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इस बात कि 93 प्रतिशत संभावना है कि 2022-2026 के बीच कम से कम एक साल ऐसा होगा जो 2016 के सबसे गर्म वर्ष होने के रिकॉर्ड को तोड़ देगा. इससे भी बड़ी चिंता की बात ये है कि 2015 में वैश्विक औसत तापमान में हो रही वृद्धि के पूर्व-औद्योगिक स्तर (1850-1900) से 1.5° C अधिक होने की संभावना शून्य थी लेकिन यह अब बढ़कर 48 प्रतिशत हो गई है. ख़तरे की घंटी बज रही है और अब यह पेरिस समझौते के हस्ताक्षरकर्ता देशों पर निर्भर है कि वे अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें.
भारत की ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी प्रतिबद्धताएं एक लंबी अवधि में पूरी होनी हैं. 2070 तक, भारत की वास्तविक GDP 2020 की तुलना में 10 गुना ज्यादा होगी, जिसके लिए हर साल 6-8 प्रतिशत की GDP वृद्धि दर को बनाए रखना होगा. 2100 तक वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की वैश्विक रणनीति की सफलता या विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि भारत अपने उत्सर्जन दर को कम करने में कितना कामयाब रहता है.
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की अक्टूबर 2021 में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट, 'नेट ज़ीरो बाय 2050: ए रोडमैप फॉर द ग्लोबल एनर्जी सेक्टर' के अनुमान के मुताबिक 2050 तक गैर-जीवाश्म ईंधन पर आधारित स्रोतों से 90 प्रतिशत बिजली आपूर्ति की जाएगी जबकि वर्तमान में यह आंकड़ा महज़ 10 प्रतिशत है. और इतना ही नहीं 2050 तक यह ऊर्जा सेवाओं की आपूर्ति का सबसे प्रमुख साधन होगा. विकसित एवं आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में कोयला आधारित बिजली उत्पादन को ख़त्म होते हुए देखा जा सकता है. संभावना है कि 2030 से 2040 के बीच "जीवाश्म ईंधनों पर अत्यधिक निर्भर" उद्योगों (जैसे-धातु, सीमेंट और उर्वरक) में ईंधन के रूप में हरित हाइड्रोजन का उपयोग किया जाने लगेगा, जिसे पानी विद्युत अपघटन से उत्पादित किया जाता है. तब तक सौर एवं पवन ऊर्जा की लागत कम होने से हरित हाइड्रोजन की क़ीमत घटकर प्रति किलोग्राम 1 अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ जाएगी.
एक ईंधन के रूप में पेट्रोलियम पर मंडराता हुआ ख़तरा इन कारणों से भी काफ़ी बढ़ गया है: 1) परिवहन क्षेत्र का विद्युतीकरण, जहां भारी वाहनों में ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का इस्तेमाल किए जाने की उम्मीद है; 2) रसोई का विद्युतीकरण 3) ठंडे वातावरण को गर्म करने के लिए गैस हीटिंग की बजाय हीट पंप का इस्तेमाल किए जाने की संभावना.
भारत की ऊर्जा संक्रमण रणनीति में एक दीर्घकालिक लक्ष्य और तीन निकट अवधि के लक्ष्य शामिल हैं. ये चारों लक्ष्य भारत को धीरे-धीरे डीकार्बोनाइजेशन की रणनीति की ओर ले जाएंगे, जो ऊर्जा बाज़ारों और भू-राजनीति की अनिश्चितताओं से संगत है. प्राकृतिक गैस (द्रवित प्राकृतिक गैस) को कभी भारत के लिए तुलनात्मक रूप से स्वच्छ ईंधन माना जाता था, जिसे देश में स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य के लिए एक 'ब्रिज' के तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन यह वर्तमान में बिजली उद्योग में फंसी बेकार पूंजी की तरह हो गया है. इस संसाधन को बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है, जो ऊर्जा आपूर्ति में आत्मनिर्भरता और लचीलेपन के लक्ष्य के साथ संगत नहीं है. इसके अलावा, यूक्रेन संघर्ष के बाद से तेल और गैस की क़ीमतों में भारी उतार-चढ़ाव ने गहरी अनिश्चितता पैदा की है. बिजली उत्पादन क्षमता में LNG की हिस्सेदारी 2030 तक मौजूदा 25 गीगावाट पर स्थिर रहने की उम्मीद है.
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नेट ज़ीरो के स्तर पर ले आना एक दीर्घकालिक व्यापक लक्ष्य है, जिसमें समुद्रों और वनों द्वारा कार्बन अवशोषण या फिर प्रौद्योगिकी के माध्यम से कार्बन के अवशोषण एवं संग्रहण का लेखा-जोखा शामिल है. संतुलन की इस स्थिति से जलवायु स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा, जिससे विकासशील अर्थव्यवस्थाएं भी विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह ऊर्जा की अधिक खपत कर सकेंगी.
ग्लासगो (2021) में हुए COP26 सम्मेलन में नेट ज़ीरो के लक्ष्य पर सहमति जताने वाले 136 देशों में फिनलैंड को 2035, आइसलैंड एवं ऑस्ट्रिया को 2040, और जर्मनी एवं स्वीडन को 2045 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को हासिल करना है. जिन देशों ने 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है, उनका वैश्विक उत्सर्जन में 50 प्रतिशत योगदान है, जो कि उत्साहजनक संकेत है. चीन, रूस, सऊदी अरब और ब्राजील ने 2060 और भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य तक पहुंचने का वादा किया है.
भारत को 2030 तक तीन निकट अवधि के लक्ष्य हासिल करने है. पहला, 2030 तक अर्थव्यवस्था की ग्रीन हाउस उत्सर्जन तीव्रता (GDP में प्रति यूनिट की वृद्धि के साथ उत्सर्जन में होने वाला बदलाव) को 2005 के स्तर की तुलना में 45 प्रतिशत कम करना है. यह भारत के 2010 में लिए गए स्वैच्छिक संकल्प (जहां 2020 में GDP की ग्रीन हाउस उत्सर्जन तीव्रता में 2005 के स्तर की तुलना में 20 से 25 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य रखा गया था) का ही विस्तार है. भारत 24 प्रतिशत कमी के लक्ष्य को हासिल करने में सफ़ल रहा. परिणामस्वरूप, भारत को 2030 तक 2020 के उत्सर्जन स्तर पर और 28 प्रतिशत की कमी का शेष लक्ष्य हासिल करना है.
सौर और पवन ऊर्जा पर दांव
दूसरा, भारत को राजकोषीय बाधाओं और कार्बन-उत्सर्जन में कमी लाने की आवश्यकता के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक बीच की राह तलाशनी होगी. डीकार्बोनाइजेशन का विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसको लेकर निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता. हालांकि शहरों में स्वच्छ हवा जैसे सह-लाभों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि इससे बीमारियां कम हो सकती हैं और मृत्यु दर के भी घटने की संभावना है. इसके अलावा, संक्रमण की गति राजकोषीय प्रभाव को निर्धारित करेगी. इसका एक संभावित समाधान गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली संयंत्रों की बिजली उत्पादन क्षमता को अधिकतम करना है.
2030 तक 500 गीगावाट (पनबिजली और परमाणु सहित) की उत्पादन क्षमता का लक्ष्य रखा गया है, जिसमें अपतटीय पवन परियोजनाओं के दोहन के अलावा सौर और पवन ऊर्जा में भारी वृद्धि के लक्ष्य भी शामिल हैं. अपतटीय पवन परियोजनाएं भारतीय तेल और गैस अन्वेषण कंपनियों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती हैं, जो ऊर्जा क्षेत्र में अपने व्यावसायिक दायरे को बढ़ाना चाहती हैं.
2030 तक हरित ऊर्जा उत्पादन को 50 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचाना
तीसरा, 2030 तक 50 प्रतिशत बिजली का उत्पादन गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित स्रोतों से किए जाने का लक्ष्य है. 2020 में, नवीनीकरण ऊर्जा स्रोतों (सौर, पवन, रीसाइक्लिंग वेस्ट, बायोमास) से 145 गीगावाट बिजली का उत्पादन किया जा रहा था, जो 377 गीगावाट की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का 38 प्रतिशत था. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने 2023 के अपने आकलन में उत्पादन क्षमता में विभिन्न ऊर्जा स्रोतों के योगदान को संशोधित कर दिया है जो अब ग्लासगो सम्मेलन से जुड़ी प्रतिबद्धताओं के साथ संरेखित है. 2030 तक, 777 गीगावाट उत्पादन क्षमता के साथ 64 फीसदी बिजली का उत्पादन गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित स्रोतों से किए जाने का लक्ष्य रखा गया है. 44 प्रतिशत बिजली उत्पादन में गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित स्रोतों की अनुमानित हिस्सेदारी 2023 में सिर्फ 25 प्रतिशत से अधिक है. क़रीब 61 गीगावाट की ऊर्जा भंडारण क्षमता (जिसमें 19 गीगावाट भंडारण क्षमता वाला पंप स्टोरेज और 42 गीगावाट क्षमता वाला बैटरी आधारित स्टोरेज शामिल है) स्थापित करने का भी लक्ष्य रखा गया है, जिससे दो से छह घंटे की बिजली आपूर्ति की जा सकती है. प्राकृतिक गैस आधारित क्षमता (यह बिजली की सर्वाधिक मांग के दौरान उपयोगी है) अधिक लागत के कारण मौजूदा 25 गीगावाट के स्तर पर स्थिर है, और उच्च लागत के चलते इसकी अधिकतम क्षमता का भी दोहन नहीं हो पा रहा है.
2023 में कोयला आधारित उत्पादन क्षमता 211 गीगावाट है, जो 2030 तक बढ़कर 238 गीगावाट हो जाएगी, क्योंकि 27 गीगावाट क्षमता पर निर्माण जारी है या मौजूदा क्षमता का अधिकतम दोहन किया जाएगा. इसके कारण कम से कम 2050 के मध्य तक भारत के बिजली उत्पादन क्षेत्र में कोयले की मौजूदगी मजबूती से बनी रहेगी. कोयला आधारित बिजली उत्पादन (2030 में लगभग 56 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ) भारत के लिए अभी भी महत्त्वपूर्ण है, भले ही गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित स्रोतों की स्थापित क्षमता इससे ज्यादा हो गई है. जीवाश्म ईंधन आधारित बेस लोड प्लांट की तुलना में सौर और पवन ऊर्जा में दैनिक और मौसमी परिवर्तन के कारण क्षमता अनुरूप बिजली का उत्पादन नहीं हो पाता है.
राजकोषीय बाधाओं के साथ काम करना
भारत दो कारणों से 2050 के बाद कोयला आधारित संयंत्रों को बंद करने के कड़े फैसलों पर जोर दे रहा है. पहला, नवीकरणीय ऊर्जा की परिवर्तनशील प्रकृति को देखते हुए उसके समाधान के लिए ज़रूरी भंडारण क्षमता पर अभी काम जारी है. दूसरा, भारत ऊर्जा संक्रमण के लिए सार्वजनिक स्रोतों पर राजकोषीय खर्च का भार नहीं डाल सकता. कोरोना महामारी के कारण पैदा हुए राजकोषीय दबावों से उबरना अभी बाकी है. इस साल राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 5.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो 4 प्रतिशत की बाहरी सीमा से कहीं ज्यादा है. राजकोषीय घाटे में धीरे-धीरे कमी लाते हुए उसे 2025-26 तक GDP के 4.5 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया है. वैश्विक विकास के स्तर पर मंदी की स्थिति के कारण निर्यात आधारित विकास की संभावनाओं को झटका लगा है, जबकि उच्च ब्याज दरों के कारण विकास और निवेश प्रभावित होता है. जब तक फिर से उच्च गति से विकास की संभावनाएं पैदा नहीं हो जाती, तब तक ऐसी डीकार्बोनाइजेशन रणनीति अपनाने की ज़रूरत है, जो तब तक के लिए न्यूनतम लागत में कार्बन उत्सर्जन स्तर में कमी लाने पर ध्यान केंद्रित करे, जब तक उच्च विकास की संभावनाएं फिर से जीवित नहीं हो जाती, जो अपने साथ अतिरिक्त कर समाधानों को भी लेकर आएगा.
ऊर्जा संक्रमण पूरी तरह तरह से एक सरकारी प्रयास है, जिसमें आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय (जो ऊर्जा की मांग पैदा करता है), परिवहन और औद्योगिक उत्पादन से संबंधित मंत्रालय, राज्य और स्थानीय सरकार (जो ग्राहकों और जनता से संवाद स्थापित करेंगी) शामिल हैं. पांच केंद्रीय मंत्रालय इस प्रयास के केंद्र में हैं. यहां पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEFCC) की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है, जिसे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के प्राकृतिक अवशोषण को बढ़ाने के लिए तकनीकी प्रयास करने होंगे. साथ ही यह उत्सर्जन स्तर की निगरानी, और उसकी रिपोर्टिंग के लिए ज़िम्मेदार प्राधिकरण होने के अलावा जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के सचिवालय के साथ मिलकर काम करता है.
दो मंत्रालयों, ऊर्जा मंत्रालय (MOP: विद्युत संचरण और आपूर्ति) और गैर-नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE: गैर-पारंपरिक और नवीकरणीय बिजली की आपूर्ति) की प्रासंगिकता निर्विवाद रूप से बरकरार है, जहां हरित बिजली ऊर्जा आपूर्ति का प्रमुख माध्यम बन गई है. ये दोनों मंत्रालय पहले से ही एक मंत्री के अधीन है और इनका विलय भी किया जा सकता है.
प्राथमिक ऊर्जा में कोयले, तेल और गैस की हिस्सेदारी कम होने पर दो अन्य मंत्रालयों, कोयला और खान मंत्रालय (MOCM) और पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय (MOPNG) को अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ेगा. दोनों में, कोयले पर यह संकट ज्यादा है, क्योंकि उसका एक विकल्प हाइड्रोजन है, जिसे LNG या प्राकृतिक गैस की तरह ही एक जगह से दूसरे जगह ले जाया और वितरित किया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तेल और गैस कंपनियां इस क्षेत्र की सबसे बड़ी कॉरपोरेट इकाइयों में से एक हैं. उनमें से चार कंपनियां तो फॉर्च्यून 500 की सूची में शामिल हैं. संयुक्त रूप से देखें तो उनका कुल लाभ लगभग 10 ख़रब रुपए (2019) है, जो उन्हें संक्रमण के लिए आवश्यक वित्त पोषण उपलब्ध कराता है.
शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय में ऊर्जा संक्रमण के मुद्दे पर एक सलाहकार की नियुक्ति की है, जो इससे पहले पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय में सचिव थे और तेल और गैस क्षेत्र के लिए एक संक्रमण रणनीति की अनुशंसा करने वाली समिति के अध्यक्ष थे. ग्रीन शिफ्ट हरित संक्रमण के लिए तेल और गैस क्षेत्र की क्षमता और तैयारी पर एक विस्तृत समीक्षा है, जो अन्य मंत्रालयों के लिए एक उदाहरण है कि उन्हें भी अपनी सांस्थानिक प्रासंगिकता को साबित करते हुए ऐसी समीक्षाएं करनी चाहिए.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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