Author : Kabir Taneja

Published on Nov 01, 2021 Updated 0 Hours ago

तुर्की के आर्थिक और राजनीतिक तनाव को संभालते हुए वैश्विक इस्लामिक ताक़त बनने की अपनी आकांक्षा को अर्दोआन कैसे संभालेंगे, ये देखना अभी बाक़ी है.

FATF: धुंधली विदेश नीति और आर्थिक हालात से परेशानी में ‘तुर्की’

दुनिया भर में मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकी फंडिंग पर निगरानी रखने वाले संस्थान फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की ग्रे लिस्ट में माली और जॉर्डन जैसे देशों के साथ तुर्की भी शामिल हुआ है. फ्रांस की राजधानी पेरिस में स्थित एफएटीएफ सचिवालय की तरफ़ से जारी बयान में आठ बिंदुओं को लेकर तुर्की की कमियां गिनाई गई हैं जिनमें मनी लॉन्ड्रिंग, संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रतिबंधों का पालन नहीं करना, ग़ैर-सरकारी संगठनों के द्वारा आतंकी फंडिंग के दुरुपयोग में घालमेल और इसी तरह की कुछ और ग़लतियां शामिल हैं. तुर्की अब अपने क़रीबी सहयोगी पाकिस्तान के साथ एफएटीएफ की चर्चा का मुख्य विषय बन गया है.

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मध्य-पूर्व और यूरोप के दोराहे पर तुर्की की परिकल्पना आर्थिक और राजनीतिक- दोनों शक्तियों के तौर पर की थी. कुछ विश्लेषकों ने अर्दोआन के इस दृष्टिकोण को नये ऑटोमन साम्राज्यवाद का नाम दिया है, यानी अतीत के ऑटोमन साम्राज्य के गर्व भरे दिन को फिर से ज़िंदा करने की आधुनिक तुर्की की चाहत. वो ऑटोमन साम्राज्य जिसकी स्थापना तुर्की के जनजातीय नेता उस्मान प्रथम ने थी और 600 साल तक ताक़त दिखाने के बाद जिसका अंत प्रथम विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद हुआ था. आज तुर्की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक इस्लाम और ताक़त के मिले-जुले रूप से अपने अति-महत्वपूर्ण भूराजनीतिक लक्ष्यों को पाना चाहता है.

तुर्की को एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में रखने का फ़ैसला उस वक़्त आया है जब कोविड-19 महामारी की वजह से तुर्की की अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है. साथ ही तुर्की की अर्थव्यवस्था अर्दोआन सरकार की विदेश नीति की वजह से और भी ज़्यादा कमज़ोर हो रही है. इसकी वजह ये है कि अर्दोआन तुर्की की अर्थव्यवस्था, राजनीति और सैन्य असर को उन क्षेत्रों में फैलाना चाहते हैं जहां एक वक़्त ऑटोमन साम्राज्य फैला हुआ था और इस तरह वो तुर्की को पश्चिम के साम्राज्यवाद के बाद के दौर के देशों के वैकल्पिक साझेदार के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. इस चाहत की वजह से तुर्की को अपनी क्षमता से ज़्यादा गतिविधियों को अंजाम देना पड़ रहा है जबकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान तुर्की की अर्थव्यवस्था ने कई तरह की चुनौतियों का सामना किया है जिनमें आर्थिक प्रतिस्पर्धा, मुद्रा संकट, विदेशी निवेशकों का भरोसा डगमगाना और पारदर्शिता एवं स्वायत्तता में कमी शामिल हैं.

तुर्की को एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में रखने का फ़ैसला उस वक़्त आया है जब कोविड-19 महामारी की वजह से तुर्की की अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है. साथ ही तुर्की की अर्थव्यवस्था अर्दोआन सरकार की विदेश नीति की वजह से और भी ज़्यादा कमज़ोर हो रही है.

विस्तारवादी विदेशनीति के कारण निशाने पर आया तुर्की 

एफएटीएफ के ऐलान से कुछ घंटे पहले तुर्की के केंद्रीय बैंक ने ब्याज़ दरों में 200 बेसिस प्वाइंट की कटौती की. इसकी वजह से जिस वक़्त तुर्की एफएटीएफ की कार्रवाई के आर्थिक नतीजों को संभालने की कोशिश कर रहा था, उसी वक़्त तुर्की की मुद्रा लीरा और नीचे गिर गया. सितंबर 2021 में तुर्की के केंद्रीय बैंक द्वारा दरों में कटौती ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर तनाव बढ़ा दिया था और अक्टूबर में जिस वक़्त सरकार बढ़ती महंगाई से लड़ रही थी, उसी वक़्त दरों में कटौती की वजह से आर्थिक तनाव और भी ज़्यादा बढ़ गया. महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था में तेज़ी भी देखी गई है लेकिन नीति और राजनीति- दोनों दृष्टिकोण से ये तेज़ी अस्थिर होने की वजह से अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू निवेशक एक साथ डर गए हैं. तुर्की का केंद्रीय बैंक ख़ुद तुर्की की आर्थिक स्वायत्तता, ख़ास तौर पर बाज़ार के मामले में, और ज़रूरत से ज़्यादा हर चीज़ में दख़ल देने की अर्दोआन की आदत के बीच कशमकश के उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है. 2019 से तुर्की के केंद्रीय बैंक के तीन गवर्नर के साथ-साथ सांख्यिकीय संस्थान के चार प्रमुखों को भी बदला जा चुका है. तुर्की के मौजूदा केंद्रीय बैंक के प्रमुख सहाप कावसिओग्लू, जिन्होंने मार्च 2021 में काम संभाला, भी अब ख़बरों के मुताबिक़ राष्ट्रपति के ग़ुस्से का सामना कर रहे हैं. 

तुर्की द्वारा आर्थिक झटकों का सामना करने के बावजूद यकीनन एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट में रखे जाने की मुख्य वजह उसकी विदेश नीति है. अर्दोआन के सत्ता में आने के बाद तुर्की ख़ुद को वैश्विक इस्लामिक ताक़त और मध्य-पूर्व में एक क्षेत्रीय महाशक्ति के तौर पर ख़ुद का प्रचार करने के विस्तारवादी रास्ते पर निकल पड़ा है. इसे हासिल करने की कोशिश में तुर्की ने यथार्थवादी ढंग से क्षेत्रीय भूराजनीति को अच्छी तरह से संभालने के बदले कई संकट के मोर्चे खोल लिए हैं. मध्य-पूर्व में ख़ुद को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई)-सऊदी अरब के समानांतर रखने की कोशिश करते हुए, जिसके केंद्र में सुन्नी इस्लाम है, तुर्की ने अमेरिका के साथ भी अपने संबंध ख़राब कर लिए हैं. वो भी उस हालत में जब तुर्की नाटो का एक सहयोगी है. इसके अलावा सीरिया में संकट को लेकर रूस के साथ भी तुर्की ने तनाव का मोर्चा खोल लिया है. दूसरे भौगोलिक मोर्चों की बात करें तो भूमध्यसागर में हाइड्रोकार्बन तक पहुंच को लेकर ग्रीस और यूरोप के साथ भी तुर्की का टकराव है. ग्रीस और तुर्की 2020 के आख़िर में आमने-सामने आए क्योंकि हालात को नहीं बिगाड़ने की यूरोप की अपील के बावजूद अर्दोआन पूर्वी भूमध्यसागर में ड्रिलिंग जहाज़ भेजने पर अड़े रहे.

इसके अलावा जब बात दूसरे वैश्विक और क्षेत्रीय सामरिक तनाव की होती है तो तुर्की ख़ुद को बड़े खिलाड़ी के तौर पर रखता है और अक्सर वो कोई-न-कोई समस्या खड़ी करता है. बैरक्तर टीबी2 सशस्त्र ड्रोन सिस्टम की अपेक्षाकृत सफलता अर्दोआन के लिए तुर्की के रणनीतिक हितों को और ज़्यादा फैलाने में मददगार बन गई है. उदाहरण के लिए, 2020 में आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच नागोर्नो-काराबाख़ युद्ध के दौरान इस ड्रोन की महत्वपूर्ण रूप से चर्चा की गई. अज़रबैजान ने तुर्की के बैरक्तर टीबी2 ड्रोन का असरदायक इस्तेमाल किया. इसकी वजह से न सिर्फ़ ड्रोन और तुर्की के रक्षा उद्योग को वैश्विक प्रचार का मंच मिला बल्कि तुर्की की मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के अर्दोआन के नज़रिए को भी. इसकी वजह से तुर्की के राष्ट्रपति को अपनी राष्ट्रवादी जनता के बीच अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौक़ा मिला. ये राजनीतिक मंसूबा 2015 में उस वक़्त शुरू हुआ जब 10 साल में पहली बार सत्ताधारी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) ने राजनीतिक ताक़त गंवाई थी. इसके बाद अर्दोआन के नेतृत्व में गठबंधन आगे आया और ये 2016 में अर्दोआन के ख़िलाफ़ सैन्य विद्रोह की कोशिश की नाकामी के बाद और मज़बूत हुआ. इस घटना के बाद तुर्की के कई उदारवादी और लोकतांत्रिक संस्थान ध्वस्त हो गए और अर्दोआन कुर्द राष्ट्रवाद के साथ-साथ तुर्की और कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके), जिसे अमेरिका ने 1997 से आतंकी समूह घोषित कर रखा है, के बीच लंबे संघर्ष के मुद्दे पर सवार हो गए.

इसके अलावा जब बात दूसरे वैश्विक और क्षेत्रीय सामरिक तनाव की होती है तो तुर्की ख़ुद को बड़े खिलाड़ी के तौर पर रखता है और अक्सर वो कोई-न-कोई समस्या खड़ी करता है.

अर्दोआन की पुतीन बनने की चाहत.. 

वैसे तो आज की तारीख़ में तुर्की की विदेश नीति का संदेश लीबिया से लेकर कश्मीर तक दिखता है लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था में इस तरह की महत्वाकांक्षा को लंबे वक़्त तक पालने-पोसने की मज़बूती नहीं है. 2020 की बात करें तो तुर्की का रक्षा बजट सिर्फ़ 17 अरब डॉलर से कुछ ज़्यादा है जो 2019 के आवंटन के मुक़ाबले 5 प्रतिशत कम है. वैसे ये कमी बड़ी चुनौतियों को दिखाती है लेकिन कुल मिलाकर 2010 से 2020 के बीच रक्षा पर तुर्की के खर्च में 77 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. तुर्की ने अपनी महत्वाकांक्षा और लागत को कम करने की कोशिश की है. अब वो अपनी सेना की महंगी, व्यापक विदेशी तैनाती की जगह अक्सर “प्राइवेट सैन्य ठेकेदारों” के द्वारा अपने हितों की नुमाइंदगी करने की फिराक में रहता है. तुर्की ने ‘भाड़े के सैनिकों का मॉडल’ सीधे रूस से उठाया है जिसमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन माहिर हैं और जिनको ख़ुद भी रूस के सीमित आर्थिक संसाधनों, असीमित विदेश नीति से जुड़े हित, ऐतिहासिक तौर पर पश्चिमी देशों के साथ ज़बरदस्त वैचारिक लड़ाई और अक्सर रूस के ख़ज़ाने से ज़्यादा महत्वाकांक्षा का सामना करना पड़ता है.

आख़िर में, तुर्की किस तरह एफएटीएफ की पाबंदियों का जवाब देता है, पश्चिमी देशों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को किस तरह संभालता है और विश्व व्यवस्था में एक ज़िम्मेदार देश होने के नाते अपने अलग-अलग दायित्वों को निभाता है- ये वो कारण हैं जो तय करेंगे कि घर में आर्थिक और राजनीतिक तनाव को संभालते हुए भूराजनीति पर संघर्ष के एक साथ कई मुद्दों को बर्दाश्त कर पाने में अर्दोआन की कितनी दिलचस्पी है.

तुर्की ने ‘भाड़े के सैनिकों का मॉडल’ सीधे रूस से उठाया है जिसमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन माहिर हैं और जिनको ख़ुद भी रूस के सीमित आर्थिक संसाधनों, असीमित विदेश नीति से जुड़े हित, ऐतिहासिक तौर पर पश्चिमी देशों के साथ ज़बरदस्त वैचारिक लड़ाई और अक्सर रूस के ख़ज़ाने से ज़्यादा महत्वाकांक्षा का सामना करना पड़ता है.

अर्दोआन ‘नये ऑटोमन’ से ज़्यादा ‘नया पुतिन’ बनना चाहते हैं लेकिन ये देखा जाना बाक़ी है कि एक देश के रूप में तुर्की की आकांक्षा अर्दोआन की अपनी आकांक्षा और शक्ति, और कभी-कभी जुनून भी, से मेल खाती है या नहीं.

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