Published on Jul 31, 2019 Updated 0 Hours ago

यह बात ठीक है कि बैंकों का 50 साल पहले राष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए था, फिर मौजूदा सरकार इस समस्या को खत्म क्यों नहीं कर रही है?

50 साल बाद भी देश चुका रहा है बैंकों के राष्ट्रीयकरण की गलती

देश 50 साल पहले बायीं दिशा में एक गलत रास्ते पर बढ़ चला था और आज तक वह सही रास्ते पर नहीं लौट पाया है. 19 जुलाई 1969 को सरकार ने बैंकिंग सिस्टम पर कब्ज़ा कर लिया था. उस रोज़ 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया, जिनके पास देश के कुल बैंक डिपॉजिट का 85 प्रतिशत हिस्सा था. आज उदारीकरण के 25 साल बाद भी 70 प्रतिशत बैंकिंग क्षेत्र पर सरकारी बैंकों का कब्ज़ा है. इसका नतीजा यह हुआ कि कर्ज़ बांटने की रफ्तार सुस्त है, निजी क्षेत्र की ग्रोथ रुक गई है और देश समय-समय पर बैंकिंग संकट में फंसता रहता है और बैंकों को टैक्स चुकाने वालों के पैसे से बचाना पड़ता है.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण की अक्सर यह कहानी सुनाई जाती है. कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लगा कि बैंक सिर्फ क्रोनी कैपिटलिस्टों के हित पूरे कर रहे हैं. वह उनसे किसानों को कर्ज़ दिलाना चाहती थीं. इंदिरा को लगा कि बैंक दूरदराज के इलाकों में तभी शाखाएं खोलेंगे, जब उन पर सरकार का नियंत्रण होगा और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह सच नहीं है. असल में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंदर इंदिरा और दूसरे नेताओं के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा था, जिसका नतीजा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के रूप में सामने आया. इसका अर्थशास्त्र से कोई लेना-देना नहीं था. भारत के नीति निर्माताओं ने अर्द्ध-समाजवादी अर्थव्यवस्था बनाई थी, जिसका 1947 में देश की आज़ादी के बाद के शुरुआती 15 वर्षों में ठीक-ठाक फायदा हुआ था. देश की आर्थिक विकास दर बढ़ी और लोगों के जीवनस्तर में सुधार हुआ. हालांकि, 1960 के दशक के युद्ध और सूखे के दौर में यह मॉडल फेल हो गया, जिसके बाद कांग्रेस पार्टी के अंदर विरोधियों ने इसे बदलने की मांग की.

असल में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंदर इंदिरा और दूसरे नेताओं के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा था, जिसका नतीजा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के रूप में सामने आया. इसका अर्थशास्त्र से कोई लेना-देना नहीं था.

इंदिरा का कमाल यह था कि उन्होंने एक राजनीतिक साज़िश को विचारधारा की लड़ाई में बदल दिया. वह अपने वित्तमंत्री सहित विरोधियों को अलग-थलग करना और उन्हें सरकार से बाहर निकालना चाहती थीं. इसलिए उन्होंने उन्हें यह कहने पर मजबूर किया कि पब्लिक सेक्टर अक्षम है और इसे ख़त्म कर देना चाहिए. इसके बाद वह उनके विरोध में खुद ही खड़ी हो गईं और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इसके बाद विरोधियों के पास सरकार छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. इसलिए बैंकों का सरकारीकरण पार्टी की अंदरूनी राजनीति का नतीजा है, इसका गरीबी मिटाने से लेना-देना नहीं था.

कुछ लोग अभी भी यह दावा करते हैं कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण जिस मकसद से किया गया था, वह हासिल हुआ. बैंकों को शहरों में खोले जानी वाली हर एक ब्रांच के बदले ग्रामीण क्षेत्रों में चार शाखाएं खोलने का निर्देश दिया गया. इस वर्ग का कहना है कि इससे कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले कर्ज़ में बढ़ोतरी हुई क्योंकि बैंकों से कहा गया था कि उन्हें 18 पर्सेंट कर्ज़ खेती और उससे जुड़े कामकाज के लिए देना होगा. लेकिन क्या इससे एग्रीकल्चर इकोनॉमी को फायदा हुआ? हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के अर्थशास्त्री शॉन कोल ने पता लगाया कि ‘बैंकों के राष्ट्रीयकरण से वित्तीय विकास में तेजी आई. इससे कृषि क्षेत्र को अप्रत्याशित कर्ज़ मिला, लेकिन इसके लिए कर्ज़ देने की शर्तों से समझौता किया गया. इसके अलावा, कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले कर्ज़ में दोगुनी बढ़ोतरी के बावजूद निवेश में ख़ास बढ़ोतरी नहीं हुई. यहां तक कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद शुरू में कृषि कर्ज़ में जो बढ़ोतरी हुई थी, वह भी टिकाऊ साबित नहीं हुई.’ दूसरी तरफ, औद्योगिक क्षेत्र पर इसका बुरा असर साफ दिख रहा था. राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक जोखिम से बचने लगे और शायद ही वे कभी नई कंपनियों को कर्ज देते थे. हाल यह था कि मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को कभी जरूरत के मुताबिक फंड नहीं मिल पाता था. बैंक अधिकारियों ने अब मुनाफ़े में चलने वाली कंपनियों की तलाश बंद कर दी थी. उन्हें ऐसी कंपनियों के मूल्यांकन में सिर खपाने की जरूरत नहीं दिख रही थी. इसके बजाय, चाहे जिस भी वजह से, उन्होंने राजनीतिक आकाओं की चुनी हुई कंपनियों को कर्ज़ देना शुरू कर दिया.

बैंक अधिकारियों ने अब मुनाफ़े में चलने वाली कंपनियों की तलाश बंद कर दी थी. उन्हें ऐसी कंपनियों के मूल्यांकन में सिर खपाने की जरूरत नहीं दिख रही थी. इसके बजाय, चाहे जिस भी वजह से, उन्होंने राजनीतिक आकाओं की चुनी हुई कंपनियों को कर्ज़ देना शुरू कर दिया.

इसका अंजाम समय-समय पर डूबे हुए कर्ज़ (बैड लोन) के रूप में सामने आता रहा और बैंकों को टैक्स चुकाने वालों की मदद की जरूरत पड़ती रही. यह किस्सा आज तक चल रहा है. इस साल 5 जुलाई के बजट में भी पब्लिक सेक्टर के बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपये देने की घोषणा हुई. 2017 के बाद से इन बैंकों के 2.7 लाख करोड़ रुपये दिए जा चुके हैं. इसके बावजूद बैंक डूबे हुए कर्ज़ से त्रस्त हैं और लोन बांटने से कतरा रहे हैं.

हममें से कई ने उम्मीद की थी कि नए और सक्षम निजी बैंकों के उभरने से पुराने सरकारी बैंक धीरे-धीरे कमजोर होते जाएंगे और आखिर में पूँजी की कमी के कारण उनका अस्तित्व मिट जाएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं होने दे रहे. दिलचस्प बात यह है कि अक्सर उनकी तुलना अक्सर इंदिरा गांधी से की जाती है.

एक प्रधानमंत्री की गरीबी मिटाओ मुहिम में सरकारी बैंक फिर से केंद्रीय भूमिका में आ गए हैं. मोदी सरकार में सरकारी बैंकों पर बेहद छोटे उद्यमियों को कर्ज़ बांटने को मजबूर किया जा रहा है, वह भी बेहद मामूली ज़मानत (कर्ज के लिए गिरवी रखने जाने वाली संपत्ति) के साथ. रेटिंग एजेंसियों का अनुमान है कि इनमें से 10 से 15 पर्सेंट कर्ज कुछ ही साल में डूब गए हैं. सरकार ग़रीबों के लिए बड़ी संख्या में खोले गए जीरो बैलेंस वाले बैंक खातों को उपलब्धि मानती है. वह इनका इस्तेमाल कल्याणकारी योजनाओं के भुगतान के लिए करना चाहती है. सरकारी आदेश से इन लोगों के लिए बीमा योजनाएं भी शुरू की गई हैं. बैंक अधिकारियों का कहना है कि इससे जितना पैसा उनके पास आएगा, उससे कहीं अधिक उन्हें देना पड़ेगा. इस बीच, सरकारी बैंकों की तरफ से कंपनियों को कम कर्ज़ मिल रहा है. इसलिए, निजी बैंकों पर इसका जिम्मा बढ़ गया है यानी पिछले 50 साल में इस मामले में कुछ भी नहीं बदला है. बैंकिंग क्षेत्र का काम ग्रोथ और निवेश को बढ़ावा देना होता है, लेकिन पब्लिक सेक्टर बैंक अक्षम बने हुए हैं और उनमें पैसों की बर्बादी हो रही है. अफ़सोस की बात यह है कि ये बैंक आज भी एक लोकलुभावन प्रधानमंत्री के राजनीतिक हितों को पूरा करने में जुटे हैं.


यह लेख मूल रूप से Bloomberg मे प्रकाशित हो चुका है.

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