Author : Samir Saran

Published on Dec 11, 2021 Updated 0 Hours ago

स्वतंत्र समाजों ने हमेशा ही अपनी सीमाओं की मज़बूती से हिफ़ाज़त की है, और इसी तरह उन्हें नई डिजिटल सरहदों की भी सुरक्षा करनी चाहिए.

DEMOCRACY SUMMIT: डिजिटल प्रजातंत्र और वर्चुअल सीमाएं: चौथी औद्योगिक क्रांति में हम लोकतंत्र को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?

क़रीब एक दशक पहले सोशल मीडिया (social media) की ताक़त ने अरब क्रांति (Arab revolution) की मशाल को जगाया था. जिसने कुछ वक़्त के लिए ही सही, मगर सत्ताधारी वर्ग और आम जनता के बीच के फ़र्क़ को मिटा दिया था. अरब स्प्रिंग (Arab Spring) से डिजिटल प्रजातंत्र (digital democracy) के युग का आग़ाज़ हुआ था. उसके बाद से ही तकनीक, नागरिकों के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गई है. आज न केवल ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की आवाज़ें सुनी जा रही हैं, बल्कि चुनी हुई सरकारें भी उनके प्रति जवाबदेह बन गई हैं.

अगर नफ़रत, हिंसा और फ़रेब ही संवाद को बढ़ावा देते हैं और फिर इनसे कंपनियों और डिजिटल मंचों को मुनाफ़ा होता है, तो यक़ीन जानिए कि हमारे समाज बेहद कमज़ोर बुनियाद पर खड़े हैं.

पिछले एक साल या उससे कुछ ज़्यादा के वक़्त ने हमें डिजिटल प्रजातंत्र (digital democracy) की कमज़ोरियों और उसके सामने खड़े ख़तरों का गहराई से एहसास कराया है. पहला तो ये कि जो डिजिटल मंच जवाबदेही की मांग करने वाली आवाज़ें बुलंद कर रहे थे, वो ख़ुद को किसी समीक्षा से परे समझने लगे. उन्हें ऐसा लगने लगा है कि वो लोकतांत्रिक नियमों से नहीं, बल्कि नफ़ा-नुक़सान के बंधन से बंधे हुए हैं. हालांकि लोकतंत्र, कंपनियों के अधिग्रहण के दांव और बाज़ार के मूल्यांकन के आधार पर नहीं चलता है. किसी निवेश से फ़ौरी तौर पर होने वाले मुनाफ़े और किसी डिजिटल समाज की दूरगामी सेहत के बीच का विरोधाभास बिल्कुल स्पष्ट है. अगर नफ़रत, हिंसा और फ़रेब ही संवाद को बढ़ावा देते हैं और फिर इनसे कंपनियों और डिजिटल मंचों को मुनाफ़ा होता है, तो यक़ीन जानिए कि हमारे समाज बेहद कमज़ोर बुनियाद पर खड़े हैं.

ज़्यादातर बड़ी तकनीकी कंपनियां अमेरिका में बनाई गईं और वहीं से संचालित होती हैं. ज़ाहिर है कि इसी वजह से ये कंपनियां, अमेरिकी या यूं कहें कि कैलिफ़ोर्निया वाली अभिव्यक्ति की निरंकुश आज़ादी को बढ़ावा देती हैं. 

हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए: क्या डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और सेवाएं किसी कंपनी की संपत्ति और उत्पाद भर हैं, या वो जनहित के माध्यम हैं? इस सवाल का जवाब बिल्कुल साफ़ है; या यूं कहें कि जवाब ऐसा ही होना चाहिए. तकनीक, प्रजातंत्र की सेवा के काम आए, इसके लिए तकनीक से जुड़े नियम क़ायदों पर दोबारा से विचार करने की ज़रूरत है. बड़ी तकनीकी कंपनियां लोगों को प्रभावित करने या फ़ुसला पाने की जितनी ताक़त रखती हैं, उसी अनुपात में उन कंपनियों को ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव के पैमाने पर भी कसा जाना चाहिए. जवाबदेही का ये ढांचा किसी एक देश या क्षेत्र तक सीमित नहीं होना चाहिए. बड़ी तकनीकी कंपनियों के लिए जो नियम विकसित देशों में हों, उन नियमों का पालन, विकासशील या कम विकसित देशों में ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए.

असल और वर्चुअल दुनिया के लिये दोहरे नियम

दूसरी बात, ज़्यादातर बड़ी तकनीकी कंपनियां अमेरिका में बनाई गईं और वहीं से संचालित होती हैं. ज़ाहिर है कि इसी वजह से ये कंपनियां, अमेरिकी या यूं कहें कि कैलिफ़ोर्निया वाली अभिव्यक्ति की निरंकुश आज़ादी को बढ़ावा देती हैं. ये बात ज़्यादातर लोकतांत्रिक देशों के क़ानूनों से टकराव पैदा करती है- 6 जनवरी के बाद अमेरिका भी इन देशों में शामिल हो गया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी की हिफ़ाज़त करने के साथ साथ, समाजों में इसके अनपेक्षित नतीजों, ख़ास तौर से हिंसा को रोकने के उपाय भी किए जाते हैं. अगर अमेरिका की बड़ी तकनीकी कंपनियां, विश्व के अन्य देशों में भी उसी स्तर पर उभरने की ख़्वाहिश रखती हैं, तो उन्हें दुनिया भर में लोकतांत्रिक नियमों का पालन करना ही होगा. इन कंपनियों के नियमों को अन्य देशों को सुझाव या आदेश देने के बजाय, ख़ुद को उन देशों के नियम क़ायदों के हिसाब से ढालना होगा. अगर ये कंपनियां ऐसी समझ नहीं विकसित करतीं, तो फिर नियमों को लेकर टकराव तय है. बड़ी तकनीकी कंपनियों का नियमन केवल विकसित देशों का विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए. एल्गोरिद्म और कोड का मंज़र वो नहीं होना चाहिए, जैसी तस्वीर आज हम दुनिया में कोविड-19 टीकाकरण के रूप में देख रहे हैं. जहां पर असमानता बिल्कुल साफ़ नज़र आती है.

तानाशाही प्रवृत्ति वाले देश उन्हीं आज़ादियों को हथियार बना रहे हैं, जिससे अपने देश के नागरिकों को महरूम रखते हैं.

तीसरा, ऐसे तानाशाही देशों से बहुत बड़ा ख़तरा पैदा हो रहा है, जिनके पास तकनीकी क्षमताएं हैं. वो स्वतंत्र समाजों पर अपना ग़लत असर डालने की कोशिश कर रहे हैं. तानाशाही प्रवृत्ति वाले देश उन्हीं आज़ादियों को हथियार बना रहे हैं, जिससे अपने देश के नागरिकों को महरूम रखते हैं. उनकी वर्चुअल दुनिया में पेंग शुआई आज़ाद और ख़ुश है; लेकिन हक़ीक़त में वो अपने घर में नज़रबंद है. हम ख़ुद को ऐसे शिकारियों के हाथ में आए शिकार की तरह क़त्ल नहीं होने दे सकते हैं.

स्वतंत्र समाजों ने हमेशा ही अपनी सरहदों की मज़बूती से हिफ़ाज़त की है, और इसी तरह उन्हें नई डिजिटल सीमाओं की भी सुरक्षा करनी चाहिए. हमारे डिजिटल युग में ऐसा पहली बार होगा, जब वर्ष 2024 में दुनिया के दो ऊर्जावान लोकतांत्रिक देशों में एक साथ चुनाव होंगे. इन चुनावों में हमें तानाशाही व्यवस्था वाले देशों या उनके एजेंटों को जनता की भागीदारी के साथ छेड़-छाड़ करने की इजाज़त क़तई नहीं देनी चाहिए.

 सिर्फ़ स्याह अंधेरा ही लोकतंत्र के लिए प्राणघातक नहीं है; विनाशकारी गहरी जड़ों वाली बेलग़ाम तकनीक भी इसका गला घोंट सकती है. 

और अंत में, मैं आप सबसे एक बात कहकर विदा लेना चाहूंगा: सिर्फ़ स्याह अंधेरा ही लोकतंत्र के लिए प्राणघातक नहीं है; विनाशकारी गहरी जड़ों वाली बेलग़ाम तकनीक भी इसका गला घोंट सकती है. आप इस शाम बस अपनी सोशल मीडिया फीड पर एक नज़र डाल कर तो देखिए…

समिट फॉर डेमोक्रेसी में लेखक का बयान.

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Samir Saran

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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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