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Published on Oct 21, 2025 Updated 0 Hours ago

फ्रांस में राजनीतिक संकट के बीच, राष्ट्रपति मैक्रों विदेशों पर ध्यान केंद्रित कर देश का वैश्विक महत्व बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.

फ्रांस में राजनीतिक हलचल, रणनीति में स्थिरता

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भूमिका- फ्रांस की कार्यपालिका की पहेली 

2022 के वसंत में इमैनुएल मैक्रों की फिर से जीत के बाद फ्रांस में स्थिरता और नीतिगत निरंतरता के दौर की उम्मीदें फिर से जग गईं. स्वाभाविक रूप से यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और कोविड-19 के लंबे समय तक के असर का सामना कर रहे फ्रांस के लोगों ने बदलाव के लिए वोट नहीं दिया. इसके परिणामस्वरूप चुनाव जल्दी से संपन्न हो गए और प्रचार अभियान छोटा एवं शांत रहा. इमैनुएल मैक्रों को बिना किसी धूम-धड़ाके के दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ दिलाई गई जबकि नेशनल रैली की धुर-दक्षिणपंथी उम्मीदवार मरीन ले पेन ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए दूसरे चरण के दौरान 41.5 प्रतिशत मत हासिल किए.

फिर भी फ्रांस और व्यापक रूप से यूरोप के सामने मौजूद बहुत सारे संकट जल्द ही खुलकर सामने आ गए और वो भी अप्रत्याशित ढंग से. चूंकि राष्ट्रपति के चुनाव के तुरंत बाद आम तौर पर संसद का चुनाव भी कराया जाता है, ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव में बढ़त लेने वाली पार्टी या समूह को अक्सर नव निर्वाचित राष्ट्रपति की लोकप्रियता का फायदा मिलता है. इससे राष्ट्रपति को शासन चलाने के लिए बहुमत मिल जाता है. लेकिन 2022 में फ्रांस के मतदाताओं के बीच जो विभाजन दिखा, (जिसका पता धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली के उदय से चलता है) उससे संकेत मिला कि मैक्रों का दूसरा कार्यकाल पहले की तुलना में बहुत अधिक राजनीतिक मजबूरियों वाला होगा. 

  • मैक्रों को फ्रांस की राजनीतिक चुनौतियों से निपटने के लिए और सक्रिय होना होगा ताकि प्रशासन और वित्तीय कामकाज ठीक से चलते रहें.
  • 2027 में मैक्रों का कार्यकाल ख़त्म होने से पहले इस्तीफा देना मुश्किल लगता है. ऐसे में वे दूसरे देशों के संसदीय लोकतंत्रों से सीख लेकर खुद को सहारा दे सकते हैं.

अपने इतिहास के ज़्यादातर समय में फ्रांस की नेशनल रैली (RN) (जो कि जीन-मैरी ले पेन के द्वारा स्थापित नेशनल फ्रंट की उत्तराधिकारी है) राजनीति के हाशिये पर ही रही है. इसका कारण पार्टी के उम्मीदवारों को जीतने से रोकने के लिए तैयार की गई “घेराबंदी” है. इसके अलावा नेशनल रैली के राजनीतिक विरोधियों ने इसके ख़िलाफ़ एक “संयुक्त मोर्चा” बना रखा है. ये स्थिति संसद के चुनाव में उपयोग की जाने वाली ‘दो चरण’ की बहुमत वाली मतदान प्रणाली से और मुश्किल हो जाती है. 

लेकिन इस बार नेशनल रैली के ख़िलाफ़ मौन समझौता कमज़ोर पड़ने और मतदाताओं के बदलते मिज़ाज का ये नतीजा निकला कि उसने अब तक की सबसे ज़्यादा सीट जीती. नेशनल रैली के साथ-साथ वामपंथी ‘यूनाइटेड फ्रंट’ भी मज़बूत हुआ. इन कारणों के साथ-साथ रिकॉर्ड संख्या में मतदाताओं के चुनाव से दूर रहने (आधे से ज़्यादा लोगों ने वोट नहीं डाला) की वजह से मैक्रों की सत्ताधारी पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा. लगभग 25 वर्षों में पहली बार 2022 के संसदीय चुनावों में कोई भी अकेली पार्टी या गठबंधन शासन के लिए पूर्ण बहुमत हासिल करने में नाकाम रहा. इसकी वजह से राष्ट्रपति चुनाव में जीत के बाद भी मैक्रों का जनादेश खोखला रहा और सरकार चलाने की उनकी क्षमता पर गंभीर असर पड़ा. 

इस चुनाव में मैक्रों की पार्टी की स्थिति और भी ख़राब हो गई और वो बहुमत हासिल करने या स्थिर और टिकाऊ प्रधानमंत्री पाने की क्षमता हासिल करने में एक बार फिर नाकाम रही. 

इस गतिरोध को दूर करने की कोशिश के तहत मैक्रों ने 2024 की गर्मियों में समय से पूर्व चुनाव कराने का फैसला लिया. वैसे तो आधिकारिक रूप से जल्दी चुनाव कराने का निर्णय कुछ हफ्ते पहले यूरोपीय चुनावों में सत्ताधारी पार्टी की हार की वजह से लिया गया लेकिन इस चुनाव में मैक्रों की पार्टी की स्थिति और भी ख़राब हो गई और वो बहुमत हासिल करने या स्थिर और टिकाऊ प्रधानमंत्री पाने की क्षमता हासिल करने में एक बार फिर नाकाम रही. 

वास्तव में पांचवें फ्रांसीसी गणराज्य (1958 में स्थापित फ्रांस की मौजूद राजनीतिक प्रणाली) को अक्सर राष्ट्रपति प्रणाली के रूप में बताया जाता है. लेकिन ये मज़बूत कार्यपालिका के साथ काफी हद तक एक मिली-जुली संसदीय प्रणाली के समान है. फ्रांस के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति एक “जज” है जबकि उसके द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री (जिसकी जवाबदेही संसद के प्रति होती है) सरकार के साथ मिलकर देश की “नीति तय करेगा और उसका संचालन” करेगा. 

जहां फ्रांस का राजनीतिक रूप से अभिजात वर्ग, सत्ताधारी पार्टी और मीडिया घरेलू उथल-पुथल की तरफ अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, वहीं संविधान के अनुसार राष्ट्रपति अपना ध्यान दुनिया के मामलों की तरफ देता है.

इस तरह जब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के राजनीतिक विचार पूरी तरह से मेल (जिसे “साथ चलना” भी कहते हैं) नहीं खाते हैं तो राष्ट्रपति एक ‘दूर’ का जज बन जाता है और रक्षा एवं विदेश मामलों जैसे प्रमुख राष्ट्रीय हितों पर वापस आ जाता है. दूसरी तरफ प्रधानमंत्री अपने संसदीय बहुमत के समर्थन से नीतियां बनाने में अग्रणी भूमिका निभाता है. 

दुनिया के मामलों में राष्ट्रपति की भूमिका में बढ़ोतरी 

जहां फ्रांस का राजनीतिक रूप से अभिजात वर्ग, सत्ताधारी पार्टी और मीडिया घरेलू उथल-पुथल की तरफ अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, वहीं संविधान के अनुसार राष्ट्रपति अपना ध्यान दुनिया के मामलों की तरफ देता है. राष्ट्रपति अंतरराष्ट्रीय संबंधों से जुड़े पहलुओं में प्रमुख निर्णय लेने वाले के रूप में काम करता है. 

इसलिए 2022 से राष्ट्रपति मैक्रों शिखर सम्मेलनों में भाग लेने और दुनिया के मंच पर फ्रांस का प्रतिनिधित्व करने को प्राथमिकता देने में सक्षम रहे हैं. इसके अलावा जब प्रधानमंत्री घरेलू उथल-पुथल का सामना करते हैं तो सरकार के दिग्गज अक्सर राष्ट्रपति के साथ होते हैं. 

इन गतिविधियों में तेज़ी का सबसे अच्छा उदाहरण हिंद-प्रशांत में देखने को मिलता है जहां राष्ट्रपति मैक्रों ने पर्याप्त ढंग से फ्रांस की प्रतिबद्धता और दिलचस्पी दिखाई है, विशेष रूप से 2019 और 2022 में अंतर-मंत्रालय स्तर पर प्रकाशित रक्षा रणनीति (जिसे आख़िरी बार 2025 में अपडेट किया गया था) को देखते हुए. भारत (जहां मैक्रों को 2024 के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था) जैसे अपने पुराने सामरिक साझेदारों के साथ-साथ फ्रांस के राष्ट्रपति ने कई ऐसे देशों का भी दौरा किया जहां इससे पहले फ्रांस के किसी भी राष्ट्रपति ने कदम नहीं रखा था. उदाहरण के लिए, सिर्फ 2023 में वनुआतू, पापुआ न्यू गिनी, श्रीलंका और मंगोलिया जैसे देशों को राष्ट्रपति की यात्रा सूची में शामिल किया गया. इसके अलावा, कई दशकों से जिन देशों की कोई भी आधिकारिक यात्रा नहीं की गई थी, उन्हें भी इस प्रयास में शामिल किया गया जैसे कि बांग्लादेश और उज़्बेकिस्तान. 

राष्ट्रपति की विदेश यात्राओं में बहुपक्षीय मंचों को समान रूप से महत्व दिया गया. उन्होंने इंडोनेशिया और भारत में G20 की बैठक में भाग लिया. इसके साथ-साथ थाईलैंड में एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) की बैठक में भी शामिल हुए. पिछले दिनों उन्होंने शांगरी-ला डायलॉग के 2025 की बैठक में प्रमुख वक्ता के रूप में भाग लिया.  

इन प्रतिबद्धताओं ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फ्रांस के असर को बढ़ाने में मदद की है जो इस क्षेत्र में सुरक्षा के मामले में फ्रांस को रेज़िडेंट पावर (स्थायी शक्ति) के दर्जे से और मज़बूत हुआ है. इसका प्रमाण हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) और व्यापक हिंद-प्रशांत में तैनाती के मामले में फ्रांस के सशस्त्र बलों की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता से मिलता है. संयोग है कि इनमें से कुछ पहल राष्ट्रपति के दौरे के समय की गई जैसे कि जिबूती से प्रशांत महासागर तक एयरक्राफ्ट कैरियर ग्रुप का मिशन ‘CLEMENCEAU’ जो 2025 की शुरुआत में हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर (SCS) से होकर गुजरा.  

2024 में फ्रांस की वायु सेना ने जर्मनी, स्पेन और ब्रिटेन की वायु सेना के साथ पूरे क्षेत्र के ऊपर उड़ान भरी. सुलूर वायु सेना अड्डे पर ‘तरंग शक्ति’ अभ्यास में भाग लेकर उसने कई साझेदारों (विशेष रूप से भारतीय वायु सेना) के साथ मिलने-जुलने की क्षमता का प्रदर्शन किया. 

ये कूटनीतिक और सैन्य गतिविधि केवल हिंद-प्रशांत तक ही सीमित नहीं है. फिलिस्तीन को मान्यता देने के लिए राष्ट्रपति मैक्रों और सऊदी अरब के असली शासक मोहम्मद बिन सलमान की साझा पहल या स्थायी युद्धविराम के लिए लेबनान में सभी पक्षों के साथ राष्ट्रपति की सक्रिय भागीदारी से इसका प्रमाण मिलता है. ऐसा ही एक मामला ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद यूक्रेन को लेकर अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच की दूरी कम करने में फ्रांस की अग्रणी भूमिका से भी जुड़ा है. इसमें मैक्रों बड़े यूरोपीय देशों के बीच “वरिष्ठ” के रूप में उभरे. साथ ही वो ऐसे नेता हैं जो 2017 में ट्रंप के पहले कार्यकाल के समय से उनके साथ जुड़े हुए हैं. 

दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ अपने जुड़ाव में मैक्रों का नज़रिया कुछ हद तक डी गॉल के ‘तीसरे रास्ते’ की याद दिलाता है जिसे आज के समय में ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ के रूप में पेश किया जा रहा है. ये ऐसी सोच है जो फ्रांस, भारत और उसकी ‘बहु-गठबंधन’ विदेश नीति के साथ साझा करता है. इसका ये अर्थ नहीं है कि फ्रांस अपने सहयोगियों के प्रति पारंपरिक प्रतिबद्धता से पीछे हट गया है, न ही ये दुनिया के मुद्दों पर समान दूरी रखने वाला दृष्टिकोण है जिसका प्रमाण इज़रायल-फिलिस्तीन मुद्दे, रूस-यूक्रेन युद्ध या दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती मुखरता को लेकर मैक्रों के रवैये से मिलता है. ये फ्रांस के रुख के अनूठेपन की याद दिलाता है जो कई रणनीतिक मुद्दों पर यूरोपीय और अटलांटिक पार के साझेदारों के साथ तालमेल रखते हुए मूल रूप से स्वतंत्र बना हुआ है. 

घर की पुकार

आज के समय में विदेशी संबंधों को संभालने का मैक्रों का तरीका घरेलू उथल-पुथल के असर से अपेक्षाकृत सुरक्षित है लेकिन क्या दुनिया में महत्व बढ़ाने का उनका नज़रिया फ्रांस की राजनीति की लगातार बिगड़ती स्थिति से ख़तरे में पड़ जाएगा?

जज के रूप में मैक्रों को फ्रांस की राजनीति की मुश्किलों से निपटने के लिए और ज़्यादा जुड़ने की ज़रूरत हो सकती है ताकि प्रशासनिक और वित्तीय काम-काज पूरी तरह से चरमरा नहीं जाए. अमेरिका के “शटडाउन” से हटकर अगर फ्रांस चाहता है कि सरकार और अर्थव्यवस्था बिना किसी परेशानी के काम करे तो उसे साल के अंत तक बजट पारित करना होगा. दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार लगातार फ्रांस को याद दिलाते रहेंगे कि अगर वो यूरोपीय क्षेत्र के नए संकट से बचना चाहता है तो उसे घरेलू स्तर पर सुधार करने की आवश्यकता है. 

आगे की चुनौती मुश्किल लगती है: नए संसदीय चुनाव में समय होने की वजह से राष्ट्रपति किसी प्रधानमंत्री को सिर्फ मनोनीत कर सकता है जिसके पास बिना बहुमत के बड़े सुधारों को पारित करने का कठिन काम होगा. 

आगे की चुनौती मुश्किल लगती है: नए संसदीय चुनाव में समय होने की वजह से राष्ट्रपति किसी प्रधानमंत्री को सिर्फ मनोनीत कर सकता है जिसके पास बिना बहुमत के बड़े सुधारों को पारित करने का कठिन काम होगा. इस तरह हर कानून के लिए एक संसदीय गठबंधन की तलाश करने की आवश्यकता उत्पन्न होगी. 

2027 में मैक्रों का कार्यकाल ख़त्म होने से पहले उनके इस्तीफे का विकल्प काफी हद तक अस्वीकार्य लगता है. ऐसे में मैक्रों दूसरे संसदीय लोकतंत्रों से प्रेरणा लेकर ख़ुद को दिलासा दे सकते हैं. इन लोकतंत्रों ने समय के साथ गठबंधन सरकार चलाने की कला में महारत हासिल कर ली है, चाहे वो पड़ोसी देश जर्मनी हो या दूर का देश भारत. 


गुइलॉम गेंदेलिन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में विज़िटिंग फेलो हैं. 

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