कृषि सुधार क़ानूनों के ख़िलाफ़ गरमाते किसान आंदोलन के चलते दुनिया भर की अनेक जानी मानी हस्तियां, सेलेब्रिटी, कार्यकर्ता और उनके पीछे-पीछे सरकारी प्रवक्ता भी इस विवाद में कूद पड़े – जिससे ऐसा लगा मानो एक तरह से होड़ चल पड़ी हो ट्वीट कर, अपनी भी चार-शब्दों की लुटिया को भी इस सागर में उड़ेल कर क्षणभर के लिए ही सही लेकिन जीवन तर लिया जाये.
इस खौलते तेल में सरकारी प्रतिक्रिया तो ऐसी दी गई जिससे विवाद ठंडा पड़ने के बजाय और उबाल पर आ गया. विवाद पर अब दोनों पक्षों के मध्य तर्कों के आधार पर परिचर्चा होने के बजाय, शोर–शराबा हावी दिखा. बहस मुद्दों के बजाय शैली पर थी – आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लग गयी. इस शोर–शराबे का नतीजा ये हुआ कि कृषि सुधारों में सही क्या है और ग़लत क्या, का सवाल कहीं गुम होकर रह गया. जो संघर्ष करने हमारे किसान सड़कों पर उतरे वो भ्रमित सा दिखने लगा.
अफ़सोस कि सोशल मीडिया पर होने वाली परिचर्चाओं के साथ अक्सर ऐसा होता है, और कृषि सुधार क़ानून को लेकर भी यही हो रहा है.
किसी भी गंभीर मसले पर सोशल मीडिया के माध्यम से तर्क संगत बहस असंभव ही है. सोशल मीडिया पर तो हावी हो चुके हैं सभी पक्षों के संघर्षरत ‘टूलकिट’. इनका आधार तर्क कम और हैशटैग# की रणनीति ज़्यादा है. सोशल मीडिया पर पूरा ज़ोर इस बात पर होता है कि कैसे संवाद पर हावी हुआ जा सके और कैसे एक-दूसरे को वाद-विवाद में पटखनी दी जा सके. दोनों ही पक्ष, परिचर्चा छोड़ अफ़वाहों और षड्यंत्रों की कथा-कहानियों को हवा देने में अधिक मशगूल दिखे. किसी को इसमें अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र दिखाई दिया तो किसी को सारे आंदोलनकारी ही आतंकवादी नज़र आने लगे.
सोशल मीडिया पर पूरा ज़ोर इस बात पर होता है कि कैसे संवाद पर हावी हुआ जा सके और कैसे एक-दूसरे को वाद-विवाद में पटखनी दी जा सके. दोनों ही पक्ष, परिचर्चा छोड़ अफवाहों और षड्यंत्रों की कथा-कहानियों को हवा देने में अधिक मशगूल दिखे.
चारों ओर बोलबाला ‘टूलकिट’ का था. उद्देश्य मात्र एक – कि कैसे कथानक पर नियंत्रण कर उस पर हावी हुआ जा सके.
आम आदमी के हाथ में हथियार
सोशल मीडिया ने न सिर्फ़ सरकार के हाथ में, बल्कि हर आम व्यक्ति के हाथ में प्रोपगेंडा के वही एक जैसे हथियार सौप दिए हैं. अब समस्या यह है की कोई भी कथानक को अपने पक्ष में गढ़ने की कितनी भी कोशिश करे सोशल-मीडिया के अनियंत्रित सागर को अपने बस में करके, उसपर अपने कथानक की नाव ठेलना किसी के लिए भी आसान नहीं है. आख़िर, कौन करेगा इस नए दैत्य की सवारी?
प्रोपगेंडा की इस होड़ में छोटे-बड़े होने से मतलब नहीं. मतलब सिर्फ़ है कि किसके हाथ कितना बड़ा लाउडस्पीकर आ जाये. अब रिहाना मैडम के पीछे था ८० करोड़ का जमघट्टा. कंगना दीदी बीच में कूदीं ज़रूर लेकिन उनकी ३० लाख़ की गिनती पर रिहाना मैडम भारी पड़ती हैं. ऐसे में मैदान पर उतारना पड़ गया बल्लेबाजों और अन्य सेलेब्रेटी लोगों को मैदान में.
ये काम सरकारों के लिए भी कठिन है. सरकारी कर्मचारी और नेता दोनों अभी सीख ही रहे हैं और ऐसे में गलतियां होना अपेक्षित है. क्या कीजियेगा? सभी के लिए यह ‘टूलकिट’ ही नया है.
अंततः कथानक कोई भी गढ़ लीजिये देर-सबेर आगे-पीछे तथ्य ही उस कथानाक की कपाल क्रिया भी कर जाते हैं.
किसी भी सुधार को सफल बनाने के लिए ज़रूरी है कि इसे लागू करने की प्रक्रिया में सबका साथ हो. सुधार सिर्फ़ क़ानून पारित करके ऊपर से थोपे नहीं जा सकते.
हालिया बहस, में जिस सवाल का जवाब हमें नहीं मिल सका, वो ये है कि सोशल मीडिया की असीमित शक्ति को आख़िर कौन नियंत्रित करेगा? सोशल मीडिया के नियमन कैसे हो जब एक ओर है सोशल मीडिया कंपनियों की पैसा कमाने की होड़ ओर दूसरी ओर सरकारों द्वारा इसका उपयोग अपना प्रभुत्व जमाने की कवायद. दोनों से परे कौन करेगा इसका नियमन?
इसी बहस के साथ जुडी है दूसरी बड़ी चर्चा — अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर ? अंततः इन चर्चाओं के बवंडर में उलझे कृषि सुधारों का होगा क्या?
किसी भी सुधार को सफल बनाने के लिए ज़रूरी है कि इसे लागू करने की प्रक्रिया में सबका साथ हो. सुधार सिर्फ़ क़ानून पारित करके ऊपर से थोपे नहीं जा सकते. असल में सुधारों का मतलब है परिवर्तन की प्रणाली का कुशल प्रबंधन. सुधारों को सफल बनाने के लिए ज़रूरी है की इनसे जुड़े हर तबक़े को साथ लेकर चला जाये. यदि कृषि क़ानूनों के सबसे बड़े हिमायती किसान बन जायें तो कौन सी शक्ति है जो कृषि सुधार की राह में आयेगी?
सच तो ये है कि इस पूरी प्रक्रिया में हम लोगों का विश्वास जीतने में असफल रहे हैं. इसी नाकामी के चलते जिन सुधारों को हबड़-तबड में ऑर्डिनेन्स के माध्यम से कोरोना काल में लाया गया और फिर बिना बहस के संसद के भी पास करा दिया गया उन्हीं क़ानूनों को डेढ़ वर्ष के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी गयी है. वास्तव में दुर्भाग्य तब होगा जब इस नाकामी के कारण भारतीय कृषि सुधार की प्रक्रिया को ही बलि चढ़ना पड़ जाए. आज भी जरूरत हैं सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का और ऐसा ट्विटर पर द्वन्द कर के नहीं बल्कि सब को साथ लेकर चलने से ही होगा.
नागरिकों का विश्वास जीतना ज़रूरी
जहाँ तक सोशल मीडिया का सवाल है इसकी भी अपनी उपयोगिता है. इसके जहाँ लाभ हैं वहां नुक़सान भी हैं. लेकिन कोई भी ऐसा नियमन जो अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित करे प्रजातांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं है. असहमति तो लोकतंत्र का जीवन है. इसलिए इसका नियमन आसान नहीं है. इसके माध्यम से सबसे अधिक अपनी बात रखने का उपयोग सरकार खुद ही करती देखी गयी है. साथ ही इनके माध्यम से सरकारों को जनता की बात और आक्रोश दोनों का समय रहते भान हो जाता है. यही प्रजातंत्र की असली शक्ति है.
ऐसे में आज जो ट्वीटर और सरकार के बीच कुछ अकाउंट्स को सस्पेंड करने को लेकर पैदा हुए मतभेद कई मायनों में अच्छा है. ट्विटर ने सरकार से असहमति भी जताई है. बशर्ते इस घमासान से भविष्य में नियमन व्यवस्था की राह निकले भविष्य में सोशल मीडिया के संचालन के लिए जो नियम बनें, वो संतुलित हों. भारत चीन नहीं है और हमारा प्रजातंत्र जीवित प्रजातंत्र है.
हमने साज़िश के ऐसे कई क़िस्सों के बारे में पहले भी सुना है. लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है कि देश को अस्थिर करने की कोशिशें की जा रही हैं? क्या सोशल मीडिया पर विदेशी ताक़तें सक्रिय हैं?
कोई भी ऐसा नियमन जो अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित करे प्रजातांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं है. असहमति तो लोकतंत्र का जीवन है. इसलिए इसका नियमन आसान नहीं है.
सच तो यह है कि यदि घर में विवाद हो तो बाहरी ताक़तें उसका लाभ उठाने की कोशिश अवश्य करेंगी. इसलिए मूल प्रश्न तो यह है की घर में विवाद हुआ ही क्यों? क्यों और कैसे हम इस मोड़ पर आ गए जिसके चलते देश में इस प्रकार के विभाजन को बल मिला. कोई बाहरी ताक़त उसका फ़ायदा उठाने की कोशिश कर पाए, उससे पहले मतभेद और असहमति को हमें स्वीकार कर उसका समाधान करना होगा, और ये काम एक दूसरे को दाग या लांछन लगाने से नहीं होगा. हमें ख़ुद से ये सवाल करना होगा कि, आज हम जहां हैं वहां कैसे आ गए? आज हमारे देश में वैचारिक विभाजन और उथल–पुथल की इतनी गुंजाइशें कैसे पैदा हो गई हैं?
आज ज़रूरत है नए सिरे से संतुलन बनाने की है. हर पक्ष को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वो साथ बैठकर आपसी विवाद के मसलों पर चर्चा कर साथ आगे की राह तय करे.
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