कोरोनोवायरस की रोकथाम के सख़्त उपायों की वास्तविक इंसानी क़ीमत के बारे में साफ़ जवाब देने में वैज्ञानिकों की असमर्थता ने कई तरह विमर्शों को जन्म दिया है, जो कोविड19 के वास्तविक ख़तरे को कम करके आंकते हैं. हालांकि, इस बात पर व्यापक सहमति है कि महामारी के नौ महीने के बाद अब सुरक्षा के सबसे पहले उपाय के रूप में सख़्त लॉकडाउन की ज़रूरत नहीं है.
वैक्सीन आने की समय-सीमा के बारे में अनिश्चितता, कोविड19 को रोक पाने में वैक्सीन के कारगर होने के साथ ही साथ दुनिया भर में सरकारों की वैक्सीन तक पहुंच और उन्हें अपनी जनता को देने की क्षमता ने लोगों के बीच बड़े पैमाने पर चिंता व्याप्त है, जिसे अक्सर मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. इस हफ्ते, संभावित सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए एली लिली के एंटीबॉडी ट्रीटमेंट और जॉनसन एंड जॉनसन की कोविड19 वैक्सीन को रोक देने की मीडिया में बहुत चर्चा हुई.
दुनिया भर के कई देशों में जबकि कोविड19 की दूसरी लहर चल रही है लोग साथ ही वायरस की रोकथाम के उपायों को लेकर चिंतित हैं, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका पर असर डालते हैं. कोई स्पष्ट उपाय नहीं दिख रहा है और दुनिया को एक जादू की गोली की तलाश अब भी जारी है.
दुनिया भर के कई देशों में जबकि कोविड19 की दूसरी लहर चल रही है लोग साथ ही वायरस की रोकथाम के उपायों को लेकर चिंतित हैं, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका पर असर डालते हैं. कोई स्पष्ट उपाय नहीं दिख रहा है और दुनिया को एक जादू की गोली की तलाश अब भी जारी है. बहुत से विशेषज्ञ और राजनेता अब महसूस करते हैं कि रोकथाम के सख़्त उपायों का कोविड19 से भी बदतर असर होगा.
बहुत से लोग तमाम तरह की ‘हर्ड इम्युनिटी’ (संक्रमण होने के बाद बड़ी आबादी का इम्यून हो जाना) की रणनीति अपनाने पर ज़ोर दे रहे हैं. इन तरीक़ों में अक्सर कम जोखिम वाली आबादी के बीच कोविड 19 के अनियंत्रित फैलाव की वक़ालत की जा रही है, और दावा किया जा रहा है कि कम जोखिम वाले जन-सांख्यिकीय समूहों में संक्रमण के माध्यम से हासिल की गई इम्युनिटी जोखिम वाले समूहों की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त होगी. ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में थ्योरेटिकल एपिडेमिलॉजी की प्रोफेसर डॉ. सुनीता गुप्ता, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. मार्टिन कुलडॉर्फ़, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में मेडिसिन एंड इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. जय भट्टाचार्य और 35 अन्य विशेषज्ञों द्वारा धारा के विपरीत जाकर की गई ग्रेट बैरिंगटन घोषणा में इसकी हिमायत की गई है.
ग्रेट बैरिंगटन घोषणा में सुझाव दिया गया है कि जो लोग जोखिम वाले वर्ग में नहीं आते हैं उन्हें फ़ौरन ज़िंदगी को सामान्य रूप से फिर से शुरू करने की अनुमति दी जानी चाहिए. हस्ताक्षरकर्ताओं ने छात्रों की मौजूदगी में पढ़ाई के लिए स्कूल और विश्वविद्यालय खोलने की वक़ालत की है. उनके अनुसार, एक्सट्रा-करिकुलर गतिविधियों को फिर से शुरू किया जाना चाहिए और नौजवानों को वर्क फ़्रॉम होम की ज़रूरत नहीं है. इसके अलावा, घोषणा में सलाह दी गई है कि रेस्तरां खोलने और दूसरे व्यवसायों के साथ-साथ कला, संगीत, खेल और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों को फिर से शुरू करना चाहिए. इसमें यह भी कहा गया है कि इन गतिविधियों में ज़्यादा जोखिम वाले जनसांख्यिकीय समूहों की भागीदारी स्वैच्छिक होनी चाहिए, और बीमार होने पर हाथ धोने और घर में रहने जैसे स्वच्छता के आसान उपाय हर किसी के द्वारा हर्ड इम्युनिटी सीमा को कम करने के एकमात्र उद्देश्य के साथ चाहिए. घोषणा में मास्क पहनने या शारीरिक दूरी रखने का ज़िक्र नहीं है.
ग्रेट बैरिंगटन घोषणा में सुझाव दिया गया है कि जो लोग जोखिम वाले वर्ग में नहीं आते हैं उन्हें फ़ौरन ज़िंदगी को सामान्य रूप से फिर से शुरू करने की अनुमति दी जानी चाहिए. हस्ताक्षरकर्ताओं ने छात्रों की मौजूदगी में पढ़ाई के लिए स्कूल और विश्वविद्यालय खोलने की वक़ालत की है.
ये सभी सिफारिशें ऊपरी तौर पर उन देशों के लिए बहुत लुभावनी लगती हैं जहां लॉकडाउन और पाबंदियों ने मानसिक स्वास्थ्य और रुटीन हेल्थकेयर को अव्यवस्थित कर जनस्वास्थ्य पर असर डाला है, ख़ासतौर से साधनहीन लोगों पर स्वास्थ्य और आजीविका दोनों के मामले में. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस नए घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि जब कभी-कभी बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलने की श्रृंखला को तोड़ना टाला नहीं जा सकता है, तो “बड़े पैमाने पर लॉकडाउन, जो लोगों, समाज और बाकी सब के लिए सज़ा जैसा हो जाता है, से बचने की कोशिश करने की ज़रूरत है.”
हालांकि, ग्रेट बैरिंगटन घोषणा के बारे में अजीब बात यह है कि यह सावधानी बरतना छोड़ देने का अहसास देती है. भारत जैसे देशों में, जहां अस्पताल अनियंत्रित उछाल की स्थिति का सामना कर पाने की हालत में नहीं हैं, कोई भी अप्रत्याशित घटनाक्रम विनाशकारी हो सकता है. यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार आधिकारिक तौर पर कोविड19 से दर्ज मौतों में लगभग आधे लोगों की उम्र 60 साल से कम है.
वैज्ञानिक रूप से साबित सुरक्षा उपायों जैसे कि मास्क लगाने को ख़ारिज करने के बावजूद ग्रेट बैरिंगटन घोषणा को नीतिगत रूप से मंजूरी मिलने की आशंका को देखते हुए, दुनिया भर के विशेषज्ञ कोविड19 महामारी पर वैज्ञानिक नज़रिया पेश करने और बताने के लिए एकजुट हुए हैं कि हर्ड इम्युनिटी का तरीका ख़तरनाक व त्रुटिपूर्ण है. 80 अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा हस्ताक्षरित जॉन स्नो मेमोरेंडम ग्रेट बैरिंगटन घोषणा और अन्य हर्ड-इम्युनिटी रणनीतियों का जवाब देता है, जिन्हें अब स्वीकार्यता मिल रही है. सर्दियों में कोविड19 की और बड़ी लहरों की आशंका के बीच मेमोरेंडम कोविड-19 के संभावित जोखिमों के बारे में स्पष्ट संवाद और प्रभावी रणनीति की जरूरत पर ज़ोर करता है.
जॉन स्नो मेमोरेंडम स्वीकार करता है कि वैश्विक महामारी और इसके सामाजिक प्रभावों का सामना करने के लिए पर्याप्त प्रावधानों के अभाव में, कई देशों ने लॉकडाउन लगाने का नज़रिया जारी रखा है और यह व्यापक रूप से मनोबल और भरोसा तोड़ने वाला साबित हुआ. हालांकि, यह एक सतर्क, वैज्ञानिक नज़रिया का परित्याग नहीं करता है. मेमोरेंडम में कहा गया है कि जापान, वियतनाम, और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों ने दिखाया है कि मज़बूत जन स्वास्थ्य उपाय संक्रमण को नियंत्रित कर सकते हैं और ज़िंदगी को सामान्य-जैसा करने का मौक़ा दे सकते हैं.
और भी चुनौतियां हैं:
अभी तक, प्राकृतिक संक्रमण से स्थायी रक्षा इम्युनिटी का कोई सबूत नहीं मिला है, जो महामारी के लौट कर आने के जोखिम को खुला रखता है. साथ ही, लंबे समय तक रहने वाली कोविड19 के असर को देखते हुए, हम पक्के तौर पर यह नहीं जानते हैं कि आबादी में कौन से लोग ज़्यादा जोखिम वाले हैं: दूसरे शब्दों में, यह परिभाषित करना कि कौन कमज़ोर है, बहुत जटिल है, जिस वजह से जनसंख्या स्तर पर बहुआयामी रणनीतियों की ज़रूरत है. इस तरह, जॉन स्नो मेमोरेंडम का कहना है कि अर्थव्यवस्था की रक्षा करने और कोविड19 को नियंत्रित करने व दीर्घकालिक अनिश्चितता से स्वास्थ्य कर्मचारियों की रक्षा के बीच अटूट संबंध है.
ग्रेट बैरिंगटन घोषणा के बारे में अजीब बात यह है कि यह सावधानी बरतना छोड़ देने का अहसास देती है. भारत जैसे देशों में, जहां अस्पताल अनियंत्रित उछाल की स्थिति का सामना कर पाने की हालत में नहीं हैं, कोई भी अप्रत्याशित घटनाक्रम विनाशकारी हो सकता है.
हैरानी की बात है कि ग्रेट बैरिंगटन घोषणा के हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स (NIBMG), कल्याणी के संस्थापक और प्रोफेसर डॉ. पार्थ पी. मजूमदार हैं. यह संस्थान भारत सरकार के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के तहत एक स्वायत्त संस्थान है. वह प्रोफेसर सी.वी. रमन द्वारा 1934 में स्थापित प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञान अकादमी जो कि अब भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) द्वारा पूरी तरह वित्त पोषित स्वायत्त संस्थान हैं, के भी प्रेसिडेंट हैं.
भारत में कोविड 19 मामलों के साथ-साथ मौतें स्पष्ट रूप से फ़िलहाल गिरावट पर हैं. हालांकि, अनुभव बताता है कि आने वाले हफ्तों और महीनों में त्योहारों के मौसम में और इसके बाद सर्दी में बड़ा उछाल आ सकता है. बढ़ी हुई संख्याओं का सामना करने वाले कुछ राज्य लॉकडाउन सहित सख़्त उपायों पर सक्रियता से विचार कर रहे हैं. यह साफ़ है कि जब तक जनस्वास्थ्य उपाय से लोगों की आजीविका को प्रभावित करना जारी रहेगा, भारत में हर्ड इम्युनिटी पर आधारित तमाम उपायों के दृष्टिकोण की व्यावहारिकता पर केंद्रित चर्चा होती रहेगी. हालांकि, जबकि इस विषय पर भारत सरकार का रुख़ स्पष्ट रूप से वैज्ञानिक सहमति के पक्ष में है, ऐसे में वैज्ञानिक प्रतिष्ठान का एक प्रमुख खुले तौर पर एक बेहद विवादास्पद रुख़ अपना रहा है जो निश्चित रूप से आने वाले दिनों में देश में बहुत बड़ी बहस को जन्म देने वाला है.
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