Author : Hari Bansh Jha

Published on Jul 28, 2023 Updated 0 Hours ago

नेपाल में लोकतंत्र (democracy) भद्दी राजनीति बनकर रह गया है. शायद यही वजह है कि मतदाताओं के बीच चुनाव (elections) को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया है.

Elections in Nepal: नेपाल में चुनाव से मतदाताओं की दूरी लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक!
Elections in Nepal: नेपाल में चुनाव से मतदाताओं की दूरी लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक!

2015 में नेपाल (Nepal) के संविधान का एलान होने के बाद नेपाल में दूसरी बार संसद यानी प्रतिनिधि सभा के लिए 20 नवंबर 2022 को चुनाव (election) हुए. प्रतिनिधि सभा के साथ-साथ सात प्रांतीय विधानसभाओं के लिए भी वोट डाले गए. 275 सदस्यों की प्रतिनिधि सभा में 165 सदस्यों को प्रत्यक्ष मतदान (voting) की चुनाव संबंधी प्रणाली से चुना जाता है जबकि बाक़ी 110 सदस्यों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुना जाता है. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सदस्यों के चयन के लिए किसी दल या राजनीतिक गठबंधन को कुल वैध मतों का कम-से-कम 3 प्रतिशत हिस्सा हासिल करना होगा. 3 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश में लगभग 1 करोड़ 70 लाख मतदाता संघीय संसद और प्रांतीय विधानसभाओं में उम्मीदवार की क़िस्मत का फ़ैसला करते हैं. 

नेपाल के चुनाव आयोग को ये अधिकार है कि वो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगा सके और यहां तक कि किसी उम्मीदवार की उम्मीदवारी को भी रद्द कर सकता है. ख़बरों के मुताबिक़ यूरोपीय संघ (EU) के अलावा नेपाल के अलग-अलग पर्यवेक्षकों के समूह ने भी चुनाव की निगरानी की. 

नेपाल के चुनाव आयोग (ECN) ने वोटिंग से पहले दावा किया कि उसने संघीय संसद और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव में स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करने के लिए सभी ज़रूरी तैयारियां की हैं. इस कोशिश के तहत चुनाव आयोग ने एक संस्थागत व्यवस्था भी स्थापित की जिसमें नेपाल पुलिस और नेपाल सेना के साइबर एक्सपर्ट्स को शामिल किया गया ताकि किसी भी पक्ष के द्वारा ग़लत जानकारी, दुष्प्रचार या फिर नफ़रत से भरे भाषण को फैलाने की कोशिश को रोका जा सके. इसके साथ ही नेपाल के चुनाव आयोग ने एक नियम भी बनाया जिसके तहत मंत्री चुनाव प्रचार करते समय संघीय, प्रांतीय या स्थानीय स्तर पर सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. मतदान से पहले चुनाव आयोग ने 71 व्यक्तियों/संस्थानों को कथित तौर पर चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के लिए कारण बताओ नोटिस भी जारी किया. नेपाल के चुनाव आयोग को ये अधिकार है कि वो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगा सके और यहां तक कि किसी उम्मीदवार की उम्मीदवारी को भी रद्द कर सकता है. ख़बरों के मुताबिक़ यूरोपीय संघ (EU) के अलावा नेपाल के अलग-अलग पर्यवेक्षकों के समूह ने भी चुनाव की निगरानी की. 

मुख्य राजनीतिक किरदार 

नेपाल के चुनाव आयोग के समक्ष रजिस्टर्ड 116 राजनीतिक दलों में से 84 दलों ने प्रतिनिधि सभा और प्रांतीय विधानसभाओं का चुनाव लड़ा. लेकिन मुख्य मुक़ाबला छह दलों के सत्ताधारी गठबंधन, जिसका नेतृत्व नेपाली कांग्रेस के नेता और नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा कर रहे हैं, और चार दलों के विपक्षी गठबंधन, जिसका नेतृत्व नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी (CPN-UML) के नेता और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कर रहे हैं, के बीच था. सत्ताधारी गठबंधन में नेपाली कांग्रेस, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी-सेंटर), नेपाल समाजवादी पार्टी, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी), लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी नेपाल और राष्ट्रीय जनमोर्चा शामिल हैं. विपक्षी गठबंधन में CPN-UML, नेपाल परिवार दल, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल और जनता समाजवादी पार्टी शामिल हैं. 

नेपाल की गठबंधन वाली चुनावी राजनीति में विचारधारा निरर्थक बन कर रह गई है. अगर ऐसा नहीं होता तो नेपाली कांग्रेस जैसी लोकतांत्रिक पार्टी कट्टर वामपंथी माओवादी पार्टी के साथ या फिर संघीय व्यवस्था विरोधी संयुक्त जनमोर्चा के साथ चुनावी गठबंधन कैसे करती?

2017 के चुनाव में CPN-UML और CPN (माओवादी-सेंटर) के गठबंधन ने संघीय संसद की प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली वाली 165 में से 116 सीटों पर जीत हासिल की थी. वहीं मुख्य विपक्षी नेपाली कांग्रेस को महज़ 26 सीटों पर जीत हासिल हुई. हालांकि, लेफ्ट विंग को मिला मत नेपाली कांग्रेस के मुक़ाबले सिर्फ़ 10 प्रतिशत ज़्यादा था. प्रतिनिधि-सभा के अलावा दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने प्रांतीय विधानसभाओं की भी ज़्यादातर सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की और इस तरह वो सात में से छह प्रांतों में सरकार का गठन करने में सफल रहीं. लेकिन उसके बाद लेफ्ट विंग के राजनीतिक नेताओं के बीच अंदरुनी मनमुटाव की वजह से माधव कुमार नेपाल और पुष्प कमल दहल CPN-UML से अलग हो गए और उन्होंने छह पार्टियों के सत्ताधारी गठबंधन में शामिल होने का फ़ैसला लिया.  

दो बड़े गठबंधनों के बीच लड़ाई 

दो चुनावी गठबंधनों के बनने की वजह से अलग-अलग पार्टियों से जुड़े नेताओं के लिए चुनाव लड़ने की संभावना काफ़ी कम हो गई. मिसाल के तौर पर, सत्ताधारी चुनावी गठबंधन में नेपाली कांग्रेस ने अपने पास 165 में से सिर्फ़ 90 सीटें रखी और पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाली CPN (माओवादी-सेंटर) के लिए 47 सीटें; माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व वाली CPN (एकीकृत समाजवादी) के लिए 19 सीटें; महंथ ठाकुर के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के लिए सात सीटें; और राष्ट्रीय जनमोर्चा के लिए दो सीटें छोड़ी. गठबंधन की राजनीति की वजह से अलग-अरग राजनीतिक दलों को सीटों पर समझौता करना पड़ा. इस तरह कई स्थापित नेता चुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट हासिल नहीं कर पाए. इसके कारण कई नेताओं ने विरोध में अपनी पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया और बाग़ी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ा. 

विचारधारा को महत्व नहीं 

नेपाल की गठबंधन वाली चुनावी राजनीति में विचारधारा निरर्थक बन कर रह गई है. अगर ऐसा नहीं होता तो नेपाली कांग्रेस जैसी लोकतांत्रिक पार्टी कट्टर वामपंथी माओवादी पार्टी के साथ या फिर संघीय व्यवस्था विरोधी संयुक्त जनमोर्चा के साथ चुनावी गठबंधन कैसे करती? इसी तरह CPN-UML हिंदू समर्थक और राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ हाथ कैसे मिलाती? कैसे मधेश समर्थक जनता समाजवादी पार्टी, जो 2015-16 के मधेश आंदोलन के दौरान CPN-UML के ख़िलाफ़ थी, CPN-UML के साथ गठबंधन करती? ये कैसे संभव हुआ कि मधेश आधारित दो पार्टियों ने स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाने के बदले या तो सत्ताधारी गठबंधन के साथ हाथ मिलाया या फिर विपक्षी गठबंधन के साथ? 

अगर विचारधारा की मुख्य भूमिका होती तो सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी गठबंधन में शामिल पार्टियां सिर्फ़ दो अलग-अलग चुनावी घोषणापत्र लेकर आतीं. उन्होंने ये दिखाने की कोशिश की होती कि वो किस तरह घरेलू या फिर विदेश नीति के मुद्दों पर एक-दूसरे से अलग-अलग हैं. इससे मतदाताओं को ये फ़ैसला लेने में मदद मिलती कि दोनों में से कौन सा गठबंधन उनके हितों के लिए अच्छा है. लेकिन ऐसा करने के बदले सत्ताधारी और विपक्षी गठबंधन में शामिल राजनीतिक दल अपना-अपना चुनावी घोषणापत्र लेकर आए जिसने मतदाताओं के बीच भ्रम में और बढ़ोतरी की. 

सत्ताधारी गठबंधन में नेपाली कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में धर्मनिरपेक्षता को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई है क्योंकि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता नेपाल को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के पक्ष में हैं. लेकिन सत्ताधारी गठबंधन में शामिल होने के बावजूद माओवादी पार्टियों ने धर्मनिरपेक्षता के एजेंडे के प्रति मज़बूत निष्ठा का प्रदर्शन किया है. ये एक विडंबना है कि नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने के मुद्दे पर विपक्षी गठबंधन में शामिल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ज़्यादा मुखर है

इसके अलावा राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में प्रांतों को ख़त्म करने का इरादा जताया है जबकि CPN-UML और विपक्ष में शामिल दूसरे राजनीतिक दलों ने इस रुख़ का समर्थन नहीं किया है. वैसे पिछले पांच वर्षों के दौरान प्रांतों ने कोई ख़ास उपलब्धि हासिल नहीं की है.

साथ ही, मुख्य विपक्षी पार्टी CPN-UML ने अपने चुनावी घोषणापत्र में संकल्प जताया कि वो सरकार बनाने के छह महीने के भीतर बेहद पुराने नागरिकता के मुद्दे को सुलझाएगी. लेकिन राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी, जो कि CPN-UML की वरिष्ठ नेता रह चुकी हैं, ने नेपाल की संसद के दोनों सदनों से पारित नागरिकता संशोधन विधेयक को मंज़ूर नहीं किया है. उम्मीद ये थी कि इस विधेयक से नागरिकता के मुद्दे का समाधान हो जाता क्योंकि इसमें इस बात की इजाज़त नहीं दी गई है कि जिनके पास जन्म से नागरिकता है, उनके बच्चों को वंश के आधार पर नागरिकता मिले.   

चूंकि, सभी बड़ी राजनीतिक पार्टी या तो सत्ताधारी गठबंधन में शामिल हो गई हैं या विपक्षी गठबंधन में, ऐसे में किसी अन्य पार्टी के बड़ी शक्ति के रूप में उभरने की संभावना नहीं के बराबर थी.

चूंकि, सभी बड़ी राजनीतिक पार्टी या तो सत्ताधारी गठबंधन में शामिल हो गई हैं या विपक्षी गठबंधन में, ऐसे में किसी अन्य पार्टी के बड़ी शक्ति के रूप में उभरने की संभावना नहीं के बराबर थी. पिछले साल मई में 753 ग्रामीण नगरपालिकाओं/नगरपालिकाओं में जनता के द्वारा दिए गए जनादेश के मुताबिक़ ही इस बार नतीजे आए हैं जिसमें माओवादी पार्टियों के साथ नेपाली कांग्रेस ने संघीय संसद के साथ-साथ प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन किया है. CPN-UML और मधेश आधारित दो राजनीतिक दलों को पराजय का सामना करना पड़ा.  

लेकिन जो बात सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली है वो है मतदाताओं के बीच बढ़ता भ्रम और हताशा और इसकी वजह है दोनों चुनावी गठबंधनों में शामिल दलों के नेताओं के द्वारा सत्ता के लिए विचारधारा का बलिदान देना. मतदाता इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि चुनावी घोषणापत्र में विकास का एजेंडा और राजनीतिक दिशा-निर्देश मज़ाक बनकर रह गए हैं. नेताओं में भरोसे की कमी की वजह से मतदाता चुनाव में वोड डालने में भी अनिच्छुक और निष्क्रिय हो गए हैं. प्रतिनिधि सभा के चुनाव में सिर्फ़ 61 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. ऐसे संकेत नेपाल में लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं हैं. 

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