTI और ANP के घोषणापत्रों में है- को अपने साथ जोड़ने में उनकी नाकामी से मिलता है.
मुख्यधारा के सपने का पीछा और सांप्रदायिक वास्तविकताओं का सामना
ये कहना ठीक नहीं होगा कि इस्लामिक राजनीति पर केवल धार्मिक पार्टियों का ही एकाधिकार है. पाखंड अपनी जगह है लेकिन PTI, PPP और PML-N जैसी मुख्यधारा की पार्टियां सुविधाजनक तरीके से अपनी इस्लामिक पहचान को दोहराती हैं. PTI अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस्लामोफोबिया के ख़िलाफ़ वक़ालत करते हुए इस्लामिक समाजवाद और ‘मदीना’ की तरह भलाई को अपनाने वाले कल्याणकारी देश के मॉडल का पालन करने के अपने मक़सद का एलान करती है. PML-N ने PTI के पाक दावों को धार्मिक पैमाने पर जवाबदेह ठहराने में कोई देर नहीं की. इसके अलावा ये पार्टियां अपने चुनावी हितों को साधने के लिए धार्मिक दलों का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहतीं. चुनाव से पहले PPP ने बलूचिस्तान में JUI-F के साथ गठबंधन किया जबकि सिंध में दोनों के बीच आपसी लड़ाई है. वहीं PTI ने आरक्षित उम्मीदवारों की वैधता की अपनी कोशिश के तहत सुन्नी इत्तेहाद काउंसिल (SIC) का इस्तेमाल किया जो शुरुआत में चुनावी लड़ाई से परहेज़ करती थी.
ऐतिहासिक रूप से इस्लामिक पार्टियों का प्रदर्शन उस समय बेहतर होता है जब वो MMA की तरह गठबंधन में बंधी होती हैं. हालांकि, कट्टर बरेलवी, देवबंदी और वहाबी विचारधारा के बीच आपसी लड़ाई के कारण पाकिस्तान में सुन्नी इस्लाम के भीतर तीन तरफा धार्मिक झगड़े से अलग-अलग पार्टियों को मजबूर होकर अपने लाभ को प्राथमिकता देना पड़ रहा है. इस तरह कई पार्टियों ने अपने गढ़ में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ टकराव का ख़तरा उठाया जैसे कि ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा और बलूचिस्तान में JI और JUI-F के बीच. धार्मिक पार्टियों के बिखरे हुए वोट बैंक को देखते हुए ये रणनीति नुकसानदेह साबित हुई.
पाकिस्तान के चुनाव में काफी हद तक किसी धार्मिक पार्टी का अप्रत्याशित विजेता (डार्क हॉर्स) नहीं होना भारत के लिए सकारात्मक समाचार है क्योंकि इन अस्थिर करने वाली ताकतों की जड़ें भारत विरोधी उग्रवाद में है और सेना, TTP, ISKP एवं तालिबान के साथ इनके करीबी संबंध हैं. ध्यान देने की बात है कि JI जैसी पार्टियों ने अपना चुनाव अभियान फिलिस्तीन और कश्मीर के लिए आज़ादी की बयानबाज़ी पर चलाया जबकि TTP ने पिछले दिनों ‘अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान से प्रेरित’ व्यवस्था के लिए चुनाव हारने वाली इस्लामिक पार्टियों से एकुजट होने की अपील की.
ज़मीनी स्तर पर उनकी ज़ोरदार मज़बूती, जो कि उनके सामाजिक कार्यों से जुड़े होने की वजह से है, अक्सर गांवों और शहरों के बीच मतदान के अंतर को धुंधला कर देती है. चुनाव के बाद के विश्लेषण से पता चलता है कि TLP के युवा, तकनीक को पसंद करने वाले, पढ़े-लिखे, निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के बीच लोकप्रिय होने का अतीत रहा है और कराची के स्थानीय निकाय के चुनावों में JI मुख्यधारा की PPP से सात सीटों से पिछड़ गई. युवा मतदाताओं (जो कि अब कुल मतदाताओं का 45 प्रतिशत हैं) की संख्या में बढ़ोतरी पर विचार करते हुए, उनकी मौजूदगी का दायरा असीमित है क्योंकि वो इस बार के विपरीत इसका कुशलता से इस्तेमाल करते हैं. फिलहाल के लिए चुनावी लड़ाई में उनके हाशिए पर जाने से संकट से घिरे पाकिस्तान, जहां तर्कसंगत ताकतें पहले ही ‘मेल-जोल’ और आर्थिक संकट से समझौता कर चुकी हैं, में नीतियों में कट्टरता डालने वाले असरदार दबाव समूह के रूप में काम करने की उनकी क्षमता में कमी आने की संभावना है. इससे भारत की सुरक्षा चिंताएं आसान हुई हैं.
वैशाली जयपाल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.
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