Author : N.R. Bhanumurthy

Published on Feb 23, 2021 Updated 0 Hours ago

कार्यान्वयन स्तर पर यह सुशासन ही होता है जो पब्लिक एक्सपेंडीचर (सार्वजनिक व्यय) क्षमता में सुधार के ज़रिए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूर्वनिर्धारित शर्त बन जाता है.

कोरोना महामारी के बाद विकास की प्राथमिकताएं : एसडीजी संगत मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क की ज़रूरत

कोरोना महामारी और इसके बाद लगाए गए लॉकडाउन ने थोड़ी अवधि के लिए आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह प्रभावित किया और उत्पादन में स्थायी नुकसान लाने के साथ-साथ दीर्घकालीन विकास की क्षमताओं पर भी असर डाला. इसी प्रकार का व्यवधान सार्वजनिक नीति के विकल्पों को लेकर भी पैदा हुआ – जिससे दीर्घकालिक विकास के लक्ष्यों जैसे सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को पूरा करने की जगह कम समय में विकास के लक्ष्य को पूरा करने की नीति का अनुसरण करना प्राथमिकता बन गई. कम होती वित्तीय संरचना और सरकारों पर मितव्ययिता अपनाने के लगातार बढ़ते दबाव के बीच ऐसा प्रतीत होने लगा कि एसडीजी पर ध्यान केंद्रित कम किया जाने लगा हो. लेकिन हमलोगों के विचार से कोरोना महामारी ने असल में लंबे समय तक सतत विकास के लिए सार्वजनिक नीतियों को फिर से निर्धारित करने का एक मौका दिया है जो कोरोना महामारी जैसी भविष्य में आने वाली अप्रत्याशित विपदाओं को भी अपने में शामिल करता है. वास्तव में एसडीजी का लक्ष्य 8 इस बात की ओर इशारा करता है कि “सतत, समावेशी, और निरंतर विकास को आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण और उत्पादक रोज़गार मुहैया कराने के साथ साथ सभी के लिए बेहतर काम उपलब्ध कराना ज़रूरी है”. इस लक्ष्य की प्राप्ति के माध्यम से ही कोरोना महामारी के बाद स्थितियों में सुधार की जा सकेगी.

मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क की ज़रूरत

भारत में मेरे विचार में जैसा प्रतीत होता है कि सार्वजनिक नीतियों पर चर्चा सीमित है और यह कुछ राज्यों और केंद्र सरकार के स्तर तक ही केंद्रित है, लिहाज़ा दीर्घकालीन राष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ एसडीजी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को जोड़ना भी कई मायनों में सीमित हो जाता है. जैसा कि एसडीजी वर्ष 2030 तक के लिए एक साफ सुथरी और विश्लेषणात्मक फ्रेमवर्क प्रदान करता है तो घरेलू स्तर पर मैक्रोइकोनॉमिक नीतियां इन लक्ष्यों को राष्ट्रीय रणनीति के तहत इसमें शामिल कर सकती हैं. उदाहरण के तौर पर सबसे अहम वित्तीय नियम जो भारत ने अपनाया वो फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बज़ट मैनेजमेंट (अमेंडमेंट एक्ट) (एफआरबीएम), 2018 है – जो एफआरबीएस रिव्यू कमेटी की साल 2017 की रिपोर्ट पर आधारित है – हालांकि, उस रिपोर्ट में भी एसडीजी को शामिल नहीं किया गया है. वैसे तो ये अनुमानित ख़र्च पर आधारित होता है लेकिन नियम के तहत इसमें लागत को शामिल किया जा सकता था. लेकिन रिपोर्ट और इसके बाद बने कानून ने एसडीजी संबंधी समीक्षात्मक ख़र्च को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया. ऐसे में दोनों ओर से गिरने का ज़ोख़िम बढ़ गया, मतलब ना तो वित्तीय नियम और ना ही लक्ष्यों की प्राप्ति इससे संभव हो पाई. इस तरह से अर्थव्यवस्था को महामारी के चोट पहुंचाने से पहले ही ऐसे ग़लत वित्तीय नियम की वज़ह से उत्पादन  में कमी आ गई. हमें आशा है कि 15वीं वित्तीय आयोग कि रिपोर्ट जो हाल ही में सौंपी गई है, उसमें ऐसी ग़लतियों को सुधारने की कोशिश की गई होगी, और जिसमें मज़बूत वित्तीय नियम जिसमें दीर्घकालीन लक्ष्य जैसे एसडीजी समेत देश की विकास संबंधी आकांक्षाएं शामिल हो सकेंगी. हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. हालांकि, 15 वें वित्तीय आयोग के संदर्भ के शर्तों को देखने पर लगता है कि ये दोनों लक्ष्य एसडीजी लक्ष्यों से अलग हैं जो काफी हैरानी पैदा करती है. अगर वास्तव में इन्हें जोड़ने की ऐसी कोई योजना शुरुआत में थी तो कोरोना महामारी ने इनमें गठजोड़ की तमाम संभावनाओं को ख़त्म कर दिया.

हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. 

एसडीजी 8 भारत के लिए किसी भी रूप में नया नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 12वीं पंचवर्षीय योजना में एसडीजी के तहत आने वाले सभी प्रावधानों को क़रीब क़रीब शामिल किया ही गया था. ये और बात है कि योजना के नतीज़ों की औपचारिक रिव्यू नहीं की गई थी. यहां तक कि योजना आयोग को ख़त्म करने के साथ डिमॉनिटाइजेशन और ज़ल्दबाजी में लागू किए गए जीसीएसटी के चलते भी अर्थव्यवस्था के विकास करने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इन सभी कारणों और मुख्य रूप से योजना आयोग को ख़त्म करने से एसडीजी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए संस्थागत खालीपन  पैदा हो गया. हालांकि, राज्य स्तर पर अभी भी स्टेट प्लानिंग बोर्ड मौज़ूद हैं जिनमें से कुछ ने  पहले से ही एसडीजी कमीशन बना रखा है जिससे योजना और उनके अमलीकरण की स्थिति कुछ बेहतर है.

हालांकि, नीति आयोग ने इन लक्ष्यों के कुछ हिस्से की प्राप्ति के लिए कुछ सुधारों को आगे बढ़ाया है. बावज़ूद इसके एसडीजी 8 के तहत जिन बेहतर कार्य और एमएसएमई सेक्टर पर ध्यान केंद्रित किए जाने की बात कही जाती है उसे लेकर अभी भी ध्यान/समीक्षा में कमी है. लॉकडाउन के बाद जो दर्दनाक पलायन शहरों से गांवों की ओर हुआ उससे राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारें बिल्कुल अनभिज्ञ थी. इसका मतलब यह हुआ कि सभी के लिए बेहतर कार्य मुहैया कराने के लिए अब तक जो किया गया उससे कहीं ज़्यादा नीतियों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इसी प्रकार एमएसएमई सेक्टर को वित्तीय मदद पहुंचाने के लिए काफी मांग उठी, खास कर एक के बाद एक लगातार आघातों ( डिमॉनिटाइजेशन, जीएसटी, कोविड 19 / लॉकडाउन ) के बाद जब मृत्यु दर बढ़ने लगी थी. तब सरकारों को यह तक पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर एमएसएमई सेक्टर का अस्तित्व, उसके बचने की गुंजाइश कैसे रहेगी, और तो और आख़िर एमएसएमई सेक्टर क्यों एक के बाद एक दम तोड़ रहा है. दूसरे शब्दों में इस सेक्टर के संबंध में कोई डाटाबेस / रिकॉर्ड नहीं था जिससे इस संबंध में कोई नीति बनाई जा सके. हालांकि अनौपचारिक सेक्टर के संचालन जो कि बेहतर काम मुहैया कराने का एक ज़रिया है, उसमें कुछ सुधार देखे गए लेकिन जिस तादाद में एमएसएमई बंद हुए उतनी संख्या में औपचारिक सेक्टर में एंट्री लेने वाले क़ारोबार नहीं थे.

महामारी के बाद क्या किया जाना चाहिए?

ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर कोरोना महामारी के बाद सार्वजनिक नीतियों को फिर से तैयार करने में क्या किया जाना चाहिए? जैसा कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में अभी एक दशक का वक़्त है ऐसे में यह ज़रूरी है कि देश के दीर्घकालीन आर्थिक और मानव विकास के लक्ष्यों को मुख्य धारा में लाया जाना चाहिए. शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. इस प्रकार हमें एसडीजी कनसिस्टेंट मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क जो गणनीय और जिसे ट्रैक किया जा सके उसकी आवश्यकता होती है.

शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. 

इसके अतिरिक्त वित्तीय स्रोत इस संबंध में काफी अहम है लेकिन हमारे अपने द्वारा राज्य स्तर पर किए गए स्टडी में देखा गया है कि बेहतर उत्पादन के लिए सिर्फ वित्त आवंटन को बढाना ही पर्याप्त नहीं है. दरअसल यह कार्यान्वयन स्तर पर सुशासन होता है जो सार्वजनिक व्यय क्षमता में सुधार के ज़रिए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूर्वनिर्धारित शर्त बन जाता है. जैसे कि सभी एसडीजी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं इसलिए हमलोगों के विचार में भारत जैसे विकासशील और कम विकसित देशों के लिए गोल-17 पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है. जिसमें सतत विकास और दूसरे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ग्लोबल पार्टनरशिप को पुनर्जीवित करने और नीतियों को लागू करने के माध्यम को मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है (खासकर 17.18 और 17.19).

कोरोना महामारी और इसके बाद लगाए गए लॉकडाउन ने थोड़ी अवधि के लिए आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह प्रभावित किया और उत्पादन में स्थायी नुकसान लाने के साथ-साथ दीर्घकालीन विकास की क्षमताओं पर भी असर डाला. इसी प्रकार का व्यवधान सार्वजनिक नीति के विकल्पों को लेकर भी पैदा हुआ – जिससे दीर्घकालिक विकास के लक्ष्यों जैसे सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को पूरा करने की जगह कम समय में विकास के लक्ष्य को पूरा करने की नीति का अनुसरण करना प्राथमिकता बन गई. कम होती वित्तीय संरचना और सरकारों पर मितव्ययिता अपनाने के लगातार बढ़ते दबाव के बीच ऐसा प्रतीत होने लगा कि एसडीजी पर ध्यान केंद्रित कम किया जाने लगा हो. लेकिन हमलोगों के विचार से कोरोना महामारी ने असल में लंबे समय तक सतत विकास के लिए सार्वजनिक नीतियों को फिर से निर्धारित करने का एक मौका दिया है जो कोरोना महामारी जैसी भविष्य में आने वाली अप्रत्याशित विपदाओं को भी अपने में शामिल करता है. वास्तव में एसडीजी का लक्ष्य 8 इस बात की ओर इशारा करता है कि “सतत, समावेशी, और निरंतर विकास को आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण और उत्पादक रोज़गार मुहैया कराने के साथ साथ सभी के लिए बेहतर काम उपलब्ध कराना ज़रूरी है”. इस लक्ष्य की प्राप्ति के माध्यम से ही कोरोना महामारी के बाद स्थितियों में सुधार की जा सकेगी.

मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क की ज़रूरत

भारत में मेरे विचार में जैसा प्रतीत होता है कि सार्वजनिक नीतियों पर चर्चा सीमित है और यह कुछ राज्यों और केंद्र सरकार के स्तर तक ही केंद्रित है, लिहाज़ा दीर्घकालीन राष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ एसडीजी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को जोड़ना भी कई मायनों में सीमित हो जाता है. जैसा कि एसडीजी वर्ष 2030 तक के लिए एक साफ सुथरी और विश्लेषणात्मक फ्रेमवर्क प्रदान करता है तो घरेलू स्तर पर मैक्रोइकोनॉमिक नीतियां इन लक्ष्यों को राष्ट्रीय रणनीति के तहत इसमें शामिल कर सकती हैं. उदाहरण के तौर पर सबसे अहम वित्तीय नियम जो भारत ने अपनाया वो फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बज़ट मैनेजमेंट (अमेंडमेंट एक्ट) (एफआरबीएम), 2018 है – जो एफआरबीएस रिव्यू कमेटी की साल 2017 की रिपोर्ट पर आधारित है – हालांकि, उस रिपोर्ट में भी एसडीजी को शामिल नहीं किया गया है. वैसे तो ये अनुमानित ख़र्च पर आधारित होता है लेकिन नियम के तहत इसमें लागत को शामिल किया जा सकता था. लेकिन रिपोर्ट और इसके बाद बने कानून ने एसडीजी संबंधी समीक्षात्मक ख़र्च को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया. ऐसे में दोनों ओर से गिरने का ज़ोख़िम बढ़ गया, मतलब ना तो वित्तीय नियम और ना ही लक्ष्यों की प्राप्ति इससे संभव हो पाई. इस तरह से अर्थव्यवस्था को महामारी के चोट पहुंचाने से पहले ही ऐसे ग़लत वित्तीय नियम की वज़ह से उत्पादन  में कमी आ गई. हमें आशा है कि 15वीं वित्तीय आयोग कि रिपोर्ट जो हाल ही में सौंपी गई है, उसमें ऐसी ग़लतियों को सुधारने की कोशिश की गई होगी, और जिसमें मज़बूत वित्तीय नियम जिसमें दीर्घकालीन लक्ष्य जैसे एसडीजी समेत देश की विकास संबंधी आकांक्षाएं शामिल हो सकेंगी. हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. हालांकि, 15 वें वित्तीय आयोग के संदर्भ के शर्तों को देखने पर लगता है कि ये दोनों लक्ष्य एसडीजी लक्ष्यों से अलग हैं जो काफी हैरानी पैदा करती है. अगर वास्तव में इन्हें जोड़ने की ऐसी कोई योजना शुरुआत में थी तो कोरोना महामारी ने इनमें गठजोड़ की तमाम संभावनाओं को ख़त्म कर दिया.

हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. 

एसडीजी 8 भारत के लिए किसी भी रूप में नया नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 12वीं पंचवर्षीय योजना में एसडीजी के तहत आने वाले सभी प्रावधानों को क़रीब क़रीब शामिल किया ही गया था. ये और बात है कि योजना के नतीज़ों की औपचारिक रिव्यू नहीं की गई थी. यहां तक कि योजना आयोग को ख़त्म करने के साथ डिमॉनिटाइजेशन और ज़ल्दबाजी में लागू किए गए जीसीएसटी के चलते भी अर्थव्यवस्था के विकास करने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इन सभी कारणों और मुख्य रूप से योजना आयोग को ख़त्म करने से एसडीजी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए संस्थागत खालीपन  पैदा हो गया. हालांकि, राज्य स्तर पर अभी भी स्टेट प्लानिंग बोर्ड मौज़ूद हैं जिनमें से कुछ ने  पहले से ही एसडीजी कमीशन बना रखा है जिससे योजना और उनके अमलीकरण की स्थिति कुछ बेहतर है.

हालांकि, नीति आयोग ने इन लक्ष्यों के कुछ हिस्से की प्राप्ति के लिए कुछ सुधारों को आगे बढ़ाया है. बावज़ूद इसके एसडीजी 8 के तहत जिन बेहतर कार्य और एमएसएमई सेक्टर पर ध्यान केंद्रित किए जाने की बात कही जाती है उसे लेकर अभी भी ध्यान/समीक्षा में कमी है. लॉकडाउन के बाद जो दर्दनाक पलायन शहरों से गांवों की ओर हुआ उससे राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारें बिल्कुल अनभिज्ञ थी. इसका मतलब यह हुआ कि सभी के लिए बेहतर कार्य मुहैया कराने के लिए अब तक जो किया गया उससे कहीं ज़्यादा नीतियों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इसी प्रकार एमएसएमई सेक्टर को वित्तीय मदद पहुंचाने के लिए काफी मांग उठी, खास कर एक के बाद एक लगातार आघातों ( डिमॉनिटाइजेशन, जीएसटी, कोविड 19 / लॉकडाउन ) के बाद जब मृत्यु दर बढ़ने लगी थी. तब सरकारों को यह तक पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर एमएसएमई सेक्टर का अस्तित्व, उसके बचने की गुंजाइश कैसे रहेगी, और तो और आख़िर एमएसएमई सेक्टर क्यों एक के बाद एक दम तोड़ रहा है. दूसरे शब्दों में इस सेक्टर के संबंध में कोई डाटाबेस / रिकॉर्ड नहीं था जिससे इस संबंध में कोई नीति बनाई जा सके. हालांकि अनौपचारिक सेक्टर के संचालन जो कि बेहतर काम मुहैया कराने का एक ज़रिया है, उसमें कुछ सुधार देखे गए लेकिन जिस तादाद में एमएसएमई बंद हुए उतनी संख्या में औपचारिक सेक्टर में एंट्री लेने वाले क़ारोबार नहीं थे.

महामारी के बाद क्या किया जाना चाहिए?

ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर कोरोना महामारी के बाद सार्वजनिक नीतियों को फिर से तैयार करने में क्या किया जाना चाहिए? जैसा कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में अभी एक दशक का वक़्त है ऐसे में यह ज़रूरी है कि देश के दीर्घकालीन आर्थिक और मानव विकास के लक्ष्यों को मुख्य धारा में लाया जाना चाहिए. शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. इस प्रकार हमें एसडीजी कनसिस्टेंट मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क जो गणनीय और जिसे ट्रैक किया जा सके उसकी आवश्यकता होती है.

शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. 

इसके अतिरिक्त वित्तीय स्रोत इस संबंध में काफी अहम है लेकिन हमारे अपने द्वारा राज्य स्तर पर किए गए स्टडी में देखा गया है कि बेहतर उत्पादन के लिए सिर्फ वित्त आवंटन को बढाना ही पर्याप्त नहीं है. दरअसल यह कार्यान्वयन स्तर पर सुशासन होता है जो सार्वजनिक व्यय क्षमता में सुधार के ज़रिए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूर्वनिर्धारित शर्त बन जाता है. जैसे कि सभी एसडीजी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं इसलिए हमलोगों के विचार में भारत जैसे विकासशील और कम विकसित देशों के लिए गोल-17 पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है. जिसमें सतत विकास और दूसरे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ग्लोबल पार्टनरशिप को पुनर्जीवित करने और नीतियों को लागू करने के माध्यम को मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है (खासकर 17.18 और 17.19

कोरोना महामारी और इसके बाद लगाए गए लॉकडाउन ने थोड़ी अवधि के लिए आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह प्रभावित किया और उत्पादन में स्थायी नुकसान लाने के साथ-साथ दीर्घकालीन विकास की क्षमताओं पर भी असर डाला. इसी प्रकार का व्यवधान सार्वजनिक नीति के विकल्पों को लेकर भी पैदा हुआ – जिससे दीर्घकालिक विकास के लक्ष्यों जैसे सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को पूरा करने की जगह कम समय में विकास के लक्ष्य को पूरा करने की नीति का अनुसरण करना प्राथमिकता बन गई. कम होती वित्तीय संरचना और सरकारों पर मितव्ययिता अपनाने के लगातार बढ़ते दबाव के बीच ऐसा प्रतीत होने लगा कि एसडीजी पर ध्यान केंद्रित कम किया जाने लगा हो. लेकिन हमलोगों के विचार से कोरोना महामारी ने असल में लंबे समय तक सतत विकास के लिए सार्वजनिक नीतियों को फिर से निर्धारित करने का एक मौका दिया है जो कोरोना महामारी जैसी भविष्य में आने वाली अप्रत्याशित विपदाओं को भी अपने में शामिल करता है. वास्तव में एसडीजी का लक्ष्य 8 इस बात की ओर इशारा करता है कि “सतत, समावेशी, और निरंतर विकास को आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण और उत्पादक रोज़गार मुहैया कराने के साथ साथ सभी के लिए बेहतर काम उपलब्ध कराना ज़रूरी है”. इस लक्ष्य की प्राप्ति के माध्यम से ही कोरोना महामारी के बाद स्थितियों में सुधार की जा सकेगी.

मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क की ज़रूरत

भारत में मेरे विचार में जैसा प्रतीत होता है कि सार्वजनिक नीतियों पर चर्चा सीमित है और यह कुछ राज्यों और केंद्र सरकार के स्तर तक ही केंद्रित है, लिहाज़ा दीर्घकालीन राष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ एसडीजी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को जोड़ना भी कई मायनों में सीमित हो जाता है. जैसा कि एसडीजी वर्ष 2030 तक के लिए एक साफ सुथरी और विश्लेषणात्मक फ्रेमवर्क प्रदान करता है तो घरेलू स्तर पर मैक्रोइकोनॉमिक नीतियां इन लक्ष्यों को राष्ट्रीय रणनीति के तहत इसमें शामिल कर सकती हैं. उदाहरण के तौर पर सबसे अहम वित्तीय नियम जो भारत ने अपनाया वो फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बज़ट मैनेजमेंट (अमेंडमेंट एक्ट) (एफआरबीएम), 2018 है – जो एफआरबीएस रिव्यू कमेटी की साल 2017 की रिपोर्ट पर आधारित है – हालांकि, उस रिपोर्ट में भी एसडीजी को शामिल नहीं किया गया है. वैसे तो ये अनुमानित ख़र्च पर आधारित होता है लेकिन नियम के तहत इसमें लागत को शामिल किया जा सकता था. लेकिन रिपोर्ट और इसके बाद बने कानून ने एसडीजी संबंधी समीक्षात्मक ख़र्च को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया. ऐसे में दोनों ओर से गिरने का ज़ोख़िम बढ़ गया, मतलब ना तो वित्तीय नियम और ना ही लक्ष्यों की प्राप्ति इससे संभव हो पाई. इस तरह से अर्थव्यवस्था को महामारी के चोट पहुंचाने से पहले ही ऐसे ग़लत वित्तीय नियम की वज़ह से उत्पादन  में कमी आ गई. हमें आशा है कि 15वीं वित्तीय आयोग कि रिपोर्ट जो हाल ही में सौंपी गई है, उसमें ऐसी ग़लतियों को सुधारने की कोशिश की गई होगी, और जिसमें मज़बूत वित्तीय नियम जिसमें दीर्घकालीन लक्ष्य जैसे एसडीजी समेत देश की विकास संबंधी आकांक्षाएं शामिल हो सकेंगी. हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. हालांकि, 15 वें वित्तीय आयोग के संदर्भ के शर्तों को देखने पर लगता है कि ये दोनों लक्ष्य एसडीजी लक्ष्यों से अलग हैं जो काफी हैरानी पैदा करती है. अगर वास्तव में इन्हें जोड़ने की ऐसी कोई योजना शुरुआत में थी तो कोरोना महामारी ने इनमें गठजोड़ की तमाम संभावनाओं को ख़त्म कर दिया.

हमारे सामने दो लघु स्तर के लक्ष्य पहले से हैं, जैसे 2022 तक नया भारत बनाना और साल 2024-25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाना. 

एसडीजी 8 भारत के लिए किसी भी रूप में नया नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 12वीं पंचवर्षीय योजना में एसडीजी के तहत आने वाले सभी प्रावधानों को क़रीब क़रीब शामिल किया ही गया था. ये और बात है कि योजना के नतीज़ों की औपचारिक रिव्यू नहीं की गई थी. यहां तक कि योजना आयोग को ख़त्म करने के साथ डिमॉनिटाइजेशन और ज़ल्दबाजी में लागू किए गए जीसीएसटी के चलते भी अर्थव्यवस्था के विकास करने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इन सभी कारणों और मुख्य रूप से योजना आयोग को ख़त्म करने से एसडीजी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए संस्थागत खालीपन  पैदा हो गया. हालांकि, राज्य स्तर पर अभी भी स्टेट प्लानिंग बोर्ड मौज़ूद हैं जिनमें से कुछ ने  पहले से ही एसडीजी कमीशन बना रखा है जिससे योजना और उनके अमलीकरण की स्थिति कुछ बेहतर है.

हालांकि, नीति आयोग ने इन लक्ष्यों के कुछ हिस्से की प्राप्ति के लिए कुछ सुधारों को आगे बढ़ाया है. बावज़ूद इसके एसडीजी 8 के तहत जिन बेहतर कार्य और एमएसएमई सेक्टर पर ध्यान केंद्रित किए जाने की बात कही जाती है उसे लेकर अभी भी ध्यान/समीक्षा में कमी है. लॉकडाउन के बाद जो दर्दनाक पलायन शहरों से गांवों की ओर हुआ उससे राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारें बिल्कुल अनभिज्ञ थी. इसका मतलब यह हुआ कि सभी के लिए बेहतर कार्य मुहैया कराने के लिए अब तक जो किया गया उससे कहीं ज़्यादा नीतियों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इसी प्रकार एमएसएमई सेक्टर को वित्तीय मदद पहुंचाने के लिए काफी मांग उठी, खास कर एक के बाद एक लगातार आघातों ( डिमॉनिटाइजेशन, जीएसटी, कोविड 19 / लॉकडाउन ) के बाद जब मृत्यु दर बढ़ने लगी थी. तब सरकारों को यह तक पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर एमएसएमई सेक्टर का अस्तित्व, उसके बचने की गुंजाइश कैसे रहेगी, और तो और आख़िर एमएसएमई सेक्टर क्यों एक के बाद एक दम तोड़ रहा है. दूसरे शब्दों में इस सेक्टर के संबंध में कोई डाटाबेस / रिकॉर्ड नहीं था जिससे इस संबंध में कोई नीति बनाई जा सके. हालांकि अनौपचारिक सेक्टर के संचालन जो कि बेहतर काम मुहैया कराने का एक ज़रिया है, उसमें कुछ सुधार देखे गए लेकिन जिस तादाद में एमएसएमई बंद हुए उतनी संख्या में औपचारिक सेक्टर में एंट्री लेने वाले क़ारोबार नहीं थे.

महामारी के बाद क्या किया जाना चाहिए?

ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर कोरोना महामारी के बाद सार्वजनिक नीतियों को फिर से तैयार करने में क्या किया जाना चाहिए? जैसा कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में अभी एक दशक का वक़्त है ऐसे में यह ज़रूरी है कि देश के दीर्घकालीन आर्थिक और मानव विकास के लक्ष्यों को मुख्य धारा में लाया जाना चाहिए. शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. इस प्रकार हमें एसडीजी कनसिस्टेंट मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क जो गणनीय और जिसे ट्रैक किया जा सके उसकी आवश्यकता होती है.

शहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्यों के बारे में जैसा कि हमने जाना है, उस लिहाज़ से लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना, इंडिकेटर्स की पहचान करना, अंतरों को कम करना, वित्तीय ज़रूरतों की समीक्षा कर उन्हें मैक्रोइकोनॉमिक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ने की ज़रूरत है. 

इसके अतिरिक्त वित्तीय स्रोत इस संबंध में काफी अहम है लेकिन हमारे अपने द्वारा राज्य स्तर पर किए गए स्टडी में देखा गया है कि बेहतर उत्पादन के लिए सिर्फ वित्त आवंटन को बढाना ही पर्याप्त नहीं है. दरअसल यह कार्यान्वयन स्तर पर सुशासन होता है जो सार्वजनिक व्यय क्षमता में सुधार के ज़रिए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूर्वनिर्धारित शर्त बन जाता है. जैसे कि सभी एसडीजी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं इसलिए हमलोगों के विचार में भारत जैसे विकासशील और कम विकसित देशों के लिए गोल-17 पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है. जिसमें सतत विकास और दूसरे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ग्लोबल पार्टनरशिप को पुनर्जीवित करने और नीतियों को लागू करने के माध्यम को मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है (खासकर 17.18 और 17.19).

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने एसडीजी को प्राप्त करने में कई दुश्वारियां पैदा कीं, लेकिन हमलोगों के विचार में इसने दीर्घकालीन आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों जैसे एसडीजी को फिर से ख़ड़ा करने का एक बेहतर मौका प्रदान किया है. इसके लिए इन उद्देश्यों की प्राथमिकता तय कर उन्हें मुख्यधारा की मैक्रोइकोनॉमिक नीतियों के साथ जोड़ना तो होगा ही, साथ में प्रजातांत्रिक संस्थानों को मजज़बूत बनाना होगा क्योंकि इसी से सुशासन सुनिश्चित हो पाएगा.

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने एसडीजी को प्राप्त करने में कई दुश्वारियां पैदा कीं, लेकिन हमलोगों के विचार में इसने दीर्घकालीन आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों जैसे एसडीजी को फिर से ख़ड़ा करने का एक बेहतर मौका प्रदान किया है. इसके लिए इन उद्देश्यों की प्राथमिकता तय कर उन्हें मुख्यधारा की मैक्रोइकोनॉमिक नीतियों के साथ जोड़ना तो होगा ही, साथ में प्रजातांत्रिक संस्थानों को मजज़बूत बनाना होगा क्योंकि इसी से सुशासन सुनिश्चित हो पाएगा.

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने एसडीजी को प्राप्त करने में कई दुश्वारियां पैदा कीं, लेकिन हमलोगों के विचार में इसने दीर्घकालीन आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों जैसे एसडीजी को फिर से ख़ड़ा करने का एक बेहतर मौका प्रदान किया है. इसके लिए इन उद्देश्यों की प्राथमिकता तय कर उन्हें मुख्यधारा की मैक्रोइकोनॉमिक नीतियों के साथ जोड़ना तो होगा ही, साथ में प्रजातांत्रिक संस्थानों को मजज़बूत बनाना होगा क्योंकि इसी से सुशासन सुनिश्चित हो पाएगा.

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