Author : Preety Bhogal

Published on Jan 13, 2017 Updated 0 Hours ago
भारत के छोटे किसानों पर ध्यान दें

इस शोध पत्र में भारत के छोटे एवं सीमांत किसानों द्वारा सामना की जा रही उन विभिन्न बाधाओं को तीखी नजर से परखा गया हैजो उनकी भूमि की उत्पादकता और इस तरह उनकी आय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं। खेतीबाड़ी से जुड़ी तमाम गतिविधियों को इन बाधाओं से दोचार होना पड़ रहा है, जिनमें उत्पादन से लेकर भंडारण एवं बाजारों तक पहुंच सभी शामिल हैं। हाल ही में कराए गए एक सरकारी सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया है कि देश के हर दस किसानों में से चार किसान खेती को नापसंद करते हैं और यदि उन्हें कोई विकल्प दे दिया जाए तो वे इसे छोड़कर किसी और पेशे को अपनाना पसंद करेंगे। वैसे तो सरकार ने कृषि क्षेत्र में सुधारों की एक श्रृंखला जैसे कि ‘नाम’और ‘कृषि यंत्रीकरण योजना’ शुरू की है , लेकिन इन कार्यक्रमों के लाभ ज्यादातर बड़े किसानों के ही खाते में चले गए हैं। इस शोध पत्र में उन विकट समस्याओं से निजात पाने के लिए विशिष्ट सिफारिशें की गई हैं जिनके कारण देश में किसी तरह से गुजरबसर कर रहे किसानों को घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ रहा है।

परिचय

भारत में ज्यादातर किसान छोटे और सीमांत हैं, जिन्हें अक्सर एक हेक्टेयर से भी कम अथवा महज एक से लेकर दो हेक्टेयर तक की कृषि जोत पर ही अपना पसीना बहाने पर विवश होना पड़ता है। भारत में जितने भी ग्रामीण परिवार हैं उनका लगभग 57.8 प्रतिशत कृषि क्षेत्र के भरोसे ही अपना जीवन यापन कर रहा है। इनमें से 69 प्रतिशत से भी अधिक परिवारों के पास या तो मामूली कृषि जोत हैं या उन्हीं पर अपना सारा पसीना बहाकर इन परिवारों को किसी तरह अपना जीवन गुजर-बसर करना पड़ता है। वहीं, दूसरी ओर 17.1 प्रतिशत परिवारों को छोटी कृषि जोत के भरोसे ही अपना काम चलाना पड़ रहा है। भारत के [i] लगभग 72.3 प्रतिशत [ii] ग्रामीण परिवार कृषि क्षेत्र में या तो किसान या कृषि मजदूरों के रूप में काम करते हैं। वर्ष 2011 की नवीनतम जनगणना से यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया है। हालांकि, कृषि क्षेत्र में कार्यरत किसानों का अनुपात वर्ष 1951 के 71.9 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2011 में 45.1 प्रतिशत के स्तसर पर आ गया, [iii] जो कम उत्पादकता की वजह से इस हद तक घट गया। जहां तक कम उत्पादकता का सवाल है, यह प्रतिकूल मौसम सहित विभिन्न कारकों का नतीजा है। कृषि क्षेत्र में विकास के अभाव ने ग्रामीण आबादी को गैर-कृषि क्षेत्र की ओर अग्रसर होने पर विवश कर दिया है जिसके परिणामस्वररूप वर्ष 1999-2000 और वर्ष 2011-2012 के बीच गैर-कृषि ग्रामीण रोजगार लगभग 12 प्रतिशत बढ़ गया। [iv] दरअसल, गैर-कृषि क्षेत्र उन लोगों के लिए ‘बचत’ वाले क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आया है जो कृषि को जोखिम भरा मानते हैं और जिसमें मेहनताना के लिए मोहताज होना पड़ता है।

किसी तरह जीवन यापन करने वाले ज्यादातर किसानों के खाद्य उत्पादन के कार्य में ही लगे होने के बावजूद उनके रहन-सहन में सुधार के लिए सरकार द्वारा कोई खास कार्य अब तक नहीं किया गया है। वर्ष 2003 में सरकार द्वारा किए गए ‘किसानों के हालात आकलन सर्वेक्षण’ के मुताबिक, हर दस किसानों में से चार किसान खेती को नापसंद करते हैं और यदि उन्हें कोई विकल्प दे दिया जाए तो वे इसे छोड़कर किसी और पेशे को अपनाना पसंद करेंगे। इनमें से 27 प्रतिशत किसानों का यह मानना था कि खेती लाभदायक नहीं है और आठ प्रतिशत किसानों का यह मानना था कि यह जोखिम भरा है। [v] ये निष्कर्ष बेशक अनपेक्षित हो सकते हैं, लेकिन इससे यह तो अवश्य ही पता चल जाता है कि देश के किसानों के बीच किस हद तक असंतोष फैला हुआ है। इस असंतोष के जो भी असली कारण हैं उनका तत्काल निराकरण करने की जरूरत है।

छोटे किसान: बाधाएं और सरकार की प्रतिक्रिया

भारत में छोटे किसानों को तकनीकी, वित्तीय और संस्थागत सहायता हासिल करने के मार्ग में विभिन्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इन बाधाओं में निम्नलिखित शामिल हैं: औपचारिक ऋण एवं बीमा तक सीमित पहुंच; उन्हें आधुनिक कृषि उपकरणों एवं तौर-तरीकों का समुचित प्रशिक्षण देने वाले क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का अभाव; सिंचाई के लिए अपर्याप्त पानी की आपूर्ति; फसल विविधीकरण के लिए बेहद कम या कोई गुंजाइश नहीं; और विपणन सुविधाओं का अभाव। वैसे तो छोटे और बड़े दोनों ही किसानों को इनमें से ज्यादातर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन कृषि से जुड़े कच्चे माल तक पहुंच के मामले में दोनों की स्थितियां अक्संर एक जैसी नहीं होती हैं। इस मामले में बड़े किसानों को कुछ बढ़त हासिल है। उदाहरण के लिए, छोटे किसानों की तुलना में बड़े किसान सिंचाई के सार्वजनिक (नहर) और निजी (ट्यूबवेल) स्रोतों तक अपनी पहुंच आसानी से सुनिश्चित कर लेते हैं। वहीं, छोटे किसान अक्सर भूजल पर निर्भर रहते हैं जो पहले ही समाप्त हो चुका है। आवश्यक जानकारी एवं कच्चे माल की प्राप्ति में यह असमानता छोटे एवं सीमांत किसानों को उत्पादकता से जुड़े जोखिमों के मामले में और ज्यादा असुरक्षित बना देती है।

निम्नलिखित खंड में भारत के छोटे किसानों द्वारा सामना की जा रही विभिन्न बाधाओं की चर्चा की गई है

उपज बेचने के लिए बाजार — बाजारों तक छोटे किसानों की पहुंच बढ़ाने के लिए सरकार ने हाल ही में एक नया कार्यक्रम ‘ई-नाम’ शुरू किया है। यह कृषि जिंसों में कारोबार के लिए एक वर्चुअल साझा बाजार है, जिससे खरीदारों एवं विक्रेताओं के बीच सूचना संबंधी विषमता समाप्त हो जाने की उम्मीद है। अत: इससे समूची कारोबारी प्रक्रिया और अधिक पारदर्शी बन जाएगी। इस तरह की प्रणालियों की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि किसानों की शिक्षा का स्तर क्या है और खरीदारों के साथ बातचीत के वैकल्पिक तरीकों को जानने के मामले में किस हद तक खुलापन है। असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग की एक रिपोर्ट से पता चला है कि छोटे एवं सीमांत किसानों के बीच साक्षरता दर क्रमश: 55 प्रतिशत और 48 प्रतिशत है, [vi] जो 72.98 प्रतिशत की राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर से कम है — ग्रामीण क्षेत्रों में 67.6 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 84.1 प्रतिशत है। [vii] अत: ऐसे में ग्रामीण आबादी को कृषि क्षेत्र में सरकार की डिजिटल पहलों से लाभ उठाने में बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

पानी, उर्वरकों, कीटनाशकों, बीजों और अन्य सामग्री तक पहुंच — भारत में पानी की कम उपलब्धता वाले क्षेत्रों, जिनमें महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा व कर्नाटक शामिल हैं, में जल तक पहुंच सुनिश्चित करना एक बड़ी समस्या है। 10 हेक्टेयर और उससे ज्याोदा के बड़े भूखंडों वाले किसान, जिनकी पहुंच आधुनिक मशीनों और पंपों तक होती है, बड़ी मात्रा में पानी की खपत करते हैं। ऐसे में छोटे किसानों को बेहद कम पानी नसीब हो पाता है क्यों कि वे इस तरह के पंप लगाने में असमर्थ होते हैं। इस स्थिति में फसलें उगाने के लिए उन्हें काफी हद तक बारिश पर ही भरोसा करना पड़ता है अथवा निकटवर्ती ट्यूबवेल से पानी खरीदने पर विवश होना पड़ता है।

जहां तक उर्वरकों और कीटनाशकों का सवाल है, सीमित आपूर्ति‍ के कारण इनकी लगातार बढ़ती कीमतों की वजह से बुनियादी कच्चे माल तक छोटे किसानों की पहुंच संभव नहीं हो पाती है। उदाहरण के लिए, पिछले दो वर्षों से असम के माजुली जिले के किसानों को कीट नियंत्रण की एक वैकल्पिक विधि विकसित करनी पड़ी है, जिसके तहत झींगुर को खाना पड़ता है क्योंकि वे क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलों पर हमला कर देते हैं। [viii] वैसे तो किसान इस तरह की बेहतर जैविक प्रथाएं अपनाए जाने को एक सकारात्मक बदलाव मानते हैं, लेकिन यह परिवर्तन इसके साथ ही उर्वरक बाजार को विनियमित करने में सरकार की विफलता को भी उजागर करता है क्योंकि इसके कारण किसी तरह से गुजर-बसर करने वाले किसानों की इस तक आसान पहुंच संभव नहीं हो पा रही है।

भारत में बीजों की ज्यादा पैदावार वाली किस्मों की सीमित उपलब्धता— नए कीट प्रतिरोधी और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के विकास के लिए अपर्याप्त शोध होने की वजह से ही इस तरह की स्थिति देखने को मिल रही है — इस वजह से अक्सर कृषि उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित होती है।

इसके अलावा, संकर बीज किस्मों की लागत छोटे किसानों के लिए हद से ज्यादा बैठती है। [ix]

ऋण और बीमा की सुविधाओं तक पहुंच — छोटे एवं सीमांत किसानों द्वारा ज्यादा उत्पाददन करने (वर्ष 2002-03 में देश के कुल उत्पादन में लगभग 51.2 फीसदी हिस्सेदारी) [x] के बावजूद उनकी अर्जित आमदनी कम रहने और औपचारिक ऋण संस्थानों में जटिल परिचालन प्रक्रियाएं अपनाए जाने के कारण इन किसानों को अपनी निवेश एवं खपत जरूरतों के वित्तपोषण के लिए ऋण के अनौपचारिक चैनलों के भरोसे रहने पर विवश होना पड़ता है। वर्ष 2012 में यह पाया गया कि लगभग 85 फीसदी सीमांत किसान गैर-संस्थागत ऋण बाजारों जैसे कि गांव के जमींदारों, व्यापारियों, दोस्तों और अन्य लोगों पर निर्भर थे, जो औपचारिक ऋण बाजार दर का 100 गुना वसूला करते थे। [xi] वर्ष 2011-12 में भारत में छोटे और सीमांत किसानों के बीच लगभग 82 फीसदी ऋणग्रस्तता थी, [xii] जो, विश्लेषकों के मुताबिक, किसानों के बीच व्यापक निराशा का संभवत: सबसे गंभीर कारण था और यहां तक कि इसी वजह से विभिन्न राज्यों में किसान आत्महत्या करने पर विवश हो गए।

सरकार ने किसानों को आसान और अधिक विश्वसनीय ऋण चैनल मुहैया कराने के उद्देश्य से कृषि यंत्रीकरण योजना और मूल्य समर्थन योजना जैसी अनेक योजनाएं शुरू की हैं। हालांकि, यह माना जाता है कि इन कार्यक्रमों से अक्सर बड़े जमींदार ही लाभ उठाने में कामयाब हो जाते हैं, जबकि छोटे और सीमांत किसानों के लिए संकट का दौर बदस्तूर जारी ही रहता है। इसके अलावा, कृषि यंत्रीकरण योजना के तहत ब्याज में छूट के तौर पर मिलने वाली सब्सिडी की आलोचना इस बात को लेकर होती रही है कि इससे किसानों को संबंधित धनराशि को कृषि के बजाय ज्यादा मुनाफे वाले विकल्पों में लगाने का मौका मिल जाता है। [xiii] इस योजना का दुरुपयोग बड़े किसानों द्वारा किया जाता रहा है, जो औपचारिक ऋण व्यवस्थाओं के दायरे से बाहर रहने वाले छोटे किसानों को ऊंची ब्याज दरों पर पैसा उधार दे देते हैं।

इस बीच, फसल बीमा योजना एक ऐसा कार्यक्रम है जिससे आधे से भी अधिक किसान परिवार अनजान थे; 24 फीसदी किसान परिवारों की पहुंच इस सुविधा तक नहीं थी। [xiv] इस सुविधा तक कोई भी पहुंच न रखने वाले परिवारों की सर्वाधिक संख्या जिन-जिन राज्यों में थी उनमें जम्मू-कश्मीर (72 प्रतिशत), पंजाब (67 प्रतिशत), हरियाणा (42 प्रतिशत), बिहार (49 प्रतिशत) और राजस्थान (37 प्रतिशत) शामिल थे।

फसल विविधीकरण के लिए सीमित गुंजाइश — भारत में छोटे और सीमांत किसान दो हेक्टेयर से भी कम की कृषि जोत के मालिक होते हैं/उस पर खेती करते हैं, जो अक्सर टुकड़ों में होती हैं और इनमें से केवल कुछ को ही पर्याप्त सिंचाई सुविधाएं सुलभ होती हैं। इन छोटी-छोटी जोतों के लगातार सिकुड़ते औसत आकार के कारण फसल विविधीकरण के लिए गुंजाइश बेहद सीमित हो गई है। इसके अलावा, सरकार की पहल मुख्य रूप से चावल और गेहूं के उत्पादन पर ही ध्यान केंद्रित करती है। चावल, गेहूं, मोटे अनाज और कुछ दालों के उत्पादन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रावधान के कारण उपज के लिए दी जाने वाली मूल्य की गारंटी भी इसमें शामिल है। ये पहल केवल कुछ राज्यों तक ही सीमित हैं। इस वजह से किसान, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसान वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन शुरू करने को लेकर हतोत्साहित हो जाते हैं। ऐसे में किसान जोखिम उठाने से और ज्यादा बचना शुरू कर देते हैं जिससे भविष्य में फसल विविधीकरण के लिए प्रयास करने की संभावना कम हो जाती है। विशेष रूप से ऐसे राज्यों में फसल विविधीकरण से काफी लाभ होने की संभावना है जो खराब मिट्टी की समस्याओं से जूझ रहे हैं अथवा जहां पानी की उपलब्धधता अपेक्षाकृत कम है। उदाहरण के लिए, पांच एकड़ जमीन पर अनाज लगाने से जितनी आमदनी होगी उससे भी कहीं ज्यादा आय महज एक एकड़ भूमि पर उच्च मूल्य वाली फसलें लगाने से अर्जित की जा सकती है। [xv] अत: ऐसे व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए कारगर सरकारी व्यवस्था कायम करने की जरूरत है, जो फसल विविधीकरण के संभावित लाभों को ध्यान में रखते हुए किसानों को खाद्यान्न के साथ-साथ वाणिज्यिक फसलों का भी उत्पादन शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

विशेष रूप से ऐसे राज्यों में फसल विविधीकरण से काफी लाभ होने की संभावना है जो खराब मिट्टी की समस्याओं से जूझ रहे हैं अथवा जहां पानी की उपलब्ध ता अपेक्षाकृत कम है।

फसल कटाई के बाद जरूरी समझे जाने वाले बुनियादी ढांचे का अभाव — किसानों को अपनी उपज के लिए पर्याप्त भंडारण और मालगोदाम संबंधी सुविधाएं न मिल पाने के कारण उन्हें अक्सर भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इस वजह से वे अक्सर औने-पौने दामों पर अपनी उपज बेचने पर विवश हो जाते हैं। यह समस्या पूरे देश में देखी जा रही है जिससे सभी कृषि उत्पाद प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए, वर्ष 2016 के आरंभ में ओडिशा में आलू किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था क्यों कि शीत भंडारण सुविधाओं के अभाव में उनकी लगभग 20 प्रतिशत उपज बर्बाद हो गई थी। [xvi] इसी तरह, महाराष्ट्र में प्याज किसानों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा था क्यों कि कृषि उपज मंडी समिति में 35 दिनों तक चली हड़ताल के कारण वे अपने घरों में ही अपनी उपज का भंडारण करने पर विवश हो गए थे जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में उनका माल बर्बाद हो गया था। [xvii]

सरकार ने इस समस्या का समाधान करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। इसी तरह की एक पहल सरकार संचालित राष्ट्रीय कोल्ड चेन विकास केंद्र द्वारा उपलब्ध कराई गई सभी कोल्ड-स्टोरेज सुविधाओं पर सेवा कर का उन्मूलन किया जाना है। कृषि संबंधी गतिविधियों के वित्त् पोषण के लिए सभी कर योग्य सेवाओं पर कृषि कल्याण उपकर (0.5 प्रतिशत की दर से) भी लगाया गया है। भले ही ये सकारात्मक कदम हों, लेकिन इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हर राज्य में भंडारण की सुविधाओं को उस राज्य के वार्षिक कृषि उत्पादन के अनुरूप होना चाहिए। इसके अलावा, ये सुविधाएं सभी किसानों, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों के लिए अवश्यो ही किफायती होनी चाहिए।

किसानों के लिए सीमित क्षमता निर्माण कार्यक्रम/विस्तार सेवाएं — छोटे एवं सीमांत किसानों की तकनीकी सलाहकारों और आधुनिक प्रौद्योगिकी तक पहुंच बड़ी ही सीमित होती है, जबकि सच्चाई यही है कि विभिन्न कृषि गतिविधियों के उत्पादन और उत्पादकता में बेहतरी के लिए इसे अत्यंत आवश्यक माना जाता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की विस्तार सेवाएं विभिन्न युक्तियों जैसे कि प्रशिक्षण एवं दौरा प्रणाली, कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) और विशेष रूप से ग्रामीण जिलों के लिए शुरू की गई कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी के जरिए प्रदान की जाती हैं। वर्तमान में देश भर में कुल मिलाकर 645 कृषि विज्ञान केंद्र हैं।

हालांकि, भारत में सार्वजनिक और निजी एजेंसियां अपने यहां सीमित श्रमशक्ति होने की वजह से कृषि क्षेत्र में इन सेवाओं की सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करने में नाकाम रही हैं। [xviii] उदाहरण के लिए, वर्ष 2005 में भारत में केवल 40 फीसदी किसान परिवारों की ही पहुंच किसी भी उपलब्ध स्रोत से प्राप्तक कृषि संबंधी सूचनाओं तक थी। कृषि जोत के आकार के लिहाज से सूचनाओं की अनुपलब्धता पर गौर करने से यही पता चला है कि 53.6 फीसदी बड़े किसानों की तुलना में केवल 38.2 फीसदी छोटे किसानों की ही पहुंच संबंधित सूचनाओं तक थी। [xix] छोटे किसानों के लिए संबंधित सूचनाओं के पसंदीदा सूत्र ये थे : अन्य प्रगतिशील किसान (16 प्रतिशत); कच्चें माल के डीलर (12.6 प्रतिशत); रेडियो (12.4 प्रतिशत); टेलीविजन (7.7 प्रतिशत); समाचार पत्र (6 प्रतिशत); और विस्तार कार्यकर्ता (4.8 प्रतिशत)। [xx] बड़े किसानों के बीच सूचनाओं के प्रसार में विस्तार कार्यकर्ताओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है; 12.4 फीसदी बड़े किसानों को इसी स्रोत के जरिए सूचनाएं प्राप्त होती रही थीं। इन सेवाओं तक पहुंच में काफी अधिक भिन्नता होने के कारण भी किसी तरह से गुजर-बसर करने वाले किसान अब कहीं और ज्यादा असुरक्षित हो गए हैं।

भारत में सार्वजनिक और निजी एजेंसियां अपने यहां सीमित श्रमशक्ति होने की वजह से कृषि क्षेत्र में इन सेवाओं की सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करने में नाकाम रही हैं।

निष्कर्ष

भारत नि:संदेह पूरी दुनिया के लिए अनाज के एक प्रमुख स्रोत के रूप में उभर कर सामने आया है, क्योंकि विगत दशकों में इसका कृषि उत्पादन और यहां से अनाज की फसलों का निर्यात कई गुना बढ़ गया है। हरित क्रांति के बाद किसानों की समृद्धि और आमदनी काफी बढ़ गई। हालांकि, ये लाभ सभी किसान परिवारों के बीच समान रूप से नहीं बंट पाए। छोटे एवं सीमांत और किसी तरह से अपना जीवन यापन करने वाले किसानों के समक्ष मौजूद कई बाधाओं पर गौर करने से यह साफ पता चल जाता है कि उनके संघर्ष का दौर अब भी जारी है। किसानों के हालात आकलन सर्वेक्षण (2003) के निष्कपर्षों से यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि किसान अपने पेशे के प्रति उदासीन हो गए हैं। किसी तरह से जीवन निर्वाह कर रहे लगभग 40 फीसदी ग्रामीण किसान परिवार खेती को नापसंद करते हैं और किसी अन्य व्यवसाय को अपनाने को तरजीह देते हैं; उन्होंने यह भी कहा कि वे नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे अपने परिवार की भूमि पर खेती-बाड़ी को आगे भी जारी रखें।

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वैसे तो सरकार ने किसानों की दुर्दशा सुधारने के लिए अनेक कदम उठाए हैं, लेकिन किसी तरह से जीवन यापन कर रहे किसानों को पेश आ रही समस्याओं को सुलझाने पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, इस तरह के किसानों की पहुंच आवश्यक कच्चे माल और विस्तार सेवाओं तक नहीं है, जिस वजह से वे अपनी जमीन पर उत्पादकता बढ़ाने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं। सीमांत किसानों को अपनी जोत के छोटे आकार की वजह से फसल विविधीकरण में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे उनका लाभ और अतिरिक्त निवेश की संभावनाएं बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। सरकार को अवश्य ही एक ऐसी समावेशी विस्तार प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिसमें छोटे किसानों को समान भूमि पर अनाज और वाणिज्यिक फसलों की खेती एक साथ शुरू करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस कदम से न केवल किसानों की आमदनी बढ़ जाएगी, बल्कि भूमि और अन्य सामग्री के सतत उपयोग को भी बढ़ावा मिलेगा। पानी की कम उपलब्धता वाले क्षेत्रों का उपयोग ऐसी फसलों की खेती के लिए किया जा सकता है जिनके लिए बड़ी मात्रा में जल की आवश्यकता नहीं होती है, जैसे कि दाल और कपास। पानी भी सभी किसानों को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसके लिए बड़े किसानों को सिंचाई के वैकल्पिक स्रोतों जैसे कि ड्रिप एवं सूक्ष्म सिंचाई का उपयोग करने के लिए अवश्य ही प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जल स्रोतों के संरक्षण एवं पुनर्भरण का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि वे इस दुर्लभ और बहुमूल्य संसाधन से किसी तरह अपना जीवन निर्वाह कर रहे किसानों को वंचित नहीं कर सकें।

भारत में किसानों पर प्रतिकूल जलवायु और मौसम की मार भी अक्सिर पड़ती रहती है जिससे उनकी आय बुरी तरह प्रभावित होती है। ऐसे में उपयुक्तक बुनियादी ढांचे जैसे कि भंडारण सुविधाओं और मालगोदामों का अभाव होने के कारण स्थिति और भी ज्या दा बिगड़ जाती है क्यों कि इससे उपज की गुणवत्ता और फि‍र इसके बाद उनकी कीमतों पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है। भंडारण की सुविधाएं बढ़ाने की योजनाएं जल्द से जल्द क्रि‍यान्वित की जानी चाहिए क्यों।कि मालगोदाम की सुविधाओं के अभाव में होने वाले नुकसान के विरुद्ध किसानों का बीमा इनकी बदौलत संभव हो पाएगा।

छोटे और सीमांत किसानों को कर्ज पर ऊंची ब्याज दरों का बोझ भी वहन करना पड़ता है क्यों़कि कुछेक किसानों की ही पहुंच औपचारिक वित्तीय संस्थानों से मिलने वाले ऋणों तक है। औपचारिक ऋण संस्थानों की कवरेज अवश्य ही बढ़ाकर छोटे किसानों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार को एक ऐसी एजेंसी बनाने की जरूरत है जो सभी राज्यों के छोटे किसानों को सभी स्तरों पर ऋण संस्थानों से कनेक्ट करेगी। ब्याज छूट योजना में लीकेज की रोकथाम के लिए बैंकों में आय का सीधा हस्तांतरण करने की योजना को व्यापक रूप से लागू किया जाना चाहिए। इसके लिए भी बैंकिंग क्षेत्र में छोटे किसानों के एकीकरण की आवश्यकता होगी। उल्लेखनीय है कि 31 मार्च 2014 तक लगभग 101.09 मिलियन किसान क्रेडिट कार्ड भारत में किसानों को जारी किए गए थे। [xxi]

कृषि भारत में राज्य का विषय है और यह राज्यों की ही जिम्मेदारी है कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में रहने वाले किसानों की पहुंच आवश्यक सुविधाओं तक बढ़ाएं। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस क्षेत्र में कई कार्यक्रमों को केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया है, लेकिन वे सभी किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिहाज से कोई खास सफल नहीं हो पाए हैं। यह अत्यंत आवश्यक है कि केंद्र सरकार एक पर्यवेक्षक की भूमिका निभाए, ताकि राज्य सरकारों को मुहैया कराई गई धनराशि का समुचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सके। विभिन्न योजनाओं की ताजा स्थिति और प्रगति पर नियमित रूप से नजर रखने का काम अवश्य ही समयबद्ध ढंग से किया जाना चाहिए। देश में किसी तरह से अपना जीवन गुजर-बसर कर रहे किसानों की लंबे समय से चली आ रही चिंताओं को दूर करने के लिए योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन और निष्पादन अत्यावश्यक है।

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