Published on Jun 29, 2019 Updated 0 Hours ago

जी-20 देशों ने ख़ुद को संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा मंच बना लिया है, यही वजह है कि आज जी-20 संगठन अपनी विश्वसनीयता खो रहा है. ये अंतर्विरोधों का शिकार बन रहा है.

जी-20 को अपने बुनियादी लक्ष्य स्थिरता और आर्थिक विकास की तरफ़ लौटना होगा

जी-20 की स्थापना हुए एक दशक से थोड़ा ज़्यादा समय हो गया है. तब इस संगठन ने ख़ुद को दुनिया की अर्थव्यवस्था के संरक्षक के तौर पर स्थापित किया था. हक़ीक़त में ये अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था के प्रबंधन के लिए बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के गठन जैसा था. इस संगठन की स्थापना के समय जैसे हालात थे, आज हम कमोबेश फिर से उसी हालात में पहुंच रहे हैं, जब जी-20 ने अपना सफ़र शुरू किया था. अगर 2008 का आर्थिक संकट अमेरिका के ढीले नियमों की वजह से पैदा हुआ था, तो, 2019 में जिस आर्थिक संकट के हालात बन रहे हैं, उसके पीछे अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध सबसे बड़ा कारण है. चीन ने इस व्यापार युद्ध पर जैसी प्रतिक्रिया दी है, वो इसकी बड़ी वजह है. पश्चिमी देशों के पास अभी भी बड़ी आर्थिक शक्तियां हैं, जिनसे वो अपनी अपेक्षाएं पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं, पूर्वी देश तेज़ी से विकसित हो रहे हैं. इनके बीच में फंसे छोटे देशों की अर्थव्यवस्थाएं तबाह हो रही हैं.

28 जून से जापान के ओसाका शहर में शुरू हुए जी-20 शिखर सम्मेलन का लक्ष्य साफ़ निर्धारित है. पर, इस चुनौती से निपटने में जी-20 संगठन फिलहाल नाकाम दिख रहा है. इसके अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं. इस संगठन में जवाबदेही की कमी है, ये बात स्पष्ट हो चुकी है. जी-20 अपने अंतर्विरोधों का शिकार हो रहा है. जबकि इसकी शुरुआत बेहद शानदार रही थी. शुरुआती दिनों में जी-20 ने बहुत बेहतर नतीजे दिए थे. इसके सदस्य देशों ने मिलकर 2008 के आर्थिक संकट से अच्छी तरह निपटने में कामयाबी हासिल की थी. ये एक ऐसा संस्थान बनकर उभरा था, जो तमाम देशों के नेताओं, वित्त मंत्रियों, केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों और उनके शेरपाओं के मेल-मिलाप और मनोरंजन का अड्डा भर नहीं था. जी-20 ऐसा संगठन बनकर उभरा था, जो विश्व की आर्थिक चुनौतियों से सक्षमता से निपट रहा था. लेकिन, पिछले कुछ बरसों में जी-20 अपने इस बुनियादी काम से ही भटक गया है. इसने अपनी विश्वसनीयता और वैधानिकता, दोनो को गंवा दिया है. अपनी हर बैठक और अलग-अलग शहरों में होने वाले शिखर सम्मेलन के साथ, धीरे-धीरे जी-20 संगठन अप्रासंगिक होता चला गया.

अमेरिका में लेहमन ब्रदर्स की तबाही और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की पहले वित्तीय और फिर आर्थिक हालत बिगड़ने के ठीक दो महीने बाद यानी 15 नवंबर 2008 को जी-20 को नया जीवनदान मिला था. ऐसा इस संगठन की 1999 में स्थापना के 9 बरस बाद हो सका था. अमेरिकी वित्तीय संकट को बड़ी जल्दी, ‘वैश्विक आर्थिक संकट’ घोषित कर दिया गया था. इसका नतीजा ये हुआ कि दुनिया की नज़रें अमेरिकी के ख़राब वित्तीय प्रबंधन और उन पर नियंत्रण और निगरानी की लचर व्यवस्था से हट गई थीं. ये बिल्कुल सच है कि जब अमेरिका जैसी विशाल अर्थव्यवस्था छींकती है, तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को सर्दी महसूस होने लगती है.

और जब ये सर्द मौसम दुनिया की अर्थव्यवस्था पर छाया, तो ये बहुत ही ठंडा था. इससे विश्व अर्थव्यव्था की विकास दर ही नहीं घटी, बल्कि हक़ीक़त ये थी कि इस संकट के चलते अर्थव्यवस्था सिकुड़ने लगी थी. विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक़, 2007 में विश्व अर्थव्यवस्था की जीडीपी जहां 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी. वहीं, 2008 में पहले ये घट कर 1.8 प्रतिशत हो गई और 2009 में ये नेगेटिव में चली गई. उस साल दुनिया की अर्थव्यवस्था की विकास दर -1.7 प्रतिशत रही थी. इसी दौरान, यानी 2007 में अमेरिका की विकास तरह 1.8 प्रतिशत थी, तो 2008 में ये -0.3 प्रतिशत रह गई. और, 2009 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था -2.8 प्रतिशत की दर से सिकुड़ रही थी. दुनिया की कमोबेश सभी अर्थव्यवस्थाओं के लिए साल 2009 सबसे ख़राब रहा था. चीन की विकास दर 2007 में 14.2 से घटकर 9.4 प्रतिशत रह गई. तो, जापान की 1.7 फ़ीसद से घटकर -5.4 प्रतिशत रह गई. वहीं, जर्मनी की विकास दर 3.3 फ़ीसद से घटकर -5.6 प्रतिशत ही रह गई. इस दौरान केवल भारत की विकास तरह 7.7 प्रतिशत से बढ़कर 7.9 प्रतिशत रही थी.

जॉर्ज बुश की अगुवाई वाली लंगड़ी सरकार की अगुवाई में जी-20 अचानक आर्थिक जवाबदेही का संगठन बन गया. 15 नवंबर 2008 को वॉशिंगटन में हुए शिखर सम्मेलन में 19 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों और यूरोपीय यूनियन वाले जी-20 देशों के नेताओं ने मिलकर दुनिया की अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने का प्रण लिया. इसके लिए इन देशों ने वित्तीय और मौद्रिक नीति में बदलाव लाकर तमाम देशों की मांग बढ़ाने, वित्तीय व्यवस्था में और धन लगाने का फ़ैसला किया. ये लक्ष्य हासिल करने के लिए बहुत कम वक़्त यानी 31 मार्च 2009 की मियाद तय की गई थी. जी-20 देशों का अगला सम्मेलन लंदन में होना था. 31 मार्च की समय सीमा उस सम्मेन से 2 दिन पहले ख़त्म हो जानी थी. 2 अप्रैल 2009 को लंदन में हुए जी-20 के शिखर सम्मेलन ने नवंबर 2008 के सम्मेलन की सहमति को ही और आगे बढ़ाया. विश्व की विकास दर को दोबारा पटरी पर लाने, रोज़गार बढ़ाने, दुनिया के वित्तीय सिस्टम की मरम्मत करने का प्रण लिया गया. ताकि, क़र्ज़ बांटने और वैश्विक व्यापार और निवेश को बढ़ावा दिया जा सके. जी-20 देशों के नेताओं ने विश्व अर्थव्यवस्था में और खुलापन लाकर संरक्षण की नीति को ख़ारिज करने का फ़ैसला किया था. इसके लिए इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने विश्व अर्थव्यवस्था में 1.1 ख़रब डॉलर की पूंजी और लगाने का वादा किया.

उस वक़्त तक विश्व पर छाया वित्तीय संकट छंटने लगा था. और तभी से जी-20 संगठन का अपने लक्ष्य से भटकने का सिलसिला शुरू हो गया. लंदन में हुए जी-20 सम्मेलन में मेज़बान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने, विश्व की अर्थव्यवस्था के ‘समेकित, हरित और स्थायी पुनर्निर्माण’ का वादा किया. 25 सितंबर 2009 को हुए पिट्सबर्ग सम्मेलन में, सदस्य देशों ने इस बात पर सहमति जताई कि विश्व की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे स्थिरता की ओर लौट रही है. यानी पटरी पर आ रही है. लेकिन, अपनी घोषणा के 27वें पैराग्राफ़ में ये सम्मेलन अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटकता दिखा था. इसमें हरित, स्थायी विकास की बात थी. जलवायु परिवर्तन का भी ज़िक्र था. इससे साफ़ था जी-20 के सदस्य देश विश्व की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने और विकास के अपने मूल लक्ष्य से भटक रहे थे और अपने लिए दूसरी मंज़िलें भी तय करने लगे थे. असली मुद्दों की जगह नैतिकता हावी होने लगी थी. अब जी-20 के सदस्य देश ज़्यादा ज़िम्मेदार दिखने की चाहत दिखा रहे थे. इस चक्कर में वो अपने बुनियादी काम के बजाय दूसरी बातों पर ज़ोर देने लगे.

12 नवंबर 2010 को सियोल में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के आते-आते ये एकदम साफ़ हो गया था कि इस संगठन के नेता आर्थिक संकट से निपटने के अपने बुनियादी लक्ष्य से पूरी तरह भटक चुके हैं. उस सम्मेलन में हुई घोषणा के 46वें पैराग्राफ़ में इक्कीसवीं सदी के विकास के लक्ष्यों का ज़िक्र था. तो, 64वें और 65वें पैराग्राफ़ में कुछ नए मुद्दे जैसे, ‘दुनिया के समुद्रों के पर्यावरण संरक्षण’ का ज़िक्र था. घोषणापत्र के 66 से 68वें पैराग्राफ़ में जलवायु परिवर्तन और हरित विकास की बाते थीं, तो 69 से 71वें पैराग्राफ़ में इन नेताओं ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध संकल्प पर सहमति जताई थी. और अंत में इस संगठन ने जी-20 बिज़नेस समिट की शुरुआत कर दी. अब ये बिल्कुल साफ़ था कि ग़ैर सरकारी संगठनों की लॉबियां और मुनाफ़े के लिए काम करने वाले संगठनों के पैरोकारों ने इस संगठन में गहरी पैठ बना ली थी. जी-20 सम्मेलन की मेज़बानी करने वाले देश उनके हाथों की गठपुतली बन गए थे. अब जी-20 देशों का सम्मेलन नेटवर्किंग का अड्डा बन गया और यहां पर लोक-लुभावन घोषणाओं पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगा.

मसलन, 16 नवंबर 2014 को ब्रिसबेन में हुए जी-20 सम्मेलन के घोषणापत्र में गिनी, लाइबेरिया और सिएरा लियोन देशों में इबोला वायरस को लेकर बयान था. इसमें विश्व बैंक समूह और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से अपील की गई थी कि इबोला वायरस के संक्रमण का विस्तार रोकने के लिए ये संगठन 30 करोड़ डॉलर की मदद से सस्ते क़र्ज़ दें. प्रभावित देशों की आर्थिक मदद करें और पुराने क़र्ज़ों की माफ़ी दें. 16 नवंबर 2015 को अनातालिया में हुए शिखर सम्मेलन में आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने का बयान जारी किया गया. जबकि चीन लगातार, आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान का समर्थन करता रहा है. और शायद अक्टूबर में पाकिस्तान को फाइनेंशिएल एक्शन टास्क फ़ोर्स की ब्लैकलिस्ट में डालने के प्रस्ताव का भी विरोध करे.

अपने हर सम्मेलन में ऐसे दायरे बढ़ाते हुए जी-20 देशों ने ख़ुद को संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा मंच बना लिया है. जबकि, जिन मुद्दों की बात आज जी-20 देश कर रहे हैं, उन्हें लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की सबसे वैधानिक संस्था है. यही वजह है कि आज जी-20 संगठन अपनी विश्वसनीयता खो रहा है. ये अंतर्विरोधों का शिकार बन रहा है.

क्या जी-20 संगठन को बचाया जा सकता है? इस सवाल का जवाब है-हां. लेकिन, इसे फ़िलहाल जिस तरह चलाया जा रहा है, उस तरह चलाते हुए तो नहीं बचाया जा सकता. आज इस संगठन की आर्थिक शक्तियां कोमा में हैं. इसके सदस्य देश आपस में द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय सहयोग और समझौतों पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं. जी-20 के शिखर सम्मेलनों में जो बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, वो सम्मेलन ख़त्म होने से पहले टूटने लगते हैं. हाल ही में जी-2 यानी अमेरिका और चीन ने बार-बार इसकी मिसाल पेश की है. दुनिया में आर्थिक तनाव बढ़ रहा है. अमेरिका और चीन अपने-अपने यहां दूसरे देशों को रोकने के लिए नई दीवारें खड़ी कर रहे हैं. इसका नतीजा बाक़ी के 17 देशों और पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है. विकास दर को इसका फ़ौरी नुक़सान हुआ है. इसकी वजह से हम जल्द ही वित्तीय अस्थिरता भी देखेंगे.

अगर जी-20 को ख़ुद को आर्थिक मोर्चे पर फ़िसलने से बचाना है, तो इसके लिए एक संकट की आवश्यकता होगी. क्योंकि फिलहाल उस मुद्दे पर एकता खंड-खंड हो चुकी है. हालांकि, फिलहाल ये संगठन अपने नेताओं के बीच अनौपचारिक, अबाध्यकारी बैठकों को बढ़ावा दे सकता है. मुख्य बैठक के बजाय अब अलग होने वाली बैठकों की अहमियत बढ़ती जा रही है. जैसे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में तीन अहम बैठकें करेंगे. पहली बैठक ब्रिक्स देशों के नेताओं के साथ होगी. इसके बाद दो त्रिपक्षीय बैठकें होंगी. प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे की त्रिपक्षीय वार्ता तय है. इसके बाद वो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ त्रिपक्षीय वार्ता करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी की ट्रंप और शिंजो अबे के साथ द्विपक्षीय बैठक भी हुई है. जहां तक मुद्दों की बात है तो प्रधानमंत्री मोदी इस बैठक में पाकिस्तान के आतंकवाद के मुद्दे को ज़रूर रखने वाले हैं. इसी तरह चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे के साथ द्विपक्षीय वार्ता करेंगे. शी जिनपिंग और डोनाल्ड ट्रंप के बीच सीधी बैठक की भी चर्चा है.

तमाम नेताओं के बीच इन मुलाक़ातों के पेंच-ओ-ख़म का नतीजा ये होता है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के नेता व्यापार, निवेश और वित्त की बातें करने के साथ-साथ सुरक्षा, आतंकवाद और रक्षा के मसलों पर भी चर्चा करते हैं. इससे इन नेताओं को बिना किसी समझौते या घोषणा के बंधन के तमाम मुद्दों पर खुल कर चर्चा करने का मौक़ा मिलता है. ऐसी बैठकों से नए विचारों को पनपने का मौक़ा मिलता है. नेता खुलकर अपनी बातें कह पाते हैं. लेकिन, जब ये नेता अपने देशों की जनता को ये बताएंगे कि वो जापान में सुशी खाने के लिए गए थे, तो उससे जनता निराश होती है. इसी लिए हमें ऐसी बैठकों के एजेंडा को नियंत्रित करना होगा, जो अभी हाथ से बाहर जा रहे हैं.

जी-20 सम्मेलनों का ये नया मॉडल हो सकता है. लेकिन, फिलहाल ओसाका में हो रहे जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन को अपना सम्मान और विश्वसनीयता अगर दोबारा हासिल करनी है, तो उन्हें दुनिया पर छा रहे आर्थिक संकट की तरफ़ ध्यान देना होगा. अगर शिंजो अबे इस सम्मेलन को इस लक्ष्य की तरफ़ ले जा सकते हैं. आर्थिक संकट से पहले अगर वो विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले सदस्य देशों को आर्थिक परिचर्चा के लिए राज़ी कर सकते हैं, तभी सही अर्थों में ये सम्मेलन कामयाब माना जाएगा. शिंजो अबे को सदस्य देशों के नेताओ को ये समझाना होगा कि जी-20 ने जो काम 2008 में शुरू किया था, वो अभी ख़त्म नहीं हुआ है. दुनिया की अर्थव्यवस्था एक बार फिर मंदी के मुहाने पर खड़ी है. कई देशों में तो मंदी बस कुछ तिमाहियों की दूरी पर खड़ा दिख रहा है. इसलिए, जी-20 को अपने इस मूलभूत लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कमर कसनी होगी, ताकि वो दुनिया को इस दूरगामी असर वाले आर्थिक संकट से बचा सके.

वरना, जी-20 देशों की जनता इस सम्मेलन को बड़े नेताओ की पिकनिक के तौर पर देखेगी. जहां लंबी-चौड़ी बातें होती हैं. तमाम मुद्दों पर बड़ी-बड़ी घोषणाओं वाले दस्तावेज़ जारी होते हैं. अर्थव्यवस्था को खोलने,र टैक्स घटाने और त्वरित कार्रवाई जैसी अच्छी और सुहानी चर्चा होती है. पर ज़मीनी काम कुछ नहीं होता. नतीजा ये होता है कि लोगों को रोज़गार नहीं मिलता. अर्थव्यवस्था में पूंजी घटती जाती है और आर्थिक संकट गहराता जाता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.