कच्चे तेल की क़ीमतों में देखा जाने वाला उतार चढ़ाव आर्थिक अस्थिरता की एक दिलचस्प मिसाल है, कि अगर हम इसको समझते भी हैं, तो भी हम इसका सही पूर्वानुमान लगाने में सक्षम नहीं होंगे.
ये लेख, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड दि वर्ल्ड सीरीज़ का एक हिस्सा है
1970-90: भू–राजनीतिमेंउथल–पुथल
पिछले पचास वर्षों में जितनी चर्चा कच्चे तेल की क़ीमतों के पूर्वानुमान लगाने को लेकर हुई है, उतनी दिलचस्पी किसी और कमोडिटी को लेकर देखने को नहीं मिली है. 1970 के दशक ऑयल शॉक या दामों में भारी उछाल झटके के बाद, भविष्य में कच्चे तेल के दाम में बढ़ोत्तरी का पूर्वानुमान लगभग सभी ने लगाया था. इसे चलते ये माहौल बना कि खाड़ी क्षेत्र के अमीर तेल निर्माता, दुनिया की परिवर्तनशील संपत्ति पर पूरी तरह अपना क़ब्ज़ा कर लेंगे. ये पूर्वानुमान उस वक़्त ग़लत साबित हुआ, जब 1980 के दशक में ज़्यादा लागत वाले क्षेत्रों जैसे कि नॉर्थ सी से तेल की आपूर्ति में बढ़ोतरी की वजह से कच्चे तेल के दाम 10 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे चले गए. बाज़ार में अतिरिक्त आपूर्ति मांग से ज़्यादा हो गई और इसके नतीजे में दाम गिल गए. 1986 में तेल की क़ीमतों के इस काउंटर शॉक यानी भारी गिरावट का मतलब ये हुआ कि महंगाई दर के हिसाब से कच्चे तेल की क़ीमतें वापस वहीं पहुंच गईं, जहां वो 1973 में थीं.
1970 के दशक ऑयल शॉक या दामों में भारी उछाल झटके के बाद, भविष्य में कच्चे तेल के दाम में बढ़ोत्तरी का पूर्वानुमान लगभग सभी ने लगाया था.
इसके बाद जब भी कच्चे तेल की क़ीमतों में गिरावट आई, तो उसके बाद थोड़े समय के लिए उसमें तुलनात्मक रूप से उछाल भी देखा गया. 1990 में जब इराक़ ने कुवैत पर हमला किया, तो कच्चे तेल के दाम थोड़े समय के लिए 33 डॉलर प्रति बैरल (2022 के हिसाब से 100 डॉलर प्रति बैरल से भी ज़्यादा) के ऊपर चले गए, मगर कुछ ही दिनों के भीतर क़ीमतें दोबारा 10 डॉलर प्रति बैरल के नीचे आ गईं. क़ीमतों में अगली भारी गिरावट 1994 में देखी गई, जब कच्चे तेल के दाम 13 डॉलर प्रति बैरल गिर गए, और उसके बाद 1996 में क़ीमतें थोड़े समय के लिए 23 डॉलर प्रति बैरल के शीर्ष तक जा पहुंचीं. उसके बाद से तेल की क़ीमतों में लगातार गिरावट आती रही, क्योंकि इराक़ में तेल उत्पादन दोबारा शुरू होने के साथ ही, एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक सुस्ती आ गई थी.
1990-2020: मांग में उतार चढ़ाव
जब तेल की क़ीमतें लगातार गिर रही थीं, तब फरवरी 1999 में द इकोनॉमिस्ट ने भविष्यवाणी की कि साल के आख़िर तक कच्चे तेल का दाम गिरकर 5 डॉलर प्रति बैरल के नीचे चला जाएगा. लेकिन, साल का अंत आते आते उत्तर की भयंकर ठंड, भारी मांग और तेल के कम भंडारों ने बड़ी तेज़ी से तेल की क़ीमतों को ऊपर धकेलना शुरू कर दिया, और क़ीमतें द इकोनॉमिस्ट के पूर्वानुमान से पांच गुने से अधिक तक जा पहुंचीं. अगर हम महंगाई की दर के हिसाब से देखें, तो 1990 के दशक के मध्य में कच्चे तेल की क़ीमतें 1920 की क़ीमतों के बराबर गिरी थीं. हालांकि साल 2000 में तेल के दाम 20 डॉलर प्रति बैरल के ऊपर और कुछ समय के लिए तो 30 डॉलर से ज़्यादा हो गए थे. फिर भी कच्चे तेल की क़ीमतें पूर्वानुमानों के मध्यमान के नीचे ही रही थीं. यहां तक कि 1983 की इंटरनेशनल एनर्जी वर्कशॉप में शामिल लोगों ने जब बहुत सतर्क होकर 1990 और 2000 के लिए तेल की क़ीमतों का पूर्वानुमान लगाया, वो भी कुछ ज़्यादा ही साबित हुए.
साल 2000 में कच्चे तेल की 9 भविष्यवाणियों का औसत 18.42 डॉलर (1994 के डॉलर मूल्य के अनुसार) प्रति बैरल का था, मगर ये भी ग़लत साबित हुआ. उस साल कच्चे तेल की औसत क़ीमतें 25.77 डॉलर प्रति बैरल रही थीं, जो पूर्वानुमानों के औसत से 40 प्रतिशत अधिक रही थीं. 2001 के शुरुआती महीनों में लगाए गए पूर्वानुमानों में कहा गया कि उस साल तेल के दाम नई ऊंचाइयों को छू लेंगे. लेकिन, वैश्विक आर्थिक सुस्ती की आशंकाओं की वजह से क़ीमतों में अचानक गिरावट आने लगी. OPEC (तेल निर्यातक देशों के संगठन) ने तेल के उत्पादन में कमी करने का फ़ैसला किया, जिसके बाद कच्चे तेल की क़ीमतें 20 डॉलर प्रति बैरल पर जाकर स्थिर हुईं.
2002 से 2008 के दौरान क़ीमतों में आए अचानक उछाल ने तेल के दामों को 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचा दिया. 500 फ़ीसद से भी ज़्यादा की ये बढ़ोत्तरी इससे पहले के किसी भी उछाल से कहीं ज़्यादा थी और तेल की क़ीमतों की भविष्यवाणी करने वाले ज़्यादातर पेशेवर लोग ऐसा होने का अंदाज़ा नहीं लगा सके थे. दाम में ये उछाल चीन से ऊर्जा और अन्य संसाधनों की मांग में बढ़ोतरी और कुछ हद तक भारत की बढ़ी मांग की वजह से आया था, जिसका किसी को भी अंदाज़ा नहीं हो सका था. 2009 में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) ने अपेक्षा जताई थी कि तेल की क़ीमतें 2008 के 97 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 2009 में 60 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास रहेंगी और 2020 तक ये दोबारा बढ़कर 100 डॉलर प्रति बैरल औऱ 2030 तक 115 डॉलर (2008 के डॉलर मूल्य में) प्रति बैरल का स्तर हासिल कर लेंगी. ये पूर्वानुमान इस आकलन पर आधारित थे कि विकासशील देशों में तेल की मांग में बढ़ोतरी बेरोक-टोक जारी रहेगी.
दाम में ये उछाल चीन से ऊर्जा और अन्य संसाधनों की मांग में बढ़ोतरी और कुछ हद तक भारत की बढ़ी मांग की वजह से आया था, जिसका किसी को भी अंदाज़ा नहीं हो सका था.
2014 के मध्य से 2016 की शुरुआत के बीच, तेल की क़ीमतों में आधुनिक इतिहास में सबसे ज़्यादा गिरावट देखी गई, जब क़ीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 50 डॉलर से भी नीचे चली गईं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद से तेल क़ीमतों में 70 प्रतिशत की ये गिरावट सबसे बड़ी थी और 1986 में आपूर्ति की वजह से आई कमी के बाद, सबसे ज़्यादा लंबे समय तक बनी रही थी. 2019 तक तेल के दाम 50 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास बने रहे थे और 2020 में महामारी की वजह से लगे आर्थिक लॉकडाउन की वजह से इसकी क़ीमतें 40 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे चली गई थीं. महामारी के बाद आर्थिक उन्नति बहाल होने की वजह से ब्रेंट क्रूड के दाम 2022 में 100 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गए. 2023 के हालात देखकर ज़्यादातर संस्थानों ने 2024 के लिए तेल के दाम के अपने पूर्वानुमानों को बढ़ाकर ही बताया था. 2024 में ब्रेंट क्रूड का दाम 70 से 95 डॉलर प्रति बैरल के बीच रहने का अनुमान लगाया गया है. आज के दौर में तेल की क़ीमतों का पूर्वानुमान लगाने के लिए इंसान की बुद्धिमत्ता के साथ साथ मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. दोनों में से कौन बेहतर है, इसके लिए अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी.
मसलेक्याहैं?
दूरगामी पूर्वानुमान लगानें जो दो सबसे आम ग़लतियां की जाती हैं, वो समय का प्रवाह और भीड़ वाली सोच की होती हैं. समय की धारा के साथ बहने से ऐसे पूर्वानुमान लगाए जाते हैं, जो तेल की मौजूदा क़ीमत पर आधारित होते हैं, जिसमें ये निष्कर्ष निहित होता है कि आज की क़ीमतें ही भविष्य में तेल के दाम का सबसे सही पूर्वानुमान हैं. यहां तक कि ‘फ्यूचर्स’ के बाज़ार में भी तेल के जो ठेके होते हैं, वो भविष्य की क़ीमतों का सटीक अनुमान लगाने में बेअसर साबित हुए हैं. भले ही किसी को ये लगे कि स्पॉट के दाम और भविष्य के दामों में अंतर है. लेकिन ये फ़र्क़ भी बहुत मामूली होता है. जब किसी नई जानकारी की वजह से मौजूदा क़ीमतों में उतार-चढ़ाव आता है, तो फ्यूचर की क़ीमतें भी हर दफ़ा उसी दिशा में बढ़ने लगती हैं. इससे ये बेकार का निष्कर्ष निकलता है कि मौजूदा क़ीमतें ही भविष्य का सबसे सटीक पूर्वानुमान हैं. भीड़ वाली सोच बहुत से लोगों को फौरी अनुभव और ज़्यादातर लोगों की अपेक्षाओं के मुताबिक़ पूर्वानुमान लगाने को प्रेरित करती है. पिछले पांच दशकों के दौरान साल के पहले हिस्से में भू-राजनीति और तेल के दाम के शीर्ष को लेकर बड़ी अपेक्षाओं ने ही क़ीमतों के पूर्वानुमान लगाने को प्रभावित किया है. वहीं, साल के दूसरे उत्तरार्ध में मांग और आपूर्ति में बढ़ोतरी की अपेक्षाओं ने ही क़ीमतों के पूर्वानुमानों को तय किया है.
अगर हम ये मान लें कि अगर OPEC देश अपने उत्पादन में कटौती नहीं करते हैं या फिर चीन में मांग बढ़ती है या फिर सस्ते तेल की आपूर्ति कम होती है, तो कच्चे तेल की क़ीमतों को संख्या के टाइम सीरीज़ डेटा की तरह देखा जा सकता है
‘रिटर्न टू स्टोरेज’ की परिकल्पनायें भी भविष्य की क़ीमतें तय करने में ग़लत साबित हुई हैं. इस सिद्धांत के मुताबिक़ आज की क़ीमतें, आज की मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती हैं, और भविष्य में दाम उस वक़्त की मांग और आपूर्ति पर आधारित होंगे. इसके साथ साथ, आज की क़ीमत को भंडारण की लागत के ज़रिए कल के दामों से जोड़ा जाता है; और आज की आपूर्ति को कितना भंडार रखना है और आज से आने वाले कल में कितना बदलाव करना है के फ़ैसले के आधार पर कल की आपूर्ति से जोड़ा जाता है.
अगर हम ये मान लें कि अगर OPEC देश अपने उत्पादन में कटौती नहीं करते हैं या फिर चीन में मांग बढ़ती है या फिर सस्ते तेल की आपूर्ति कम होती है, तो कच्चे तेल की क़ीमतों को संख्या के टाइम सीरीज़ डेटा की तरह देखा जा सकता है, जहां सांख्यिकीय पूर्वानुमानों का इस्तेमाल किया जा सकता है. आम तौर पर ये माना जाता है कि अगर हम किसी बात को समझते हैं, तो हम इस बात का पूर्वानुमान लगा सकेंगे कि आगे क्या होगा. लेकिन, तेल की क़ीमतें आर्थिक उतार-चढ़ाव की एक दिलचस्प मिसाल हैं जिसको अगर हम समझते भी हैं, तो हम उसका पूर्वानुमान लगाने में पूरी तरह से असफल रहेंगे.
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Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change.
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