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आज जब भारत, पहलगाम में मारे गए अपने नागरिकों का शोक मना रहा है, तो सरकार पर मुंहतोड़ जवाब देने का दबाव बढ़ता जा रहा है. इस हमले के सामरिक और राजनीतिक परिणाम आने तो अभी शुरू हुए हैं
Image Source: Getty
पाकिस्तान से जुड़े आतंकवादियों द्वारा जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के पहलगाम में दो दर्जन से ज़्यादा हिंदू सैलानियों की हत्या ने पूरे इलाक़े को एक गंभीर संकट की खाई में धकेल दिया है. ये ऐसा संकट है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष में तब्दील हो सकता है. हालांकि बर्बर और घोर निंदनीय इस हमले का अंदाज़ा पहले से होना चाहिए थे. ऐसे तमाम संकेत खुलकर दिखाई दे रहे थे कि पाकिस्तानी फ़ौज के नियंत्रण वाली हाइब्रिड हुकूमत, कश्मीर में कुछ न कुछ करने के लिए बेक़रार थी. ये हमला न केवल ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह और बलूचिस्तान सूबों में चल रहे उग्रवाद में भारत की तथाकथित और बिना ठोस सबूतों भूमिका का जवाब था, बल्कि इसी बहाने अवाम के जज़्बात फौज के पीछे जुटाने का भी इरादा था. पाकिस्तान में ये तभी मुमकिन होता है, जब बात भारत से टकराव की आती है. इस आतंकवादी हमले का एक और संभावित कारण ये भी था कि पाकिस्तान को ये लग रहा था कि जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी कम-ओ-बेश ख़त्म हो गई है और हालात उसके हाथ से निकल रहे थे.
इस आतंकवादी हमले का एक और संभावित कारण ये भी था कि पाकिस्तान को ये लग रहा था कि जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी कम-ओ-बेश ख़त्म हो गई है और हालात उसके हाथ से निकल रहे थे.
पहलगाम हमला जिस समय हुआ, वो एक पैटर्न को दिखाता है. कश्मीर में एक बड़ा आतंकवादी हमला उस वक़्त हुआ है, जब अमेरिका का एक नामी गिरामी शख़्स भारत के दौरे पर आया हुआ है. अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जे डी वैंस अपने परिवार के साथ भारत के दौरे पर आए हुए थे और उनका दौरे की भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में चर्चा हो रही थी. इसी के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सऊदी अरब के दौरे पर थे. इस दौरे को ऐतिहासिक कहा जा रहा था, क्योंकि इस दौरान दोनों देशों के बीच कई अहम समझौतों सहमति बनने की संभावना थी. इन घटनाओं का एक ही मौक़े पर होना, कश्मीर में किसी आतंकी हमले के लिए बिल्कुल मुफ़ीद मौक़ा मुहैया करा रहा था, जिससे कश्मीर मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ जाता और प्रधानमंत्री मोदी के सऊदी अरब दौरे के मक़सद पर पानी फिर जाता.
इस हत्याकांड के कुछ दिनों पहले ही पाकिस्तान के असली हुक्मरान, आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर ने ‘दो क़ौमी नज़रिए’ को फिर से उठाया था और कश्मीर को पाकिस्तान की ऐसी शाह रग बताया था, जिसको वो कभी भी नहीं छोड़ सकता है, और न ही उन कश्मीरियों का साथ देना छोड़ सकता है जो भारत के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं (जम्मू कश्मीर में सक्रिय ज़्यादातर आतंकवादी पाकिस्तानी पंजाब के मुसलमान हैं). इस तरह जनरल मुनीर से स्पष्ट रूप से ये संकेत दिया था कि वो जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के इस्लामिक जिहादी समूहों और उनके सहयोगियों को समर्थन में इज़ाफ़ा करने वाले हैं. पाकिस्तान आर्मी की प्रोपेगैंडा टीम, जिसमें नजम सेठी जैसे पत्रकार भी शामिल हैं, वो टेलीविज़न कार्यक्रमों में खुलकर धमकियां दे रहे थे कि कश्मीर की आग भड़कने ववाली है. इन हालात में पहलगाम में हुआ हमले पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए.
इस हत्याकांड पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया भी उम्मीद के मुताबिक़ ही आई, और इसने आग में घी डालने का ही काम किया. अपने जिहादी मोहरों द्वारा बेगुनाह सैलानियों की हत्या पर शर्मिंदा होने या पश्चाताप करने के बजाय पाकिस्तान ने इस घटना में अपना हाथ होने से पल्ला झाड़ लिया और अपना प्रचार करने वालों को आगे कर दिया ताकि असल हक़ीक़त से ध्यान बंटाया जा सके और तथ्यों पर पर्दा डाला जा सके. पाकिस्तान की प्रतिक्रिया उनकी तयशुदा नीति के मुताबिक़ है. यानी एक सधी हुई निंदा, फिर ट्रोल्स और सियासतदानों की फौज को आगे करके ये इल्ज़ाम लगाना कि ये हमला असल में भारत का ही फाल्स फ्लैग ऑपरेशन था. फिर भारत को ये चुनौती देना कि अगर उसने कोई दुस्साहस दिया, तो पाकिस्तान भी ज़बरदस्त जवाब देगा और अगर पाकिस्तानियों का मूड अच्छा है, तो ये प्रस्ताव रखना कि अगर भारत सुबूत साझा करेगा, तो वो पूरा सहयोग करेगा.
अब भारत सरकार पर इस आतंकी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने का दबाव बढ़ जाएगा. इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इस हमले का काफ़ी सियासी, कूटनीतिक, आर्थिक और सबसे अहम बात ये कि फौजी असर देखने को मिलेगा. निश्चित रूप से इसका पहला शिकार कश्मीर घाटी में ख़ूब फल फूल रहा पर्यटन उद्योग बनेगा, जिसका असर उन हज़ारों कश्मीरियों की रोज़ी-रोटी पर पड़ेगा, जो पर्यटन उद्योग पर निर्भर हैं. लेकिन, पाकिस्तान को कश्मीरियों की भलाई की कोई परवाह नहीं है और वो कश्मीर में आख़िरी शख़्स बचने तक भारत से जंग लड़ेगा. इसी तरह भारत के भीतर भी वैसा ही राजनीतिक शोर देखने को मिलेगा, जो ऐसे मौक़ों पर आम तौर पर देखने को मिलता है. राजनीतिक विपक्षी दल जो आतंकवादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करने से ज़्यादा सरकार पर इल्ज़ाम लगाने में दिलचस्पी रखते हैं और भारत के भीतर मौजूद पाकिस्तान लॉबी भी सक्रिय हो जाएगी, जिसमें पुराने जासूसों से लेकर पत्रकार, राजनेता और कार्यकर्ता शामिल हैं. हालांकि, इस शोर से सरकार की उस प्रतिक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जो उसको देनी ही चाहिए.
अगर, मोदी कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो न केवल वो राजनीतिक समर्थन गंवा देंगे बल्कि, पहले के हमलों से उन्होंने आतंकवादी संगठनों में डर पैदा करने की जो बढ़त हासिल की है, वो भी उनके हाथ से निकल जाएगी.
भारत की आम जनता तो ये चाहेगी कि पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों और उनके अड्डों के ऊपर किसी तरह की सैन्य कार्रवाई हो. असल में प्रधानमंत्री मोदी 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक करने और 2019 में बालाकोट हवाई हमले करने के बाद से ख़ुद अपनी ही ऐसी प्रतिबद्धता के जाल में फंस गए हैं. और अगर, मोदी कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो न केवल वो राजनीतिक समर्थन गंवा देंगे बल्कि, पहले के हमलों से उन्होंने आतंकवादी संगठनों में डर पैदा करने की जो बढ़त हासिल की है, वो भी उनके हाथ से निकल जाएगी. अगर भारत टकराव को नए स्तर तक ले जाने को राज़ी नहीं होगा, तो उसकी सैन्य कार्रवाई का असर बहुत सीमित ही रहने वाला है. निश्चित रूप से सेना को जवानों का नुक़सान उठाना पड़ सकता है और हो सकता है कि इसमें कुछ आम नागरिकों की जान भी जाए. अगर भारत, पाकिस्तान को जवाब देने के लिए टकराव को नए स्तर पर नहीं ले जाना चाहेगा, तो इसका ये मतलब होगा कि पाकिस्तान के सत्ता तंत्र ने भारत को ख़ौफ़ज़दा रखने की व्यवस्था कर ली है, न कि भारत ने ऐसा किया है. 2019 में पाकिस्तान के ऑपरेशन स्विफ्ट रिटॉर्ट के दौरान ऐसा देखने को मिला भी था, जब भारत ने इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी थी.
बालाकोट के हवाई हमलों ने ये ज़रूर संदेश दिया था कि भारत टकराव बढ़ाने को तैयार है और आतंकवाद के निर्यात को लेकर पाकिस्तान को कई साल तक कठघरे में भी खड़ा रखा. लेकिन, बालाकोट हमले के बाद पाकिस्तान भी ये संदेश दे पाने में कामयाब रहा कि वो भी पलटवार करेगा, लेकिन भारत की कार्रवाई के जवाब में और फिर टकराव को और बढ़ाने से परहेज़ भी करेगा. 2019 में भारत को ये समझ में आ जाना चाहिए था कि पाकिस्तान को बेसब्री से ये उम्मीद थी कि भारत तुर्की ब तुर्की जवाबी कार्रवाई को और आगे नहीं ले जाएगा. पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के मौजूदा स्पीकर ने उस वक़्त कहा था कि टकराव बढ़ने की आशंका से पाकिस्तानी सत्ता तंत्र की ‘टांगें कांप रही थीं और पसीना बह रहा था’. बाद में ये बात भी सामने आई थी कि उस वक़्त पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष रहे जनरल क़मर जावेद बाजवा ने पत्रकारों से कहा था कि पाकिस्तान, भारत से संघर्ष बढ़ाने की स्थिति में नहीं था क्योंकि उसकी फ़ौजी तैयारी की स्थिति काफ़ी कमज़ोर थी.
इसके बावजूद, यही सवाल भारत से भी होना चाहिए कि- क्या वो पाकिस्तान के साथ संघर्ष को नए स्तर पर ले जाने और सैन्य कार्रवाई को तब तक जारी रखने के लिए तैयार है, जब तक दुश्मन पीछे न हट जाए? जब कोई सैन्य कार्रवाई शुरू हो जाती है, तो उसके बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि उसके बाद क्या होगा और युद्ध कब तक चलेगा. इसीलिए ये सवाल है: क्या भारत के पास तोप के गोलों, मिसाइलों, हवाई हमले के लिए बमों और दूसरे हथियारों का पर्याप्त भंडार है? या फिर एक बार फिर भारत, फ्रांस और इज़राइल जैसे देशों से इमरजेंसी में गोला बारूद ख़रीदने को मजबूर होगा? अगर मिसाइलों का ज़ख़ीरा दाग़ा जाना है, तो फिर भारत के पास मुट्ठी भर नहीं, हज़ारों की तादाद में मिसाइलें होनी चाहिए. ‘दुश्मन एक सीमा से आगे नहीं बढ़ेगा’, ये सोचकर शुरू की जाने वाली कोई भी कार्रवाई इस बहादुरी भरी सोच पर आधारित होती है कि सामने वाला युद्ध बहुत दिनों तक नहीं खींच सकता और बहुत दिनों तक आत्मरक्षा नहीं कर पाएगा. जो कि ज़ाहिर है ख़तरनाक ग़लतफ़हमी है.
अब जो कुछ भी हो, भारत के विकल्प ऐसे हैं कि नियंत्रण रेखा (LoC) पर युद्ध विराम ख़त्म किया जा सकता है और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) के कुछ इलाक़ों को तोप के गोलों और मिसाइलों से तबाह किया जा सकता है. निश्चित रूप से पाकिस्तान भी इसका जवाब देगा. लेकिन, क्या भारत के पास पर्याप्त बंकर हैं कि वो अपने जवानों और आम लोगों को पाकिस्तान के हमले से महफ़ूज़ रख सके? या फिर भारत ने युद्ध विराम के चार वर्षों को बस ख़ुशी मनाने में ही बिता दिया है? नियंत्रण रेखा पर सरगर्मी बढ़ाकर और पूरी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सैन्य दबाव बढ़ाकर भारत, पाकिस्तान को अपनी फौज के एक बड़े हिस्से को अपनी पूर्वी सीमा पर तैनात करने को बाध्य कर सकता है. भारत, पाकिस्तान को अस्थिर करके उसे इस बात की अटकलें लगाने को मजबूर कर सकता है कि सीमा पार भारत कहां, कब और कैसे वार करेगा. ऐसा दबाव बनाकर भारत ये सुनिश्चित कर सकता है कि पाकिस्तान, अपने सैनिकों को वापस उस पश्चिमी सीमा पर तैनात न कर सके, जहां दो बग़ावतों की आग पहले से ही भड़की हुई है. इससे पाकिस्तान के सैन्य बलों पर दबाव बहुत बढ़ जाएगा. संभावना इस बात की है कि वो तहरीक-ए-तालिबान के साथ कोई समझौता करने की कोशिश में उनकी कुछ मांगें मान लेगें, ताकि पश्चिमी मोर्चे पर उन्हें कुछ राहत मिल जाए. पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए इसके परिणाम बहुत नुक़सानदेह होंगे. या फिर ये भी हो सकता है कि पाकिस्तान को एक साथ दो मोर्चों पर उलझना पड़ जाए. इसके अलावा, पंजाब में नई नहरों को लेकर सिंध में आया उबाल और सिंध के हिस्से का पानी चुराने की फौज की साज़िश को देखते हुए शायद फौज के लिए एक और मोर्चा खुल जाए, जिसका भारत भरपूर फ़ायदा उठा सकता है. सिंध को शांत रखने के लिए अगर फ़ौज को अपने आपको समृद्ध करने के लिए सिंध को रेगिस्तान बनाने की अपनी योजना से पीछे हट भी जाती है, तो भी ये पाकिस्तानी फ़ौज की इज़्ज़त और ताक़त के लिए बड़ा झटका होगा.
पाकिस्तान इस मामले को अंतरराष्ट्रीय पंचायत में घसीटने की कोशिश कर सकता है. क्या भारत के पास इतना कूटनीतिक दबदबा है कि वो अपने ख़िलाफ़ खड़ी ताक़तों के दबाव के आगे झुकने से इनकार कर सके? क्या अमेरिका और यूरोपीय देश इस मामले में भारत के साथ खड़े रहेंगे, या फिर तमाशबीन ही बने रहेंगे?
सरहद पर हालात सरगर्म करने के अलावा, भारत आतंकवादियों के अड्डों को निशाना बना सकता है और शायद तोपखाने, हवाई ताक़त और मिसाइलों का इस्तेमाल करके पाकिस्तानी सेना के ठिकानों पर भी हमले कर सकता है. ये तय है कि पाकिस्तान भी जवाब देगा. भारत को इन हमलों को बर्दाश्त करके टकराव को नए स्तर पर ले जाने के लिए तैयार रहना होगा. एक और मोर्चा आर्थिक हो सकता है. भारत, सिंधु जल समझौते को ख़त्म करने का इकतरफ़ा एलान कर सकता है. इस मामले में भी वर्ल्ड बैंक और दूसरे बहुपक्षीय संगठन भारत के इस क़दम का विरोध करेंगे. पाकिस्तान इस मामले को अंतरराष्ट्रीय पंचायत में घसीटने की कोशिश कर सकता है. क्या भारत के पास इतना कूटनीतिक दबदबा है कि वो अपने ख़िलाफ़ खड़ी ताक़तों के दबाव के आगे झुकने से इनकार कर सके? क्या अमेरिका और यूरोपीय देश इस मामले में भारत के साथ खड़े रहेंगे, या फिर तमाशबीन ही बने रहेंगे? चीन इस पर क्या रुख़ अपनाएगा? क्या इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस लड़ाई में भारत, चीन को ये संदेश देगा कि ये मामला ‘या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे ख़िलाफ़’ वाला है? और अगर ये भारत के ख़िलाफ़ रहा तो क्या चीन को इसके सामरिक और आर्थिक परिणाम भुगतने पड़ेंगे? भारत इस मामले में कितना आगे जाने को तैयार है?
एक और मोर्चा जिसका इस्तेमाल अब तक नहीं हुआ है, वो आर्थिक है. भारत अभी भी पाकिस्तान को जीवन रक्षक दवाओं का निर्यात कर रहा है. भारत ऐसी नीति भी बना सकता है, जिसमें पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में काम करने वाली कंपनियों को भारत के साथ किसी भी तरह का कारोबार करने से प्रतिबंधित कर दिया जाए. खेलों और ख़ास तौर से क्रिकेट के मामले में भी यही रवैया अपनाया जा सकता है. किसी भी पाकिस्तानी क्रिकेटर को इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) में खेलने की इजाज़त नहीं दी जाएगी. भारत, पाकिस्तान को क्रिकेट और दूसरे खेलों में भी अलग-थलग करने का प्रयास करेगा. किसी फिल्म या म्यूज़िक प्रोडक्शन में किसी पाकिस्तानी को रखने वालों को दंडित किया जाएगा.
भारत ऐसी नीति भी बना सकता है, जिसमें पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में काम करने वाली कंपनियों को भारत के साथ किसी भी तरह का कारोबार करने से प्रतिबंधित कर दिया जाए. खेलों और ख़ास तौर से क्रिकेट के मामले में भी यही रवैया अपनाया जा सकता है.
पहलगाम का हत्याकांड एक निर्णायक मोड़ है. भारत लंबे समय से ‘आतंकवाद की लक्ष्मण रेखा’ के जाल में फंसा हुआ है. यानी भारत तभी आतंकवाद के प्रायोजक पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई करेगा, जब वो सीमा लांघी जाएगी. इससे भी ख़राब बात तो ये है कि ये लक्ष्मण रेखा अब तक तय भी नहीं की गई है. क्या ये सीमा तब लांगी जाएगी, जब पांच सैनिक मारे जाएंगे? या फिर 10, 20 या 50? पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा आम नागरिकों के क़त्ल के मामले में ये सीमा क्या होगी? अब समय आ गया है जब भारत, इस लक्ष्मण रेखा के जाल से बाहर आए और एक असरदार, निर्मम और कंपा देने वाला भय दुश्मन के दिल में पैदा करे.
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Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
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