Published on Jun 07, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर हम ये मानकर चलें कि दुनिया अब कार्य करने के दशक में प्रवेश कर चुकी है, तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और इसके अनुरूप ढालने की ज़रूरत बहुत अहम हो गई है.

इकोसिस्टम के पुनरुद्धार के लिए विकास की साझेदारियां: विश्व पर्यावरण दिवस पर एक नई चुनौती

दुनिया इस वक़्त महामारी की मार से जख़्मी है; उस पर से ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का ख़तरा भी सिर पर मंडरा रहा है; विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं सिकुड़ रही हैं; बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है; असमानता अपने शीर्ष पर पहुंच रही है; सामाजिक सौहार्द की कड़ियां टूट रही हैं; और, विश्व शांति दांव पर लगी हुई है, क्योंकि सामाजिक स्तर पर व्यक्तियों के राजनीतिक विचार और राष्ट्रों के भू-राजनीतिक रुख़ में ध्रुवीकरण बढ़ता ही जा रहा है. मानव प्रणालियों ने उदासी के ऐसे काले सायों का सामना हमेशा सकारात्मकता के साथ किया है. इस सकारात्मकता के ज़रिए इंसानी सभ्यता ने हैरान कर देने वाला लचीलापन दिखाया है. लचीलेपन की इसी भावना के साथ ही संयुक्त राष्ट्र ने इस साल के विश्व पर्यावरण दिवस को ‘इकोसिस्टम के पुनरुद्धार’ की थीम पर मनाया. इस मौक़े पर संयुक्त राष्ट्र के इकोसिस्टम के पुनरुद्धार के दशक की भी शुरुआत की गई है.

हालांकि इस थीम को देखकर ये ख़याल आ सकता है कि जलवायु परिवर्तन और इससे जुड़े पर्यावरण के अन्य मुद्दों को भुला दिया गया है. लेकिन, बात इसके ठीक उलट है. सच तो ये है कि ये थीम, मानव समुदाय को इस बात की याद दिलाती है कि ज़िंदगी की बुनियादी ताक़त प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में ही निहित है; मानव व्यवस्था इस धरती की एक व्यापक सामाजिक पारिस्थितिक व्यवस्था का हिस्सा है. इसीलिए, इन दोनों ही व्यवस्थाओं से निकलने वाली ताक़तें एक दूसरे पर असर डालते हैं. इसीलिए, नए कोरोना वायरस का प्रकोप ने मानवता को एक झटके से याद दिलाया है कि उसे अपने बर्ताव पर, जीवन के तौर तरीक़ों पर फिर से नज़र डालनी चाहिए. उसमें बदलाव लाकर उसे प्राकृतिक व्यवस्था के साथ संतुलन बनाने वाला बनाना चाहिए. मानव की बेलगाम महत्वाकांक्षाएं और विकास की अपेक्षाएं अक्सर अपनी हदों के इस कदर पार चली जाती हैं कि वो पारिस्थितिकी और जैविक नियंत्रण की महत्वपूर्ण सहयोगी सेवाओं को क्षति पहुंचाने लगती हैं. इसका नतीजा हम बड़े पैमाने पर फ़सलों के नुक़सान और संक्रामक बीमारियों के रूप में निकलते देखते आए हैं. कई बार ये संक्रामक बीमारियां महामारी का रूप ले लेती हैं. प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को होने वाले नुक़सान से हमें इससे मिलने वाली सुविधाओं जैसे कि खाना, मछली, पानी, औषधीय वनस्पतियां वग़ैरह की भी क्षति होती है. इन सबका लोगों के जीवन और उनकी रोज़ी रोटी से अलग अलग स्तर का संबंध होता है. वहीं दूसरी तरफ़, इको- सिस्टम के नुक़सान के कारण, उसके कार्बन को सोखने और जमा करने की क्षमता में भी बदलाव देखने को मिलता है. इसका एक नतीजा ये भी होता है कि इकोसिस्टम फिर चक्रवातों और आपदाओं के ख़िलाफ़ जैविक कवच की अपनी भूमिका को भी ठीक से नहीं निभा पाता. न ही वो सूखे या बाढ़ के प्रभाव को ही कम कर पाता है. इसलिए, इन सभी दृष्टिकोणों से पारिस्थितिकी के पुनरुद्धार का विषय बेहद महत्वपूर्ण संदेश देने वाला है. इस संदर्भ में उठाए जाने वाले क़दमों का प्रभाव लोगों की रोज़ी रोटी और विकास, इंसान की सेहत और पोषण और जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढालने और उसके दुष्प्रभाव को कम करने पर पड़ेगा.

प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को होने वाले नुक़सान से हमें इससे मिलने वाली सुविधाओं जैसे कि खाना, मछली, पानी, औषधीय वनस्पतियां वग़ैरह की भी क्षति होती है. इन सबका लोगों के जीवन और उनकी रोज़ी रोटी से अलग अलग स्तर का संबंध होता है. 

इसके साथ साथ, यहां ये बात भी याद रखने वाली है कि इकोसिस्टम का नए सिरे से संरक्षण एक ऐसी बात है, जो पहले से ही काफ़ी चर्चा में है. क्योंकि विकसित देश पहले से ही ज़मीन के प्रयोग में बदलाव और नदियों के बहाव में परिवर्तन से पैदा हुई चुनौतियां झेल रहे हैं. जंगलों को साफ़ करने से लेकर, बड़े स्तर पर बांध बनाने और नदियों की धारा में निर्माण के कारण हुए परिवर्तन ने बहुत बड़े स्तर पर इकोसिस्टम को तबाह कर डाला है. हालांकि, देर से ही सही, लेकिन यूरोपीय संघ द्वारा वर्ष 2000 में वाटर फ्रेमवर्क डायरेक्टिव को अपनाए जाने से यूरोप में बांधों को ख़त्म करने की एक मुहिम सी चल पड़ी. पिछले दो दशकों के दौरान नदियों की धारा में खड़ी की गई ऐसी पांच हज़ार से अधिक संरचनाओं को हटाया गया है, जिनसे नदी के बहाव पर असर पड़ रहा था. ये क़दम फ्रांस, स्वीडन, फिनलैंड, स्पेन और ब्रिटेन में उठाए गए हैं. दिलचस्प बात ये है कि अमेरिका, जहां पर 1920 से 1960 के दशकों के दौरान बड़े स्तर पर विशाल बांध बनाए गए थे, वहां पर भी हाल के दशकों में नदियों के बहाव रोकने वाली ऐसे 1200 से अधिक निर्माणों को हटाया गया है जिससे कि नदियों के बेसिन के इकोसिस्टम को दोबारा बहाल किया जा सके. लेकिन, ऐसी गतिविधियां हमें उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और दुनिया के विकास के बड़े केंद्रों में देखने को नहीं मिल रही हैं. विशेष रूप से चीन और भारत में. इन देशों में इकोसिस्टम के पुनरुद्धार की घटनाएं छिटपुट और अनियमित स्तर पर ही हो रही हैं, और इनसे न तो जंगलों की ज़मीन बड़े पैमाने पर बढ़ रही है, और न ही नदियों के प्राकृतिक बहाव की व्यवस्था ही दोबारा बहाल हो रही है.

विकास की साझेदारियों की महत्ता

वैश्विक स्तर पर, पारिस्थितिक तंत्र को दोबारा बहाल करने का काम प्राथमिक रूप से लंबी अवधि तक चलने वाली टिकाऊ साझेदारियों पर निर्भर होना चाहिए. ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन में कटौती को लेकर हो रहा विवाद, हरित पूंजी का उत्पादन करने या स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक समाधान तलाशने जैसे विषय कई वर्षों से लोगों का ध्यान भी आकर्षित कर रहे हैं और सुर्ख़ियां भी बटोर रहे हैं. वर्ष 2019 के आख़िरी दिनों से कोविड-19 महामारी की शुरुआत के साथ ही हम लोगों के रहन सहन और तमाम देशों के रुख़ या बर्ताव में उल्लेखनीय बदलाव आते देख रहे हैं. इससे मानवता के एक अज्ञात दुश्मन यानी नए कोरोना वायरस से निपटने के प्रभावी तरीक़े और इससे पैदा हुए जोखिम के प्रबंधन की चुनौतियां भी लोगों के सामने खड़ी हुई है.

दिलचस्प बात ये है कि अमेरिका, जहां पर 1920 से 1960 के दशकों के दौरान बड़े स्तर पर विशाल बांध बनाए गए थे, वहां पर भी हाल के दशकों में नदियों के बहाव रोकने वाली ऐसे 1200 से अधिक निर्माणों को हटाया गया है जिससे कि नदियों के बेसिन के इकोसिस्टम को दोबारा बहाल किया जा सके.

यही वजह है कि विकास की साझेदारियों को वित्तीय मदद या विकास के लिए आधिकारिक मदद (ODA) के समान ही माना जाता है. पारंपरिक रूप से अपने विकास और अन्य लोगों के लिए समर्थन जुटाने के प्रयास कई ऐतिहासिक और सैद्धांतिक परिकल्पनाओं का नतीजा होते हैं. इसको स्पष्ट रूप से कहना चाहें तो विकास का विचार यूरोप और दुनिया भर के ग़ैर यूरोपीय इलाक़ों के बीच लंबी अवधि के संबंधों का नतीजा है. इसकी वजह ये है कि यूरोप और बाक़ी दुनिया के बीच पहले साम्राज्यवादी ताक़तों और उपनिवेशों के संबंध रहे हैं और वो संबंध आज भी विकास की अवधारणाओं को परिभाषित कर रहे हैं. आज की दुनिया में विकास की साझेदारियां ऐसे सेतु का काम करती हैं, जिससे अमीर विकसित देश अपनी तुलना में कम समृद्ध देशों के साथ संबंध क़ायम करते हैं. हालांकि, ऐसा लगता है कि अब विभाजन की ये लक़ीर धुंधली पड़ रही है, फिर भी, विशेष रूप से चीन की चुनौती को देखते हुए भारत को असमान शक्तियों के बीच प्रतिद्वंदिता के झटकों का सामना करना पड़ेगा. इन चुनौतियों के बावजूद आज दुनिया के बहुत से देश इस महामारी के वायरस का सामना करने के लिए एकजुट होने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. ये देश आपस में वैक्सीन, मेडिकल किट, टेस्ट के उपकरण, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटर जैसे संसाधनों का आदान-प्रदान करके एक दूसरे से सहयोग कर रहे हैं. यही कारण है कि विकास की साझेदारियों में बड़े स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन हो चुके हैं. 

विकास की साझेदारियों और इकोसिस्टम तंत्र बहाली: भारत और यूरोपीय संघ की मिसाल

अगर हम ये मानकर चलें कि दुनिया अब कार्य करने के दशक में प्रवेश कर चुकी है, तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और इसके अनुरूप ढालने की ज़रूरत बहुत अहम हो गई है. स्थायी विकास के लक्ष्य प्राप्त करने के बड़े मक़सद को साझेदारियां बनाने के क़ुदरती उत्प्रेरक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. हाल ही में नीति आयोग द्वारा शुरू किए गए एसडीजी इंडेक्स ऐंड डैशबोर्ड (2020-21) के ज़रिए बिल्कुल सही तरीक़े से उजागर किया गया है. यहां स्थायी विकास के लक्ष्य 17 (SDG17) हासिल करने के लिए वैश्विक साझेदारियां बनाने पर ज़ोर दिया गया है. भारत जो एक उभरते हुए साझेदार के तौर पर दान प्राप्तकर्ता और दाता के पारंपरिक रिश्तों से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है. ऐसे में आर्थिक विकास एवं सहयोग संगठन (OECD) से ये उम्मीद की जाती है कि इसकी विकास संबंधी सहयोग समिति के सदस्य, अपने वादे को पूरे करते हुए अपनी सकल राष्ट्रीय आय का 0.7 प्रतिशत हिस्सा विकास संबंधी आधिकारिक सहयोग (ODA) के रूप में प्रदान करेंगे.

ये स्पष्ट है कि महामारी ने प्रगति को पीछे धकेल दिया है और इसके दुष्प्रभाव हमें आर्थिक झटकों, राजनीतिक उठा-पटक या स्वास्थ्य की भयंकर चुनौतियों के रूप में दिख रहे हैं इसके बावजूद, अगर दुनिया आने वाले समय में अच्छा काम करने का इरादा रखती है, तो एक प्रभावी प्रतिक्रिया और जोखिम का प्रबंधन अहम हो जाता है. गठबंधन पर आधारित नज़रिया इस दिशा में एक अच्छी शुरुआत हो सकती है. उदाहरण के लिए, भारत द्वारा इस दिशा में वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) बनाने, या फिर 2019 में कोएलिशन फॉर डिज़ैस्टर रेज़िलिएंट इन्फ्रास्ट्रक्चर (CDRI) के गठन जैसी महत्वपूर्ण पहल को देखा जा सकता है. ये दोनों ही प्रयास एक ऐसा मंच प्रदान करते हैं, जिससे जानकारी को साझा करने और अन्य विकासशील देशों के साथ तकनीकी विशेषज्ञता के आदान प्रदान से लचीले और मज़बूत समाज बनाने में मदद मिलती है. इन गठबंधनों से भारत को एक ऐसा अवसर भी मिलता है, जिसके माध्यम से वो वित्त, आवश्यक निवेश और संस्थागत क्षमताएं जुटाकर उनका रुख़ अफ्रीका और दक्षिण एशिया के विकसित हो रहे क्षेत्रों की तरफ़ मोड़ सकता है.

ऐसा लगता है कि अब विभाजन की ये लक़ीर धुंधली पड़ रही है, फिर भी, विशेष रूप से चीन की चुनौती को देखते हुए भारत को असमान शक्तियों के बीच प्रतिद्वंदिता के झटकों का सामना करना पड़ेगा. 

इस संदर्भ में हम किसी पारंपरिक दानदाता देश के दृष्टिकोण पर भी नज़र डाल सकते हैं. उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ (EU) को ही लें. उर्सुला वॉन डेर लेयेन के नेतृत्व वाले यूरोपीय आयोग ने अपने विकास संबंधी सहयोग को अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों का नया नाम दिया है. उर्सुला वॉन डर लेयेन की कोशिश है कि वो अपने प्रयासों से भू-राजनीतिक मोर्चे पर अधिक लाभ उठा सकें. इसके लिए वो एक ‘जियोपॉलिटिकल कमीशन’ बनाने के लिए उत्सुक हैं, जो यूरोपीय संघ और अन्य ताक़तों के बीच सकारात्मक सहयोग के गठबंधन बनाने पर केंद्रित होगा. हाल ही में यूरोपीय आयोग ने संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) से हाथ मिलाया है, जिससे लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों (LAC) में कई विषयों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता के संरक्षण, सर्कुलर इकॉनमी के क्षेत्र में पर्यावरण सहयोग को मूर्त रूप दिया जा सके. पर्यावरण वार्ताओं और जलवायु संबंधी अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में यूरोपीय संघ की अग्रणी भूमिका को देखते हुए हम इसे सिद्धांत को व्यवहारिक रूप देने के सटीक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं. कहने का मतलब ये यूरोपीय संघ इकोसिस्टम को बहाल करने और साझेदारियों के बीच अंतर्निहित जुड़ाव को बख़ूबी समझता है. लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में काम करते हुए, यूरोपीय संघ अपनी भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं को भी मज़बूती से आगे बढ़ा रहा है. इसमे यूरोप का हरित समझौता भी शामिल है.

उर्सुला वॉन डर लेयेन की कोशिश है कि वो अपने प्रयासों से भू-राजनीतिक मोर्चे पर अधिक लाभ उठा सकें. इसके लिए वो एक ‘जियोपॉलिटिकल कमीशन’ बनाने के लिए उत्सुक हैं, जो यूरोपीय संघ और अन्य ताक़तों के बीच सकारात्मक सहयोग के गठबंधन बनाने पर केंद्रित होगा.

यूरोप के इन प्रयासों से प्रेरणा लेते हुए भारत को भी अपनी विकास संबंधी साझेदारियों के बारे में इकोसिस्टम की बहाली के नज़रिए से भी विचार करना चाहिए. ये ऐसा काम है, जो भारत, दक्षिण एशिया में अपने नज़दीकी देशों विशेष रूप से वो देश, जिनके साथ वो ज़मीनी सीमाएं और सरहदों के आर-पार स्थित संसाधन साझा करता है. इसका एक उदाहरण हो सकता है, गंगा ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों का बेसिन. ये बेसिन भारत, नेपाल, बांग्लादेश और भूटान (चीन के अतिरिक्त) आपस में साझा करते हैं. इसमें भारत और बांग्लादेश के बीच फैला सुंदरबन का इलाक़ा भी शामिल है. बांधों और नदियों का प्रवाह रोकने वाले निर्माणों से इसके पारिस्थितिक तंत्र को क्षति पहुंची है. इससे नदियों का प्रवाह दो देशों के बीच विवाद का विषय भी बन गया है. सुंदरबन के इकोसिस्टम को हो रहा नुक़सान भी चिंता का एक बड़ा विषय है. विकास की साझेदारियों के माध्यम से पारिस्थितिक तंत्र की मरम्मत से इस संदर्भ में मिला-जुला नज़रिया बनाया जा सकता है. चूंकि भारत इस क्षेत्र का सबसे बड़ा देश है, इसलिए उसे इस मामले में अग्रणी भूमिका निभानी होगी. वास्तव में तो भारत बड़ी मज़बूती से ऐसे प्रयासों को साकार रूप दे सकता है. फिर वो इन्हीं कोशिशों को आधार बनाकर, स्थायी विकास की इससे मिलती जुलती साझेदारियों को विकसित कर सकता है. इससे वो आने वाले ‘कार्य के दशक’ (Decade of Action) में बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकेगा.

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