Published on Aug 17, 2022 Updated 26 Days ago

वैसे तो संविधान भारत के चुनाव आयोग को एक मज़बूत रूप-रेखा प्रदान करता है जिसके भीतर उसे काम करना है, लेकिन यही ढांचा कई बार इस संगठन के लिए अड़चन बन गया है.

भारतीय लोकतंत्र की रक्षा में 75 सालों तक प्रभावशाली भूमिका में तत्पर चुनाव आयोग

ये लेख  India @75: Assessing Key Institutions of Indian Democracy सीरीज़ का हिस्सा है.


जिस वक़्त भारत अपनी आज़ादी के 75 साल पूरे कर रहा है, उस वक़्त विश्लेषक जहां भारतीय लोकतंत्र की स्थिति को लेकर चिंता प्रकट कर रहे हैं, वहीं एक चीज़- चुनाव– ऐसी है जिसके बारे में ज़्यादातर समीक्षक सहमत हैं कि भारत सही साबित हुआ है. ये आशावादी समीक्षा भारत के चुनाव आयोग- जिसे विश्व की सबसे शक्तिशाली शीर्ष चुनाव संस्थाओं में से एक कहा जाता है- के पेशेवर बर्ताव के बारे में कोई छोटा मूल्यांकन नहीं है. 

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग की स्थापना की गई है. आयोग को चुनाव की “निगरानी, संचालन और नियंत्रण” की व्यापक शक्तियां दी गई हैं.

पृष्ठभूमि

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग की स्थापना की गई है. आयोग को चुनाव की “निगरानी, संचालन और नियंत्रण” की व्यापक शक्तियां दी गई हैं. संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने जहां एक संघीय संस्थान में चुनाव की निगरानी के केंद्रीकरण को लेकर चिंता जताई थी लेकिन अंतत: मसौदा तैयार करने वालों ने महसूस किया कि केवल एक मज़बूत केंद्रीय एजेंसी देश में चुनाव को लेकर एकरूपता लागू कर सकती है और इसके होने से स्थानीय नियंत्रण के नुक़सान से परहेज किया जा सकता है.  

मूल रूप से भारत के चुनाव आयोग का नेतृत्व एक मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के पास था जिनकी मदद के लिए कुछ स्थायी कर्मचारी होते थे. 1993 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने दो अतिरिक्त चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की, इस तरह ये तीन सदस्यों की संस्था बन गई जो आज भी है. लेकिन चुनाव आयोग की छोटी रूप-रेखा सिर्फ़ दिखावे के लिए है क्योंकि चुनाव के दौरान आयोग नाटकीय ढंग से अपना विस्तार कर लेता है. हज़ारों सरकारी कर्मचारियों के द्वारा आम चुनाव कराया जाता है जिन्हें राज्य स्तर पर चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है. वैसे तो इनमें से ज़्यादातर अधिकारी चुनाव आयोग के स्थायी कर्मचारी नहीं होते हैं लेकिन चुनाव के दौरान अधिकारियों के इस नेटवर्क पर आयोग का पूरा नियंत्रण होता है. 

चुनाव आयोग को ये सुनिश्चित करने का अत्यंत कठिन काम भी सौंपा गया कि जाति, धर्म या वर्ग को परे रखकर हर भारतीय का नाम मतदाता सूची में हो और उन्हें चुनाव के दिन अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने का समान अवसर मिले. 

संविधान के तहत अपने बहुत ज़्यादा नियंत्रण के आगे बढ़कर चुनाव आयोग की कार्रवाई दो प्रमुख क़ानूनों से निर्देशित होती है: 1950 और 1951 का जन प्रतिनिधित्व अधिनियम. 1950 का अधिनियम मतदाता सूची की तैयारी एवं संशोधन, चुनावी सीमा का निर्धारण और मतदाता की पात्रता कसौटी को निर्देशित करता है. वहीं 1951 का अधिनियम चुनाव संचालन को लेकर है जिसमें चुनाव व्यवस्था, प्रत्याशियों की योग्यता, दलों का नियमन और चुनाव अभियान की प्रक्रिया शामिल हैं. 

चुनौतियों का सामना 

लगभग शुरुआत से ही चुनाव आयोग के सामने मुश्किल चुनौतियों का अंबार लगा हुआ है. काफ़ी हद तक अशिक्षित आबादी के लिए मत पत्र बनाने के उद्देश्य से चुनाव आयोग ने हर राजनीतिक दल को चुनावी चिह्न आवंटित किया. चुनाव आयोग को ये सुनिश्चित करने का अत्यंत कठिन काम भी सौंपा गया कि जाति, धर्म या वर्ग को परे रखकर हर भारतीय का नाम मतदाता सूची में हो और उन्हें चुनाव के दिन अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने का समान अवसर मिले. मतदाता सूची में अपना नाम लिखवाने का बोझ मतदाताओं पर डालने के बदले चुनाव आयोग ने ये ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया. सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) को बढ़ावा दिया और फिर उसे लागू किया. आदर्श आचार संहिता एक अंतर दलीय, क़ानून के तहत नहीं आने वाला समझौता है जिसमें चुनाव अभियान, चुनाव और शासन व्यवस्था के दौरान राजनीतिक दलों के लिए उचित आचरण के मानक तय किए गए हैं. 

संविधान और उसके बाद बने क़ानूनों में जहां चुनाव आयोग को एक मज़बूत रूप-रेखा प्रधान की गई है, जिसके भीतर उसे काम करना है, लेकिन यही ढांचा कई बार इस संगठन के लिए अड़चन भी बन गया है. जैसे-जैसे दलीय प्रणाली खंडित हुआ और 60 और 70 के दशक में चुनाव की लागत बढ़ी, वैसे-वैसे चुनाव आयोग के सामने चुनावी पवित्रता बनाए रखने के लिए दो महत्वपूर्ण चुनौतियां आईं: धन और गंभीर अपराध या बातचीत के दौरान आने वाला शब्द कहें तो “बाहुबल”. बढ़ती राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, बढ़ती आबादी, चुनाव अभियान के दौरान मतदाताओं की बढ़ती उम्मीद और 90 के दशक में पंचायती राज के शुरू होने की वजह से चुनावों की संख्या बढ़ने के साथ चुनाव एक फ़ायदे का सौदा बन गया. 

आंकड़े बताते हैं कि बाहुबल का महत्व, कम-से-कम आंशिक रूप से, चुनाव जीतने के साथ आने वाले पैसे की वजह से है. पैसे और गंभीर अपराधों से मुक़ाबला करने की चुनाव आयोग की क्षमता संसद के द्वारा इन पर सख़्त रोक लगाने के क़ानूनी क़दम के अधिकार और इच्छा पर निर्भर है.

चुनाव आयोग ने अपने संसाधनों के एक बड़े हिस्से को चुनाव के दौरान खर्च के ऑडिट और निगरानी के काम में लगा दिया लेकिन इसके बावजूद बढ़ते चुनावी खर्च को रोकने के मामले में उसकी ताक़त नाकाफ़ी साबित हुई है. हाल के वर्षों में चुनावी खर्च और भी बढ़ गया है. चुनावी बॉन्ड के शुरू होने, विदेशी फंडिंग पर लगी रोक के हल्का होने और कंपनियों की तरफ़ से चंदे की सीमा ख़त्म होने- ये सभी बदलाव पिछले पांच वर्षों में लागू हुए हैं- से एक राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था बन गई है जिसे चुनाव आयोग आसानी से रोक नहीं सकता है. 

चुनाव में खड़े होने की हद से ज़्यादा लागत ने भी अपराध और राजनीति के बीच एक सांठगांठ को मज़बूत करने में मदद की है. चुनाव आयोग के द्वारा जुटाए गए आंकड़े, जिसका विश्लेषण ग़ैर-लाभकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के द्वारा किया गया, के मुताबिक़ 2004 में चुनाव जीतने वाले 24 प्रतिशत लोकसभा सदस्यों ने चुनाव के समय अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामला होने की घोषणा की थी. 12 प्रतिशत लोकसभा सदस्यों ने तो अपने ख़िलाफ़ गंभीर मामला दर्ज होने की घोषणा की थी जिसमें दोषी साबित होने पर कम-से-कम दो साल की सज़ा होगी. उसके बाद हुए हर राष्ट्रीय चुनाव के साथ इस तरह के आंकड़ों में लगातार बढ़ोतरी हुई है. 2019 में 43 प्रतिशत नव-निर्वाचित सांसद अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों का सामना कर रहे थे जबकि 26 प्रतिशत के ख़िलाफ़ गंभीर मामले दर्ज थे. 

इसी तरह का रुझान प्रत्याशियों के पास धन को लेकर भी देखा गया है. 2004 में 30 प्रतिशत सांसदों को करोड़पति की श्रेणी में रखा गया. 15 साल बाद रिकॉर्ड 88 प्रतिशत सांसदों ने ख़ुद को करोड़पति घोषित किया (2019 में चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार की औसत संपत्ति 21 करोड़ के आसपास थी). आंकड़े बताते हैं कि बाहुबल का महत्व, कम-से-कम आंशिक रूप से, चुनाव जीतने के साथ आने वाले पैसे की वजह से है. पैसे और गंभीर अपराधों से मुक़ाबला करने की चुनाव आयोग की क्षमता संसद के द्वारा इन पर सख़्त रोक लगाने के क़ानूनी क़दम के अधिकार और इच्छा पर निर्भर है. हैरानी की बात नहीं है कि संसद, जिसमें मौजूदा स्थिति से फ़ायदा उठाने वाले राजनेता शामिल हैं, इस तरह के सुधार को लेकर दिलचस्पी नहीं रखती है. चुनाव की फंडिंग को लेकर तो संसद और भी सहिष्णु हो गई है. 

चुनाव आयोग ने सत्ताधारी दल के द्वारा आदर्श आचार संहिता के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन के मामलों पर कम-से-कम ध्यान दिया है या उसे नज़रअंदाज़ कर दिया है. इसकी वजह से एक चुनाव आयुक्त ने तो 2019 के चुनाव के बीच में सार्वजनिक रूप से अपने साथियों पर सवाल उठा दिए.

दूसरी तरफ़ अदालतें चुनाव में पारदर्शिता और ईमानदारी को लेकर चुनाव आयोग की लड़ाई में काफ़ी हद तक सहयोगी रही हैं. 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग का पक्ष लिया और राज्य एवं राष्ट्रीय चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार के लिए नामांकन दायर करते समय अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि, वित्तीय संपत्ति, दायित्व और शैक्षणिक योग्यता को घोषित करना ज़रूरी बना दिया. वैसे तो उम्मीदवारों के जीवन से जुड़े इन विवरणों के प्रकाशन से संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के आने पर असर नहीं पड़ा है लेकिन इसकी वजह से इस समस्या को लेकर लोगों की जागरुकता कुछ हद तक बढ़ी है. गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक के मामले में अदालतें ज़्यादा सावधान रही हैं. इस मामले में अदालतें इस मूल सिद्धांत को स्वीकार करती हैं कि जब तक कोई दोषी साबित नहीं हो जाए, तब तक वो निर्दोष है.

आंतरिक चुनौतियां

लेकिन चुनाव आयोग की चुनौतियां पूरी तरह से बाहरी नहीं हैं. 2014 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद चुनाव आयोग के द्वारा चुनाव के समय को निर्धारित करने, आदर्श आचार संहिता लागू करने और हेराफेरी के कारण चुनाव रद्द करके चुनावी मानकों को बरकरार रखने की उसकी क्षमता स्पष्ट रूप से कमज़ोर हुई है. वास्तव में 1989 से 2014 के बीच गठबंधन युग के दौरान सफल होने वाले सभी “निष्पक्ष संस्थानों” ने एक पार्टी के वर्चस्व की नई प्रणाली के दौरान संघर्ष किया है.  

भारतीय गणराज्य के शुरुआत दशकों के दौरान कांग्रेस के दबदबे ने स्वतंत्र संस्थानों के फलने-फूलने के लिए बेहद कम गुंजाइश छोड़ी. अपनी ताक़त पर रोक लगाना न तो कांग्रेस के हित में था, न ही सत्ता में बने रहने वाली लोकप्रिय राजनीतिक कार्यपालिका का विरोध करना निष्पक्ष संस्थानों के हित में था. 90 के दशक की शुरुआत में सत्ता पर कांग्रेस की पकड़ कमज़ोर होने और गठबंधन की सरकार के फलने-फूलने के साथ चुनाव आयोग जैसे निष्पक्ष संस्थानों को बिना किसी विरोध या हस्तक्षेप के अपनी अधिकारों को लागू करने का मौक़ा मिला. 

2014 में एक दल के दबदबे की वापसी के साथ कार्यपालिका के आगे झुकने में चुनाव आयोग की तत्परता आश्चर्यजनक है.[1] चुनाव की समय सारिणी के मामले में बात करें तो आयोग ने चुनाव की तारीख़ के ऐलान में देरी की है. इसकी वजह से सत्ताधारी दल को बड़ी लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा में ज़्यादा समय मिल जाता है. इसके अलावा चुनाव आयोग ने सत्ताधारी दल के द्वारा आदर्श आचार संहिता के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन के मामलों पर कम-से-कम ध्यान दिया है या उसे नज़रअंदाज़ कर दिया है. इसकी वजह से एक चुनाव आयुक्त ने तो 2019 के चुनाव के बीच में सार्वजनिक रूप से अपने साथियों पर सवाल उठा दिए. आरंभ में चुनाव आयोग जहां चुनावी बॉन्ड को शुरू करने के ख़िलाफ़ था लेकिन बाद में इस मुद्दे पर वो अचानक पूरी तरह बदल गया और उसने इस अपारदर्शी योजना को अनुमति दे दी. 

अंतिम रूप से देखें तो चुनाव आयोग को लेकर किसी का आकलन उससे की गई उम्मीदों के मुताबिक़ तय होती है. भारत के समकक्ष दूसरे देशों, जो अयोग्य या नाकारा चुनावी संस्थानों से जूझ रहे हैं, के मुक़ाबले भारत काफ़ी अच्छी स्थिति में दिख रहा है. वास्तव में अगर चुनाव आयोग की तुलना भारत के राज्यों के चुनाव आयोगों (राज्य स्तरीय संगठन जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय निकाय के चुनाव करवाते हैं) से करें तो पता चलता है कि कितना असरदार प्रदर्शन उसका रहा है. कई मामलों में राज्य के चुनाव आयोगों ने स्थानीय नियंत्रण के संकेतों को जताया है जिससे पता चलता है कि संविधान निर्माताओं ने सही ढंग से भारत के चुनाव आयोग की रक्षा की है. 

मतदाताओं की हिस्सेदारी में लैंगिक अंतर को जहां ख़त्म कर दिया गया है, जिसमें चुनाव आयोग की कोशिशों का भी हिस्सा है, वहीं मतदाता सूची में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी पुरुषों के मुक़ाबले व्यवस्थित रूप से कम है

चूंकि, मानदंड बहुत उच्च तय किए गए हैं, इसलिए निराशाओं को ज़्यादा शोरगुल के साथ व्यक्त किया जाता है. 2021 में संसद ने चुनाव आयोग को मतदाता सूची को व्यक्तिगत आधार पहचान संख्या के साथ जोड़ने के लिए अधिकृत किया था. इसके लिए धारणा के हिसाब से जो दलीलें दी गई हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता है. आधार के डेटा को मतदाता सूची से जोड़ने पर प्रभावशाली ढंग से पहचान की पुष्टि को सुनिश्चित किया जा सकता है, एक ही मतदाता के एक से ज़्यादा बार मतदाता सूची में नाम और धोखे के मामलों को कम किया जा सकता है. लेकिन व्यावहारिक रूप से तकनीक के इस्तेमाल के सहारे मतदाता सूची को “स्वच्छ” करने के चुनाव आयोग के प्रयोग ने लाखों भारतीयों को मताधिकार से वंचित कर दिया है. मतदाताओं की हिस्सेदारी में लैंगिक अंतर को जहां ख़त्म कर दिया गया है, जिसमें चुनाव आयोग की कोशिशों का भी हिस्सा है, वहीं मतदाता सूची में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी पुरुषों के मुक़ाबले व्यवस्थित रूप से कम है. अंत में, वैसे तो चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों को रजिस्टर करने का अधिकार है, लेकिन चुनाव आयोग के पास स्थापित मानकों का उल्लंघन करने वाले राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने का अधिकार नहीं है. 

अपेक्षाकृत रूप से भारत में चुनावी लोकतंत्र उसके साथ आज़ादी हासिल करने वाले देशों की तुलना में फला-फूला है. लेकिन इसे इसी रास्ते पर बनाए रखने के लिए ताज़ा कोशिशों और लगातार निगरानी की ज़रूरत है. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

E. Sridharan

E. Sridharan

E. Sridharan is the Academic Director and Chief Executive of the University of Pennsylvania Institute for the Advanced Study of India (UPIASI) in New Delhi. ...

Read More +
Milan Vaishnav

Milan Vaishnav

Milan Vaishnav is Senior Fellow and Director of the South Asia Program at the Carnegie Endowment for International Peace in Washington D.C. His research interest ...

Read More +