Author : Andreas Kuehn

Published on Oct 20, 2021 Updated 0 Hours ago

विकासशील देश अपने आर्थिक विकास के लिए साइबर अंतरिक्ष का फ़ायदा उठाने को लेकर उत्सुक हैं. यही वजह है कि डिजिटल क्षेत्र में सुरक्षा और स्थायित्व को लेकर उनकी काफ़ी दिलचस्पी है

समान रूप से बंटे तकनीकी भविष्य की राह में, ‘विकासशील देशों की ज़रूरत’ को सबसे आगे रखा जाना चाहिए!

दूरियों को ख़त्म करना: डिजिटल तरक़्क़ी का वादा

डिजिटल बदलाव को टिकाऊ विकास के लिए क्रांतिकारी बताया गया है, निम्न और मध्यम आमदनी वाली अर्थव्यवस्थाओं में जीवन स्तर सुधारने और जूझती सरकारों को ऊपर बढ़ाने के लिए रामबाण कहा गया है. कोविड-19 महामारी के बीच बढ़ती असमानता और दुनिया के अलग-अलग देशों की असमान आर्थिक बहाली सिर्फ़ और सिर्फ़ इस मामले का महत्व और आवश्यकता बताती है. डिजिटल तकनीक ने विकसित देशों को कम्युनिकेशन और बैंकिंग सॉल्यूशन को लागू करने की इजाज़त दी है. कुछ मामले तो ऐसे भी हैं जहां तकनीक में काफ़ी उछाल आया है और उनके लिए काफ़ी मात्रा में परंपरागत आधारभूत ढांचे के निवेश की ज़रूरत पड़ती. मोबाइल फ़ोन और बायोमीट्रिक आईडी ने भारत के करोड़ों लोगोंf तक सरकारी और बैंकिंग सेवाएं पहुंचाई हैं जबकि मोबाइल ब्रॉडबैंड अफ्रीका के लाखों लोगों के लिए इंटरनेट तक पहुंचने का एकमात्र ज़रिया बन गया है. अफ्रीका में मोबाइल इंटरनेट की पहुंच में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी से प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में 2.5 प्रतिशत ज़्यादा बढ़ोतरी का नतीजा मिलने की उम्मीद है.

डिजिटल तकनीक ने विकसित देशों को कम्युनिकेशन और बैंकिंग सॉल्यूशन को लागू करने की इजाज़त दी है. कुछ मामले तो ऐसे भी हैं जहां तकनीक में काफ़ी उछाल आया है और उनके लिए काफ़ी मात्रा में परंपरागत आधारभूत ढांचे के निवेश की ज़रूरत पड़ती.

पूरे मानव जाति के इतिहास के दौरान तकनीकी प्रगति ने आर्थिक समृद्धि में योगदान दिया है. 11.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था का वैश्विक जीडीपी में 15.5 प्रतिशत हिस्सा है और नई सहस्राब्दि की शुरुआत से दुनिया की जीडीपी के मुक़ाबले दोगुने से ज़्यादा रफ़्तार से बढ़ी है. 2006-1018 के बीच अमेरिका की डिजिटल अर्थव्यवस्था का विकास दर 6.8 प्रतिशत सालाना रहा जिसने इसी अवधि के दौरान अमेरिका के कुल जीडीपी विकास दर 1.7 प्रतिशत को काफ़ी पीछे छोड़ दिया. वैसे तो विकसित अर्थव्यवस्थाओं की जीडीपी में डिजिटल अर्थव्यवस्था का योगदान काफ़ी ज़्यादा है लेकिन अनुमानों के मुताबिक़ विकासशील देश– विभिन्न क्षेत्रों में काफ़ी अंतर के साथ- अगले कुछ वर्षों में तेज़ रफ़्तार से डिजिटल विकास की राह पर चलेंगे. मगर डिजिटल तकनीक का फ़ायदा उठाने के लिए क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण निवेश की ज़रूरत है. लेकिन कई विकासशील देशों में इस तरह के निवेश का सीधा मुक़ाबला ज़्यादा ज़रूरी और तत्काल नीतिगत एजेंडे के मुद्दों के साथ है. 

डिजिटल अर्थव्यवस्था का पूरी दुनिया में समान वितरण नहीं है. इस मामले में अमेरिका और चीन का दबदबा है जबकि जापान, फ्रांस, कनाडा, भारत और ताइवान इसके दूसरे बड़े केंद्र हैं. विकासशील देश मुख्य तौर पर उत्पाद और सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले हैं और उन उत्पादों और सेवाओं पर उन कंपनियों का कब्ज़ा है जो कहीं और मुनाफ़ा कमा रही हैं. अकेले फेसबुक के भारत, ब्राज़ील, इंडोनेशिया, मेक्सिको, फिलीपींस, वियतनाम और थाईलैंड में 79 करोड़ सक्रिय यूज़र हैं. वैश्विक तकनीकी कंपनियां डिजिटल बदलाव की मुहिम चला रही हैं लेकिन इसके बावजूद विकासशील देशों में नये उपनिवेशवाद, डिजिटल निगरानी और डाटा के दुरुपयोग को लेकर डर बढ़ रहा है. विकासशील देशों में लाखों नये यूज़र को अभी तक ये नहीं पता है कि डिजिटल प्लैटफॉर्म उनके सांस्कृतिक मूल्यों और बौद्धिक आकांक्षाओं की ज़रूरत पूरी कर रहे हैं या नहीं. 

वैश्विक तकनीकी कंपनियां डिजिटल बदलाव की मुहिम चला रही हैं लेकिन इसके बावजूद विकासशील देशों में नये उपनिवेशवाद, डिजिटल निगरानी और डाटा के दुरुपयोग को लेकर डर बढ़ रहा है.

वैश्विक नियम निर्माण में ज़्यादा खुलेपन की तरफ़ 

विकासशील देशों के लिए बुनियादी बात है कि अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल गवर्नेंस के स्वरूप में उनकी ज़रूरतों और प्राथमिकताओं का ध्यान रखने को सुनिश्चित किया जाए क्योंकि ऐसी संरचनाएं तय करेंगी कि साइबर अंतरिक्ष से कम आमदनी वाले देश किस हद तक फ़ायदा उठा सकते हैं और ऐसी संरचनाएं डिजिटल बंटवारे को भी ख़त्म करेंगी. सूचना और संचार तकनीक (आईसीटी) की सुरक्षा और साइबर अंतरिक्ष के स्थायित्व को लेकर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) दो दशकों से ज़्यादा समय से चर्चा कर रहा है. इस चर्चा के दौरान अक्सर अमेरिका, रूस और चीन के प्रतिस्पर्धी रवैया का दबदबा रहता है. लेकिन पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के साइबर नियमों की प्रक्रिया ध्वस्त होने से नये, ज़्यादा समावेशी तौर-तरीक़ों का रास्ता तैयार हुआ है. इसने डिजिटल तौर पर कम विकासशील देशों को साइबर अंतरिक्ष में ज़्यादा सक्रिय होकर नियम तैयार करने का अधिकार दिया. अब बंद हो चुके ग्रुप ऑफ गवर्नमेंटल एक्सपर्ट्स (जीजीई) में विकासशील देशों के नाममात्र के प्रतिनिधित्व को 2018 में न सिर्फ़ ख़ुद जीजीई ने दुरुस्त किया बल्कि ज़्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि नये तरह के ओपन-एंडेड वर्किंग ग्रुप (ओईडब्ल्यूजी) ने सभी दिलचस्पी रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों तक भागीदारी का विस्तार किया और कई हिस्सेदारों के बीच परामर्श का समर्थन किया. दो प्रक्रियाओं को लेकर समन्वय की ज़रूरत पर शुरुआती आलोचना कम हो गई क्योंकि हर ग्रुप ने सर्वसम्मति के आधार पर अंतिम रिपोर्ट को अपनाया. 

नियमों, मानकों और सिद्धांतों को व्यावहारिक तौर पर लागू करने के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा मंच विकासशील देशों की ज़रूरत का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. क्षमता निर्माण और भरोसा बहाली के उपायों में सांस्कृतिक और राजनीतिक विशेषता ज़रूर दिखनी चाहिए जिनका सबसे अच्छा समाधान क्षेत्रीय स्तर पर होता है. 2014 में साइबर सुरक्षा और व्यक्तिगत डाटा संरक्षण पर अफ्रीकी संघ के सम्मेलन को स्वीकार करना, 2016 में आसियान साइबर क्षमता कार्यक्रम की शुरुआत और 2018 में ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ अमेरिकन स्टेट्स के लिए भरोसा निर्माण के उपायों पर समझौता विकासशील देशों के द्वारा अपने-अपने डिजिटल विकास को मजबूत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप को आकार देने और सामंजस्य स्थापित करने में क्रियान्वयन की कोशिशों के उदाहरण हैं.

पश्चिमी देशों को डर है कि निरंकुश शासन वाले देश मानवाधिकार की क़ीमत पर सख़्त नियंत्रण वाले इंटरनेट को आगे बढ़ाएंगे. विकासशील देशों में से कई देश डिजिटल तकनीक के मामले में आर्थिक, सुरक्षा और राजनीतिक सत्ता संघर्ष के बीच में फंसे हुए हैं. 

टिकाऊ डिजिटल क्षमता निर्माण के समर्थन के लिए क़दम

प्रतिस्पर्धी सुरक्षा प्राथमिकता, संसाधनों की कमी और अधूरे घरेलू क़ानूनी संस्थान उन महत्वपूर्ण बाधाओं में से कुछ हैं जिनका सामना विकासशील देशों को करना पड़ रहा है. बढ़ता भू-राजनीतिक तनाव साइबर नियमों, मानकों और सिद्धांतों को लागू करना लगातार मुश्किल राजनीतिक मामला बना रहा है. जैसे-जैसे अपनी डिजिटल पहुंच को सुरक्षित करने और डिजिटल सिल्क रोड पहल का विस्तार करने में चीन तेज़ी से आगे बढ़ा है वैसे-वैसे अमेरिका ने इन महत्वाकांक्षाओं को पीछे धकेला है और साफ़ तौर से अपने सहयोगियों और साझेदारों को “सही पसंद” का चुनाव करने को कहा है. पश्चिमी देशों को डर है कि निरंकुश शासन वाले देश मानवाधिकार की क़ीमत पर सख़्त नियंत्रण वाले इंटरनेट को आगे बढ़ाएंगे. विकासशील देशों में से कई देश डिजिटल तकनीक के मामले में आर्थिक, सुरक्षा और राजनीतिक सत्ता संघर्ष के बीच में फंसे हुए हैं. उन देशों को एक पक्ष को चुनने के लिए मजबूर करने से सर्वश्रेष्ठ फ़ैसला लेने और अपनी भलाई के लिए भविष्य की तकनीकों के रास्ते को स्वरूप देने की उनकी क्षमता कम होने की आशंका है. 

ओईडब्ल्यूजी की अंतिम रिपोर्ट में क्षमता निर्माण के समर्थन के लिए सिद्धांत को रूप-रेखा दी गई है. टिकाऊ, मांग पर आधारित और विशेष ज़रूरत के मुताबिक़ गतिविधियां होनी चाहिए लेकिन मानवाधिकार को भी सम्मान देना चाहिए और एक खुले, सुरक्षित और शांतिपूर्ण साइबर अंतरिक्ष का समर्थन करना चाहिए. 

  • ये मददगार होगा अगर पाने वाला देश अगुवाई करे और सहायता लेकर राष्ट्रीय साइबर रणनीति का विकास करे, डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करे और कौशल के अंतर को ख़त्म करे. ये कोई नई जानकारी नहीं है लेकिन डिजिटल तकनीक का निर्माण करने और उनका फ़ायदा उठाने के लिए ये बुनियादी बातें हैं. 
  • देने वाले देशों को मज़बूत गठबंधन बनाना चाहिए ताकि विकासशील देशों की ज़रूरत के मुताबिक़ गतिविधियों और संसाधनों का समन्वय हो सके और बेकार की कोशिशों को कम किया जा सके. 
  • एक से ज़्यादा हिस्सेदारों और विशेषज्ञ प्लैटफॉर्म जैसे ग्लोबल फोरम ऑन साइबर एक्सपर्टीज़ को विशिष्ट प्राथमिकताओं जैसे राष्ट्रीय कंप्यूटर इमरजेंसी रेस्पॉन्स टीम (सीईआरटी) जैसे संगठनों की स्थापना और प्रशिक्षण की जानकारी से जुड़े संसाधन और विशेषज्ञता प्रदान करनी चाहिए
  • सिविल सोसायटी संगठन ज़्यादा व्यापक तौर पर क्षेत्रीय नेटवर्क को मज़बूत कर सकते हैं और लक्ष्य आधारित पहल के ज़रिए साइबर कूटनीति की क्षमता विकसित करने में मदद कर सकते हैं. 
  • प्राइवेट सेक्टर पहले से ही वैश्विक स्तर पर डिजिटल तकनीक के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है लेकिन उसे कहा जाना चाहिए कि वो ये काम निष्पक्ष, टिकाऊ तरीक़े से करे जिससे कि वास्तविक और स्थायी आर्थिक अवसर मुहैया कराया जा सके. 

बढ़ता भू-राजनीतिक तनाव साइबर नियमों, मानकों और सिद्धांतों के क्रियान्वयन को एक जटिल राजनीतिक मामला बना रहा है. 

ये देखा जाना बाक़ी है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया की अगली पुनरावृत्ति, जिसमें क्रियान्वयन पर ज़ोर बना हुआ हो, किस तरह विकासशील देशों में डिजिटल कायापलट को अभियान में बदलने में समर्थन और समावेशन की प्राथमिकता बदल पाते हैं. तब तक विकासशील देशों में से कई देश उभरती और महत्वपूर्ण तकनीकों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता का सामना करेंगे. अमेरिकी लेखक विलियन गिब्सन का उद्धरण “द फ्यूचर इज़ ऑलरेडी हेयर- इट्स जस्ट नॉट वेरी इवनली डिस्ट्रीब्यूटेड” उन देशों की परिस्थिति को आश्चर्यजनक ढंग से बताती है. अमीर, विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भविष्य का आगमन हो चुका है लेकिन विकासशील देशों में नहीं. टिकाऊ विकास और साझा समृद्धि के लिए डिजिटल तकनीक के फ़ायदों को उठाना वैश्विक ज़िम्मेदारी है. विकासशील देशों के साथ नज़दीकी सहयोग और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के आधार पर विकसित अर्थव्यवस्थाओं को हमारे सामूहिक टेकफ्यूचर (तकनीकी भविष्य) के ज़्यादा समान रूप से बंटवारे को सुनिश्चित करने में नेतृत्व की भूमिका अदा करनी चाहिए और इस तरह वो निर्णायक रूप से वैश्विक असमानता को कम कर सकते हैं, समृद्धि बढ़ा सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थायित्व को मज़बूत कर सकते हैं. 

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