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Published on Mar 29, 2024 Updated 0 Hours ago

जब तक बिजली वितरण कंपनियों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं होगा, तब तक ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लक्ष्यों को हासिल करना मुश्किल होगा.

बिजली वितरण कंपनियां: भारत में ऊर्जा बदलाव के क्षेत्र की कमज़ोर कड़ी

कोरोना महामारी के बाद भारत ने काफी तेज़ विकास दर हासिल की है. इससे भारत के इस दावे को विश्वसनीयता मिली है कि हम उच्च मध्यम आय स्तर वाला देश बनने के रास्ते पर सफलता से आगे बढ़ रहे हैं. वैश्विक स्तर पर भारत सबसे ज्यादा युवा आबादी वाला देश है. अर्थव्यवस्था में विविधता है. भारत की औद्योगिक नीति विनिर्माण के क्षेत्र में हरित तकनीकी को आर्थिक मदद देती है. घरेलू कारोबारियों की भावनाओं का ख्याल रखती है. ये पता रहता है कि भारत में होने वाले निवेश की दशा और दिशा क्या है?

बिजली वितरण कंपनियां हैं कमज़ोर कड़ी

लेकिन हरित बिजली की मांग भारत के तेज़ विकास की राह में कमज़ोर कड़ी है. हरित बिजली ऐसी बिजली को कहा जाता है, जिसके उत्पादन में कार्बन का उत्सर्जन कम हो. कार्बन ट्रेडिंग योजना के ज़रिए हरित बिजली की खरीद को प्रोत्साहित किया जा सकता है. लेकिन जब तक वितरण कंपनियों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरती, तब तक ऐसा होना संभव नहीं दिखता. इन कंपनियों को चार बार सरकारी आर्थिक मदद दी जा चुकी है, फिर भी अपनी अक्षमता और खराब प्रदर्शन की वजह से ये ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन की प्रगति में रुकावट पैदा कर सकती हैं.

भारत की औद्योगिक नीति विनिर्माण के क्षेत्र में हरित तकनीकी को आर्थिक मदद देती है. घरेलू कारोबारियों की भावनाओं का ख्याल रखती है. ये पता रहता है कि भारत में होने वाले निवेश की दशा और दिशा क्या है?


भारत में बिजली की आपूर्ति और वितरण के क्षेत्र एक-दूसरे से जुड़े हैं. बड़ी औद्योगिक कंपनी के पास ये क्षमता है कि वो बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों से या तो सीधे बिजली खरीद लें या फिर खुद ही बिजली पैदा करें. ऐसा स्थिति में वितरण कंपनियां ही हरित बिजली की उत्पादक कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच की कड़ी होती हैं. ऐसे में जब तक इन कंपनियों के काम में सुधार नहीं होता तब तक 2030 तक ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल होगा.

परेशानी की बात ये है कि अभी तक किसी ने दिवालिया बिजली वितरण कंपनियों की समस्या का समाधान करने की बात सोची भी नहीं है. इसका सबूत तब मिला जब केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) ने राज्य सरकारों से ऐसी योजनाएं बनाने को कहा जिससे 2030 तक पर्याप्त मात्रा में संसाधन उपलब्ध हों. जिससे ये सुनिश्चित हो जाए कि बिजली खरीद के जो भी दीर्घकालिक समझौते (25 साल) हों, उसमें 75 प्रतिशत बिजली की मांग को ज़ोखिम से मुक्त किया जा सके. बाकी बची बिजली में से 10 से 20 फीसदी खरीद मध्य अवधि की होगी. यानी सिर्फ 5 से 15 प्रतिशत हिस्सा ही पावर एक्सचेंज से अल्पकालिक समझौतों के तहत खरीद के लिए छोड़ा गया है, जबकि मौजूदा वक्त में 12.5 प्रतिशत बिजली पावर एक्सजेंच से खरीदी जा रही है. इसका मतलब ये हुआ कि हम अगले दो दशकों तक इन सतही बिजली बाज़ारों से जुड़े रहेंगे और ये बहुत हानिकारक साबित हो सकता है.

अगर संसाधनों को लेकर योजना बनाने के हिसाब से देखें तो केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के इन दिशानिर्देशों को बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जा सकता है. 1990 के दशक में वितरण कंपनियों को आर्थिक मदद दी जाती थी, क्योंकि तब निजी क्षेत्र में बिजली उत्पादन की शुरुआत ही हुई थी. बिजली वितरण का ज्यादातर काम सरकारी कंपनियों के पास होता था. ऐसे में उन्हें आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए बिजली खरीद के समझौते करने की प्रक्रिया अपनाई गई. लेकिन निजी बिजली उत्पादक कंपनियों को कभी भी वितरण कंपनियों की बैलेंस शीट के दम आर्थिक तौर पर मजबूत नहीं किया जा सकता.

अगर संसाधनों को लेकर योजना बनाने के हिसाब से देखें तो केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के इन दिशानिर्देशों को बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जा सकता है. 


तब से आज तक ज्यादा कुछ नहीं बदला. सौर और पवन ऊर्जा जैसी नई अक्षय ऊर्जा के उत्पादन के लिए सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया भुगतान की गारंटी देता है. ये केंद्र सरकार की संस्था है. अगर सरकारी संस्था मदद ना करे तो फिर अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करने वाली कंपनियों को भुगतान पर ज़ोखिम का सामना करना पड़ेगा और इससे उनकी बिजली महंगी हो जाएगी. ऐसे में अक्षय ऊर्जा की कीमत के उतार-चढ़ाव को रोकना ज़रूरी है जो इसे जीवाश्म ईंधन का आकर्षक विकल्प बनाता है और जिसकी वजह से पहले से ही अनिश्चितता के भंवर में फंसी वितरण कंपनियों पर आर्थिक दबाब बनता है. 

कामचलाऊ व्यवस्था से आगे बढ़कर सोचना ज़रूरी

अक्षय ऊर्जा को लेकर इस वक्त जो कामचलाऊ व्यवस्था चल रही है, उससे ये क्षेत्र विकास करेगा. कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य भी पूरा होगा लेकिन ये सोचना भी ज़रूरी है कि स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन के लिए हम कब तक सरकारी आर्थिक गारंटी पर निर्भर रहेंगे. भारत में अभी अक्षय ऊर्जा का उत्पादन 137 गीगावॉट है जबकि 2040 तक भारत को 530 गीगावॉट अतिरिक्त अक्षय ऊर्जा की ज़रूरत होगी. अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में इस वक्त राज्य सरकारों की आकस्मिक देनदारी स्टेट जीडीपी की 3.7 प्रतिशत हो गई है, जो 2015-16 में 2 फीसदी थी. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से तय मानक से ये 0.5 प्रतिशत ज्यादा है. इसमें राज्य सरकारों की तरफ से दी जा रही गारंटी भी शामिल है. अगर इसकी तुलना केंद्र सरकार की तरफ से दी जा रही गारंटी से करें तो वो 2017-18 में जीडीपी की 2 प्रतिशत राशि इसमें खर्च कर रही थी, तो आज घटकर 1.1 प्रतिशत हो गई है. ये एक अच्छा ट्रेंड है. सरकार को आर्थिक मदद की अपनी क्षमता का इस्तेमाल अक्षय ऊर्जा जैसे परिपक्व उद्योग की मार्केटिंग में करने की बजाए इस क्षेत्र के शोध और विकास में करना चाहिए.


सरकारी कंपनियों का प्रभुत्व

पारम्परिक बिजली की आपूर्ति के क्षेत्र में अब भी सरकारी कंपनियों का वर्चस्व बना हुआ है. 2012-22 में बिजली उत्पादन की आधी क्षमता निजी क्षेत्र की पास थी. रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में तो निजी कंपनियों की हिस्सेदारी ज्यादा है लेकिन अब सरकारी कंपनियां भी भविष्य की ज़रूरतों का ख्याल रखते हुए हरित बिजली के क्षेत्र में आ रही हैं. बिजली संचारण के क्षेत्र में भी पहले सरकारी कंपनियों का प्रभुत्व था लेकिन जो नए ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट आ रहे हैं, उनमें अन्तर्राज्यीय ग्रिड की आधी परियोजनाएं प्रतिस्पर्धात्मक बोली प्रक्रिया के ज़रिए निजी क्षेत्र के पास जा रही हैं. राज्यों के विद्युत नियामक संस्थाएं भी इस रूझान का अनुसरण कर रही हैं. अगर बिजली वितरण क्षेत्र की बात करें तो जिन 55 कंपनियों को बिजली वितरण का काम करने का लाइसेंस दिया गया है, उनमें से सिर्फ 11 ही निजी क्षेत्र की कंपनियां हैं. दिलचस्प बात ये है कि डिस्कॉम के स्वामित्व के ढांचे को उनके काम के प्रदर्शन से उस तरह नहीं जोड़ा गया है, जैसी उम्मीद थी. अगर वितरण कंपनियों के प्रदर्शन की बात करें तो जो 11 निजी वितरण कंपनियां हैं, वो अपने काम के हिसाब से 53 डिस्कॉम के टॉप-26 में आती हैं. सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली जिन 10 वितरण कंपनियों को A+ रेटिंग मिली है, उसमें भी 6 कंपनियां निजी क्षेत्र की हैं. हालांकि निजी क्षेत्र इस समस्या के समाधान का कोई रामबाण इलाज नहीं है, फिर भी आर्थिक तंगी से जूझ रही सरकारें इन्हें एक विकल्प के तौर पर आजमा सकती हैं. 

अगर बिजली वितरण क्षेत्र की बात करें तो जिन 55 कंपनियों को बिजली वितरण का काम करने का लाइसेंस दिया गया है, उनमें से सिर्फ 11 ही निजी क्षेत्र की कंपनियां हैं. दिलचस्प बात ये है कि डिस्कॉम के स्वामित्व के ढांचे को उनके काम के प्रदर्शन से उस तरह नहीं जोड़ा गया है.

लेकिन एनर्जी सेक्टर की असली समस्या वितरण का क्षेत्र ही है. ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लक्ष्य को हासिल करने की राह में सबसे बड़ी और असाध्य समस्या वितरण ही है. इस क्षेत्र में सुधार के लिए केंद्र सरकार पहले ही एक बहुत महंगी योजना शुरू कर चुकी है. इस क्षेत्र को नए सिरे से खड़ा करने के लिए सरकार ने विद्युत वितरण कंपनियों को 0.97 ट्रिलियन रुपये की मदद दी है. इससे 240 मिलियन मीटर वितरण लाइन स्थापित की जाएगी और वितरण के बाकी बुनियादी ढांचे में भी सुधार किया जाएगा.

नियामक संस्थाओं से अनियमित मदद

2003 में विद्युत अधिनियम बनाकर राज्य विद्युत नियामक आयोगों को ये जिम्मेदारी दी गई थी कि वो वितरण क्षेत्र में सुधार करें. दो दशक बीत चुके हैं लेकिन बिजली वितरण कंपनियों के लिए शुल्क को लेकर स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है. सरकारी कंपनियां उनके बिल का पूरी तरह भुगतान नहीं करती. नियामक संस्थाओं की परिसंपत्तियां भी बढ़ती जा रही हैं. इन परिसंपत्तियों में वो राशि आती है, जिसे नियामक संस्था द्वारा वसूलने की मंजूरी तो मिली होती है लेकिन इसे वसूला नहीं जा पाता. यानी ये ऐसा चेक है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता. वित्त वर्ष 2023 में सिर्फ पांच राज्य सरकारों ने ही राजस्व में उससे ज्यादा बढ़ोत्तरी की इजाज़त दी, जितनी वृद्धि बिजली खरीद समझौते में हुई. शुल्क में वृद्धि की मंजूरी देने की राज्य विद्युत नियामकों की इसी हिचक की वजह से बिजली वितरण कंपनियां अपने निवेश पर उतना राजस्व भी नहीं वसूल पाती जो उनके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है. ऐसे में नियामक संस्थाओं को चाहिए कि वो इन कंपनियों को मुनाफा कमाने के लिए प्रोत्साहित करें. जब ये बिजली वितरण कंपनियां मुनाफा कमाएंगी तभी इस क्षेत्र में नया निवेश आएगा. सरकार को चाहिए कि वो इन कंपनियों को खुद को शेयर बाज़ार से सम्बद्ध करने के लिए भी प्रोत्साहित करे. 


वितरण क्षेत्र में बड़े बदलावों की क्षमता कैसे बढ़ाएं?

तीन सुधारों के ज़रिए डिस्कॉम को बेहतर बनाया जा सकता है. पहला, विद्युत अधिनियम में बदलाव. नियामक संस्थाओं को वितरण कंपनियों को ये छूट देना चाहिए कि वो बिजली दर इस तरह तय करें कि उन्हें अपने निवेश पर कुछ लाभ मिल सके. बिजली की दर उसकी आपूर्ति की लागत के हिसाब से हो. अगर सब्सिडी देने की ज़रूरत हो ये सब्सिडी बैंक ट्रांसफर के ज़रिए सीधे लाभार्थी के खाते में जाए. इससे कंपनियों को फायदा भी होगा, साथ ही वो तकनीकी और व्यावसायिक कार्यकुशलता बढ़ाने को प्रेरित भी होंगी. 

दूसरा, विद्युत नियामक संस्थाओं को ज्यादा स्वायत्त बनाया जाए. केंद्र और राज्य सरकार मिलकर निगरानी का काम करें. जीएसटी परिषद का उदाहरण हमारे सामने है. सहयोगात्मक संघीय व्यवस्था के तहत गठित जीएसटी परिषद अच्छा काम कर रही है. बिजली वितरण के क्षेत्र में भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए. इससे नियमन तो आसान होगा ही साथ ही अलग-अलग ग्रिड्स के बीच बेहतर समन्वय भी होगा. 

तीसरा, एक बार ये डिस्कॉम आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएं (अगले एक दशक में ऐसा होने की संभावना है) तो इसमें और सुधार किए जाएं. खुदरा बिजली बाज़ार को क्षेत्र में प्रतियोगिता और विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए. फिलहाल बिजली की 13 प्रतिशत मांग स्व-उत्पादन के ज़रिए पूरी हो रही है, जो 2031-32 तक बढ़कर 16 फीसदी हो जाएगी. अक्षय ऊर्जा उत्पादकों तक सीधी पहुंच से 100 किलोवाट तक की मांग पूरी होने लगी है लेकिन ऐसा इन्हें बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है.

 

बाज़ार की ये खासियत होती है कि वो व्यावसायिक नकदी का सामाजिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल के विकल्प को सीमित कर देता है. ये तभी बेहतर तरीके से काम करता है जब कीमतें तय करने पर किसी तरह का प्रशासनिक दबाव ना हो. इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है. डिस्कॉम्स को ये संदेश मिलता है कि या तो आप बेहतर काम करिए या फिर दिवालिया हो जाये. हालांकि इस तरह के क्रांतिकारी बदलावों को सरकार और जनता पसंद नहीं करती. लेकिन अगर हम ऐसा नहीं करते तो ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लक्ष्य को हासिल करने की राह में खुद ही मुश्किल खड़ी करेंगे.

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