Author : Nilanjan Ghosh

Published on Nov 30, 2023 Updated 18 Hours ago

नुक़सान और हर्जाने (L&D) का फंड कितना अहम है, इसे दोहराने की ज़रूरत नहीं है. पर, सवाल ये पैदा होता है कि इसका सामना कैसे किया जाए?

नुकसान और पेनल्टी के लिए फंड की दिक्कतें: अनसुलझे सवाल और चिंताओं की अनदेखी

मिस्र में पिछले साल हुए जलवायु सम्मेलन (COP27) की एक बड़ी उपलब्धि, नुक़सान और हर्जाने (L&D) के फंड की स्थापना करना था. ये विकासशील और कम विकसित देशों द्वारा बरसों से किए जा रहे प्रयासों का नतीजा था. ये देश ग्लोबल वार्मिंग  और जलवायु परिवर्तन से बहुत बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. इस फंड का मूल मक़सद, जलवायु परिवर्तन के बुरे नतीजों का शिकार हो रहे देशों को वित्तीय सहायता देना है. इसके लिए, अलग अलग इलाक़ों के 24 सदस्य देशों वाली ट्रांज़िशनल कमेटी की स्थापना की गई, ताकि फंड के इस्तेमाल की निगरानी की जा सके. इस समिति की ज़िम्मेदारियों में सुझाव देना भी शामिल है. इन सुझावों को दिसंबर 2023 में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के दुबई  शहर में होने वाले जलवायु सम्मेलन (COP28) में पेश किया जाना है.

जैसे जैसे जलवायु संकट गहराता जा रहा है, वैसे वैसे इसके दुष्प्रभाव समुद्र के बढ़ते स्तर, बार बार हीटवेव चलने, रेगिस्तान का दायरा बढ़ने, समुद्र के पानी के अम्लीकरण और बाढ़, सूखे, चक्रवात और जंगल की आग जैसी बढ़ती घटनाओं और उनसे मानव समाज को होने वाले नुक़सान की शक्ल में सामने रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के ये दुष्प्रभाव अक्सर दूरगामी और स्थायी होते हैं. जलवायु परिवर्तन की संधि से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की रूप-रेखा (UNFCCC) ये मानती है कि जलवायु परिवर्तन के ऐसे कईस्थायी दुष्प्रभावदेखने को मिल रहे हैं, जिनको केवल स्वयं को बदली हुई परिस्थितियों के हिसाब से ढालकर पलटा नहीं जा सकता है. ज़्यादातर मामलों में ये नुक़सान और घाटा वो देश भुगत रहे हैं जो सबसे कम उत्सर्जन कर रहे हैं. मिसाल के तौर पर दुनिया के कुल जलवायु परिवर्तन में अफ्रीका महाद्वीप का योगदान सबसे कम है. पर, वो जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक दुष्प्रभाव झेलने वाले इलाक़ों में से एक है. जबकि, G20 देश दुनिया की 75 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं. इसीलिए, जलवायु के न्याय के लिहाज़ से इंसाफ़ और समता के नज़रिए से प्रभावित देशों को मुआवज़ा मिलना ही चाहिए.

 जलवायु परिवर्तन के ये दुष्प्रभाव अक्सर दूरगामी और स्थायी होते हैं. जलवायु परिवर्तन की संधि से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की रूप-रेखा (UNFCCC) ये मानती है कि जलवायु परिवर्तन के ऐसे कई ‘स्थायी दुष्प्रभाव’ देखने को मिल रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की 2023 में आई एडेप्टेशन  गैप रिपोर्ट के मुताबिक़, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालने के लिए, जितनी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मदद चाहिए और जितना मिल रहा है, वो 10 से 18 के अनुपात में है. मतलब ये कि इन देशों की ज़रूरत पहले के अनुमानों से लगभग 50 प्रतिशत अधिक है. मौजूदा मॉडल ये पूर्वानुमान लगा रहे हैं कि इन देशों को ख़ुद को ढालने (Adaptation) के लिए, इस पूरे दशक में हर साल क़रीब 215 अरब डॉलर की सहायता की ज़रूरत होगी. इसके अलावा, घरेलू स्तर पर एडेप्टेशन  की प्राथमिकताओं को असरदार तरीक़े से लागू करने के लिए इन देशों को हर साल 387 अरब डॉलर की रक़म चाहिए होगी. इस लिहाज़ से लॉस एंड  डैमेज के लिए पूंजी को जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढालने और दुष्प्रभाव कम करने (Mitigation) के लिए आवश्यक रक़म से नज़दीकी से जोड़ना होगा.

नुक़सान और क्षतिपूर्ति के मसलों से निपटने के लिए UNFCCC ने 2013 में वॉर्सा इंटरनेशनल मैकेनिज्म  (WIM) की स्थापना की थी. हालांकि, इसका मुख्य ज़ोर जोखिम के प्रबंध पर ही रहा और ये वैश्विक स्तर पर पूंजी जुटाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर सका. इस रणनीति की बेहद अहम कमज़ोरी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव कम करने और ढालने के तौर तरीक़ों में भी ज़ाहिर होती है. WIM की स्थापना का मुख्य लक्ष्य ही जलवायु परिवर्तन के उन दुष्प्रभावों पर गंभीरता से काम करना था, जो मिटिगेशन औरएडेप्टेशन के दायरे से बाहर आते हैं. इसीलिए, नुक़सान और क्षतिपूर्ति (L&D) के लिए उन्हीं रणनीतियों को अपनाना बुनियादी तौर पर ग़लत था. जलवायु परिवर्तन पर सरकारों के पैनल (IPCC) ने इशारा किया है कि एडेप्टेशन  और मिटिगेशन के ठोस उपायों के बाद भी जलवायु परिवर्तन के नतीजे नुक़सान और क्षति के रूप में सामने आते रहेंगे.

इसीलिए, नुक़सान और क्षतिपूर्ति के फंड की अहमियत को दोहराने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, सवाल ये है कि इसका मुक़ाबला कैसे किया जाए? L&D के खाते में जाने वाली रक़म की आमद में कमी, इससे जुड़ा सबसे अहम मुद्दा बना रहेगा. येकैसेका सवाल चार मुख्य बिंदुओं से उभरता है, जिन पर हम इस लेख में चर्चा कर रहे हैं.

परिभाषा से जुड़े मसले

पहली और सबसे अहम चिंता तो नुक़सान और क्षति की परिभाषा की है. लॉस एंड  डैमेज का दायरा कितना बड़ा है, इसके लिए कोई सटीक परिभाषा तय नहीं है, जिससे इसको लेकर अपनी अपनी राय क़ायम करने की गुंजाइश बढ़ जाती है. बॉयड और उनके सह-लेखकों ने लॉस एंड  डैमेज के तमाम नज़रियों को समझने की कोशिश की है, जो ऐडैप्टेशन से लेकर मिटिगेशन और अस्तित्व के लिए संकट तक के मसले हैं, जिससे कमज़ोर देशों को हो रहे नुक़सान को समझा जा सके. वहीं, UNFCCC का जो तरीक़ा है उसमें ये साफ़ नहीं किया गया है कि वो नुक़सान और क्षतिपूर्ति को लेकर कौन सा नज़रिया अपनाता है. शर्म अल-शेख़ में L&D के तबाही लाने वाले आर्थिक और ग़ैर आर्थिक नुक़सानों को लेकर इसे लागू करने के लिए जो योजना तय की गई थी, उसमें जंगलों से विस्थापन और सांस्कृतिक विरासत पर असर, इंसानों की आवाजाही और स्थायी समुदायों की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी के मसलों को भी शामिल किया गया था. वहीं दूसरी तरफ़ क्षति का वर्गीकरण मूलभूत ढांचे और संपत्ति को होने वाले उस नुक़सान के तौर पर किया गया है, जो किसी देश की आर्थिक, पर्यावरण और सामाजिक स्थिति को गहरी चोट पहुंचाते हैं. मिसाल के तौर पर, आर्थिक क्षति और नुक़सान तब होते हैं, जब प्राकृतिक आपदाएं घरों, स्कूलों और सड़कों जैसे बुनियादी ढांचे को बर्बाद कर देती हैं. इन नुक़सानों का पैसे के रूप में आकलन करना आसान होता है. संस्कृति जैसी चीज़ों को होने वाली क्षति का अंदाज़ा लगाना बेहद मुश्किल होता है.

इसके अलावा ये परिभाषाएं बहुत व्यापक और एक दूसरे से कई मायनों में मिलती हैं. जब तक L&D की एक सबको स्वीकार्य परिभाषा और वर्गीकरण तय नहीं हो जाता, तो इसके लिए पूंजी जुटाने की समस्या बनी रहेगी. वहीं दूसरी तरफ़, ऐसे तमाम दस्तावेज़ मौजूद हैं जो नुक़सान और क्षति करने वाली घटना से पहले और नुक़सान पहुंचाने वाली घटना के बाद की स्थिति को स्वीकार करते हैं. घटना से पहले के वर्गीकरण का मक़सद उन L&D की रोकथाम करना है, जो भविष्य में हो सकती हैं (यहां तक कि WIM ने भी इस पर चर्चा की थी). पर, बड़ी समस्या ये है कि उनको एडेप्टेशन  के लिए दी जाने वाली पूंजी से कैसे अलग किया जाए. ये बहुत अहम मसला है.

ज़िम्मेदारी तय करने की समस्याएं

ज़िम्मेदारी तय करने की समस्याएं कई स्रोतों से पैदा होती हैं. पहले का संबंध तो ये है कि लॉस एंड  डैमेज के किस पहलू के लिए जलवायु परिवर्तन को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. मिसाल के तौर पर गंगा ब्रह्मपुत्र और मेघना के डेल्टा में स्थित भारत के सुंदरबन सिर्फ़ समुद्र का जल स्तर बढ़ने से ही नहीं सिकुड़ रहे, बल्कि इसमें गंगा की मुख्यधारा से सहायक नदियों में बहकर जाने वाली तलछट में आई गिरावट भी योगदान दे रही है. तलछट के प्रवाह की इस कमी का कारण ये है कि पश्चिम बंगाल के फरक्का क़स्बे में बांध बन जाने से तलछट वहीं जमा हो जा रही है. इसीलिए, भारत के सुंदरबन के सिमटते जाने के लिए पूरी तरह से बंगाल की खाड़ी का जल स्तर बढ़ने को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा.

 एक वैकल्पिक व्यवस्था क़र्ज़ की अदला-बदली भी हो सकती है, जिसमें मौजूदा क़र्ज़ को माफ़ करके पूंजी को जलवायु संबंधी कार्यों में लगाया जा सके.

इससे भी बड़ा सवाल है कि नुक़सान और क्षतिपूर्ति के लिए पैसे कौन देगा? मिस्र में COP27 की वार्ताओं के दौरान, यूरोपीय संघ ने एक शर्त के साथ लॉस ऐंड डैमेज फंड को मंज़ूरी दी थी: कि केवल UNFCCC द्वारा घोषितबड़ी अर्थव्यवस्थाएंही इसमें पैसे लगाएंगी. यहां दिक़्क़त ये है कि चीन जैसे जो देश ग्रीनहाउस गैसों के भारी उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं. मगर, UNFCCC के नियमों के मुताबिक़ संयुक्त राष्ट्र उन्हें विकासशील देश मानता है. इससे देशों के बीच फ़र्क़ मिट जाता है. ये जलवायु परिवर्तन की ऐसी पहेली है, जिससे सवाल खड़ा होता है कि हम गर्म होती दुनिया में किस तरह दानदाता देश की परिभाषा तय करेंगे?

मूल्यांकन की समस्याएं

अगर हम ग्लासगो में हुए जलवायु सम्मेलन (COP26) का रुख़ करें, तब विकसित देशों ने विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने के लिए हर साल 100 अरब रुपए देने का वादा किया था. ये वादा अभी भी अधूरा ही है. अगर हम भविष्य की बात करें, तो 2025 में मदद की ये रक़म एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगी और 2030 तक 1.7 ट्रिलियन डॉलर होगी. और तब क्या होगा? हो सकता है कि ये बड़ी बड़ी रक़में भी उस समय तक मामूली ही साबित हों.

नुक़सान और क्षतिपूर्ति के मूल्यांकन की समस्या के बारे में अब तक शायद ही कोई ठोस बात हुई है. अगरलॉस एंड  डैमेजके लिए पूंजी जुटाने का मतलब मुआवज़े की व्यवस्था से है, तो वो नियामक सिद्धांत क्या होंगे, जिनके आधार पर ये वित्तीय व्यवस्था खड़ी होगी? यहां पर दो सवाल बनते हैं. सबसे पहले तो अगर कोई पुल या नदी का तटबंध या संपत्ति नष्ट हो जाती है या उसको नुक़सान पहुंचता है, तो क्या हम इसका सालाना दर से मूल्यांकन करेंगे? या फिर हम सार्वजनिक संपत्ति के नुक़सान से गंवा  दिए जाने वाले अवसरों को जोड़कर ये नुक़सान का फ़ैसला करेंगे? वैसी स्थिति में अगर रोज़ी रोज़गार देने वाला कोई मूलभूत ढांचा नष्ट हो जाता है और उसको फिर से खड़ा करने में दस साल का समय लगता है, तो इस नुक़सान को होने वाले फ़ायदे नेट प्रेज़ेंट वैल्यू (NPV) के रूप में व्यक्त करने की ज़रूरत होगी या फिर अगले दस वर्षों तक आमदनी के नुक़सान को सालाना वृद्धि की दर के आधार पर आकलन किया जाएगा. ये एक पहलू है.

इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से इकोसिस्टम की सेवाओं को भी नुक़सान पहुंचता है और ख़ास तौर से वो सुविधाएं जिनसे रोज़ी-रोटी चलती है. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रिसर्च से पता चला है कि ग़रीबी के शिकार बहुत से इलाक़ों में इकोसिस्टम पर निर्भरता का अनुपात, जो इकोसिस्टम की सेवाओं और समुदायों की आमदनी का अनुपात है, वो एक से अधिक है. इसलिए, जब जलवायु परिवर्तन से इकोसिस्टम के ढांचे और उसके काम को नुक़सान पहुंचता है और इस तरह से उससे मिलने वाली सेवाओं को क्षति पहुंचती है, तो इस ग़रीब समुदाय को इतना नुक़सान होता है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती. समुदायों को वैसे ही लाभ देने वाले वैकल्पिक इकोसिस्टम तैयार करने में कई बरस का वक़्त लग सकता है. इसलिए, भविष्य के दशकों में नुक़सानों की भरपाई करने के लिए NPV के आधार पर मुआवज़ा दिया जाना चाहिए.

वित्त के अवसर और संसाधन

इसके बाद मसला वित्तीय मदद देने के तौर तरीक़े और विकल्पों पर आकर रुकता है. ये मदद सहायता के रूप में मिलनी चाहिए, कि क़र्ज़ के तौर पर. सबसे कम विकसित देशों (LDC) और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDS) को सहायता पर आधारित फंडिंग, किसी सियासी या व्यापारिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उपलब्ध कराई जानी चाहिए. ये ख़ास वित्तीय राहत कई वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल कर सकती है. मिसाल के तौर पर महासचिव द्वारा प्रस्तावित एक विकल्प के मुताबिक़ जीवाश्म ईंधन से होने वाली अतिरिक्त आमदनी को इस मद में इस्तेमाल किया जा सकता है. एक वैकल्पिक व्यवस्था क़र्ज़ की अदला-बदली भी हो सकती है, जिसमें मौजूदा क़र्ज़ को माफ़ करके पूंजी को जलवायु संबंधी कार्यों में लगाया जा सके. इसके अलावा, इस काम में निजी क्षेत्र को शामिल करने के लिए L&D क्रेडिट रेटिंग, L&D बॉन्ड वग़ैरह के बारे में भी विचार किया जा सकता है. नियमन भी इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं. अगर सरकार मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों को अपने मुनाफ़े का 50 प्रतिशत हिस्सा (या कोई अन्य तय रक़म) अपने CSR फंड में डालने और उसका इस्तेमाल L&D और अनुकूलन के मद में ख़र्च करने के लिए बाध्य करने वाला क़ानून पारित कर दे, तो इससे जलवायु वित्त के उन क्षेत्रों में बड़ी मदद मिल सकेगी, जहां पैसे की ज़रूरत है और वो उपलब्ध नहीं है. पूंजी जुटाने की इस ख़ास तरह की व्यवस्था का इस्तेमाल जलवायु वित्त संगठनों, जैसे कि ग्रीन क्लाइमेट फंड की मौजूदा कमी को दूर करने के लिए किया जा सकता है.

यहां से आगे किधर जाएं?

जानकारी के अभाव से अनसुलझे सवाल उभर रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि L&D के लिए पूंजी जुटाने के लिए परिभाषा के मामले में वैश्विक स्तर पर आम सहमति बनाने, सहयोगात्मक प्रयास और नए नए तरीक़ों से पूंजी जुटाने की ज़रूरत है. फिर भी एक संस्थागत सवाल बने हुए हैं: पैसे कौन देगा? किसको मिलेगा? हम पीड़ितों की पहचान कैसे करेंगे? हम ये फंड कैसे उपलब्ध कराएंगे? ये बहुत बुनियादी सवाल हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.