ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हर साल महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न मनाया जाता है लेकिन इस दिन ये भी याद रखना चाहिए कि लैंगिक समानता की दिशा में अभी हमें बहुत काम करना है. इस बात की समीक्षा करनी होती है कि महिलाओं को लेकर लोगों की सोच में कितना बदलाव आया है. महिलाओं को लेकर जो सर्वे हुए हैं, उनसे भी ये समझने में मदद मिलती है कि स्त्रियों को लेकर सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर में कितने बदलाव हुए हैं. हालांकि पिछले कुछ साल में लैंगिक समानता के दिशा में काफी कामयाबी मिली है लेकिन महिलाओं की पारंपरिक भूमिका को लेकर समाज की जो सोच है, इसका असर अब भी उनकी शिक्षा, रोज़गार और फैसला लेने की प्रक्रिया पर दिखता है. समाज ने महिलाओं के लिए जो मानक तय कर रखे हैं, वो लैंगिक असमानता को बरकरार रखने में अहम भूमिका तो निभाते ही हैं, साथ ही महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने और उनकी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करने में रुकावट भी पैदा करते हैं.
महिलाओं आंदोलन का विकास हुआ, पीछे गया या फिर इसमें स्थिरता आ गई ?
2023 में यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) ने लैंगिक दृष्टिकोण को लेकर "ट्रेंड्स इन मेंस जेंडर एटीट्यूड : प्रोग्रेस, बैकस्लाइडिंग और स्टैग्नेशन" शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट को बनाने में 26 देशों के डेमोग्राफिक और हेल्थ सर्वे (DHS) के आंकड़े लिए गए. इस रिपोर्ट से ये पता चलता है कि महिलाओं और पुरूषों को लेकर जो परम्परागत मानदंड हैं, उनका समाज पर क्या असर पड़ता है. भारत जैसे देशों के लिए तो ये रिपोर्ट और भी ज्यादा अहम है. भारत में महिलाओं को लेकर जो पारम्परिक और प्रचलित मान्यताएं हैं, उनका महिलाओं की सामाजिक स्थिति और स्वास्थ्य सम्बंधी मामलों पर काफी प्रभाव पड़ता है. 2024 के महिला दिवस की थीम थी "महिलाओं पर निवेश बढ़ाओ : तेज़ विकास करो". ऐसे में भारत के संदर्भ में USAID की ये रिपोर्ट और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है.
जिन 26 देशों का अध्ययन करके यह रिपोर्ट तैयार की गई, उन देशों में महिलाओं को लेकर समाज की सोच और लोगों के रुख में बदलाव पर इसमें विस्तृत जानकारी दी गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों में महिलाओं के साथ पहले जो भेदभाव होता था, उसमें कमी आ रही है. लोगों के रुख में सकारात्मक बदलाव आ रहा है लेकिन ये बदलाव हर क्षेत्र में एक समान नहीं है. घर से जुड़े फैसले लेने में महिलाओं को अहमियत मिल रही है. घरेलू हिंसा को जायज़ ठहराने वालों में कमी आई है. लेकिन गर्भनिरोध से जुड़े फैसले लेने में अभी भी महिलाओं की निर्णायक भूमिका नहीं है. इसी तरह परिवार में बेटे की चाहत में उतनी कमी नहीं आई है. यानी महिला और पुरुषों में भेदभाव भले ही कम हुआ हो लेकिन बड़े फैसले लेने में अभी भी पुरुष ही निर्णायक हैं.
यही वजह है कि लैंगिक समानता के लिए अब कुछ खास क्षेत्रों पर ध्यान देने की ज़रूरत महसूस हो रही है. अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उनकी उपलब्धियों का जश्न मनाने के साथ-साथ उन मुद्दों पर फोकस करना ज़रूरी है, जिसकी वजह से समाज में अब भी असमानता बनी हुई है.
भारत में क्या स्थिति?
हालांकि USAID की रिपोर्ट में भारत को लेकर अलग से आंकड़ें नहीं हैं लेकिन इस रिपोर्ट में जिस तरह घरेलू हिंसा, घर से जुड़े फैसलों पर महिलाओं की राय, महिलाओं की यौन स्वतंत्रता, गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल और बेटा पाने की चाहत जैसे मुद्दों का विश्लेषण किया गया है, उससे प्रेरणा लेते हुए इस लेख में भारत के संदर्भ में इन मुद्दों पर बात की गई है. इसके लिए भारत सरकार द्वारा किए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) के आंकड़ों की मदद ली गई है. ये समझने की कोशिश की है कि लैंगिक समानता को लेकर 21वीं सदी के भारत में क्या ट्रेंड चल रहा है.
चित्र 1- इसमें 15 से 49 साल के बीच के उन भारतीय पुरुषों का ट्रेंड दिखाया गया है, जो अलग-अलग वजहों को लेकर पत्नी को पीटने को सही मानते हैं. 2005 से 2021 के बीच पत्नी की पिटाई को सही मानने वाले पुरुषों की संख्या में कमी आई है. सबसे ज्यादा कमी उस ट्रेंड में आई है, जहां ये माना जाता था कि अगर पत्नी बिना बताए घर से बाहर जाती है तो उसे पीटना सही है. लेकिन बच्चों की अनदेखी, खाने और शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करने पर पिटाई को जायज़ ठहराने के ट्रेंड में उस रफ्तार से कमी नहीं आ रही, जितनी उम्मीद थी. अभी भी उन पुरुषों की संख्या काफी है, जो किसी ना किसी मुद्दे पर पत्नी की पिटाई को सही मानते हैं. ज़ाहिर है पुरुषों की इस मनोदशा को बदलने की कोशिशों में और तेज़ी लाने की ज़रूरत है.
चित्र 1 : पत्नी की पिटाई को सही मानने वाले भारतीय पुरुष (15-49)
स्रोत : https://dhsprogram.com/data/statcompiler.cfm
चित्र 2- इसमें 15 से 49 साल की उन भारतीय महिलाओं का सर्वे दिखाया गया है कि घर से जुड़ी बड़ी खरीदारी करने का फैसला या तो अकेले लेती हैं या फिर अगर साझा फैसले भी होते हैं तो उनकी राय को अहमियत दी जाती है. 2005 से 2021 के बीच का ट्रेंड देखें तो ये सामने आता है कि इस आयु वर्ग में खरीदारी से जुड़े फैसलों में महिलाओं की राय की अहमियत बढ़ी है. खरीदारी को लेकर आखिरी फैसला करने वाली महिलाओं की संख्या 52.9 से बढ़कर 83 प्रतिशत हो गई है. सबसे ज्यादा उछाल 15 से 25 साल के आयु वर्ग में दिखा. यहां खरीदारी में महिलाओं की निर्णायक भूमिका 35.1 से बढ़कर 83 फीसदी हो गई है. इन आंकड़ों से ये साबित होता है कि आर्थिक तौर पर महिलाएं मजबूत होती हैं तो लैंगिक समानता आती है.
चित्र 2 : बड़ी खरीदारी करने में महिलाओं की स्वतंत्र या साझा राय (15-49)
चित्र 3-
Source: Compiled by the author from https://dhsprogram.com/data/statcompiler.cfm
इसमें 15 साल से ज्यादा उम्र के उन पुरुषों की दिखाया गया है, जो ये मानते हैं कि अगर पत्नी शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करे तो उसे पीटना सही है. ये आंकड़ा दिखाता है कि यौन संबंध ना बनाने पर पत्नी की पिटाई को जायज़ मानने वाले पुरुषों की संख्या बढ़ी है. सर्वे की अवधि के बीच ऐसा मानने वालों की संख्या 8.9 से बढ़कर 13.3 फीसदी हो गई है. अलग-अलग आयु वर्ग में इसे लेकर अंतर दिखता है लेकिन यौन संबंध बनाने से इनकार करने पर पत्नी की पिटाई को सही मानने वालों की सबसे ज्यादा संख्या 15 से 24 साल के पुरुषों के बीच है. 2019 से 2021 के बीच ये संख्या 9.7 से बढ़कर 14.6 प्रतिशत हो गई है और ये चिंताजनक बात है. ज़रूरत इस बात की है कि ऐसी सोच रखने वाले पुरूषों को ये समझाया जाए कि महिलाओं की स्वतंत्रता और सहमति के अधिकार का सम्मान करना ज़रूरी है.
चित्र 3 : शारीरिक संबंध बनाने से मना करने पर पत्नी की पिटाई को सही ठहराने वाले भारतीय पुरुष (15+)
Source: Compiled by the author from https://dhsprogram.com/data/statcompiler.cfm
चित्र 4 - इसमें उन विवाहित महिलाओं के आंकड़े दिखाए गए जिससे ये ज़ाहिर होता है कि परिवार नियोजन का फैसला मुख्य तौर पर पत्नी की तरफ से लिया जाता है या फिर पति और पत्नी दोनों मिलकर लेते हैं. ये आंकड़े 2005-06 से 2019-21 के बीच के हैं. इन आंकड़ों से एक बात तो स्पष्ट होती है कि परिवार नियोजन का फैसला अब पति और पत्नी दोनों की सहमति से होता है. हालांकि पिछले कुछ साल में इसमें मामूली गिरावट आई है और ये 83.4 से कम होकर 81.7 प्रतिशत हुआ है. परिवार नियोजन के फैसले में पत्नी की निर्णायक भूमिका में थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई है और ये 9.5 से बढ़कर 10.1 फीसदी हो गया है. अगर इसकी तुलना परिवार नियोजन में पति के निर्णायक भूमिका से करें तो उसमें भी बढ़ोत्तरी हुई है और ये 6.1 से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है. ये आंकड़े इस बात की ज़रूरत पर बल देते हैं कि परिवार नियोजन और परिवार के सेहत संबंधी मामलों में पति-पत्नी की राय को बराबर अहमियत मिलनी चाहिए, तभी वो खुद को और बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे सकेंगे
चित्र 4 : भारतीय घरों में परिवार नियोजन किसका फैसला
Source: Compiled by the author from https://dhsprogram.com/data/statcompiler.cfm
चित्र 5 – इसमें भारत में बेटे की चाहत के आंकड़े दिखाए गए हैं. आंकड़ों से साफ है कि 15 से 49 साल के जिन पुरुषों के 2 बेटे हैं, वो आगे बच्चे नहीं चाहते. हालांकि अलग-अलग वक्त पर किए गए तीनों सर्वे में ये पाया गया कि ज्यादातर परिवार घर में बेटे चाहते हैं. 2 बेटों वाले 90 प्रतिशत पुरुष आगे बच्चे नहीं चाहते. हालांकि पिछले कुछ साल में इसमें गिरावट आई है. जिन घरों में एक बेटा है, ऐसे घरों के 89 फीसदी पुरुष भी परिवार नहीं बढ़ाना चाहते. करीब दो-तिहाई यानी 65 प्रतिशत पुरुष ऐसे हैं, जो बेटा ना होने पर भी परिवार आगे नहीं बढ़ाते. ये ट्रेंड दिखाता है कि परिवार नियोजन पर फैसला लेने में बेटे का होना या ना होना अहम भूमिका निभाता है. हालांकि पिछले कुछ सालों में ये ट्रेंड कमज़ोर पड़ा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि बेटा होने या ना होने की सूरत में भी परिवार का आकार छोटा रखा जा रहा है.
चित्र 5 : बेटा होने पर परिवार न बढ़ाने की इच्छा रखने वाले पुरुष (15-49)
Source: Compiled by the author from https://dhsprogram.com/data/statcompiler.cfm
पिछले दो दशक में भारत में लैंगिक समानता को लेकर समाज की सोच में बदलाव आया है. सर्वे के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि फैसले लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की अहमियत बढ़ रही है. घरेलू हिंसा को सही ठहराने वाली की संख्या भी घट रही है. परिवार नियोजन में महिलाओं की राय भी ली जा रही है लेकिन बेटे की चाहत अब भी परिवार का आकार तय करने में अहम रोल निभा रही है. इन आंकड़ों से साफ है कि कई क्षेत्रों में महिलाओं को अधिकार मिले हैं लेकिन कुछ मुद्दों पर अभी भी स्थिति चिंताजनक है.
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