Author : Kanchan Gupta

Published on Feb 18, 2019 Updated 0 Hours ago

राजनीति की भाषा चमत्कारिक रूप से कुछ ऐसी हो गयी है कि पुरानी दुनिया की शालीनता पर सरल से सरल क्विज में भी असफल हो जाएगी।

चुनाव 2019: असभ्य संवाद, घटिया राजनीति

भारत के आम चुनावों को अब ज्यादा दिन नहीं हैं। जैसे-जैसे चुनाव के दिन नज़दीक आते जा रहे हैं यह साफ़ होता जा रहा है कि दिल्ली की गद्दी के लिए इस साल का चुनाव शायद हाल के समय का सबसे निष्ठुर चुनाव होगा। इस तरह के तीन और चुनाव दिमाग में आते हैं, जिनमें इसी तरह की कड़वाहट भरी सत्ता की दौड़ थी: 1977, जब आपातकाल के शासन की भयावहता खुले में फूट कर सामने आ गयी थी; 1984, जब कांग्रेस ने हर उस व्यक्ति को शैतानी साबित करना शुरू कर दिया जो उस अजीबोगरीब पागलपन के बीच कुछ समझदारी की बात कर रहा था और 1989, जब पहली बार वामपंथी और दक्षिणपंथी कांग्रेस को गिराने के लिए एक साथ आ गए थे, यह एक ऐसा आघात था जिससे कांगेस आज तक नहीं उबर पायी।

भारत की आज की राजनीति में जिस तरह की बातें चल रही हैं उनमें कड़वाहट और द्वेष ही छाया हुआ है। सभी दलों के नेता संयम और शालीनता की परम्परा को भूलते जा रहे हैं, यह कई मामलों में ग्लोबल ट्रेंड को ही दर्शा रहा है। अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव और उसके बाद होने वाले यूरोप के चुनावों को याद करें तो यह हम साफ देख सकते हैं। सिर्फ अनपेक्षित चुनाव परिणामों के रूप में ही नहीं बल्कि कई रूपों में गिरावट आयी है।

भारत की आज की राजनीति में जिस तरह की बातें चल रही हैं उनमें कड़वाहट और द्वेष ही छाया हुआ है। सभी दलों के नेता संयम और शालीनता की परम्परा को भूलते जा रहे हैं, यह कई मामलों में ग्लोबल ट्रेंड को ही दर्शा रहा है।

हालांकि, चुनावी कैंपेन में हो रही बातों की बढ़ती जा रही असभ्यता अन्य चिंतनीय मामलों से एक तरह का भटकाव भी बन गयी हैं।

डोनाल्ड ट्रम्प की चौंकाने वाली जीत के तुरंत बाद दो जाने-माने पब्लिक इंटेलेक्चुअल, पहला एक अमेरिकन और दूसरा एटलांटिक के दूसरे सिरे से उसका लिबरल साथी, गोवा में एक कॉन्क्लेव में इस बात की लंबी चर्चा के लिए बैठे कि यह कितना जरूरी होता जा रहा है कि कुछ लोगों को चुनाव जीतने की अनुमति नहीं दी जाए। “गणतंत्र या डेमोक्रेसी के नियमों को दुबारा फ़्रेम करने और अवरोधों को खड़े करने की जरूरत है,” यूरोपियन लिबरल ने एक श्रोता को यह बात कही लेकिन वह इस सुझाव को पूरी तरह समझ नहीं सके। जबकि उनका अमेरिकन साथी, रिपब्लिकन होने पर भी सहमत हो गया।

एक तरह से देखें तो गणतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने और लोकप्रिय वोट को नष्ट करने का यह आह्वान उस समय को हमारे सामने ले आता है जब मत-पेटी को छीनना और बूथ पर कब्जा कर लेना आम बात थी। शुरुआती वर्षों के दौरान अमेरिकी चुनावों में जो सामान्य विशेषता थी वह भारत के चुनावों को 1960 से 1990 तक प्रभावित करने लगी। इस समय तक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन आ गयी और दूसरे पर आधिपत्य जमाने की राजनीति शुरू हो गयी। संयोगवश या किसी और वजह से, अब हम दुनिया के सबसे पुराने और बड़े लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों को दुबारा सामने आते हुए देख रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे उन लोगों के लिए रुकावटें खड़ी करना एकदम सही है जिनको उत्तराधिकार से वंचित कर दिए गए, उपाधियां खत्म कर दिए गए और सिहांसन से हटा दिए गए लोग नापसंद करते हैं।

शुरुआती वर्षों के दौरान अमेरिकी चुनावों में जो सामान्य विशेषता थी वह भारत के चुनावों को 1960 से 1990 तक प्रभावित करने लगी। इस समय तक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन आ गयी और दूसरे पर आधिपत्य जमाने की राजनीति शुरू हो गयी।

भारत में यह एकदम साफ़ है कि जमे-जमाए हुए राजनैतिक दल हर उस व्यक्ति के लिए दरवाजे बंद करना चाहते हैं जो उनके आधिपत्य को चुनौती देता है। एक ध्यान देने योग्य मामला तृणमूल कांग्रेस का है जिन्होंने भाजपा को वैध राजनैतिक गतिविधियों की अनुमति से इंकार कर दिया। इसी के विपरीत भूमिका निभाते हुए भाजपा पर आरोप है कि उन्होंने उसी तरह की वैध राजनैतिक गतिविधियों के लिए समाजवादी पार्टी (एसपी) को अनुमति नहीं दी।

यह सिर्फ़ दो उदाहरण हैं। बिलकुल इससे मिलता-जुलता आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडू में देखने को मिल रहा है जहां प्रधानमंत्री को विदेशी की तरह प्रस्तुत किया गया जिनको “वापिस जाना” है। कश्मीर में प्रधानमंत्री का हर एक दौरा हुर्रियत द्वारा थोपे बंद का कारण बन जाता है। बिहार में ‘बिहारी के खिलाफ़ बिहारी’ की राजनीति रूप लेते हुए देख चुके हैं। हम भूल जाते हैं कि नेटिविज्म या ‘मूलनिवासी का प्रभुत्व’ लोकतंत्र के कलेजे में एक फांस की तरह चुभता है।

एक बहुत ही बारीक रेखा लोकतांत्रिक विरोध और अलोकतांत्रिक बहिष्कार को अलग करती है। इस रेखा को निर्धारित करना और उसे पार करने से परहेज करना बहुत आवश्यक है।

बीआर अम्बेडकर द्वारा बनाए यादगार शब्दों को उधार लेते हुए कहें तो अराजकता की व्याकरण कभी भी लोकतंत्र को मजबूत नहीं कर सकती; यदि कुछ कर सकती है तो यही कि लोकतंत्र को काम करने लायक नहीं रहने दे। सार्वजनिक वार्तालाप में भोंडेपन को बढ़ावा देने से ज्यादा, लोगों को आंदोलित करना चाहिए, चाहे उनकी मतदान की पसंद कुछ भी हों।

वैध राजनीति, ख़ास तौर पर चुनावी राजनीति, में भागीदारी को रोकने या गलत तरह से प्रभावित करने के दो भावी परिणाम पहले से ही देखे जा सकते हैं। पहला तो यह कि इससे भेदभाव से भरे हुओं को आधुनिक डिजिटल टूल का इस्तेमाल करके बदले की भावना से भरा विषैला कैंपेन चलाने की खुली छूट मिल जाती है। इसे न तो आपसी समझौते से काबू नियंत्रित किया जा सकता है और न ही कानूनी प्रतिबंधों से रोका जा सकता है। ऐसे कैंपेन का असर मतों को प्रभावित करने तक ही नहीं रहता बल्कि उससे आगे तक जाता है।

वैध राजनीति, ख़ास तौर पर चुनावी राजनीति, में भागीदारी को रोकने या गलत तरह से प्रभावित करने के दो भावी परिणाम पहले से ही देखे जा सकते हैं।

दूसरा यह कि इसमें यह खतरा है कि लोगों को दो या दो से ज्यादा तरफ़ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति द्वेषपूर्ण रहते हुए राजनैतिक रूप से बांटा जा सकता है और ऐसा करते हुए वे लोकतंत्र के प्रति पूरी तरह उदासीन हो जाते हैं। इसके उनका पुरानी भारतीय कहावत में भरोसा और मजबूत होता है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस।

हालांकि, जरूरी बात यह है और हमेशा रहेगी कि भैंस (या गाय पर) पर हक होना मत पर अधिकार होने और स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शिता के साथ होने वाले चुनावों में उसके इस्तेमाल से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। हरेक लोकतंत्र के लिए जरूरी है उसमें ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक स्थितियां और बहुलता हो, ज्यादा से ज्यादा आज़ादी और स्वतंत्रता हो, ज्यादा से ज्यादा चुनाव और विकल्प हों, न कि इन सबकी कमी हो। जर्मनी में तृतीय राइस (नाज़ी शासन) के बाद चुनावों को नाजायज घोषित नहीं किया गया बल्कि उनमें ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित की गयी और उनको ज्यादा पारदर्शी बनाया गया। चुनावों में गड़बड़ी करना और ‘गलत’ चुनाव चिन्ह पर मोहर लगाने के लिए मतदाताओं को दंड देना, जैसा वामपंथ ने दशकों तक किया है, एक न एक दिन वापिस प्रहार करता ही है। दुख की बात है कि वामपंथ तो धराशायी हो गया लेकिन उसकी कुत्सित परंपरा आज भी जारी है, बस उसने किसी और ‘विचारधारा’ का रूप धारण कर लिया है। विचारधारा एक ऐसा शब्द है जिसे बुरा तो बहुत समझा जाता है लेकिन उसके असली अर्थ को कम ही समझा जाता है।

भारत का चुनाव आयोग, जो भारत के लोकतंत्र का वास्तविक प्रहरी है (उन संवैधानिक कार्यालयों के विपरीत, जो विपरीत दलों की आपसी सहमति से पहले ही खत्म हो चुके हैं, या शायद उनको बनाया ही खत्म करने के लिए था) बहुत कुछ कर सकता है और उसे आगे बढ़ना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया दूरद्रष्टि दोष से विकृत न हो जाए।

न्यायपालिका तो अधिक से अधिक यह कर सकती है कि उस कानून का पालन करवाए जो शातिपूर्वक बैठक करने की अनुमति देता है; इसके ज्यादा वह लोकतांत्रिक भावना को बनाए रखने के लिए कुछ ख़ास नहीं कर सकती। इसके विपरीत, चुनाव आयोग कॉन्ट्रैक्ट के मूल नियमों का पालन करवा सकता है और उनको बहिष्कार की और आपसी संघर्ष की राजनीति से दूर रख सकता है, जो फर्जी विचारधारा के स्लोगन में फलते-फूलते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इसी तथ्य में है कि आज के भारत में, और अमेरिका में भी, जो खुद को फ़ासिस्ट-विरोधी के रूप में प्रस्तुत करते हैं वह फासिज़्म के उन्हीं गुणों को प्रदर्शित करते हैं जिनसे नफ़रत करने का वे दावा करते हैं।

राजनीति की भाषा चमत्कारिक रूप से कुछ ऐसी हो गयी है कि पुरानी दुनिया की शालीनता पर सरल से सरल क्विज में भी असफल हो जाएगी। यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि यह राजनीति को लोकतांत्रिक बनाने और उसको बेल्टवे और लुटियन कुलीनता की जकड़ से मुक्त करने की प्रक्रिया का अनिवार्य परिणाम है। लेकिन राजनीति को लोकतांत्रिक बनाना बेमानी हो जाएगा यदि चुनावी कैंपेन में भाग लेना राजनेता या उन पार्टियों की बदलती सोच का गुलाम हो जाए जिनका वे राजनेता प्रतिनिधित्व करते हैं।

यदि राजनेता इस सरल से संदेश को नहीं समझ पाते, तो भारत जब इन गर्मियों में मतदान करेगा तब लोग इसे भलीभांति समझ लेंगे। याद रखें, भाजपा का उठान तब शुरू हुआ था जब अक्टूबर 1990 में एल के अडवाणी को गिरफ्तार किया गया था। यदि उनको आराम से बिहार से होकर अयोध्या तक गुजर जाने दिया होता तो हो सकता है भारत की राजनीति का ऊंट किसी और करवट बैठ गया होता और हम बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था पर बात कर रहे होते न कि श्रद्धा के बारे में।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.