Published on Mar 11, 2024 Updated 2 Hours ago

हाल के दशकों में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और नुमाइंदगी में बढ़ोतरी के बावजूद, अभी भी ऐसे प्रयास जारी रखने की ज़रूरत है, जो उन संरचनात्मक बाधाओं को दूर कर सकें, जो अब तक बनी हुई हैं.

लोकतांत्रिक माध्यमों से सशक्तिकरण को शक्ति: महिलाओं की नुमाइंदगी की दुविधा और  पड़ताल

 ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.


जनतंत्र का सबसे बुनियादी काम लोगों को सशक्त बनाना है. समाज के सभी वर्गों और ख़ास तौर से हाशिए पर पड़े तबक़ों को सशक्त बनाने का अपना वादा पूरा करने के लिए, एक राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर लोकतंत्र प्रतिनिधित्व के आकर्षक दावे पेश करता है. लोकतंत्र का मुख्य काम अभी भी आम लोगों को ये ताक़त देना है कि वो अपनी पसंद के सियासी प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकें, जो चुने जाने के बाद जनता की ओर से उनकी प्रशासनिक और विकास संबंधी आकांक्षाएं पूरी करने के लिए काम करें. महिलाएं, दुनिया की लगभग आधी आबादी हैं, फिर भी वो पूरी दुनिया में हाशिए पर पड़े समाज का ही हिस्सा बनी हुई हैं. इसकी वजह गहरी जड़ें जमाए बैठे पितृसत्तात्मक नियम क़ायदे, सामाजिक पूर्वाग्रह और संरचनात्मक बाधाएं हैं. इसीलिए, पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं की शुरुआत और उनको मज़बूती मिलने से, लोकतंत्र के संस्थानों द्वारा जिस समतावादी सोच पर ज़ोर दिया जाता है, वो महिलाओं के सामाजिक आर्थिक मुक्ति के लिए अहम हो गई है.

 

प्रतिनिधित्व के दावों में कितनी हक़ीक़त है?

क़ानून के राज पर आधारित जनतंत्र की राजनीतिक संरचनाएं सबको समान राजनीतिक अवसर प्रदान करती हैं. इससे चुनाव में मतदाता के तौर पर वोट डालकर और राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर चुनाव लड़कर महिलाओं समेत समाज के हर तबक़े को अपने राजनीतिक अस्तित्व के निर्माण का अवसर मिलता है. चूंकि, महिलाओं के बहुआयामी सशक्तिकरण में चुनावी राजनीतिक भी एक अहम मौक़ा है. ऐसे में एक मतदाता वर्ग, प्रतिनिधि और नेताओं के तौर पर महिलाओं का उभार, उनकी अनदेखी और हाशिए पर धकेले जाने की प्रक्रिया कम करने में एक ऐतिहासिक क़दम साबित हुआ है, फिर चाहे वो जीवन का निजी पहलू हो, या फिर सार्वजनिक क्षेत्र हो. महिलाओं के सशक्तिकरण में लोकतंत्र का बुनियादी काम तीन तरह से कारगर साबित हुआ है.

 महिलाओं के बहुआयामी सशक्तिकरण में चुनावी राजनीतिक भी एक अहम मौक़ा है. ऐसे में एक मतदाता वर्ग, प्रतिनिधि और नेताओं के तौर पर महिलाओं का उभार, उनकी अनदेखी और हाशिए पर धकेले जाने की प्रक्रिया कम करने में एक ऐतिहासिक क़दम साबित हुआ है

पहला, प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के मामले में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिए विधायिका या सरकार के राजनीतिक सत्ता के ऊंचे पदों तक महिलाओं की पहुंच और नियुक्ति ने राजनीति में पितृसत्तात्मक परिचर्चाओं को चुनौती देने में बहुत मदद की है. भले ही सत्ता के ऊंचे पदों पर महिलाओं की संख्या अभी बहुत कम हो. लेकिन, तमाम बंदिशों को तोड़कर उनका मर्दों के दबदबे वाली सियासी दुनिया में राजनीतिक तौर पर मौजूद होना ही महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के लिए प्रेरणा देता है. दूसरा, लोकतंत्र महिलाओं को दिखा सकने लायक़ नुमाइंदगी का भी अवसर देता है, जब वो महिला सांसदों या विधायकों के तौर पर राजनीतिक दलों, संसद, कैबिनेट या अन्य सरकारी संस्थाओं में हिस्सेदार बनती हैं. जब महिलाएं, राजनीति और प्रशासन के ढांचों और संस्थानों में दाख़िल होती हैं, तो प्रशासनिक और सियासी ढांचे में उनकी उपस्थिति ही उन्हें लैंगिक रूप से अधिक समावेशी बनाती है. क्योंकि, तब महिलाएं नीतिगत चुनावों और फ़ैसले लेने में दख़ल दे पाती हैं और इस तरह बुनियादी तौर पर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में योगदान दे पाती हैं. तीसरा, प्रतीकात्मक और दिखाई देने वाले प्रतिनिधित्व से हटकर लोकतंत्र के प्रतिनिधित्व देने वाले दावे का सबसे अहम पहलू ये बना हुआ है कि क्या महिलाओं की राजनीति में मौजूदगी, ऐसे व्यापक और ठोस नीतिगत पहलों और बदलावों में योगदान दे पाती है, जो विशेष रूप से महिला समुदाय की बेहतरी पर केंद्रित हो. जैसा कि ये समझ बनी हुई है कि चूंकि महिला जनप्रतिनिधि महिलाओं की ज़रूरतों, आकांक्षाओं और चुनौतियों को पुरुषों की तुलना में बेहतर ढंग से समझ पाती हैं, तो वो महिलाओं के मुद्दों को अपनी नीतिगत प्राथमिकताओं में शामिल करेंगी और इस तरह महिलाओं की मुक्ति में दूरगामी सकारात्मक प्रभाव ला सकेगी. इस तरह, प्रतिनिधित्व के ऐसे अवसर जो लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था से मिलते हैं, वो महिलाओं के व्यापक सशक्तिकरण में एक महत्वपूर्ण प्रेरक का काम करते हैं.

 

राजनीति में महिलाएं: कोशिशों में नई जान डालने का वक़्त है?

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को तीन व्यापक कसौटियों  पर कसकर देखा जा सकता है. पहला, महिलाओं के राजनीतिक अस्तित्व को ध्यान में रखकर देखें, तो महिला मतदाताओं की भूमिका एक बुनियादी मानक बनकर उभरती है. दूसरा, सरकार की विधायी और प्रशासनिक शाखाओं में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के तौर पर महिलाओं की मौजूदगी है. तीसरा, लोकतंत्रों में प्रशासन के स्थानीय ढांचों में महिलाओं की उपस्थिति है, जहां जनतंत्र के विकेंद्रीकृत मॉडल बुनियादी कल्याणकारी योजनाओं को जनता को उपलब्ध कराना सुनिश्चित करते हैं. हाल के दशकों में आई ऐसी कई रिपोर्टों से पता चला है कि समय के साथ साथ ‘मतदाताओं के बाहर निकलने के जाने माने लैंगिंक संतुलन’ को दुनिया के कई अहम लोकतांत्रिक राष्ट्रों और उल्लेखनीय रूप से अमेरिका और भारत जैसे देशों में हासिल किया जा चुका है. बढ़ी हुई राजनीतिक जागरूकता और मुफ़ीद राजनीतिक सामाजिक हालात की वजह से महिला मतदाताओं ने दिखाया है कि चुनाव में अपना वोट डालने को लेकर उनकी इच्छा शक्ति लगातार बढ़ रही है. हालांकि, कई अध्ययनों में ये भी पाया गया है कि राष्ट्रीय चुनावों में समय के साथ साथ महिला वोटर्स की भागीदारी तो बढ़ गई है. लेकिन, राज्य या फिर स्थानीय स्तर के चुनावों में अभी भी बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं, जहां महिलाओं की भागीदारी काफ़ी सीमित रही है. ये लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में निचले स्तर की सियासी संरचनाओं की अहमियत के बावजूद हो रहा है.

 राज्य या फिर स्थानीय स्तर के चुनावों में अभी भी बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं, जहां महिलाओं की भागीदारी काफ़ी सीमित रही है. ये लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में निचले स्तर की सियासी संरचनाओं की अहमियत के बावजूद हो रहा है.

2024 के शुरुआती हफ़्तों के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़, दुनिया में ऐसे 26 देश हैं जहां महिलाएं राष्ट्राध्यक्ष या फिर शासनाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभाल रही हैं. आंकड़ों में बताया गया है कि 15 देशों में महिलाएं राष्ट्राध्यक्ष हैं, वहीं 16 देशों में वो सरकार की मुखिया हैं. यूएन वूमेन द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक़, दुनिया भर की चुनी हुई सरकारों की कार्यकारी शाखा यानी कैबिनेट में मंत्री स्तर के 22.8 प्रतिशत पदों पर महिलाएं मौजूद हैं. एक सदन या निचले सदन वाले दुनिया के तमाम देशों में औसतन 26.5 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं. ये 1995 के 11 प्रतिशत की तुलना में हुई दोगुनी से भी ज़्यादा बढ़ोतरी है. विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों के बीच काफ़ी अंतर है. लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र के देशों के संसद सदस्यों में 36 प्रतिशत पद महिलाओं के पास हैं. वहीं, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में ये तादाद 32 फ़ीसद है. अफ्रीका के सहारा क्षेत्र में 26 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं. वहीं, पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में ये आंकड़ा 22 प्रतिशत, ओशानिया में 20 फ़ीसद, मध्य और दक्षिणी एशिया में 19 प्रतिशत, उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में 18 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं.

 

141 देशों के 2023 के आंकड़ों के मुताबिक़, स्थानीय परिचर्चात्मक संस्थाओं में 30 लाख से ज़्यादा (35.5 प्रतिशत) चुनी हुई जनप्रतिनिधि महिलाएं हैं. ये प्रशासन के बेहद महत्वपूर्ण संस्थान हैं, जो विकेंद्रीकृत प्रशासन की भावना के अनुरूप विकास की मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराते हैं. स्थानीय स्तर पर भी क्षेत्रीय अंतर बड़े पैमाने पर बना हुआ है. जनवरी 2023 तक, मध्य और दक्षिणी एशिया में स्थानीय निकायों में महिलाओं की नुमाइंदगी 41 प्रतिशत थी; यूरोप और उत्तरी अमेरिका में 37 फ़ीसद; ओशिनिया क्षेत्र में 32 प्रतिशत; पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में 31 फ़ीसद; लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में 27 प्रतिशत; सहारा क्षेत्र वाले अफ्रीकी देशों में 25 प्रतिशत; और पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका में 20 फ़ीसद थी. इसलिए, लोकतांत्रिक प्रशासन के ज़मीनी स्तर पर महिलाओं की भागीदारी पूरी दुनिया में बढ़ रही है, लेकिन इसको और मज़बूत किए जाने की आवश्यकता है.

 

मुश्किलों का मूल्यांकन

ऊपर के ये आंकड़े दिखाते हैं कि वैसे तो पूरी दुनिया के देशों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी हर स्वरूप में बेहतर हुई है. लेकिन, ये अभी भी पुरुषों की तुलना में काफ़ी कम है, जो अभी भी राजनीतिक सत्ता के ढांचों पर अपना दबदबा बनाए हुए हैं. महिलाओं के राजनीतिक अस्तित्व को लेकर मौजूदा अध्ययन ऐसी चार बाधाओं की तरफ़ इशारा करते हैं, जो महिलाओं को राजनीतिक में भागीदारी करने से रोकते हैं और इस तरह उनके राजनीतिक अस्तित्व को कमज़ोर करते हैं. पहला तो सख़्त मर्दवादी सोच वाला वो मुश्किल माहौल है, जो महिलाओं के सामाजिक हेल-मेल बढ़ाने और कौशल विकास में बाधाएं खड़ी करता है. इस तरह राजनीति में एक कामयाब करियर बनाने के लिए महिलाओं को ज़रूरी हुनर सीखने के मिलने वाले अवसर कम हो जाते हैं. बाहरी दुनिया से ताल्लुक़ न होने और गहरी जड़ें जमाए बैठे सामाजिक पूर्वाग्रह जो इस बात को रेखांकित करते हैं कि महिलाएं जनता की ज़िम्मेदारियां उठा पाने में सक्षम नहीं हैं, इससे महिलाओं को अपने बारे में ऐसी सोच बनाने को मजबूर होना पड़ता है कि वो राजनीति जैसे चुनौतीपूर्ण काम के लिए अपर्याप्त हैं या फिट नहीं हैं और इस तरह वो अपनी ‘पारंपरिक’ ज़िम्मेदारियां निभाना जारी रखती हैं. राजनीतिक दलों जैसे कई राजनीतिक संस्थानों पर अक्सर मर्दों का दबदबा रहता है. इस वजह से वो महिला नेताओं को चुनाव लड़ने का मौक़ा देने में हिचकिचाते रहते हैं. जबकि महिलाओं का राजनीतिक करियर आगे बढ़ाने के लिहाज़ से चुनाव लड़ना बेहद ज़रूरी होता है. दूसरा, मतदाताओं के ज़हन में भी मर्दवादी सामाजिक पूर्वाग्रह हावी रहते हैं. वो महिलाओं के राजनीति में भाग लगने की संभावना को हिकारत और शंकालु नज़रों से देखते हैं. बहुत से अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि की है कि ये ग़लत सोच और लैंगिक पूर्वाग्रह जो महिलाओं को राजनीतिक जीवन और प्रशासन के उथल-पुथल भरे हालात और चुनौतियों का सामना करने लायक़ नहीं मानते हैं. इस वजह से मतदाता अक्सर महिला नेताओं को अपना प्रतिनिधि चुनने से रुक जाते हैं.

 

मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के मन को ये आशंका भी सताती रहती है कि घर चलाने और बच्चे पालने की उनकी पारंपरिक भूमिकाएं, उनको पूरी तरह प्रतिबद्ध राजनेता बनने से रोक देगी. इनमें पुरुषों के साथ साथ महिलाएं भी शामिल हैं. तीसरा, संसाधन की चुनौतियां और दूसरे बाहरी कारण जिन्हें राजनीति में आई महिलाओं को झेलना पड़ता है, वो अभी भी महिला नेताओं के लिए बहुत बड़ी चुनौती बने हुए हैं. चुनाव लड़ना दिन-ब-दिन बेहद महंगा होता जा रहा है. एक प्रभावी चुनाव अभियान चलाने में बहुत पैसा ख़र्च हो जाता है. महिलाएं, जो आम तौर पर पैसे के लिए मर्दों पर निर्भर रहती हैं, उनके लिए चुनाव लड़ना इसलिए भी चुनौती हो जाता है कि उनके पास पैसे की तंगी होती है. चौथा, पूरी दुनिया में सार्वजनिक जीवन में सक्रिय महिलाओं को आम तौर पर और राजनीति करने वाली स्त्रियों को तो विशेष रूप से भयंकर कलंकों का सामना करना पड़ता है. इनमें शारीरिक हमलों से लेकर ज़ुबानी आक्रमण तक शामिल होते हैं. महिलाओं पर ऐसी सख़्त या बुरी लगने वाली फ़ब्तियां कसी जाती हैं, जिनका इस्तेमाल अक्सर उनकी इज़्ज़त पर बट्टा लगाने के लिए किया जाता है, ताकि महिलाओं को राजनीति में भाग लेने से रोका जा सके.

 पूरी दुनिया में सार्वजनिक जीवन में सक्रिय महिलाओं को आम तौर पर और राजनीति करने वाली स्त्रियों को तो विशेष रूप से भयंकर कलंकों का सामना करना पड़ता है. इनमें शारीरिक हमलों से लेकर ज़ुबानी आक्रमण तक शामिल होते हैं.

ठोस प्रतिनिधित्व के लिए क्या किया जाए?

अब ये कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती कि हाल के दशकों में पूरी दुनिया में ऊर्जावान चुनावी राजनीति की वजह से सियासत में महिलाओं की भागीदारी और उनकी नुमाइंदगी को काफ़ी बढ़ावा मिला है. इसके साथ साथ नए रिसर्च से महिलाओं द्वारा सियासत में निभाई जाने वाली बड़ी भूमिकाओं का भी पता चलता है. इससे प्रशासन और कल्याण के मानकों पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और नीति निर्माण में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है. हालांकि, अभी भी महिलाओं की भागीदारी की राह में जो संरचनात्मक बाधाएं बनी हुई हैं उनको हटाने के लिए और भी प्रयास करने होंगे. इसके लिए संस्थागत सुधारों के साथ साथ सामाजिक बदलाव को ज़रिया बनाना होगा, ताकि दुनिया भर में लोकतांत्रिक राजनीति में महिलाओं की प्रभावी नुमाइंदगी सुनिश्चित की जा सके, जो वक़्त की मांग भी है.

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