1.कम जोखिम वाले क्लाइमेट टेक को असमान और पक्षपातपूर्ण फंडिंग
हाल-फिलहाल में जलवायु एवं ऊर्जा परिवर्तन को लेकर चर्चा-परिचर्चाओं का दौर तेज़ होता जा रहा है. लेकिन सच्चाई यह है कि शुरुआत में ‘न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन’ की यह अवधारणा बेहद आसान दिखाई देती थी, लेकिन अब इसमें कई मुश्किलें दिखाई दे रही हैं. यह अवधारणा कहीं न कहीं सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को भी सामने लाती है. ये असमानताएं जलवायु परिवर्तन के बावज़ूद मौज़ूद हैं और सामाजिक-आर्थिक पक्षपात की वजह से और बढ़ जाती हैं, क्योंकि वर्तमान असमानता से भरा विकास मॉडल कमज़ोर वर्गों तक न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन सुनिश्चित नहीं कर पाता है. यह परेशानी उन क्षेत्रों में बढ़ जाती है, जो ऊर्जा प्रणाली के परिवर्तन से गुजर रहे हैं और नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ जाने की कोशिश कर रहे हैं.
वर्तमान दौर में सबसे बड़ी चुनौती विकास की प्राथमिकताओं के साथ बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की है. ऐसे में दो पहलुओं के बीच विभेद करना बेहद अहम हो जाता है. पहला, एनर्जी सिस्टम के स्तर पर इसे अच्छे से समझने की ज़रूरत है.
वर्तमान दौर में सबसे बड़ी चुनौती विकास की प्राथमिकताओं के साथ बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की है. ऐसे में दो पहलुओं के बीच विभेद करना बेहद अहम हो जाता है. पहला, एनर्जी सिस्टम के स्तर पर इसे अच्छे से समझने की ज़रूरत है. राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर ऊर्जा प्रणाली में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है, हालांकि इस प्रगति में देर ज़रूर हुई है, लेकिन यह प्रगति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. इसके अलावा जब बात क्षेत्रीय स्तर की आती है, तो प्रगति का यह ग्राफ धुंधला हो जाता है. विशेष रूप से भारत के ऐसे राज्यों और क्षेत्रों में यह प्रगति धुंधली हो जाती है, जहां कोयला बहुतायत में पाया जाता है. यह परिवर्तन छोटी अवधि में और लंबी अवधि, दोनों में समृद्धि लाता है या नहीं, यह गहन चर्चा का मुद्दा हो सकता है. सवाल यह भी है कि ऊर्जा के भविष्य के लिए स्थानीय स्तर पर अर्थव्यवस्थाओं को तैयार करते वक़्त हम इन ऐतिहासिक असमानताओं को दूर करने के लिए किस प्रकार काम करते हैं? यह परिवर्तन भारत जैसे देश के लिए ‘न्यायसंगत’ है, जिसे 1.4 बिलियन से अधिक लोगों के लिए हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन करने के दौरान सभी के लिए समान रूप से ऊर्जा सुनिश्चित करनी होगी, हम इसे किस प्रकार से सुनिश्चित कर सकते हैं? ज़ाहिर है कि इसका जवाब इनोवेशन में ही है और इस क्षेत्र में जितना अधिक नवाचार होगा, उतनी ज़ल्दी इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि सिर्फ टेक्नोलॉजी के ज़रिए ही इसका समाधान हासिल नहीं किया जा सकता है. ये नवाचार न केवल जलवायु परिवर्तन की वजह से पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए अहम हैं, बल्कि ऐसे विकल्पों को विकसित करने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, जो क्लाइमेट चेंज के नतीज़ों से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले वंचित समुदायों का बचाव कर सकते हैं और उनकी स्थिति में सुधार कर सकते हैं.
कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि साइंस एवं टेक्नोलॉजी पर आधारित इनोवेशन अपनी भूमिका को बेहतर तरीक़े से निभा पाएं, इसके लिए सभी को एकजुट होकर प्रयास करने की ज़रूरत है. ज़ाहिर है कि भारत की बात करें तो इसके लिए अलग-अलग सेक्टरों के ज़्यादातर घटक, जो बेहद महत्वपूर्ण है, वे या तो नदारद हैं या फिर उन्हें इससे कुछ लेनादेना नहीं है.
विडंबना यह है कि कोई मानदंड या बेंचमार्क नहीं होना नए-नए समाधान एवं बिजनेस मॉडल्स प्रस्तुत करने वाले स्टार्टअप्स के समक्ष सबसे बड़ी रुकावटों में से एक है. कोई मानदंड स्थापित नहीं होने से कहीं न कहीं कुछ नया सोचने और कुछ नया करने वाले लोग हतोत्साहित होते हैं और आगे चलकर यह ऐसे इनोवेटिव समाधानों के व्यवसायीकरण को भी प्रभावित करता है. ऐसा नहीं है कि मार्केट में जो भी नए स्टार्टअप्स या टेक्नोलॉजी आती हैं, वो सभी सफल होती हैं. सच्चाई यह है कि इनमें से भी जो सेवाओं या प्लेटफॉर्म पर आधारित स्टार्टअप्स होते हैं, उन्हें हाथों-हाथ लिया जाता है, जबकि जो प्रोडक्ट्स पर आधारित होते हैं, वे कम सफल होते हैं. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इनोवेटिव स्टार्टअप्स सेक्टर में शुरूआती निवेश करने वाले कोई जोख़िम नहीं उठाना चाहते हैं, साथ ही वे ज़ल्द से ज़ल्द पैसा कमाना चाहते हैं. इस वजह से इस सेक्टर में उतरने से लोग कतराते हैं, या फिर सधे हुए क़दमों के साथ आगे बढ़ते हैं. इसी सोच और परिस्थितियों की वजह से इलेक्ट्रिक व्हीकल (EVs) जैसे सेक्टर, जिनमें तेज़ वृद्धि और अधिक व सुनिश्चित रिटर्न की संभावना है, निवेशकों के लिए पहली पसंद बन जाते हैं.
देखा जाए तो क्लाइमेट सेक्टर ने निवेशकों को आकर्षित किया है, हालांकि इसकी बारीक़ी से पड़ताल करने पर इसकी वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है. इसके लिए MSMEs (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) जैसे मार्केट का ही उदाहरण लेते हैं. MSMEs को समग्रता से देखा जाए, तो इनमें 99 प्रतिशत से अधिक सूक्ष्म उद्यम शामिल हैं, जो भारत के इंडस्ट्रियल सेक्टर द्वारा कुल उपभोग की जाने वाली ऊर्जा के लगभग 48 प्रतिशत हिस्से की खपत करते हैं. जब नवाचार और फंडिंग की बात आती है तो सूक्ष्म उद्यम की शिकायत यही रहती है कि उन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है. इनमें से डीप-टेक, हाई-रिस्क और लंबे वक़्त तक चलने वाले सेक्टरों, जैसे कि एनर्जी स्टोरेज और वैकल्पिक सामग्रियों जैसे क्षेत्र काफ़ी हद तक सरकारी अनुदान पर निर्भर हैं और सरकारी ग्रांट्स समाप्त होने पर उनके आर्थिक दुश्वारियां में फंसने का ख़तरा है. पिछड़े क्षेत्रों में कार्य करने वाले इनोवेटिव स्टार्टअप्स की भी यही हालत है. उदाहरण के लिए भारत के 85 प्रतिशत छोटे किसान की बेहतरी के लिए काम करने वाले स्टार्टअप्स के सामने भी इसी तरह की दिक़्क़तें आती हैं. ऐसे स्टार्टअप्स को अक्सर “क्रमिक नवाचार” या “सोशल इनोवेशन” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है और आम तौर पर फंडिंग के लिहाज़ से इन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, फिर चाहे वो कल्याणकारी संगठनों से मिलने वाला फंड हो, या फिर संस्थागत ऋण की बात हो.
2.सामाजिक समानता के लिए सोशल अल्फा की विस्तारित निवेश प्लेबुक
सात साल पहले जब हमने सोशल अल्फा शुरू किया था, तो इसका एक लक्ष्य लाभ और हानि के लिए शुरू किए जाने वाले स्टार्टअप्स के अंतर को समाप्त करना था, इसके साथ ही ऐसे स्टार्टअप्स की फंडिंग की समस्या को हल करना था, जो ऐतिहासिक रूप से कुछ अनसुलझी चुनौतियों का समाधान तलाशने के लिए कार्य कर रहे हैं. इसके अलावा सोशल अल्फा का लक्ष्य यह भी था कि स्टार्टअप्स को फंड का आवंटन सिर्फ़ पूंजी की सुलभता पर निर्भर नहीं होना चाहिए, बल्कि उनकी वास्तविक ज़रूरत, योग्यता, व्यवहार्यता और उनकी अपने सेक्टर में प्रभाव डालने की क्षमता पर भी आधारित होना चाहिए. सोशल अल्फा की स्थापना एक गैर-लाभकारी संस्था के रूप में की गई है. सोशल अल्फा शुरुआती फेज वाले स्टार्टअप्स यानी जिन्हें पहली बार फंडिंग की जाती है, को उनकी आवश्यकताओं का मूल्यांकन, प्रभाव क्षमता एवं उनके पूरे बिजनेस प्लान की समीक्षा के बाद डाइल्यूटिव कैपिटल यानी ऐसा फंड जो आपको अपनी फर्म का स्वामित्व छोड़ने के लिए मज़बूर करता है और नॉन-डाइल्यूटिव कैपिटल यानी ऐसा फंड जिसके लिए प्राप्तकर्ता को अपनी कंपनी में इक्विटी छोड़ने की ज़रूत नहीं होती है, दोनों ही तरह की पूंजी उपलब्ध कराता है.
सोशल अल्फा की क्लाइमेट स्ट्रैटेजी का लक्ष्य नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने पर केंद्रित है. साथ ही इसका लक्ष्य वर्ष 2025 तक 100 से अधिक ऐसे स्टार्टअप्स की सहायता करना है, जिनकी क्षमता 1 गीगाटन से अधिक कार्बन उत्सर्जन कम करने की है.
इस बात को ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है कि एक विकसित होते बाज़ार के वातावरण में काम करने वाले शुरुआती फेज वाले क्लाइमेट स्टार्टअप्स के जो भविष्य के नकदी प्रवाह से जुड़े अनुमान होते हैं, वे व्यावहारिक रूप से सीमित दिखाई देते हैं. यही वजह है कि बहुवर्षीय प्लानिंग के लिए उद्देश्यपूर्ण और लचीला नज़रिया अपनाना बेहद अहम है. निवेशकों और स्टार्टअप्स के बीच की इस खाई को भरने के लिए, मुख्यधारा की निवेश योजना से आगे बढ़ने और पहले से उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल करके क्या-क्या हो सकता है, इसके बारे में अनुमान लगाने पर अत्यधिक निर्भर रहने के बजाए, जो कि अलगाव की प्रमुख वजह बनता है, नए और अनजान स्टार्टअप्स के लिए अवसर मुहैया कराना सबसे अधिक ज़रूरी है. निवेशक के तौर पर हमने एक और बदलाव को अपनाया और व्यापक स्तर पर इसकी सिफ़ारिश भी की है, यह बदलाव यह है कि लक्ष्य को निर्धारित करते समय और निर्णायक या अंतिम दस्तावेज़ों की शर्तों को अंतिम रूप देते समय, सिर्फ व्यावसायिक लक्ष्यों एवं नतीज़ों के बारे में ही नहीं सोचना है, बल्कि इससे आगे भी अपने दायरे का विस्तार करना है. समावेशी विकास एजेंडे में प्रभाव, वर्कफोर्स का समावेशन और कंपनी की प्रकृति शामिल हैं, यानी आंकड़ों से जो कुछ समझ में आता है, इसमें संभावनाएं उससे कहीं ज़्यादा हैं.
सोशल अल्फा की क्लाइमेट स्ट्रैटेजी का लक्ष्य नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने पर केंद्रित है. साथ ही इसका लक्ष्य वर्ष 2025 तक 100 से अधिक ऐसे स्टार्टअप्स की सहायता करना है, जिनकी क्षमता 1 गीगाटन से अधिक कार्बन उत्सर्जन कम करने की है. सोशल अल्फा की रणनीति में ऐसे क्षेत्रों में कार्य करने वाले स्टार्टअप्स की मदद करने का भी लक्ष्य है, जिन पर कोई ध्यान नहीं देता है. ऐसा ही एक क्षेत्र जलवायु लचीलापन है. इस संस्था की रणनीति 35 प्रतिशत ऐसे इनोवेशन्स की सहायता करने की है, जो सबसे कमज़ोर और प्रभावित समुदायों के लोगों की जलवायु लचीलापन और उसके मुताबिक़ ज़रूरी क्षमताओं में इज़ाफ़ा करने में प्रत्यक्ष योगदान देने वाले हों. सोशल अल्फा का यह विस्तृत जलवायु एजेंडा दो महत्वपूर्ण मार्गों पर आगे बढ़ता है. पहला, यह अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन वाले सेक्टरों एवं वंचित और हाशिए पर पड़े समूहों को प्राथमिकता देने पर ज़ोर देता है. दूसरा, यह एजेंडा सभी की बुनियादी ज़रूरतों तक पहुंच अर्थात सभी की ऊर्जा, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण जीवन तक पहुंच एवं खाद्य सुरक्षा, आजीविका सुरक्षा और रोज़गार सुरक्षा सुनिश्चित करने पर बल देता है. साथ ही यह उन लोगों को ख़तरों के चपेट में आने से बचाने के महत्व को महसूस करता है, जिन्हें ऊर्जा परिवर्तन का सबसे अधिक नुक़सान झेलना पड़ता है. ऐसे जो भी नवाचार समाधान होते हैं, लैब में उनके विकास से लेकर, उन्हें मार्केट में उतारने और समुदायों के साथ समन्वय के दौरान हर स्तर पर लगातार सहयोग करने की ज़रूरत होती है. जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में सोशल अल्फा द्वारा जो भी कार्य किया जा रहा है, उसमें विभिन्न R&D लैब्स, अलग-अलग विषय से जुड़े इनक्यूबेटर, उपक्रमों को बढ़ावा देना, मिलीजुली पूंजी का पूल और इन्हें लागू करने के तौर-तरीक़े शामिल हैं. सोशल अल्फा का यह बहुआयामी नज़रिया न सिर्फ़ नवाचार के जोख़िमों को कम करने का प्रयास करता है, बल्कि मांग को बढ़ाने एवं स्टार्टअप्स को मार्केट में स्थापित होने में मदद करने का भी प्रयास करता है.
वर्तमान में इस चुनौती से निपटने के लिए इकोसिस्टम के सभी हितधारकों और किरदारों को न केवल क़रीब आना होगा, बल्कि एकसाथ मिलकल आगे बढ़ना होगा और ऐसा करके स्टार्टअप्स को एक चरण से दूसरे चरण तक पहुंचने के लिए सहयोग करना होगा.
3.निष्कर्ष – भविष्य के नवाचारों पर बल देना (वास्तव में इसकी जरूरत पहले थी)
जलवायु परिवर्तन की वजह से जो भी चुनौतियां और दिक़्क़तें सामने आती हैं, उनका समाधान तलाशने के लिए साइंस और टेक्नोलॉजी पर आधारित इनोवेशन्स अनिवार्य हैं. इन नवाचारों की यह ज़रूरत सिर्फ़ नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज के सबसे कमज़ोर और वंचित वर्गों के हितों की रक्षा के लिए भी यह बेहद आवश्यक हैं. ज़ाहिर है कि समाज का यह कमज़ोर वर्ग जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सबसे अधिक नुक़सान झेलता है, जबकि सच्चाई यह होती है कि इन दुष्प्रभावों को पैदा करने में इन समुदायों की कोई भूमिका नहीं होती है. इसलिए, वर्तमान में इस चुनौती से निपटने के लिए इकोसिस्टम के सभी हितधारकों और किरदारों को न केवल क़रीब आना होगा, बल्कि एकसाथ मिलकल आगे बढ़ना होगा और ऐसा करके स्टार्टअप्स को एक चरण से दूसरे चरण तक पहुंचने के लिए सहयोग करना होगा. इतना ही नहीं जिन नवाचारों को भविष्य के लिए विकसित किया जा रहा है, जबकि वास्तविकता में ऐसे नवाचारों को विकसित किए जाने की ज़रूरत पहले थी, उन्हें भी बढ़ती हुई आबादी की आवश्यकताओं के बारे में फिर से एक बार सोचना होगा और उसी के मुताबिक़ समाधान तलाशना होगा. ज़ाहिर है कि इस गंभीर वैश्विक मुद्दे के समक्ष एक अधिक न्यायसंगत और टिकाऊ भविष्य का निर्माण करना भी शामिल है.
स्मिता राकेश Social Alpha में वाइस प्रेसिडेंट एवं पार्टनर हैं.
Social Alpha फाउंडेशन फॉर इनोवेशन एंड सोशल एंटरप्रेन्योरशिप (FISE) नाम के एक गैर-लाभकारी प्लेटफॉर्म इर्दगिर्द कार्य करता है. यह टेक्नोलॉजी एंड बिजनेस इनक्यूबेशन इंफ्रास्ट्रक्चर के एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क के माध्यम से संचालित होता है. इसे टाटा ट्रस्ट, भारत सरकार और तमाम शैक्षणिक, कल्याणकारी संगठनों एवं कॉर्पोरेट्स की ओर से प्रायोजित किया जाता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.