बीते 10 अक्टूबर को हमने ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ मनाया. इस आयोजन के पीछे सार्वभौम मानवीय अधिकार के रूप में बेहतर मानसिक कल्याण हासिल करने की विषयवस्तु थी. ये दिवस सख़्त रूप से इस बात का स्मरण दिलाता है कि सबसे ज़्यादा महिलाओं के ही मानसिक स्वास्थ्य महामारी का मूक शिकार बनने की आशंका रहती है. इस बात को ध्यान में रखते हुए ये आवश्यक है कि मानसिक कल्याण पर संवाद के दौरान लैंगिक असमानताओं पर गहराई से विचार किया जाए.
महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी: 2030 एजेंडे की प्रगति पर कुप्रभाव
वैश्विक स्तर पर मानसिक रोगों के शिकार और पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है. जीवन के किसी ना किसी चरण में चार में से एक व्यक्ति इन रोगों से प्रभावित होता है. महिलाएं बुरी तरह से इसकी शिकार बन गई हैं. बताया जाता है कि पांच में से एक महिला अवसाद या घबराहट जैसी प्रचलित मानसिक बीमारियां झेल रही हैं. महिलाओं की तुलना में आठ में से केवल एक पुरुष को ऐसी परेशानी झेलनी पड़ रही है. दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में ऐसे चिंताजनक रुझानों के बावजूद इस विषय पर अपर्याप्त शोध, सामाजिक विषमताओं और मानसिक कल्याण के बीच अंतर-संपर्कों के बारे में हमारी बारीक़ समझ को बाधित करता है. लिहाज़ा, मानसिक रोगों के निदान के विशाल क्षेत्र को देखते हुए इसको परिभाषित करने का काम ज़्यादा जटिल हो सकता है.
बताया जाता है कि पांच में से एक महिला अवसाद या घबराहट जैसी प्रचलित मानसिक बीमारियां झेल रही हैं. महिलाओं की तुलना में आठ में से केवल एक पुरुष को ऐसी परेशानी झेलनी पड़ रही है.
साक्ष्यों का बढ़ता समूह ये दर्शाता है कि मानसिक स्वास्थ्य के एजेंडे को गुणवत्तापूर्ण सेवाओं और देखरेख तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने की दरकार है. साथ ही उन साझा सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं का भी निपटारा करने की ज़रूरत है जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को आकार देते हैं. चूंकि दुनिया के देश सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा हासिल करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं, लिहाज़ा लक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) और मानसिक स्वास्थ्य के बीच के अंतर-संपर्कों (जैसा कि चित्र 1 में दर्शाया गया है) की पहचान करना अहम हो जाता है.
चित्र 1: मानसिक स्वास्थ्य और सतत विकास लक्ष्यों के साथ अंतर-संपर्क
स्रोत: Lund et.al 2018
बदलती मानसिकताएं: मानसिक स्वास्थ्य में लिंग आधारित सामाजिक संरचनाओं को सामने लाना
सर्वप्रथम, दुनिया भर की महिलाओं को आम तौर पर सामाजिक संवादों के व्यापक परिदृश्य में स्पष्ट रूप से सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का सामना करना पड़ता है. स्कूली शिक्षा और रोज़गार की निम्न दरें, नेतृत्वकारी भूमिकाओं में कम प्रतिनिधित्व, ऊर्जा का अभाव, टेक्नोलॉजी और वित्त तक सीमित पहुंच, देखभाल से जुड़ी ज़िम्मेदारियां, अंतरंग साथी द्वारा हिंसा और लैंगिक आधार पर तमाम अन्य दकियानूसी विचार, महिलाओं में ऊंचे मनो-सामाजिक दबाव को बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. दुनिया भर में सबसे ज़्यादा महिलाएं ही ग़रीबी से जूझ रही है. अनुमानों के मुताबिक़ 38.3 करोड़ महिलाएं और लड़कियां 1.90 अमेरिकी डॉलर रोज़ाना से कम में गुज़र-बसर कर रही हैं, जबकि ऐसी ज़िंदगी जीने वाले पुरुषों और लड़कों की तादाद 36.8 करोड़ है.
ग़रीबी, महिलाओं को मानसिक दबाव के दुष्चक्र में फंसाए रखती है, क्योंकि इसके परिणामों का महिलाओं पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है. 1970 के दशक में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारियां उठाने वाली और वित्तीय रूप से तनावग्रस्त महिलाओं के अवसाद के तमाम स्वरूपों का शिकार होने की आशंका दूसरी महिलाओं के मुक़ाबले अधिक होती है. प्रामाणिक तथ्यों का एक समृद्ध भंडार है, जो ये संकेत करता है कि चूंकि महिलाएं अपने परिवारों के लिए घरेलू, प्रजनन संबंधी और देखरेख वाली ज़िम्मेदारियां संभालती हैं लिहाज़ा उनके पास वेतन वाले रोज़गार लेने के विकल्प सीमित होते हैं. वो उन क्षेत्रों को आबाद करते हैं जो अक्सर पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का विस्तार होते हैं, जिससे उदाहरण के रूप में असंगठित अर्थव्यवस्था में कम मेहनताने वाले रोज़गार का निर्माण होता है. महिलाओं द्वारा अर्जित वेतन अक्सर उन श्रेणीबद्ध सामाजिक मान्यताओं से नियंत्रित होते हैं जो पारिवारिक ढांचों के भीतर परिचालित होते हैं. ये महिलाओं और आमदनी के उपयोग से जुड़ी निर्णय-प्रक्रिया पर नियंत्रण को निर्देशित कर सकते हैं. महिलाओं द्वारा आर्थिक निर्णय लिए जाने पर ऐसे ख़र्चों का रुख़ उनके ख़ुद के कल्याण की बजाए पारिवारिक व्ययों औऱ बच्चों की ओर होता है. वास्तव में इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि रोज़गार छूट जाने पर पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मानसिक रोगों के ज़्यादा गंभीर स्वरूपों से प्रभावित होने की आशंका रहती है.
ऊंची निर्धनता, घरेलू अलगाव और निम्न आत्म-सम्मान का बोझ महिलाओं में मनोवैज्ञानिक रुग्णता के ऊंचे प्रसार का कारण भी बन सकता है. भारत समेत पांच देशों में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि महिलाओं की निम्न शिक्षा और निर्धनता का सामान्य मानसिक विकारों से मज़बूत संबंध होता है.
आय से संबंधित अभाव अक्सर खाद्य असुरक्षा का कारण बनते हैं और शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के अनेक नकारात्मक हालातों से जुड़े होते हैं. हालांकि आहार के अपर्याप्त सेवन वाले खाद्य असुरक्षित घरों में रहने वाली महिलाएं ख़ासतौर से अवसाद और कमज़ोर मानसिक स्वास्थ्य के प्रति असुरक्षित रहती हैं. खाद्य असुरक्षा का सामना करने वाली माताओं को अपने बच्चों के सामान्य स्वास्थ्य और विकास पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों से भी जूझना पड़ता है. वैसे तो महिलाओं की खाद्य असुरक्षा और ख़राब स्वास्थ्य परिस्थितियां उच्च-आय वाले देशों में बढ़ती हुई चिंता साबित हुई हैं, कोविड-19 महामारी ने महिलाओं के तनाव के स्तरों पर और प्रभाव डाला है, ख़ासकर इसलिए क्योंकि वो गंभीर खाद्य असुरक्षाओं का सामना कर रही हैं.
ऊंची निर्धनता, घरेलू अलगाव और निम्न आत्म-सम्मान (जो अक्सर शिक्षा और वित्तीय स्वतंत्रता के निम्न स्तरों के चलते पैदा होता है) का बोझ महिलाओं में मनोवैज्ञानिक रुग्णता के ऊंचे प्रसार का कारण भी बन सकता है. भारत समेत पांच देशों में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि महिलाओं की निम्न शिक्षा और निर्धनता का सामान्य मानसिक विकारों से मज़बूत संबंध होता है. पानी जैसे महत्वपूर्ण संसाधन को परिवारों तक उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से महिलाएं ही निभाती हैं. पानी की प्रमुख संग्रहकर्ता होने के बावजूद महिलाएं पानी की किल्लत की शिकार होती हैं. जल असुरक्षा कुंठा, शर्म, घरेलू हिंसा के साथ-साथ मानसिक तनाव को भी गंभीर बना सकती है. स्वच्छता की सीमित उपलब्धता से जुड़े मानसिक स्वास्थ्य जोख़िम के बढ़ते प्रमाण जल असुरक्षा के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं.
लगातार हो रहे शोध कार्यों ने अपर्याप्त स्वच्छता के साथ मानसिक स्वास्थ्य जोख़िमों के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं. इनमें निजी और साफ़-सफ़ाई वाले स्वच्छता दायरों तक पहुंच का अभाव, प्रतिकूल सामाजिक और भौतिक वातावरण के अलावा यौन और शारीरिक हिंसा के डर से पानी और भोजन के सेवन को कम करने की ज़रूरत शामिल है, ताकि स्वच्छता सुविधाओं के उपयोग से परहेज़ किया जा सके. महिलाओं की मासिक धर्म स्वच्छता की अधूरी ज़रूरतों और मानसिक स्वास्थ्य पर उसके प्रभावों के बारे में बहुत कम शोध किए गए हैं; इससे महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़ी अपर्याप्त सुविधाओं के साथ इसके अंतर-संपर्कों के विश्लेषण की ज़रूरत आ गई है.
लंबे समय से ये माना जाता रहा है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा से सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्याएं पैदा होती है और महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली हिंसा मानसिक विकारों के बढ़ते जोख़िमों से जुड़ी होती हैं. इनमें घरेलू और यौन शोषण के साथ-साथ उत्पीड़न शामिल हैं. लिंग के आधार पर कार्यस्थल पर उत्पीड़न को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मसलों के लिए जोख़िम कारक के तौर पर जाना जाता है, जिसमें पीड़ित चिंता, अवसाद, ड्रग्स और शराब की लत और खान-पान के विकारों की घटनाओं की जानकारी देते हैं.
लगातार उभरते शहरी परिवेशों में महिलाओं को अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे वो मानसिक तनावों के प्रति असुरक्षित हो जाती हैं. सुरक्षित परिवहन की खोज से जुड़े संघर्ष से लेकर सड़क पर अपर्याप्त रोशनी, कार्यस्थलों पर उनके उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और उत्पीड़न के बढ़ते जोख़िम, ख़राब प्रजनन स्वास्थ्य और प्रसव के बाद अवसाद से लेकर कामकाज और आम जीवन के बीच संतुलन ढूंढ पाने की नाकामी के चलते तमाम सामाजिक-आर्थिक स्तरों में फैली महिलाएं आम शिकार बन जाती हैं. ऐसा आकलन है कि शहरी क्षेत्रों में मानसिक विकारों से प्रभावित महिलाओं की संख्या प्रति एक हज़ार की आबादी में 64.8 है.
कार्बन ब्रीफ के केस स्टडीज़ में संकेत मिले हैं कि महिलाओं के जलवायु संबंधित मानसिक प्रभावों से प्रभावित होने की ज़्यादा आशंका रहती है. बाढ़, ऊष्ण-कटिबंधीय चक्रवात और चढ़ता तापमान- ये सभी महिलाओं को पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) समेत मानसिक विकारों के बड़े ख़तरे में डालने के लिए जाने जाते रहे हैं.
दुनिया जलवायु संकट की रोकथाम करने और उसके हिसाब से ढलने की कोशिशें जारी रखे हुए है, ऐसे में इन क़वायदों के चलते महिलाओं पर पड़ने वाले मानसिक स्वास्थ्य प्रभावों की पड़ताल करना अहम हो जाता है. चूंकि जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर अनुपात से ज़्यादा प्रभाव पड़ता है, लिहाज़ा ये उपाय ज़रूरी हो जाते हैं. कार्बन ब्रीफ के केस स्टडीज़ में संकेत मिले हैं कि महिलाओं के जलवायु संबंधित मानसिक प्रभावों से प्रभावित होने की ज़्यादा आशंका रहती है. बाढ़, ऊष्ण-कटिबंधीय चक्रवात और चढ़ता तापमान- ये सभी महिलाओं को पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) समेत मानसिक विकारों के बड़े ख़तरे में डालने के लिए जाने जाते रहे हैं. ख़ासतौर से मौसम के चरम प्रभावों के चलते विस्थापन के मामले में यौन हिंसा से जूझने पर ऐसे मामले सामने आते हैं. घरेलू कामकाज के लिए ग़ैर-स्वच्छ ईंधनों (जैसे जलावन की लकड़ी, कोयला या गाय के गोबर) के दीर्घकालिक उपयोग से ना सिर्फ़ सांस, हृदय, मातृ और शिशु मृत्यु के कारण बनते हैं, बल्कि ये मनोवैज्ञानिक तनाव भी पैदा कर सकते हैं.
जहां तक भूराजनीतिक तनावों के साथ-साथ वैश्विक महामारी की बात है, तो महिलाएं सबसे असुरक्षित समूह होती हैं. कोविड-19 के वैश्विक स्वास्थ्य संकट ने शारीरिक, यौन और मानसिक उत्पीड़न में अभूतपूर्व बढ़ोतरियों को जन्म दिया, जिसे व्यापक रूप से ‘छाया महामारी’ के रूप में जाना जाता है. ये महिलाओं के मौलिक अधिकारों और गरिमा के साथ-साथ उनके आर्थिक उत्थान के सामने भी ख़तरा पेश करते हैं. युद्ध के समय और संघर्ष के बाद के हालातों में महिलाओं को ज़बरदस्त क़ीमत चुकानी पड़ती है, जहां उन्हें यौन हिंसा और मानसिक अस्वस्थता और इसके साथ जुड़े कलंकों का सामना करना पड़ता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानसिक स्वास्थ्य मानचित्र 2020 के आकलनों के मुताबिक दुनिया भर की स्वास्थ्य प्रणालियां आम तौर पर मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्रशासन, संसाधनों, सेवाओं, सूचना और टेक्नोलॉजियों में बड़े अंतरालों से पटी पड़ी हैं, जैसा कि चित्र 2 में दिखाया गया है.
चित्र 2- सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य की प्रमुख कमियों का ख़ाका
स्रोत: विश्व स्वास्थ्य संगठन, 2022
इसमें भारत भी शामिल है, हालांकि अपनी जनसंख्या के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए यहां राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP) की रूपरेखा तैयार की गई थी. भारत निम्न मध्यम आय वाले देशों (LMICs) में ऐसी क़वायदों को अंजाम देने वाले शुरुआती राष्ट्रों में से एक था. अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि दुनिया की आधी आबादी ऐसे देशों में रहती हैं जहां प्रति 2 लाख या ज़्यादा की आबादी पर महज़ एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है. भारत में 2017 में प्रत्येक एक लाख की आबादी पर मनोवैज्ञानिक मदद हासिल कर पाने वाले लोगों की तादाद सिर्फ़ 0.29 प्रतिशत थी. इससे मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधनों के बड़े अंतराल की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक 7.5 प्रतिशत भारतीय महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से पीड़ित हैं, जबकि महिलाओं की तक़रीबन आधी आबादी अपने जीवन काल में कम से कम एक बार कम गंभीर मानसिक स्वास्थ्य मसले से प्रभावित रही है. फिर भी, बेहद मामूली फंडिंग के साथ-साथ उपलब्ध संसाधनों के आवश्यकता से कम उपयोग ने मानसिक स्वास्थ्य सेवा ज़रूरतें पूरी करने के लिए प्रशिक्षित कर्मियों की किल्लत पैदा कर दी है. इन कर्मियों में मनोचिकित्सक, मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करने वाले नर्स, काउंसलर्स, मनोचिकित्सा के क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और वेतन प्राप्त अन्य मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता शामिल हैं. इससे महिला रोगियों तक पहुंच बनाने में सक्षम होना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है. निगरानी और मूल्यांकन की कमज़ोर प्रणाली के साथ-साथ लैंगिक रूप से विभाजित डेटा का अभाव भी महिलाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान को बाधित करता है.
मानसिक स्वास्थ्य और सतत विकास लक्ष्यों के बीच ऐसा सुस्थापित संपर्क, जो कई मायनों में दो दिशाओं वाले होते हैं, स्पष्ट रूप से महिलाओं की मानसिक सलामती हासिल करने के लिए रास्ते की रूपरेखा बनाने की क्षमता रखते हैं.
भारत की युवा महिलाएं (जो बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले आत्महत्या के ज़्यादा बड़े ख़तरे की ज़द में हैं) भी मदद हासिल करने के लिए हाथ बढ़ा रही हैं. स्वास्थ्य सेवा से जुड़े प्लेटफॉर्म प्रैक्टो द्वारा 78,000 महिला प्रयोगकर्ताओं से जुटाए गए आंकड़ों से भी ये बात ज़ाहिर होती है. चित्र 3 ये दर्शाता है कि 35 से कम आयु वर्ग की महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य सहायता चाहने वाली आबादी के एक बड़े अनुपात का प्रतिनिधित्व करती हैं.
चित्र 3
स्रोत: प्रैक्टो इनसाइट्स
ये चिंताजनक रुझान मानसिक स्वास्थ्य नीतियों में तत्काल लिंग को मुख्य धारा में लाने वाली कार्रवाई का आह्वान करते हैं, जो महिलाओं की सामाजिक रूप से समझी जाने वाली असुरक्षाओं की पहचान करने और उसे वरीयता देने में सक्षम होगी. मानसिक स्वास्थ्य और सतत विकास लक्ष्यों के बीच ऐसा सुस्थापित संपर्क, जो कई मायनों में दो दिशाओं वाले होते हैं, स्पष्ट रूप से महिलाओं की मानसिक सलामती हासिल करने के लिए रास्ते की रूपरेखा बनाने की क्षमता रखते हैं.
अरुंधति बिस्वास कुंडल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं
एस चांट 2006. री-थिंकिंग द “फेमिनाइज़ेशन ऑफ पॉवर्टी” इन रिलेशन टू एग्रीगेट जेंडर इंडिसेस. जे. ह्यूम. डेव. 7(2):201–20
ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप Facebook, Twitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.