1970 में ऊर्जा सुरक्षा का मतलब उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप मेंतेल आपूर्ति की सुरक्षासे था. ऐसे में खाड़ी क्षेत्र के तेल उत्पादक देशों में होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल ऊर्जा सुरक्षा के लिए प्राथमिक ख़तरा थी. वैश्विक स्तर पर तीन दशकों तक यही व्याख्या हावी रही क्योंकि खाड़ी क्षेत्र में तेल और भूराजनीति लगातारतेल की असुरक्षा पैदा करती जा रही थी. 1973 में शुरू अरब तेल प्रतिबंधों ने अमेरिका की ऊर्जा नीति को प्रचुरता के प्रबंधन की बजाए किल्लत का प्रबंधन करने वाली नीति के तौर पर नए सिरे से परिभाषित कर दिया. 1973 से 1980 के बीच इस इकलौती घटना पर एक प्रभावीनीतिगत प्रतिक्रियातैयार करने में तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों और चार सांसदों को लगातार जद्दोजहद करनी पड़ी. इस प्रतिबंध के तत्काल बाद अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में तीन गुना उछाल आ गई. अमेरिकी सरकार ने आपूर्ति सुरक्षित करने और क़ीमतों पर लगाम लगाने के लिए खाड़ी क्षेत्र मेंतेल खदानों पर क़ब्ज़ा करनेतक का मन बना लिया था. पश्चिमी यूरोप की प्रतिक्रिया भी अमेरिकी रणनीतियों के साथ क़रीब से जुड़ी रहीं. आकस्मिक तौर पर तेल साझा करने की व्यवस्था (सामरिक भंडारों) और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए अमेरिका और पश्चिम यूरोप के उसके सहयोगियों ने साझा तौर परअंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA)का गठन किया. भारत और चीन जैसे विकासशील देशों नेऊर्जा सुरक्षा पर पश्चिमी विचारोंको अपनाया और उस समय ‘ऊर्जा सुरक्षा’ के रूप में समझी जाने वाली स्थिति को हासिल करने के लिए आत्म-निर्भरता या ईंधन स्वायत्तता, ईंधन दक्षता, ईंधन विविधता और समुद्री लेन आपूर्ति की सुरक्षा से जुड़ी रणनीतियों का सहारा लिया. आगे चलकर ऊर्जा सुरक्षा की व्याख्या का भौगोलिक विस्तार हुआ और इसमें अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के तेल-उत्पादक देशों में होने वाली उथल-पुथल को भी शामिल किया गया. 2000 के दशक की शुरुआत में OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) देशों में तेल की मांग के शिखर पर पहुंचने और स्थिर होने तक तेल आपूर्ति सुरक्षा पर ज़ोर जारी रहा. इस कालखंड मेंतेल और गैस के शुद्ध निर्यातक के तौर पर अमेरिका के उभारने ऊर्जा की तेल-केंद्रित रणनीतियों में गिरावट में योगदान दिया.
भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने ऊर्जा सुरक्षा पर पश्चिमी विचारों को अपनाया और उस समय ‘ऊर्जा सुरक्षा’ के रूप में समझी जाने वाली स्थिति को हासिल करने के लिए आत्म-निर्भरता या ईंधन स्वायत्तता, ईंधन दक्षता, ईंधन विविधता और समुद्री लेन आपूर्ति की सुरक्षा से जुड़ी रणनीतियों का सहारा लिया.
साल 2000 केबादसेऊर्जासुरक्षा
अमेरिका मेंघरेलू गैस उत्पादनमें कमी आने के चलते 2000 के दशक की शुरुआत में ऊर्जा सुरक्षा के संदर्भ में प्राकृतिक गैस आकर्षण का केंद्र बन गया.अमेरिकी ऊर्जा नीति 2001में प्राकृतिक गैस के सबसे बड़े निर्यातक स्रोत के तौर पर रूस के साथ संबंध सुधारने का आह्वान किया गया. नीति के मुताबिक रूस के पास दुनिया के प्राकृतिक गैस भंडारों का 33 प्रतिशत हिस्सा मौजूद था और वो अपने उत्पादन का कुल 35 प्रतिशत हिस्सा यूरोप और मध्य एशिया को निर्यात करता था. नीति में दलील दी गई किरूसी प्राकृतिक गैस निर्यातक्षेत्रीय स्तर पर ईंधन विविधीकरण में बढ़ोतरी लाते हुए पर्यावरणीय लक्ष्यों को आगे बढ़ा सकता है. अमेरिकी ऊर्जा नीति 2001 में रूस के साथ ऊर्जा और वहां निवेश के वातावरण को लेकर परिचर्चाएं किए जाने का प्रस्ताव किया.
साल 2003 में उत्तरी अमेरिका में बिजली संकट (पावर ब्लैकआउट) के चलते बिजली को ऊर्जा सुरक्षा के दायरे में ला दिया गया. इसके साथ ही कुछ संस्थागत प्रतिक्रियाओं की भी योजना तैयार की गई. इनमेंविश्वसनीयता मानकोंको अनिवार्य और लागू करने योग्य बनाना, पालन नहीं करने पर जुर्माना लगाया जाना, उत्तरी अमेरिका में विश्वसनीयता प्रबंधन के लिए संस्थागत ढांचे में मज़बूती लाना और भौतिक और साइबर सुरक्षा पर ध्यान बढ़ाना शामिल हैं. तकनीकी प्रस्तावों में उच्च-तापमान वाली सेमीकंडक्टर (HTS) टेक्नोलॉजी पर आधारित बिजली के केबल्स और ट्रांसमिशन लाइनों को मज़बूत बनाने वाला सुरक्षित सुपर-ग्रिड शामिल है. ये सुपर-ग्रिड उन दबावों का प्रतिरोध कर सकेगा जिनके चलते ब्लैकआउट होते हैं. इसके अलावा HTS सुपर ग्रिड को तट से तट तक हाइड्रोजन पाइपलाइन से जोड़ने की क़वायद भी इस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिससे कारों और घरों के लिए ईंधन सेल्स की आपूर्ति हो सकेगी. कैटरीना और रीटा तूफ़ान (हरिकेन) के चलते अमेरिका में बिजली के अहम बुनियादी ढांचों के तबाह हो जाने के बादतूफ़ानों और प्राकृतिक आपदाओंको ऊर्जा असुरक्षा की उन वजहों में शामिल किया गया, जिनमें आतंकवाद और उथल-पुथल पहले से मौजूद थे.
विकासशील देशों द्वारा की जाने वाली ऊर्जा की ‘मांग’ को 2010 के दशक में विकसित देशों की ऊर्जा सुरक्षा के लिए ख़तरे के तौर पर परिभाषित किया गया. आमतौर पर विकासशील देशों को, और ख़ासतौर सेभारत और चीनको दुनिया के ऊर्जा संसाधनों पर अनुचित दावे करने वाले देश क़रार दिया गया. एक औसत अमेरिकी की तुलना मेंऊर्जा के एक छोटे से अंशका उपभोग करने वाले औसत भारतीय की ऊर्जा को लेकर ‘तृप्त न हो सकने वाली भूख’ को ऊर्जा सुरक्षा के लिए ख़तरा समझा गया, जो कथित रूप से तेल भंडारों को ख़त्म करके पर्यावरण को तबाह कर देगी. राजकीय स्वामित्व वाली चीनी कंपनियों के बारे में ये अनुमान लगाया गया कि वो तेल की खोज में दमनकारी हुकूमतों को सहारा देने लगेंगी. वर्ष 2012 में तत्कालीन अमेरिकीराष्ट्रपति ओबामाने कच्चे तेल की वैश्विक क़ीमतों में बढ़ोतरी के लिए चीन और भारत की ओर से की जाने वाली तेल की मांग को ज़िम्मेदार ठहराया. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी कि चीन और भारत की ओर से तेल आयात की मांग 2030 तक चौगुनी हो जाएगी. वर्ष 2007 में IEA का कहना था कि अगर तेल उत्पादकों ने उत्पादन नहीं बढ़ाया, ऊर्जा दक्षता में सुधार नहीं हुआ और भारत और चीन से तेल की मांग में सुस्ती नहीं आई तो 2015 में हीआपूर्ति “संकट”पैदा हो सकता है.
2020 के दशक की शुरुआत के साथ ऊर्जा सुरक्षा की पुरानी धारणाएं (जिसके तहतआयात निर्भरतापर असुरक्षा का स्रोत होने का ठीकरा फोड़ा जाता था) एक बार फिर से ज़िंदा हो गई हैं. यूक्रेन युद्ध और नाज़ुक धातुओं की मूल्य श्रृंखला में चीन के दबदबे से ये बदलाव आया है. यूक्रेन में युद्ध के बाद से प्राकृतिक गैस की क़ीमतों में आए उछाल की प्रतिक्रिया मेंयूरोपीय संघ (EU)ने रूस पर ऊर्जा निर्भरता में भारी कमी लाने का आह्वान किया. इस कड़ी में रूस से तेल, कोयले, परमाणु ईंधन और गैस के आयातों पर ‘तत्काल पूर्ण प्रतिबंध’ लगाते हुए नॉर्ड स्ट्रीम 1 और 2 पाइपलाइनों को ‘पूरी तरह से त्यागने’ की अपील की गई. यूरोपीय संघ काआरईपावरईयू (REPowerEU) प्लानऊर्जा आपूर्तियों में विविधता लाने, गैस भंडारण बढ़ाने, नवीकरणीय ऊर्जा की तैनाती में रफ़्तार भरने, गैस और बिजली के ज़रूरी अंतर-संपर्कों को पूरा करने और ऊर्जा दक्षता सुधारने की रणनीति पर आगे बढ़ रहा है.
यूक्रेन युद्ध और नाज़ुक धातुओं की मूल्य श्रृंखला में चीन के दबदबे से ये बदलाव आया है. यूक्रेन में युद्ध के बाद से प्राकृतिक गैस की क़ीमतों में आए उछाल की प्रतिक्रिया में यूरोपीय संघ (EU) ने रूस पर ऊर्जा निर्भरता में भारी कमी लाने का आह्वान किया.
नाज़ुक धातुओं की आपूर्ति श्रृंखलाओंमें चीन के दबदबे को लेकर अमेरिका और अन्य उन्नत देशों की सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आपूर्ति श्रृंखला में राष्ट्रवाद के प्रस्ताव से जुड़ी रही है, जिसके तहत आपूर्ति श्रृंखलाओं में नियंत्रण का आह्वान किया गया है. स्वच्छ ऊर्जा की ओर बदलावों के सामने मौजूद ख़तरों की चर्चा करने वाले तमाम मंचों और रिपोर्टों में अनेक शर्तों को दोहराया गया है. इनमेंआत्म-निर्भरता, दोस्ताना रिश्ते वाले देशों से मदद लेने, “ज़रूरत पड़ने पर उपलब्ध हो जाने वाली” आपूर्ति रणनीतियों और आपूर्ति श्रृंखलाओं को जोख़िम-मुक्त बनाने की क़वायद में अनिवार्य रूप से आपूर्तिश्रृंखला संप्रभुताका आह्वान किया गया है.
मुद्दे
पिछले पांच दशकों में ऊर्जा सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं को पश्चिमी चिंताओं और हितों को ध्यान में रखते हुए तय किया गया है. बाक़ी दुनिया ने आंखें मूंदकर इन रणनीतियों का पालन किया, हालांकि उनकी ऊर्जा समस्याएं पूरी तरह से अलग थीं. बाक़ी दुनिया ऊर्जा सुरक्षा की पश्चिमी रणनीतियों को आगे बढ़ाने के लिए संस्थागत और सामग्री संसाधनों को इकट्ठा तो करती है, लेकिन तब तक उन्हें पता चलता है कि पश्चिमी जगत दूसरे हितों की ओर आगे बढ़ गया है. इस संदर्भ में हम इक्विटी तेल संसाधनों के स्वामित्व का ही मसला लेते हैं. 1970 के दशक में खाड़ी क्षेत्र के तेल-निर्यातक देशों मेंअमेरिका का भू-राजनीतिक प्रभुत्वथा, भले ही उन देशों में काम करने वाली सभी अमेरिकी कंपनियां निजी स्वामित्व वाली थीं. ऊर्जा परिसंपत्तियों के स्वामित्व और नियंत्रण पर अमेरिका से सबक़ लेकर चीन और भारत (जिनकी तेल की मांग इस सदी में आकर बढ़ी है) ने अपने राजकीय स्वामित्व वाली कंपनियों को दुनिया भर मेंतेल इक्विटी परिसंपत्तियोंमें निवेश करने को प्रेरित किया. ये ना तो तेल की ऊंची क़ीमतों के सामने बचावकारी साबित हो पाई और ना ही आपूर्ति सुरक्षा का स्रोत बन पाई. तमाम प्रचारों के बावजूद तेल आपूर्ति सुरक्षा, निरंतर चिंता का सबब नहीं बन पाई. आख़िरकार, हो सकता है कि चीन और भारत वैसी परिसंपत्तियों को धारण कर रहे हों जो अंत में जाकर सब-प्राइम परिसंपत्तियां बन जाएं.
ऊर्जा सुरक्षा पर पश्चिम के विमर्श ज़्यादातर उनके ख़ुद के हितों के बारे में होते हैं. इनमें ख़तरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि बाक़ी दुनिया को इस कदर डरा दिया जाए कि वो कुछ ना कुछ क़दम उठाने को मजबूर हो जाएं.
यही बात प्राकृतिक गैस के मामले में भी सच है. 2000 के दशक के अंत में विश्व के प्राकृतिक गैस संसाधनों के आधे से भी ज़्यादा हिस्से पर नियंत्रण रखने वाले रूस, ईरान और क़तर द्वारा एक भू-राजनीतिक धुरी और गैस कार्टेल तैयार किए जाने की आशंका थी, जिससे वैश्विक स्थिरता को ख़तरा पहुंच सकता था. बहरहाल, अमेरिका में शेल गैस के उत्पादन ने इस ख़तरे को जड़ समेत ख़त्म कर दिया.
बाक़ी दुनिया अब ना सिर्फ़आबादी के आंकड़ोंबल्कि अपनी अर्थव्यवस्थाओं के आकार, ऊर्जा उपभोग की मात्रा और भू-राजनीति वज़न के हिसाब से भी पश्चिम से काफ़ी बड़ी हो गई है. लेकिन ये रुतबा सकल स्तर पर मात्रा से उभरता है. व्यक्तिगत पैमाने पर गुणवत्ता अब भी काफ़ी नीची है क्योंकि बाक़ी दुनिया ज़्यादातर ग़रीब है. बाक़ी दुनिया के अधिकतर हिस्से के लिए ऊर्जा का किफ़ायतीपन और ऊर्जा की निर्धनता, आपूर्ति सुरक्षा की तरह ही महत्वपूर्ण है. ऊर्जा सुरक्षा पर पश्चिम के विमर्श ज़्यादातर उनके ख़ुद के हितों के बारे में होते हैं. इनमें ख़तरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि बाक़ी दुनिया को इस कदर डरा दिया जाए कि वो कुछ ना कुछ क़दम उठाने को मजबूर हो जाएं. हमारे हितों या वैश्विक मूल्यों के लिए पश्चिम के विमर्शों को स्थान नहीं दिया जा सकता.
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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...
Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change.
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