Author : Navdeep Suri

Published on Dec 04, 2023 Updated 0 Hours ago

अब इस क्षेत्र के सारे अहम किरदारों को चाहिए कि वो इस बुनियाद पर आगे बढ़ें और टकराव ख़त्म करने के लिए पहले एक स्थायी युद्ध विराम और फिर फिलिस्तीनी समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में ठोस क़दम उठाएं.

गज़ा में पेचीदा जंग की जानी-अनजानी चुनौतियां

ग़ज़ा में इज़राइल और हमास के बीच चार दिनों के छोटे युद्ध विराम और हमास की क़ैद से गिने चुने बंधकों की रिहाई और उसके बदले में इज़राइल की जेलों में बंद फिलिस्तीनियों की आज़ादी का समझौता, 7 अक्टूबर के बाद से मिली पहली मगर मामूली राहत थी. बाद में हमास और इज़राइल ने कुछ और बंधकों और क़ैदियों की अदला-बदली के एवज़ में युद्ध विराम को तीन दिन और बढ़ा दिया. युद्ध विराम की इस राहत में क़तर के अनथक प्रयासों के साथ साथ मिस्र और अमेरिका की मध्यस्थता का भी योगदान रहा. 7 अक्टूबर को इज़राइल के सैनिकों और आम लोगों पर हमास के बर्बर हमले के बाद से, इज़राइल की बेहद ताक़तवर सेना, वायुसेना और नौसेना लगातार हमले कर रही थीं. बमबारी से तबाह रिहाइशी इमारतें, खंडहरों में तब्दील हो चुके मुहल्लों के मुहल्ले, ख़ून से सने ज़ख़्मी बच्चों, बेहद मुश्किल हालात में काम करते डॉक्टरों, पत्रकारों और संयुक्त के कर्मचारियों की मौत और उत्तरी ग़ज़ा में इस बर्बादी से बचकर भागने की कोशिश कर रहे निहत्थे नागरिकों के दक्षिणी ग़ज़ा की तरफ़ कूच करते कारवांओं की मिली जुली तस्वीरों ने कुल मिलाकर इज़राइल के ख़िलाफ़ एक ऐसा माहौल बना दिया है कि वो कुछ लोगों की करतूतों का बदला एक पूरी क़ौम से ले रहा है, युद्ध अपराध और नस्लीय नरसंहार कर रहा है. ग़ज़ा से आने वाली तस्वीरों को देखकर, दुनिया भर में करोड़ों लोगों को सड़कों पर उतरकर विरोध जताया और वहां फ़ौरन युद्ध विराम की मांग की. ‘आज़ाद फिलिस्तीन’ की मांग करने वाले पोस्टर-बैनर और टीशर्ट पहनकर होने वाले विशाल विरोध प्रदर्शन अब काहिरा से केपटाउन और लंदन से लाहौर तक आम हो चुके हैं. विरोध की एक घटना तो 19 नवंबर को अहमदाबाद में हो रहे वनडे क्रिकेट वर्ल्ड कप के फाइनल में भी देखने को मिली, और खेल को कुछ देर के लिए रोकना पड़ा.

सऊदी अरब ने तो सार्वजनिक रूप से इज़राइल और फिलिस्तीन के दो अलग अलग देशों की स्थापना और 1967 के पहले की सीमाओं की ओर लौटने की मांग की है और कहा है कि 2002 की अरब शांति योजना की रूपरेखा तहत इज़राइल को मान्यता दी जाए.

असामान्य हालात

इज़राइल के लिए ये बिल्कुल असामान्य हालात हैं. इज़राल का ये तर्क है कि हमास ने ग़ज़ा में ज़मीन के भीतर सुरंगों का विशाल जाल बिछा लिया है और उससे निपटने के लिए बड़े पैमाने पर हवाई बमबारी ज़रूरी है, जिसमें कुछ बेगुनाह लोग भी मारे जाएंगे. मगर, हमास जैसे आतंकवादी संगठन का ख़ात्मा करने के लिए इतना जोखिम तो उठाना वाजिब है, लेकिन, इज़राइल के इस तर्क की वैधता पर तमाम इज़राइली नेताओं की तरफ़ से आए निहायत घटिया बयानों ने सवालिया निशान लगा दिए हैं. इज़राइल की सरकार के कई सदस्यों ने बयान देकर कम से कम उत्तरी ग़ज़ा में नस्लवादी सफ़ाए के इज़राइल के इरादे की तरफ़ इशारा किया है. जिस तरह कट्टर यहूदी लोग वेस्ट बैंक में ज़बरदस्ती फिलिस्तीन की ज़मीन हथियाने की बेशर्म कोशिश कर रहे हैं और सर-ए-आम फिलिस्तीनियों की संपत्ति हड़प रहे हैं, इससे इज़राइल की और भी बदनामी हो रही है. फिलिस्तीनियों के साथ इज़राइल के इस युद्ध में ये भी पहली बार हो रहा है कि मुख्यधारा का मीडिया, इज़राइल के पक्ष में माहौल बना पाने में नाकाम रहा है. अपनी तमाम कमियों के बावजूद, सोशल मीडिया की क्रांति ने सूचना का लोकतांत्रीकरण कर दिया है. फिलिस्तीन के बहुत से आम नागरिक और पत्रकार अपने मोबाइल से जंग की भयावाह तस्वीरें बनाकर सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं, जो एक्स और इंस्टाग्राम, पर वायरल हो रही हैं. इस चुनौती से इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपने आज़माए हुए नुस्खे की मदद से निपट रहे हैं. कभी वो धमकाते हैं, कभी तथ्य छुपाते हैं, कभी शब्दों के जाल में फंसाते हैं और कभी सवालों का जवाब देना टाल जाते हैं.

कूटनीतिक पहल 

इस बदली हुई हक़ीक़त का एक पहलू कूटनीतिक गतिविधियों में भी दिखा है. पहले जहां ऐसे युद्धों पर कूटनीतिक बयान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा से आया करते थे. वहीं इस बार, BRICS के विस्तारित समूह ने 21 नवंबर को दक्षिण अफ्रीका की अध्यक्षता में एक आपातकालीन वर्चुअल बैठक की और ग़ज़ा में फ़ौरन युद्ध विराम लागू करने की मांग की. वहीं, 22 नवंबर को भारत की अध्यक्षता में हुई G20 की वर्चुअल बैठक में भी इज़राइल और फिलिस्तीन के दो अलग-अलग राष्ट्रों की स्थापना के लक्ष्य के साथ सात बिंदुओं की योजना पेश की. इससे भी अहम शायद, 11 नवंबर को रियाद में हुआ अरब और इस्लामिक देशों का असाधारण साझा सम्मेलन था, जिसमें मंत्रिस्तरीय समिति एक कड़ा बयान जारी करके कहा कि, ‘ग़ज़ा में युद्ध रोका जाए और मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय प्रस्तावों की रौशनी में एक स्थायी और व्यापक शांति समझौते के लिए सच्ची सियासी प्रक्रिया की शुरुआत की जाए.’ इस समिति में सऊदी अरब, मिस्र, जॉर्डन, तुर्की, नाइजीरिया, इंडोनेशिया और फिलिस्तीन के विदेश मंत्रियों के साथ साथ अरब लीग और इस्लामिक देशों के सहयोग संगठन (OIC) के महासचिव शामिल हैं. समिति के सदस्यों ने अपना मिशन आगे बढ़ाने के लिए बेहद असामान्य गतिविधियां शुरू की हैं. इसके सदस्य रूस, चीन, फ्रांस और लंदन के अलावा भारत का दौरा भी कर चुके हैं. समिति के सदस्यों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा ग़ज़ा में असरदार और स्थायी युद्ध विराम के लिए ठोस और फ़ौरी क़दम उठाने की ज़रूरत पर बल दिया है. सऊदी अरब ने तो सार्वजनिक रूप से इज़राइल और फिलिस्तीन के दो अलग अलग देशों की स्थापना और 1967 के पहले की सीमाओं की ओर लौटने की मांग की है और कहा है कि 2002 की अरब शांति योजना की रूपरेखा तहत इज़राइल को मान्यता दी जाए.

आज की तारीख़ में न तो मिस्र और न ही किसी और अरब देश में इतनी इच्छाशक्ति है कि वो ग़ज़ा में शासन चलाने की ज़िम्मेदारी ले सके. इसका एक विकल्प ये हो सकता है कि फिलिस्तीनी प्राधिकरण (PA) को पश्चिमी तट के साथ साथ ग़ज़ा पट्टी में कमान संभालने का मौक़ा दिया जाए.

दूरगामी समाधान की राह 

इस दिशा में होने वाले किसी भी गंभीर प्रयास में इस पहेली के दूरगामी समाधान निकालने से पहले कुछ फौरी चुनौतियों से निपटना होगा. अगर हम अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री डॉनल्ड रम्सफेल्ड के शब्दों में कहें तो इनमें जानी समझी अनजानी बातें भी है और नामालूम मुद्दे भी शामिल हैं.

  1. हमास के पास बचे बाक़ी बंधकों का क्या होगा? एक तरह से युद्ध विराम के तहत 50 बंधकों और फिर अगले तीन दिनों तक 10-10 और बंधकों की रिहाई तो सबसे आसान उपलब्धि थी. जब इज़राइली सैनिकों के बदले में फिलिस्तीनियों की रिहाई का सवाल होगा, तो मामला ज़्यादा जटिल होगा, क्योंकि फ़िलिस्तीनी क़ैदियों को इज़राइल की अदालतों ने ‘आतंकवादी गतिविधियों’ के लिए सज़ा सुना रखी है.

  2. बंधकों की रिहाई को लेकर हुई समझौता वार्ताओं की शुरुआती कामयाबी से ज़ाहिर है कि सात हफ़्ते की भयंकर बमबारी और, ग़ज़ा के बीच में इज़राइली टैंकों और सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद, ग़ज़ा में हमास की फौजी शाखा और दोहा में उसके सियासी नेताओं के बीच काम भर का तालमेल बना हुआ है. तो, अब आगे क्या होगा? क्या और बंधकों की रिहाई तक युद्ध विराम की ये बातचीत जारी रहेगी. बंधकों के परिजनों की तरफ से नेतन्याहू की सरकार पर भयंकर दबाव है. इससे ऐसा लगता है कि हमास को नष्ट करने की भयानक योजना पर बंधकों की रिहाई के लिए बातचीत को तरज़ीह दी जाएगी.

  3. ग़ज़ा को लेकर इज़राइल का अंतिम लक्ष्य क्या है? जैसे ही बंधकों की रिहाई का समझौता अपने अंजाम तक पहुंच जाता है और हमास नहीं तो पट्टी पूरी तरह से तबाह हो जाती है, तो क्या नेतन्याहू अपने वादे के मुताबिक़ ग़ज़ा पट्टी में इज़राइल की सुरक्षा व्यवस्था लागू करेंगे? क्या हम उस दौर की तरफ़ लौटेंगे जब ग़ज़ा में इज़राइल ने अपने 21 अड्डे बना रखे थे, जिन्हें 2005 में एरियल शरोन ने इकतरफ़ा फ़ैसला लेते हुए ख़त्म कर दिया था? पर, इसका मतलब उसी नुस्खे को दोहराना होगा, जो पहले भी आज़माया जा चुका है और नाकाम रहा है. 

  4. अगर इज़राइल ऐसा नहीं करता, तो फिर ग़ज़ा में हुकूमत की कमान किसके हाथ में होगी? ये इलाक़ा 1948 से 1967 तक मिस्र के क़ब्ज़े में रहा था, जब इज़राइल ने युद्ध के बाद ग़ज़ा पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था. लेकिन, आज की तारीख़ में न तो मिस्र और न ही किसी और अरब देश में इतनी इच्छाशक्ति है कि वो ग़ज़ा में शासन चलाने की ज़िम्मेदारी ले सके. इसका एक विकल्प ये हो सकता है कि फिलिस्तीनी प्राधिकरण (PA) को पश्चिमी तट के साथ साथ ग़ज़ा पट्टी में कमान संभालने का मौक़ा दिया जाए. लेकिन, इस विकल्प की राह में भी दो चुनौतियां हैं. इज़राइल को अपनी रणनीति में नाटकीय बदलाव लाते हुए फिलिस्तीनी प्राधिकरण को मज़बूत बनाने का काम करना होगा. जबकि वो अभी तक फिलिस्तीनी प्राधिकरण को कमज़ोर करने की नीति पर चलता रहा है. दूसरा ख़ुद फिलिस्तीनी प्राधिकरण को महमूद अब्बास की जगह किसी और प्रभावी नेता का चुनाव करना होगा.

  5. इसके बावजूद, 7 अक्टूबर के हमले और उसके बाद के ख़ूनी युद्ध से पैदा हुई एक और पहेली का हल नहीं निकलता. हमास की हरकतों की वजह से ग़ज़ा में नरसंहार और तबाही के बावजूद, आज भी ग़ज़ा में बहुत से फिलिस्तीनी ये मानते हैं कि उनकी वाजिब मांगों को व्यक्त करने और अधूरी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए फिलिस्तीनी प्राधिकरण नहीं, बल्कि हमास बेहतर विकल्प है. ग़ज़ा में बहुत से लोग फिलिस्तीनी प्राधिकरण को इज़राइल का साथी मानते हैं. हमास को मिटा देने की नेतन्याहू की क़सम ने एक ख़तरनाक स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि अगर ग़ज़ा पूरी तरह से तबाह हो जाता है और हमास फिर भी बच निकलता है, तो ये हमास की ही जीत होगी. कोई भी अरब देश ऐसा नहीं चाहेगा. फिर चाहे वो मिस्र हो, सऊदी अरब या फिर संयुक्त अरब अमीरात (UAE). ये सभी देश हमास को उस मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा मानते हैं, जिसे इन देशों ने आतंकवादी संगठन घोषित करके प्रतिबंधित कर रखा है. हमास से प्रेरित होकर और ईरान के भड़काने से इस क्षेत्र के नौजवानों के बीच इस्लामिक कट्टरपंथ का उभार इनमें से किसी भी देश को बर्दाश्त नहीं होगा. और फिर भी, इस स्थिति के किसी भी व्यवहारिक समाधान में हमास को शामिल करना ही होगा, जैसा फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) के दौर में हुआ करता था. तब अक्सर आपस में लड़ने वाले गुटों जैसे कि फतह, पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन (PFLP), डेमोक्रेटिक फ्रंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन (DFLP) और दूसरे संगठन, PLO का हिस्सा हुआ करते थे. क्या हमास अपने अस्तित्व को स्वीकार किए जाने के बदले में इज़राइल को मान्यता देने को तैयार होगा, और जब ग़ज़ा (और संभवत: पश्चिमी तट) के भविष्य को लेकर बातचीत रफ़्तार पकड़ेगी, तो क्या प्रमुख अरब देश हमास को इन वार्ताओं का हिस्सा बनाने के लिए राज़ी होंगे? ये फिलिस्तीनियों के नेतृत्व को आपस में बांटने, पश्चिमी तट में कमज़ोर फिलिस्तीनी प्राधिकरण और ग़ज़ा में प्रतिबंधित हमास को खड़ा करने की नेतन्याहू की रणनीति से निपटने का एक ठोस तरीक़ा हो सकता है.

  6. ईरान ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वो इस इलाक़े में उथल-पुथल मचाने की कितनी ताक़त रखता है. 2020 में शुरू हुए अब्राहम समझौतों और उसके बाद 2021 में भारत, अमेरिका, इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच सहयोग के मंच (I2U2) और सितंबर 2023 में G20 के शिखर सम्मेलन के दौरान घोषित किए गए भारत- मध्य पूर्व और यूरोप के बीच आर्थिक गलियारे की परियोजना (IMEEC) से ईरान को पूरी तरह दूर रखा गया था. लेकिन, 7 अक्टूबर को ईरान के सहयोगी हमास द्वारा इज़राइल पर किए गए हमले ने ईरान और फिलिस्तीन दोनों को फिर से इन नए समीकरणों का हिस्सा बना दिया है. ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जब सऊदी अरब में अरब और इस्लामिक देशों का शिखर सम्मेलन हुआ, तो उसमें ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी भी शामिल हुए. उनकी मौजूदगी से सीधा सवाल पैदा हुआ कि क्या ईरान को अपने आप में एक समस्या मानने के बजाय उसको समाधान का हिस्सा बनाया जा सकता है? वरना ईरान- हिज़्बुल्ला और हमास की ये बात सही साबित होगी कि शांति वार्ताएं और बहुपक्षीय प्रयास कारगर नहीं साबित होते और ग़ज़ा, पश्चिमी देशों की नियमों पर आधारित व्यवस्था की नैतिक नाकामी की ज़िंदा मिसाल है, जहां कुछ लोगों की ज़िंदगी, बाक़ियों से ज़्यादा क़ीमती मानी जाती है और विरोध का हथियारबंद और ताक़तवर तरीक़ा ही इकलौता विकल्प है. इससे पूरे मध्य पूर्व में कट्टरपंथ को और भी बढ़ावा मिलेगा.

  7. युद्ध की वजह से ग़ज़ा की लगभग आधी रिहाइशी इमारतें और उसका अहम मूलभूत ढांचा खंडहरों में तब्दील हो चुका है. ऐसे में अगर युद्ध आज से भी ख़त्म हो जाता है, तो ग़ज़ा में बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण करने होंगे. आने वाली सर्दियों में बेघर हो चुके 17 लाख फिलिस्तीनी दया पर निर्भर होंगे. क्या सामने दिख रही ये तबाही इस समस्या के फ़ौरन समाधान या फिर फ़ैसला लेने की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और शायद अरबों की अगुवाई और खाड़ी देशों की आर्थिक मदद व संयुक्त राष्ट्र के समर्थन की प्रक्रिया शुरू की जा सकेगी, जिसमें ग़ज़ा की सुरक्षा के साथ साथ उसके पुनर्निर्माण का काम तेज़ी से हो सके? इसके लिए पहले इज़राइल और अमेरिका को इस बात की गारंटी देनी होगी कि इस पुनर्निर्माण को फिर से मलबे में तब्दील नहीं किया जाएगा.

  8. जब जंग ख़त्म हो जाएगी, तो इज़राइल में तो साफ़ तौर से इस सच्चाई को स्वीकार किया जा रहा है कि वहां के सियासी बिखराव के बीच नेतन्याहू के उथल-पुथल भरे शासन का अंत हो जाएगा. इस सोच के पीछे एक ख़ामोश उम्मीद ये भी है कि जो नया नेतृत्व उभरेगा वो इस हक़ीक़त को स्वीकार करेगा कि फिलिस्तीन के अधिकारों को ख़ारिज करने वाली इस नीति में सरंचनात्मक ख़ामियां हैं. क्या 7 अक्टूबर के हमले की भयावहता से इज़राइल में अधिक मध्यमार्गी नेतृत्व उभरकर सामने आएगा? 

  9. और आख़िर में अमेरिका भी है, जिसने बंधकों की रिहाई के लिए चल रही बातचीत में मिस्र और क़तर के साथ नज़दीकी सहयोग करके और जंग के बीच में ग़ज़ा पट्टी में मानवीय मदद पहुंचाना सुनिश्चित करके अपनी अहमियत को फिर साबित कर दिया है. लेकिन, जैसे ही अमेरिका में चुनाव का माहौल बनेगा तो राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा नेतन्याहू को लेकर अपनी पसंद को दरकिनार करके इज़राइल का मज़बूती से साथ देने और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों द्वारा फिलिस्तीनी समस्या को लेकर अधिक संतुलित रवैया अपनाने के बीच का फ़ासला खुलकर सामने आ जाएगा. चूंकि, रिपब्लिकन पार्टी के नेता खुलकर नेतन्याहू और इज़राइ का समर्थन कर रहे हैं, ऐेसे में अमेरिका में बनने वाले नए सियासी समीकरण भी इस समस्या का अनजाना पहलू होगा.

आने वाली सर्दियों में बेघर हो चुके 17 लाख फिलिस्तीनी दया पर निर्भर होंगे. क्या सामने दिख रही ये तबाही इस समस्या के फ़ौरन समाधान या फिर फ़ैसला लेने की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और शायद अरबों की अगुवाई और खाड़ी देशों की आर्थिक मदद व संयुक्त राष्ट्र के समर्थन की प्रक्रिया शुरू की जा सकेगी.

अगर हम इसमें से इज़राइल की लेबनान से लगने वाली सीमा पर स्थित ईरान के सहयोगियों हिज़बुल्लाह और यमन पर क़ब्ज़ा कर चुके हूती विद्रोहियों द्वारा लाल सागर में जहाज़ों को निशाना बनाने जैसे पहलुओं को दरकिनार भी कर दें, तो ये बेहद पेचीदा स्थिति है. ग़लती से हुआ एक हमला, संवाद में गड़बड़ी या फिर किसी भी नॉन स्टेट एक्टर द्वारा कोई एक दुस्साहसिक क़दम, ग़ज़ा के युद्ध को एक क्षेत्रीय संघर्ष में तब्दील कर सकता है. पिछले हफ़्ते बंधकों की रिहाई के शुरुआती समझौते ने उम्मीद की एक मामूली किरण दिखाई है. अब इस क्षेत्र के सारे अहम किरदारों को चाहिए कि वो इस बुनियाद पर आगे बढ़ें और टकराव ख़त्म करने के लिए पहले एक स्थायी युद्ध विराम और फिर फिलिस्तीनी समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में ठोस क़दम उठाएं.

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