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2017 के केंद्रीय बजट में इलेक्टोरल फंडिंग रिफ़ॉर्म पर एक पूरा सेक्शन दिया गया था, जो तब तक देश में अपनी तरह की अकेली पहल थी.
साळ 2014 में भारी जनादेश से साथ सत्ता में आने वाली एनडीए सरकार ने देश में गवर्नेंस प्रक्रिया को बेहतर और मजबूत बनाने के लिए कई सुधारों का प्रस्ताव रखा था. गठबंधन सरकार की प्राथमिकताओं में लंबे समय से लटके हुए राजनीतिक और चुनाव सुधारों को पूरा करने का एजेंडा भी शामिल था. सरकार ने राजनीतिक व्यवस्था में काले धन के प्रवाह को रोकने का प्रस्ताव भी रखा था, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होती है. साथ ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने राजनीति में बढ़ते ‘अपराधीकरण’ को रोकने का वादा भी किया था.
प्रधानमंत्री मोदी ने काले धन के प्रवाह को रोकने के लिए एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग लॉ, 2002 में तुरंत बदलाव करके इस मामले में सरकार की प्रतिबद्धता भी दिखाई थी. उन्होंने बेनामी लेन-देन रोकने के लिए सख़्त उपाय किए और नवंबर 2016 में 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों को अमान्य करने जैसा विवादास्पद कदम भी उठाया. नोटबंदी से काले धन के प्रवाह पर रोक लगाने का प्रमुख मकसद हासिल नहीं हो पाया और इससे अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों के लिए संकट भी खड़ा हुआ, लेकिन इस कदम के ज़रिये सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि काले धन को लेकर ‘चलता है…’ वाली सोच उसे मंज़ूर नहीं है.
काले धन के अभिशाप को ख़त्म करने और चुनावी प्रक्रिया में इसके प्रवाह को रोकने के लिए 2017 के वित्त विधेयक में मोदी सरकार ने कई महत्वपूर्ण उपाय किए थे. 2017 के केंद्रीय बजट में इलेक्टोरल फंडिंग रिफ़ॉर्म पर एक पूरा सेक्शन दिया गया था, जो तब तक देश में अपनी तरह की अकेली पहल थी. इसमें ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ योजना ने सबसे अधिक सुर्खियां बटोरीं. इन बॉन्ड्स से जहां राजनीतिक पार्टियों को चुनाव की ख़ातिर फंड जुटाने का नया रास्ता मिला, वहीं इसका असल मकसद कैश डोनेशन (चुनावी फंडिंग में काले धन का दूसरा नाम) पर रोक लगाना था. इसकी जगह चेक या ऑनलाइन डोनेशन की व्यवस्था अपनाई गई. एक और महत्वपूर्ण कदम जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 29(1) में संशोधन था, जो राजनीतिक दलों के 20 हजार रुपये से अधिक का चंदा हासिल करने की जानकारी देने से जुड़ा था. सरकार का मानना था कि राजनीतिक दलों को 20 हजार से कम के चंदे के स्रोत की जानकारी देने से जो छूट मिली हुई थी, उसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा था. नया संशोधन इसलिए किया गया ताकि राजनीतिक दल अज्ञात स्रोत से चंदा न ले सकें. इससे उनके अपने बहीखाते की इनकम टैक्स विभाग से जांच करवाने की चोर गली भी बंद हो गई. सरकार और खासतौर पर वित्त मंत्रालय ने तब दावा किया था कि कैश कंट्रीब्यूशन को 20 हजार से घटाकर 2,000 रुपये करने और चेक से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने और व डिजिटल पेमेंट से राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता बढ़ेगी.
इस दिशा में एक और बड़ा कदम कंपनी कानून के संशोधनों को लागू करना था. इसमें ख़ासतौर पर राजनीतिक दलों को 7.5 प्रतिशत के कॉरपोरेट डोनेशन की सीमा को ख़त्म करने की पहल भी शामिल थी. कंपनियों को इसकी छूट दी गई कि वे जिस पार्टी को राजनीतिक चंदा दे रही हैं, उनके नाम अपने बहीखाते में न दिखाएं. अंत में, 2017 के वित्त विधेयक में एक प्रावधान जोड़ा गया, जिसमें कहा गया था कि इनकम टैक्स से छूट के लिए सभी राजनीतिक दलों को तय सीमा के अंदर टैक्स रिटर्न फाइल करनी होगी. तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि यह संशोधन इसलिए किया गया ताकि राजनीतिक दल समय पर टैक्स रिटर्न फाइल करने के नियम की खुलेआम धज्जियां न उड़ा सकें. इसके लिए इनकम टैक्स कानून, 1961 के सेक्शन 13ए क्लॉज (डी) में संशोधन किया गया. इसका मकसद कैंपेन फाइनेंसिंग लॉ को लेकर राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ाना था. कुल मिलाकर, 2017 के बजट में चुनावी चंदे में पारदर्शिता बढ़ाने और राजनीतिक दलों की इस सिलसिले में जवाबदेही बढ़ाने को लेकर कई कदम उठाए गए थे. इसके बावजूद हालिया कदमों की पड़ताल से चुनाव सुधार को लेकर कई विरोधाभासी ट्रेंड सामने आए हैं. पहला, सरकार ने नकद चंदे की सीमा को पहले की तुलना में घटाकर सिर्फ 10 प्रतिशत कर दिया (20 हजार से घटाकर 2 हजार रुपये), जो अच्छा कदम था, लेकिन इसके बावजूद राजनीतिक दलों के पास फ़र्ज़ी खाते खोलकर इस नियम के उल्लंघन की गुंजाईश बनी रही.
दूसरा, कई लोगों ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को क्रांतिकारी पहल बताया क्योंकि इससे ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सफेद धन’ का प्रवाह बढ़ेगा. इलेक्टोरल बॉन्ड में चेक और डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा दिया जाता है. इसलिए इससे चंदा देने वाले की पहचान गुप्त नहीं रहती. हालांकि, इसकी सबसे बड़ी ख़ामी यह है कि इसमें चंदा देने वाले शख़्स का नाम जाहिर नहीं किया जाता. बेशक, यह पिछली व्यवस्था से बेहतर है क्योंकि इसमें चेक और डिजिटल लेन-देनकी वजह से चंदा देने वाले के बारे में पता चलता है, लेकिन यह व्यवस्था भी पूर्ण रूप से पारदर्शी नहीं है.
सरकार ने फॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट, 2010 (एफसीआरए) के तहत विदेशी कंपनियों को भी राजनीतिक चंदा देने की इजाज़त दी (इसके लिए एक बार फिर वित्त विधेयक का रास्ता चुना गया). इससे इलेक्टोरल बॉन्ड अब कॉरपोरेट डोनेशन का सबसे पसंदीदा रास्ता बन गए हैं. इसमें काफी हद तक पैसा विदेशी स्रोतों से आ रहा है. खरीदे गए बॉन्ड से हाल में जो संकेत उभरे हैं, उनसे पता चलता है कि पहले जो कंपनियां राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल ट्रस्ट के ज़रिये चंदा दे रही थीं, अब वे इस नए माध्यम के ज़रिये यह काम कर रही हैं. इसका पता इस बात से भी चलता है कि खरीदे गए करीब-करीब सारे बॉन्ड (99.9 प्रतिशत) अधिक रकम के थे. इनकी कीमत 10 लाख से एक करोड़ रुपये के बीच थी. यानी कॉरपोरेट्स अब राजनीतिक चंदा देने के लिए बॉन्ड का इस्तेमाल कर रहे हैं.
मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आया है, जो उनकी बड़ी उपलब्धि है.
तीसरा, देश की चुनावी प्रक्रिया के लिए सबसे चिंताजनक घटनाक्रम एफसीआरए 2010 और कंपनी कानून में किए गए संशोधन हैं. दिल्ली हाईकोर्ट के विदेशी कंपनियों के राजनीतिक दलों की फंडिंग वाले फैसले से बचने के लिए जिस अंदाज़ में एनडीए सरकार ने एफसीआरए में संशोधन किया, उससे जवाबदेही और पारदर्शिता पर राजनीतिक दलों का जो रुख़ रहा है, वह दिखावा साबित हुआ. एनडीए सरकार ने इसके लिए जो कानून बनाया, उसे पिछली तारीख़ से लागू किया गया. इससे 1976 के बाद से राजनीतिक दलों की विदेशी फंडिंग की जांच का रास्ता बंद हो गया. यहां इस बात पर गौर करना ज़रूरी है कि एफसीआरए 1976 में ही पास हुआ था और उसमें राजनीतिक दलों की विदेशी फंडिंग पर रोक लगाई गई थी. इस कानून को ख़त्म करके यूपीए सरकार एफसीआरए, 2010 कानून लाई. हालांकि, इस कानून में संशोधन करके एनडीए सरकार ने साबित कर दिया कि वह कांग्रेस पार्टी से अलग नहीं है, जिसने विदेशी कंट्रीब्यूशन पर परदा डालने की कोशिश की थी. इसमें सबसे बुरी बात कॉरपोरेट डोनेशन पर लगी पाबंदी हटाना और चंदा देने वालों के नाम जाहिर करने की अनिवार्यता ख़त्म करना है. इस संशोधन की वजह से कंपनियों के लिए बिना नाम ज़हिर किए राजनीतिक दलों को चंदा देने का रास्ता खुल गया.
आखिर में, मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आया है, जो उनकी बड़ी उपलब्धि है. हालांकि, राजनीति से अपराधियों को बाहर करने के मामले में इस सरकार का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है. 2014 लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने कई बार दावा किया था कि वह फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर राजनीति का अपराधीकरण रोकेंगे. उसके बाद से उनकी सरकार ने उन राजनेताओं के मामलों को निपटाने के लिए 12 विशेष अदालतें बनाई हैं, जिन पर अपराध के आरोप हैं. लेकिन इससे ऐसे लंबित मामलों की संख्या में बहुत कमी नहीं आई है (देखें चार्ट 2). इससे भी बड़ी बात यह है कि इन उपायों से 2019 लोकसभा चुनाव में आपराधिक रिकॉर्ड वाले राजनेताओं के चुने जाने पर रोक नहीं लगी. 16वीं लोकसभा में 43 दागी नेता सांसद बने. इन पर कई हत्याएं करने, बलात्कार और दंगा कराने जैसे संगीन आरोप हैं.
सुझाव:
मोदी सरकार ने बड़े चुनावी और राजनीतिक सुधार के वादे के साथ 2014 में अपनी पारी की शुरुआत की थी, लेकिन वह पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने से जुड़े कई सुधारों को लेकर ठंडी पड़ गई है. जैसा कि ऊपर लिखा गया है, एनडीए सरकार ने देश के अपारदर्शी राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने का मौका गंवा दिया, जिसकी वजह से राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता आया है. इससे गवर्नेंस प्रभावित हुआ और लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा घटा है. यह बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ही थी, जिसने इलेक्शन एंड अदर रिलेटेड लॉज (अमेंडमेंट) एक्ट, 2003 के ज़रिये देश में अब तक का सबसे बड़ा चुनावी सुधार किया था. इस कानून के ज़रिये सिविल सोसायटी, प्रेस और इलेक्शन वॉचडॉग को चुनावी फंडिंग की निगरानी का अधिकार दिया गया था. इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि नई सरकार इस मामले में और राजनीतिक साहस दिखाएगी.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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