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एंडोक्राइन डिसरप्टिंग यानी हमारे शरीर के अंतःस्रावी तंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले रसायन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के माध्यम से घर के नलों तक पहुंच रहे हैं. इससे जन स्वास्थ्य को ख़तरा पैदा हो रहा है, और नियामक संस्थाएं कुछ नहीं कर पा रही हैं.
Image Source: Getty Images
ये लेख विश्व जल सप्ताह 2025 निबंध श्रृखंला का हिस्सा है
एंडोक्राइन डिसरप्टिंग केमिकल यानी अंतःस्रावी-विघटनकारी रसायन (ईडीसी) ऐसे बाहरी पदार्थ होते हैं जो हार्मोन प्रणाली के मानक संचालन में बाधा डालते हैं. जैविक रूप से, ईडीसी हार्मोन की नकल कर सकते हैं, हार्मोन रिसेप्टर्स से जुड़ सकते हैं, या हार्मोन सिंथेसिस (संश्लेषण), क्षरण और संकेतन को बाधित कर सकते हैं. व्यावहारिक रूप से, ईडीसी हमारे शरीर के रासायनिक संदेशवाहकों पर कब्ज़ा कर सकते हैं और संभावित रूप से वृद्धि, पाचन प्रक्रिया, प्रजनन और विकास में कई प्रकार की विकृतियां पैदा कर सकते हैं. अगर सबसे कुख्यात ईडीसी तत्वों की बात करें तो प्लास्टिक में पाए जाने वाले बिस्फेनॉल ए (बीपीए) जैसे औद्योगिक रसायन, डीडीटी (डाइक्लोरोडाइफेनिलट्राइक्लोरोइथेन) जैसे कीटनाशक सक्रिय तत्व, सिंथेटिक एस्ट्रोजन जैसे चिकित्सीय हार्मोन और पीएफएएस (पर-एंड पॉलीफ्लोरोएल्काइल पदार्थ) जैसे स्थायी प्रदूषक तत्व इसमें शामिल हैं. फिर भी, भारत की जल नीति और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी बहस से ईडीसी ग़ायब हैं. पेयजल मानकों में ये अनियमित हैं, इनका कोई मानक तय नहीं किया गया है. इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर नियमित निगरानी में भी इसे शामिल नहीं किया जाता है.
भारतीय शोध का एक बड़ा वर्ग अब इस पर काम कर रहा है. ये समूह, नदियों और झीलों से लेकर भूजल और यहां तक कि शुद्धिकरण के बाद नलों के ज़रिए घरों तक भेजे जा रहे पानी तक, जल स्रोतों में विभिन्न अंतःस्रावी विघटनकारी तत्वों (ईडीसी) का पता लगा रहा है.
हालांकि भारतीय शोध का एक बड़ा वर्ग अब इस पर काम कर रहा है. ये समूह, नदियों और झीलों से लेकर भूजल और यहां तक कि शुद्धिकरण के बाद नलों के ज़रिए घरों तक भेजे जा रहे पानी तक, जल स्रोतों में विभिन्न अंतःस्रावी विघटनकारी तत्वों (ईडीसी) का पता लगा रहा है. ये अध्ययन, आम तौर पर स्थानीय स्तर पर होते हैं. इन शोधों से पता चलता है कि ईडीसी प्रदूषण का ख़तरा भारत की जल आपूर्ति श्रृंखला में एक मौजूदा वास्तविकता है. इसके प्रमुख निष्कर्ष कुछ इस प्रकार हैं:
देहरादून, उत्तराखंड: नगर निगम के उपचार संयंत्रों (ट्रीटमेंट प्लांट्स) से प्राप्त अपशिष्ट जल के नमूनों में एस्ट्रोजेनिक हार्मोन का उच्च स्तर पाया गया. 2023 के एक अध्ययन में कच्चे सीवेज के प्रवाह में एस्ट्रोन की सांद्रता 95 मिलीग्राम प्रति लीटर तक दर्ज की गई, जो इस एस्ट्रोजन के लिए विश्व स्तर पर अब तक का सबसे उच्च स्तर है. अपशिष्ट जल के उपचार के बाद भी, एस्ट्रोन प्रभावी रूप से नहीं हटाया गया; बल्कि, "नकारात्मक निष्कासन" देखा गया. इसका अर्थ है कि कभी-कभी अपशिष्ट जल में बहने वाले पानी से ज़्यादा सांद्रता होती थी. शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि अपशिष्ट जल में इस तरह का एस्ट्रोजेनिक का उच्च स्तर जलीय जीवों के स्त्रीकरण और वन्यजीवों में प्रजनन संबंधी व्यवधान हो सकता है. इतना ही नहीं, इससे संभावित रूप से हार्मोन संबंधी कैंसर हो सकते हैं. शोध से पता चलता है कि पारंपरिक अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र (WWTP) इन ईडीसी को संभालने में सक्षम नहीं हैं. इसका नुकसान ये है कि हानिकारक रसायन नीचे की ओर बहने वाले जल में पहुंच जाते हैं.
जबलपुर, मध्य प्रदेश: जबलपुर में स्रोत जल और पेयजल में प्लास्टिसाइज़र (फ़थलेट एस्टर) और बीपीए की मौजूदगी का मूल्यांकन करने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया. इस सर्वे के नतीजों से पता चला कि सर्दियों में लिए गए नमूनों में फ़थलेट व्यापक रूप से मौजूद थे, और प्लास्टिसाइज़र डीईएचपी (डाइ (2-एथिलहेक्सिल) फ़थलेट) पेयजल में 8.35 मिलीग्राम प्रति लीटर तक के स्तर पर पाया गया. ये सांद्रता, सुरक्षित स्तर से कहीं अधिक थी. वैश्विक स्तर पर तुलना करने से स्थिति की गंभीरता समझ आती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राज्य पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (US EPA) ने 6-8 मिलीग्राम प्रति लीटर पर डीईएचपी मानक स्थापित किए थे. गर्मियों में लिए गए नमूनों में इसका स्तर कम हो गया, करीब 4.1 मिलीग्राम प्रति लीटर. हालांकि ये शोध इस समस्या के मौसमी होने का संकेत देते हैं, लेकिन फिर भी ये बात चिंताजनक तो है. ये विश्लेषण मौसमी उछाल को दर्शाता है, जो शुष्क सर्दियों में अधिक स्पष्ट होते हैं. शायद ऐसा सीमित तनुकरण (डाइल्यूशन) और कम तापमान पर ज़्यादा निक्षालन के कारण होता है. ये इस बात का भी ठोस प्रमाण प्रदान करता है कि भारत का उपचारित पेयजल पहले से ही प्लास्टिक स्रोतों से निकलने वाले ईडीसी से दूषित है. ऐसा संभवत: जल स्रोत के प्रदूषित होने और वितरण प्रणाली के भीतर निक्षालन के कारण होता है.
त्रिशूर, केरल: त्रिशूर में एक प्रायोगिक अध्ययन में पाया गया कि गर्म या उबले हुए पानी को संग्रहित करने के लिए पीईटी (पॉलीएथिलीन टेरिफ्थेलैट) प्लास्टिक की बोतलों का उपयोग करने से पानी में पता लगाने योग्य ईडीसी (विषाक्त पदार्थ) निकल सकते हैं. समय के साथ, संग्रहित पानी में फ़थलेट का स्तर और धातु एंटीमनी (पीईटी प्लास्टिक में उत्प्रेरक के रूप में प्रयुक्त) का स्तर बढ़ गया. हालांकि इस अध्ययन में फ़थलेट और एंटीमनी की सांद्रता गंभीर स्वास्थ्य सीमा से नीचे थी. इसके बावजूद शोधकर्ताओं ने गर्म पानी को लगातार प्लास्टिक की बोतल में रखने के दीर्घकालिक ज़ोखिमों की तरफ इशारा किया, क्योंकि उच्च तापमान और लंबे समय तक उपयोग के साथ एंटीमनी का उत्सर्जन तेज़ हो जाता है.
चेन्नई, तमिलनाडु (तटीय): चेन्नई के शहरी क्षेत्र में तेज़ी से औद्योगीकरण हुआ है. इसी का नतीजा है कि शहर के जल निकाय लंबे समय तक रहने वाले "हमेशा रहने वाले रसायनों" से प्रदूषित हो रहे हैं. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि चेन्नई के आसपास के सतही जल और भूजल में पीएफएएस पाए गए. संयंत्र से निकलने वाले उपचारित पेयजल में पीएफएएस का स्तर कच्चे पानी से ज़्यादा था. ये दिखाता है कि जल का पारंपरिक उपचार (रेत से पानी को फिल्टर करना, क्लोरीनीकरण, आदि) पीएफएएस को खत्म नहीं करता, बल्कि उन्हें और गाढ़ा कर देता है. चेन्नई के तटीय एक्यूफर (एन्नोर-मनाली औद्योगिक क्षेत्र) में किए गए एक अन्य अध्ययन में भूजल में पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) पाए गए, जो तेल और कोयला आधारित कैंसरकारी हाइड्रोकार्बन हैं. पेट्रोलियम टैंक से दशकों पुराने रिसाव के कारण इनकी सांद्रता बहुत अधिक थी. यह प्रदूषण एक्यूफर में 50 साल से भी ज्यादा समय तक बना रहा, जिससे पेट्रोलियम आधारित ईडीसी प्रदूषण की स्थिरता का पता चलता है.
ऐसे में सवाल है कि क्या ये प्रदूषक तत्व सीवेज, उपचारित जल या पेयजल में पाए जाते हैं? इसका उत्तर हां में ही है. ईडीसी कच्चे सीवेज स्तर से लेकर आंशिक रूप से उपचारित अपशिष्टों तक, और अगर बहुत ज़्यादा नियंत्रण ना हो तो उपचारित पेयजल तक छिपे रह सकते हैं. अलग-अलग जल प्रणालियों में इनकी व्यापक उपस्थिति ईडीसी को विशेष रूप से घातक बनाती है.
ईडीसी का एक सामान्य लेकिन महत्वपूर्ण रास्ता नगरपालिका के सीवेज और अपशिष्ट जल से होकर गुजरता है. ईडीसी मानव मलमूत्र (प्राकृतिक हार्मोन और इथिनाइल एस्ट्राडियोल जैसे गर्भनिरोधक अवशेष), दवाइयों, व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों, और घरेलू रसायनों से उत्पन्न होते हैं. इनमें से ज़्यादातर चीजों का कूड़ा प्रबंधन ठीक तरीके से नहीं करने से ये नालियों में बह जाते हैं. अधिकांश भारतीय अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र ईडीसी जैसे सूक्ष्म प्रदूषकों को खत्म करने के लिए डिज़ाइन नहीं किए गए हैं. अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि पारंपरिक वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट प्लांट्स में हार्मोन, ट्राइक्लोसन और फ़थलेट्स जैसे यौगिकों को हटाने के लिए ज़रूरी उपकरण नहीं होते. नतीजा ये होता है कि सभी प्रदूषक नदियों और झीलों में "रिस" जाते हैं. भारतीय कृषि में कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल के कारण ग्रामीण जलस्रोत और नदियां, कृषि रसायनों से प्रदूषित होने के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं. इन्हें अंतःस्रावी तंत्र को बाधित करने वाला माना जाता है. पुराने ऑर्गैनोक्लोरीन कीटनाशक (जैसे डीडीटी, एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर, एंडोसल्फान) मिट्टी में बने रहते हैं और इस्तेमाल के बाद दशकों तक भूजल में पहुंच जाते हैं. यहां तक कि पानी के वितरण में इस्तेमाल होने वाले पाइपों और कंटेनरों में भी ईडीसी हो सकते हैं.
दवा निर्माण इकाइयों और अस्पतालों से हार्मोन दवाओं, एंटीबायोटिक दवाओं और अन्य जैवसक्रिय रसायनों के रिसाव को भी अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. कारखानों (दवा उद्योग समूहों) में अनुचित अपशिष्ट उपचार से सिंथेटिक हार्मोन (जैसे गर्भनिरोधक या हार्मोन थेरेपी में इस्तेमाल होने वाले प्रोजेस्टेरोन और एस्ट्राडियोल) और अन्य शक्तिशाली यौगिकों के अवशेष निकल सकते हैं.
भारत के नियामक और निगरानी ढांचे पानी में ईडीसी प्रदूषण को लेकर काफ़ी हद तक खामोश रहे हैं. राष्ट्रीय पेयजल मानक (बीआईएस आईएस 10500:2012 दिशानिर्देश) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा निर्धारित मानदंड ज़्यादातर ईडीसी को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं करते हैं. कुछ पुराने प्रदूषकों को इसमें शामिल किया गया है. उदाहरण के लिए, बीआईएस कीटनाशकों (जैसे डीडीटी, एचसीएच आइसोमर्स और एल्ड्रिन) और पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफिनाइल्स (पीसीबी) के साथ-साथ कुछ भारी धातुओं की एक छोटी सूची के लिए इन नियामक संस्थाओं ने सुरक्षित सीमाएं तय की हैं. हालांकि, ईडीसी के महत्वपूर्ण वर्ग, जैसे कि फार्मास्युटिकल हार्मोन, थैलेट्स, बीपीए और पीएफएएस, किसी भी भारतीय पेयजल मानकों या नियमित निगरानी आवश्यकताओं में शामिल नहीं हैं. इन उभरते हुए प्रदूषकों के लिए नल के पानी या स्रोत के जल का परीक्षण करने का कोई आदेश नहीं है.
इसके विपरीत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईडीसी संबंधी विचारों को शामिल करने के लिए मानक तेज़ी से विकसित हो रहे हैं. यूरोपीय संघ का संशोधित पेयजल निर्देश (2020) स्पष्ट रूप से अंतःस्रावी विघटनकारी कारकों और अन्य उभरते प्रदूषकों पर फोकस करता है. यूरोपीय संघ ने एक निगरानी सूची तंत्र शुरू किया है, जिसके तहत वर्तमान में सदस्य देशों को दो ज्ञात ईडीसी, बीटा-एस्ट्राडियोल (एक प्राकृतिक एस्ट्रोजन) और नॉनाइलफेनॉल (एक औद्योगिक सर्फेक्टेंट), की निगरानी एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के रूप में अपने जल आपूर्ति में करनी होती है.
जब ख़तरे का पता लगाना ही ज़रूरी नहीं है, तो फिर इसे नियंत्रित करना तो बहुत दूर की बात है. इसे लेकर आंकड़ों का भी अभाव है. देश भर में पानी में ईडीसी के स्तर को मापने के लिए बहुत कम दीर्घकालिक अध्ययन या निगरानी कार्यक्रम मौजूद हैं.
ईडीसी पर भारतीय नियामक संस्थाओं की चुप्पी का एक मतलब ये भी है कि उद्योगों और नगरपालिकाओं पर इन प्रदूषकों को मापने का भी दबाव कम है. जब ख़तरे का पता लगाना ही ज़रूरी नहीं है, तो फिर इसे नियंत्रित करना तो बहुत दूर की बात है. इसे लेकर आंकड़ों का भी अभाव है. देश भर में पानी में ईडीसी के स्तर को मापने के लिए बहुत कम दीर्घकालिक अध्ययन या निगरानी कार्यक्रम मौजूद हैं. जबलपुर अध्ययन में पाया गया कि लेखकों के शोध से पहले भारत में पेयजल में फ़थलेट्स/बीपीए के लिए कोई आधारभूत आंकड़ा उपलब्ध नहीं था. अकादमिक अध्ययनों से परेशान करने वाले निष्कर्ष सामने आने पर भी प्रतिक्रिया नकारात्मक हो सकती है. तमिलनाडु में, अधिकारियों ने अपने खुद के परीक्षण का हवाला देते हुए चेन्नई के पानी में पीएफएएस की समस्या होने से इनकार किया. ये हमारी निगरानी प्रणालियों को उन्नत करने की आवश्यकता को उजागर करता है.
भारत में ईडीसी के खिलाफ लड़ाई सिर्फ़ प्रयोगशाला के उपकरणों से नहीं जीती जा सकती; इसके लिए ऐसी नीतियों की ज़रूरत है जो रोज़ाना नल का पानी पीने वालों को केंद्र में रखें. चार व्यावहारिक कदम इसमें बदलाव ला सकते हैं.
पानी में ईडीसी का पता लगाने और उसे नियंत्रित करने के लिए भारत को एक समर्पित नियामक ढांचा अपनाना चाहिए. इसमें बीआईएस पेयजल मानकों और सीपीसीबी दिशानिर्देशों में संशोधन करना शामिल है. ऐसा करने पर ही प्रमुख अंतः स्रावी-विघटनकारी रसायनों की सीमाओं के स्वास्थ्य-आधारित मानक विकसित किए जा सकेंगे.
ईडीसी का पता लगाने का मतलब है एक ग्राम के अरबवें हिस्से में काम करना. राज्य और शहर की प्रयोगशालाओं को उच्च-रिज़ॉल्यूशन गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (जीसी-एमएस) या लिक्विड क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (एलसी-एमएस) उपकरणों से लैस करके ये किया जा सकता है. तकनीशियनों को प्रशिक्षित करके, कभी-कभार होने वाले अकादमिक अध्ययनों को नियमित सार्वजनिक निगरानी में बदला जा सकता है. नदियों और भूजल के वार्षिक सार्वजनिक आंकड़े, सर्वेक्षण में शामिल जिले के नागरिकों को आश्वस्त करेंगे और अदृश्य रसायनों की घुसपैठ पर चेतावनी के संकेत देंगे.
पेयजल उपचार संयंत्रों के लिए, सक्रिय कार्बन अवशोषण, ओज़ोनीकरण, उन्नत ऑक्सीकरण (एओपी), और झिल्ली निस्पंदन (अल्ट्राफिल्ट्रेशन, रिवर्स ऑस्मोसिस) कार्बनिक सूक्ष्म प्रदूषकों और पीएफएएस को कम करने के वैज्ञानिक तरीके हैं. बड़े नगरपालिका संयंत्रों में सक्रिय कार्बन फिल्टर, उन्नत ऑक्सीकरण और अल्ट्राफिल्ट्रेशन का इस्तेमाल करके पेयजल में ईडीसी को रोका जा सकता है.
सरल, विकेन्द्रीकृत समाधान, जैसे कि निर्मित आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) जो सरकंडों और सूक्ष्मजीवों को हार्मोन पचाने देती हैं, इसमें मददगार हो सकती है. छोटे फुटप्रिंट वाले बायोरिएक्टर जो फ़थलेट्स को क्लिप करते हैं, वो अस्पतालों और औद्योगिक क्षेत्रों के अपशिष्टों के लिए निर्मित समाधान प्रदान करते हैं. प्रशासन या आम लोग भी समुदायिक आर्द्रभूमि का निरीक्षण कर सकते हैं, पानी को साफ़ होते देख सकते हैं, और जान सकते हैं कि ये काम कर रहा है या नहीं?
भारत की जल प्रदूषण चुनौती एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है. नियमों को अपडेट, बेहतर जल उपचार में निवेश, अपने जल स्रोतों की बारीकी से निगरानी और जनता को शिक्षित करके, भारत ईडीसी के ख़तरे को एक मौन स्वास्थ्य संकट बनने से पहले ही कम कर सकता है. ये दृष्टिकोण हमारे लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करेगा. इतना ही नहीं ये मॉडल इसी तरह की चुनौती का सामना कर रहे अन्य विकासशील देशों के लिए एक आदर्श भी बनेगा.
के.एस. उपलब्द्ध गोपाल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की स्वास्थ्य पहल में एसोसिएट फेलो हैं.
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Dr. K. S. Uplabdh Gopal is an Associate Fellow within the Health Initiative at ORF. His focus lies in researching and advocating for policies that ...
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