Author : Sunjoy Joshi

Published on May 04, 2020 Updated 0 Hours ago

सबसे बड़ी समस्या जो आने वाली है वो यह है कि जो निर्देश दिल्ली से निकलते हैं और जो निर्देश राज्य शासन से निकलते हैं और फिर जो निर्देश ज़िला प्रशासन से निकलते हैं उसमें सामंजस्य बैठाना बड़ा मुश्किल हो जाता है. क्योंकि दिल्ली से जो निर्णय दिए जाते हैं वो ज़मीनी हकीक़त से काफी अलग होता है.

कोविड19: लॉकडाउन के बाद पटरी पर कैसे लौटेगी अर्थव्यवस्था

कोविड-19 का कहर जब दुनिया पर नहीं बरपा था, तब भी देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी हालत में नहीं थी. आज इकोनामिक आउटपुट में भी लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. कोविड-19 की वजह से दुनिया के सभी देश अपनी अर्थव्यवस्था की ख़स्ता हालत से जूझ रहे हैं और भारत का भी यही हाल है. जनता को उम्मीद थी कि तीन मई को सरकार लॉकडाउन हटा देगी लेकिन जैसे-जैसे कोविड-19 से जुड़े आंकड़े सामने आते गए, वैसे-वैसे सरकार की चिंताएं और बढ़ती चली गयी. इस वजह से उसने लॉकडाउन को और दो हफ्ते तक आगे बढ़ा दिया. लेकिन ऐसा करते हुए, उसने न सिर्फ अति आवश्यक वस्तुएं बल्कि इसके अलावा भी कुछ अन्य वस्तुओं, दुकानों और अलग-अलग क्षेत्रों को थोड़ी बहुत ढील दी. यह हमारी चिंताएं और बढ़ा देता है. क्योंकि मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, इंदौर जो हमारे अर्थव्यवस्था की धुरी हैं, इन जगहों पर कोरोना मरीज़ों की समस्या अभी बहुत ज्यादा है. जैसे की मुंबई में 13.8% और दिल्ली में 11.6% मामले हैं. कुल मिलाकर देश की आधी समस्या इन्हीं प्रमुख शहरों में है. इस लेख के माध्यम से हम जानने का प्रयास करेंगे की लॉकडाउन से बाहर आने में क्या समस्या है और किस तरह का रास्ता दिखाई दे रहा है.

लॉकडाउन से बाहर आना कितनी बड़ी समस्या 

अभी हमारे प्रमुख शहरों में जो अर्थव्यवस्था की एक तरह से नब्ज़ है, उन क्षेत्रों में निरंतर हॉटस्पॉट में वृद्धि होती जा रही है. जैसा कि हमने देखा, दिल्ली में पहले 80 और फिर 90 हॉटस्पॉट घोषित करके सील कर दिया गया. इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने भी दिल्ली से सटे नोएडा और गाज़ियाबाद के बार्डर को भी सील कर दिया. ऐसे में जब हम अर्थव्यवस्था के खोले जाने की बात करते हैं तो इससे स्पष्ट होता है कि यह ओपनिंग/रिलैक्सेशन बहुत टुकड़ों-टुकड़ों में होगा, छोटे-छोटे क्षेत्रों में होगा और अलग-अलग ढ़ंग से होगा. इस वजह से इसमें कई समस्याएं आएंगी. सबसे पहले हमारी समस्या सप्लाई चैन में आएगी, क्योंकि अर्थव्यवस्था तो एक पूरी श्रृंखला है, जहां ईसेंशियल चीजें, नॉन-ईसेंशियल चीजों के साथ जुड़ी हुई है. ऐसा किए जाने पर सबसे पहले सप्लाई चैन बाधित होगा. इसलिए जो रिवाइवल होगा वह ऐसा नहीं है कि बहुत तेज़ी से होगा या एकदम से V-शेप में होने वाला है. यह बहुत ही धीमी-धीमी गति से होने वाला रिवाईवल है. इससे हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान ज्य़ादा होगा और भरपाई कम होगी. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि कौन से ऐसे क्षेत्र हैं जहां सबसे ज्यादा मानवीय प्रभाव लोगों को पड़ेगा, और कैसे हम उसमें किसी ना किसी तरीके से इकोनामिक एक्टिविटी शुरू करके थोड़ी बहुत सपोर्ट दे सके. जिस ढंग से लॉकडाउन हुआ है और जिस ढंग से इसे खोलने की बात की जा रही है उससे अर्थव्यवस्था का पहिया रुक- रुककर चलेगा.

जिस ढंग से लॉकडाउन हुआ है और जिस ढंग से इसे खोलने की बात की जा रही है उससे अर्थव्यवस्था का पहिया रुक- रुककर चलेगा

सबसे बड़ी समस्या जो आने वाली है वो यह हैं कि जो निर्देश दिल्ली से निकलते हैं और जो निर्देश राज्य शासन से निकलते हैं और फिर जो निर्देश जिला प्रशासन से निकलते हैं उसमें सामंजस्य बैठाना बड़ा मुश्किल हो जाता है. क्योंकि दिल्ली से जो निर्णय दिए जाते हैं वो ज़मीनी हकीक़त से काफी अलग होता है. कभी-कभी निर्णय स्थानीय स्तर पर चीजों को ध्यान में रखकर ली जाते हैं और यह सारा निर्णय अर्थव्यवस्था, सप्लाई चेन और लोगों को ध्यान में रखकर ली जाती है. जैसा कि हमने हाल ही में देखा कि एक स्थिति ऐसी भी आई थी कि गाज़ियाबाद से दिल्ली आकर काम करने वाले डॉक्टर काम पर नहीं पहुंच पा रहे थे क्योंकि बॉर्डर सील हो गई थी. यह उस वक्त की बात है जब हम इकोनामिक इजिंग की बात कर रहे थे.

असंगठित क्षेत्र के लिए किस तरह की मदद करने की ज़रूरत 

इसका एक तरीका यह हो सकता है कि इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को किसी ना किसी तरीके से शुरू किया जाए. सरकार ने भी कहा है कि इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट शुरू होने चाहिए. लेकिन बहुत बड़े मायने में कंस्ट्रक्शन एक्टिविटी एकदम से शुरू नहीं हो पाएगी क्योंकि यहां पर रियल स्टेट वैसे ही डूबा हुआ है और एंटरप्रेन्योर्स के लिए क्रेडिट की व्यवस्था बड़ी मुश्किल होती है. तो कहीं ना कहीं इसमें सरकार को आगे आकर सबसे पहले इन्फ्राट्रक्चर प्रोजेक्ट में इन्वेस्ट शुरू करने चाहिए जिससे प्राइवेट सेक्टर को भी काम मिलेगा और उनके कांट्रैक्टर्स को काम मिलेगा, और दूसरा तरीका यह हो सकता है कि क्रेडिट लाइन की व्यवस्था कैसे की जाए.

इस लॉक डाउन के दौरान हमने देखा कि सभी राज्यों के बॉर्डर पर असंगठित क्षेत्र के मजदूर इकट्ठे थे जो किसी भी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क के तहत नहीं आते हैं लेकिन यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अहम हिस्सा है

भारत का 80 से 90% रोज़गार इनफॉर्मल सेक्टर से सृजित होता है, इनफॉर्मल सेक्टर हमेशा से ही फॉर्मल सेक्टर के रडार में रहे हैं जो वास्तव में किसी भी पॉलिटिकल कांस्टीट्यूएंसी का हिस्सा नहीं है वो रहते कहीं है और वोट कहीं और देते हैं. हमारी जो पार्लियामेंट्री सिस्टम है, हमारी कानूनी व्यवस्था है  उसमें उनकी कोई कांस्टीट्यूएंसी नहीं है, जहां पर वह जाकर अपनी बात रख सकें.

इस लॉक डाउन के दौरान हमने देखा कि सभी राज्यों के बॉर्डर पर असंगठित क्षेत्र के मजदूर इकट्ठे थे जो किसी भी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क के तहत नहीं आते हैं लेकिन यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अहम हिस्सा है. क्योंकि उनका घर कहीं और है और काम कहीं और करते हैं. ऐसी स्थिति में कई मायनों में तो उनके पास राशन कार्ड तक नहीं होता है. इसलिए यदि जब प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना की बात करते हैं, फ्री में राशन देने की बात करते हैं तो उनके पास इतना भी सामर्थ्य नहीं है कि वह जाकर राशन उठा सके क्योंकि उनके पास राशन कार्ड नहीं है. और यदि होगा भी तो उनके गांव में होगा.

किन क्षेत्रों में सबसे पहले ध्यान देने की ज़रूरत

इस समय सबसे ज़रूरी यह है कि सरकार को अपनी इस मानसिकता से परे सोचना होगा जो कि वो सोचती चली आ रही हैं. हर हालत में ज्य़ादा से ज्य़ादा रेवेन्यू कलेक्शन करने की. वास्तव में यह एक बहुत बड़ा संकट है. अगर अर्थव्यवस्था को टुकड़ों-टुकड़ों में करके खोला जाता है तो इसके जो दुष्परिणाम है वह बहुत दूर तक जाएंगे. क्योंकि हमारे सप्लाई चेन काम नहीं करेंगे. आपको उर्जा की कमी होगी. फूड सिक्योरिटी प्रभावित हो सकती है. यदि इंडस्ट्री को शुरू करना है तो जो इनपुट कॉस्ट हैं उनमें टैक्सेशन कम किए जाने की ज़रूरत है, चाहे एनर्जी के माध्यम से या चाहे जीएसटी के माध्यम से. क्योंकि जब तक इकॉनमी रिवाइव नहीं होगी तब तक उनपर टैक्स लगाने का कोई फायदा नहीं.

एक बार जब हम अपने अर्थव्यवस्था को इस तरह से शुरू कर पाए तो सबसे पहले जिन एंटरप्रेन्योर्स को काम मिलेगा, उनकी क्रेडिट लाइन शुरू हो सकती है. बैंक भी उनपर थोड़े भरोसे के साथ पैसा दे सकते हैं क्योंकि बैंक बिना एश्योरेंस के पैसा नहीं देना चाहते हैं. हाल ही में रिजर्व बैंक के स्टेटमेंट के अनुसार रिवर्स रेपोरेट को कम कर दिया. रिवर्स रेपोरेट क्या है? जिस तरह से हम अपना पैसा बैंक में रखकर ब्याज कमाते आते हैं उसी तरह बैंक अपना पैसा आरबीआई में रखकर कुछ ना कुछ इंटरेस्ट अर्जित करती है.

इस समय राज्यों को बहुत सपोर्ट की ज़रूरत है. वह खुद चाह रहे हैं कि उनकी जो फिस्कल डेफिशिट की लिमिट है उन्हें रिलैक्स किया जाए और अभी जो जीएसटी पेमेंट करने हैं उसे भी क्योंकि सारा कलेक्शन केंद्र करता है, राज्य बहुत कम करता है तो इनमें उन्हें एडवांस देने की ज़रूरत है

अगर अर्थव्यवस्था को फिर से शुरू करना है तो बैंक को लोन देने ही होंगे क्योंकि ऋण एक तेल है जिससे अर्थव्यवस्था चलती है. अगर लोग सरकारी प्रोजेक्ट में इन्वेस्ट कर रहे होते हैं तो इससे ज्य़ादा भरोसा होता है. इसके दो फायदे होते हैं  पहला यह कि इनफॉर्मल सेक्टर को काम मिलते हैं और दूसरा इस समय राज्यों को बहुत सपोर्ट की ज़रूरत है. वह खुद चाह रहे हैं कि उनकी जो फिस्कल डेफिशिट की लिमिट है उन्हें रिलैक्स किया जाए और अभी जो जीएसटी पेमेंट करने हैं उसे भी क्योंकि सारा कलेक्शन केंद्र करता है, राज्य बहुत कम करता है तो इनमें उन्हें एडवांस देने की ज़रूरत है. कहानी बहुत कठिन है ये सारी चीजें सरकार को एक साथ बैलेंस करनी पड़ेगी.

आरबीआई इन क्षेत्रों में किस तरह से मदद कर सकता है?

आरबीआई ने पिछले हफ्ते दो अनाउंसमेंट किए, लेकिन जितना कुछ किया वो पर्याप्त नहीं लगता है. उससे आगे और कुछ देने की आवश्यकता है. क्योंकि बैंक आज के समय में बिल्कुल भी जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. लेकिन अगर बैंक नहीं रिस्क उठाएगा तो फिर कौन उठाएगा? बैंकों में विश्वास लाने के लिए सरकार की भूमिका इसमें अहम रहेगी. सरकार की भूमिका इसमें उसके प्रोजेक्ट के माध्यम से हो सकते हैं. एक बार अगर यह शुरू हो जाता है तो बैंक और प्राइवेट एंटरप्रेन्योर्स में थोड़ा भरोसा आएगा. अभी बिल्कुल छिन्न-भिन्न तरीके से अर्थव्यवस्था खुलेगी. कोई सेक्टर खुलेगा कोई सेक्टर नहीं खुलेगा. किसी सेक्टर का धड़ खुलेगा, किसी सेक्टर का सिर खुलेगा तो किसी के सिर्फ़ पांव ही खुलेंगे. यह व्यवस्था बहुत ही टूटे-फूटे ढंग से, लड़खड़ाते हुए वापस अपने पैरों पर आएगी और इस लड़खड़ाते हुई व्यवस्था को वापस लाने के लिए सरकार की बराबर सपोर्ट चाहिए.

हमारे सरकारी तंत्रों में स्पष्ट कम्युनिकेशन का होना बहुत जरूरी है. ऐसी स्थिति नहीं होनी चाहिए कि सरकार आपस में जो कम्युनिकेशन करें, अपने अंगों के बीच में, उनमें संवादहीनता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इससे कन्फ्यूज़न पैदा होता है, सेंटर का स्टेट के बीच में, स्टेट और डिस्ट्रिक्ट के बीच में होता है, और जो इंप्लीमेंटिंग एजेंसी हैं, उसका कुछ और अर्थ निकालकर, ज़मीन पर कुछ और काम कर देती है. इससे लोगों को परेशानी होती है. उनकी अनिश्चितता बढ़ती जाती है. तो यह बहुत जरूरी है कि सरकार के भीतर भी स्पष्ट कम्युनिकेशन हो कि वह क्या चाहती हैं और सोच-समझ करके रास्ता अख्त़ियार करें. और एक बार जो रास्ता अख्त़ियार करें तो उसमें बराबर कम्युनिकेशन होता रहे. हो सकता है कि बीच-बीच में उसमें कुछ तब्दीलियों की भी ज़रूरत पड़ें. ऐसा भी देखने को मिलता है कि सरकार के जो आदेश है वो अस्पष्ट होते हैं. वो क्या करना चाहती है, समझ में नहीं आता कि यह करना चाहिए कि वो करना चाहिए. जैसा कि हमने हाल ही में देखा ई-कामर्स के बारे में. इस तरह के आदेश बाद में बहुत घातक हो सकता है. तो सबसे पहले सरकार को साफ़ साफ़ संवाद स्थापित करने की ज़रूरत है.

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