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सवाल है कि क्या कोरोना संकट के बाद जलवायु परिवर्तन के लिये अमीर देश गंभीर रह पायेंगे और क्या विकासशील और गरीब देशों के पास इतनी ताकत बचेगी कि वह उत्सर्जन कर रहे देशों पर क्लाइमेट एक्शन के लिये दबाव बना सकें.
दुनिया भर में कोरोना वायरस के व्यापक हमले और मानवता पर छाये अभूतपूर्व संकट को देखते हुये पहली नज़र में जलवायु परिवर्तन या जलवायु नीति पर बात करना भी थोड़ा अजीब या असामान्य लग सकता है. जब हमारे सामने जीवन-मरण का सवाल मंडरा रहा हो और पूरी अर्थव्यवस्था के चौपट हो जाने का ख़तरा हो तो क्या हमें अभी क्लाइमेट पॉलिसी के बारे में सोचना भी चाहिये? कोरोना वायरस ने, जिसे कोविड-19 के नाम से भी जाना जाता है, अब तक पूरी दुनिया में तेरह लाख़ से अधिक लोगों को संक्रमित कर दिया है और 70 हज़ार से ज़्यादा मारे गये हैं. तो क्या हम अभी इस बीमारी से लड़ें या जलवायु नीति के बारे में सोचें?
कोरोना-विस्फोट के तीन महीने बाद भी अमेरिका और यूरोप समेत पूरी दुनिया इस सवाल से जूझ रही है कि सभी संक्रमित लोगों की पहचान कैसे हो. ख़बर यह भी है कि चीन में तो सरकार ने कोरोना से मारे गये लोगों की जानकारी ही बाहर आने नहीं दी है. भारत भी कोरोना संक्रमितों की पहचान करने में मूलभूत ढ़ांचे (डॉक्टर और टेस्टिंग किट) में कमी से जूझ रहा है. स्पष्ट है कि महामारी की जो तस्वीर हमारे सामने है असल हालात उससे अधिक ख़राब हैं.
क्लाइमेट और पर्यावरण की अनदेखी भविष्य में ऐसी और महामारियां ला सकती है. हमारी आबो-हवा और जैव विविधता – जो कि जलवायु नीति का अहम हिस्सा है – का संबंध इस संकट से है. दुनिया में तमाम देशों की जीडीपी पर जैसा असर कोरोना संकट अभी डाल रहा है, वही असर पिछले कम से कम चार दशकों से विकासशील और गरीब देशों पर जलवायु परिवर्तन की वजह से पड़ता रहा है
ज़ाहिर है दुनिया भर में सभी संसाधन इस वक़्त कोरोना से लड़ने के लिये लगा दिये गये हैं. फिर भी जलवायु नीति पर इस कठिन समय में बात करना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि क्लाइमेट और पर्यावरण की अनदेखी भविष्य में ऐसी और महामारियां ला सकती है. हमारी आबो-हवा और जैव विविधता – जो कि जलवायु नीति का अहम हिस्सा है – का संबंध इस संकट से है. दुनिया में तमाम देशों की जीडीपी पर जैसा असर कोरोना संकट अभी डाल रहा है, वही असर पिछले कम से कम चार दशकों से विकासशील और गरीब देशों पर जलवायु परिवर्तन की वजह से पड़ता रहा है. इन सब जटिल मुद्दों पर इस लेख में चर्चा की जायेगी.
औद्योगिकीकरण के बाद से स्पेस में जमा होता कार्बन धरती के तापमान को लगातार बढ़ा रहा है. इससे ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र जल स्तर बढ़ने के साथ बाढ़ और सूखे की घटनायें तो बार-बार हो ही रही हैं, चक्रवाती तूफानों की मार भी बढ़ रही है. कृषि और रोज़गार को होने वाले नुकसान के साथ यह विस्थापन को भी बढ़ा रहा है. साथ ही इससे मज़दूरों की कार्यकुशलता और दक्षता के साथ सेहत पर भी असर पड़ रहा है.
इसी साल फरवरी में ध्रुवों का तापमान 20 डिग्री पार कर गया जो कि एक रिकॉर्ड है. मार्च में जारी रिपोर्ट में विश्व मौसम संगठन के कहा है कि भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ पूरे यूरोप में बढ़ते तापमान का असर लोगों की सेहत पर पड़ रहा है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच साल और पूरा दशक धरती पर सबसे गर्म रहा है.
ग्लोबल वॉर्मिंग के असर के चारों ओर ही जलवायु नीति की बहस तय होती है और इसके ख़तरों पर विशेषज्ञ हमें लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं. पिछले तीन सालों को ही आधार बनायें तो संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट पैनल (आईपीसीसी) – जिसमें दुनिया भर के जाने माने जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ और वैज्ञानिक हैं – ने कम से कम तीन बड़ी रिपोर्ट दी हैं जो मानवता पर जलवायु परिवर्तन के असर को बताती हैं.
एक ताज़ा रिसर्च में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक मौसम बदलाव से फ्लू की घटनायें लगातार बढ़ रही हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम में तीव्र उतार चढ़ाव से फ्लू घनी आबादी वाले इलाकों तक पहुंच रहा है और 2050 तक बड़े शहरों में इन्फ्लुएंजा के मामले 20%-30% बढ़ेंगे
6 अक्टूबर 2018 को 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि पर जारी की गई विशेष रिपोर्ट – जिसे SR 1.5 के नाम से जाना जाता है – में साफ कहा गया अगर विश्व को बर्बादी से बचाना है तो हमारे पास सिर्फ दस साल का ही वक़्त बचा है और 2030 तक धरती से हो रही कुल कार्बन उत्सर्जन में साल 2010 के स्तर पर 45% कटौती करनी होगी. रिपोर्ट में तापमान के बढ़ने को लेकर जो चेतावनियां दी गई हैं उनसे साफ है कि विनाशलीला से पूरी तरह बचना असंभव है लेकिन उसके प्रभावों को कम करने का सीमित समय हमारे पास ज़रूर है.
लेकिन जहां दुनिया के सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन को कम करने और ऊर्जा के साफ विकल्पों (सोलर, विन्ड और लघु जलविद्युत परियोजनाओं) पर ज़ोर देने की ज़रूरत है वहीं ये समझना भी ज़रूरी है कि प्रकृति से छेड़छाड़ बदलती जलवायु यानी क्लाइमेट कोविड-19 जैसे ख़तरों को न्यौता दे रही है.
एक ताज़ा रिसर्च में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक मौसम बदलाव से फ्लू की घटनायें लगातार बढ़ रही हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम में तीव्र उतार चढ़ाव से फ्लू घनी आबादी वाले इलाकों तक पहुंच रहा है और 2050 तक बड़े शहरों में इन्फ्लुएंजा के मामले 20%-30% बढ़ेंगे.
कई जानकार अब कब रहे हैं कि बीमारियों का आगमन प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बिगड़ने का नतीजा है. आज क्लाइमेट चेंज को रोकने से लेकर सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लक्ष्य (एसडीजी) को हासिल करने की कोशिश में यह बात ध्यान रखना ज़रूरी है. पूर्व विदेश सचिव और जलवायु परिवर्तन पर भारत के प्रमुख वार्ताकार रह चुके श्याम सरन मौजूदा हालात को इसी नज़र से देखते हैं.
“हम अब इस बारे में सोचना चाहिये कि हम इन अंर्तसम्बन्धों को कैसे समझ सकते हैं. क्लाइमेट भी एक कारक है जो इस हालात (कोरोना वायरस) के पीछे है. अगर हम जंगलों को इस तरह अंधाधुंध नहीं काटते, अगर वन्य जीवों का हैबिटाट (बसेरा) साल दर साल यूं नहीं सिकुड़ता, जंगली जानवर इस तरह से मनुष्यों और पालतू जानवरों के संपर्क में नहीं आते तो शायद यह हालात पैदा नहीं होते. आखिरकार मनुष्य बनाम वन्य जीव की स्थिति से जो दबाव बनता है अब हम देख रहे हैं कि वो सारी चीज़ें आपस में जुड़ी हुई हैं.”
यह एक दुखद संयोग है कि कोरोना का हमला साल 2020 में हुआ क्योंकि 1992 के ऐतिहासिक रियो सम्मेलन के बाद पिछले करीब 30 साल से वैश्विक मंच पर चल रही जलवायु परिवर्तन वार्ता में 2020 एक अति महत्वपूर्ण पड़ाव था. साल 2015 में पेरिस संधि (पेरिस क्लाइमेट डील) हुई जिसके बाद सभी देशों ने कार्बन इमीशन घटाने के राष्ट्रीय लक्ष्य तय किये.
इस साल नवंबर में यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो में होने वाली जलवायु परिवर्तन वार्ता (जिसे COP-26 कहा जाता है) में तमाम देशों को अपनी योजनाओं के विस्तृत ख़ाके जमा करने थे. इन्हीं योजनाओं के आधार पर पता चलता कि अगले 30 साल में अलग-अलग देश ग्लोबल वॉर्मिंग कम करने और क्लाइमेट चेंज के प्रभावों से अपनी जनता को बचाने के लिये क्या कदम उठायेंगे.
औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक विकसित कहे जाने वाले देशों ने ही स्पेस में कार्बन जमा किया है. वातावरण में करीब डेढ़ सौ सालों में जमा हुये उत्सर्जन (हिस्टॉरिक इमीशन्स) में अगर अमेरिका का सबसे बड़ा हिस्सा है तो वर्तमान में चीन सबसे तेज़ रफ्तार से कार्बन छोड़ रहा है
जलवायु परिवर्तन वार्ता में हर साल 190 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं. इस साल का महासम्मेलन COP-26 फिलहाल स्थगित कर दिया गया है और इसकी तारीखों का ऐलान कोरोना संकट के गुज़र जाने के बाद होगा. इस वार्ता से पहले होने वाली सारी वार्तायें भी अभी रद्द कर दी गई हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने पहले ही कह दिया है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई अहम है लेकिन फिलहाल सभी देशों को अपने सारे संसाधन इस वायरस से निबटने में लगाने होंगे.
वैसे तो जलवायु परिवर्तन वार्ता और क्लाइमेट पॉलिसी जटिल विषय है लेकिन आसान भाषा में समझना हो तो इसे विकसित और विकासशील देशों के बीच एक खींचतान या सीधे शब्दों में अमीर-गरीब की लड़ाई कह सकते हैं. औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक विकसित कहे जाने वाले देशों ने ही स्पेस में कार्बन जमा किया है. वातावरण में करीब डेढ़ सौ सालों में जमा हुये उत्सर्जन (हिस्टॉरिक इमीशन्स) में अगर अमेरिका का सबसे बड़ा हिस्सा है तो वर्तमान में चीन सबसे तेज़ रफ्तार से कार्बन छोड़ रहा है.
गरीब और विकासशील देशों की मांग है कि अमीर विकसित देश अपने कार्बन उत्सर्जन कम करें और जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से लड़ने के लिये टेक्नोलॉजी और पैसा (क्लाइमेट फाइनेंस) मुहैया करायें. डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद क्लाइमेट चेंज को विकासशील देशों का बनाया हौव्वा बताकर अमेरिका को इस संधि से बाहर कर लिया, हालांकि यूरोपीय देशों ने काफी हद तक जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में गंभीरता दिखाई है. अभी सवाल है कि क्या कोरोना संकट के बाद जलवायु परिवर्तन के लिये अमीर देश गंभीर रह पायेंगे और क्या विकासशील और गरीब देशों के पास इतनी ताकत बचेगी कि वह उत्सर्जन कर रहे देशों पर क्लाइमेट एक्शन के लिये दबाव बना सकें.
कोरोना महामारी फैलते ही दुनिया के ज़्यादातर देशों में ज़िंदगी ठहर गई, कामधंधे रोक दिये गये, वाहनों, रेलगाड़ियों का चलना बन्द व उड़ानें ठप हो गईं. होटल, रेस्तंरा और क्लब बन्द कर दिये गये. ज़ाहिर तौर पर पर्यावरण में साफ बदलाव दिख रहा है. न केवल प्रदूषण कम है बल्कि तमाम अमीर और घने उद्योगों वाले देशों के कार्बन इमीशन तेज़ी से गिरे हैं. चीन की मिसाल लें तो जब वहां कोरोना का कहर सबसे अधिक था तो कार्बन उत्सर्जन 25% कम हो गये.
लेकिन इस तरह कोरोना के प्रभाव से कम होता प्रदूषण और कार्बन इमीशन भले ही धरती को तात्कालिक रूप से साफ करता दिखे लेकिन जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ लंबी लड़ाई के लिये फ़ायदेमंद नहीं है. न केवल इन हालातों से सभी देशों को आर्थिक झटका लगा है बल्कि महामारी के काबू में आते ही इमीशन फिर से आसमान छूने लगेंगे.
इसके अलावा अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद अमीर-विकसित देश पैसे की कमी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे और पेरिस संधि में जिस क्लाइमेट फाइनेंस का वादा है वह पूरा नहीं होगा. यहां यह उल्लेखनीय है कि 2010 में कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान 2020 तक 100 बिलियन डॉलर का एक ग्रीन क्लाइमेट फंड बनाने की बात हुई थी जिसमें आजतक 10% से भी कम जमा हुआ है.
इसके अलावा कोरोना ने क्लाइमेट एक्शन पर अब तक ढुलमुल रवैया अपना रहे देशों को बहानेबाज़ी का मौका भी दे दिया है. सभी देशों के एक्शन प्लान इस साल ग्लासगो में होने वाली जलवायु वार्ता में जमा होने थे. अब लगता है कि अगर वार्ता अगले साल के मध्य में भी हो तो एक्शन प्लान जमा न करने और उस पर अमल न करने का बहाना कई देशों के पास है यानी क्लाइमेट पॉलिसी में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिख सकता है.
क्लाइमेट पॉलिसी के लिहाज़ से अमेरिका और चीन के संबंधों में ताज़ा तनातनी भी काफी अहम है. अमेरिका भले ही पेरिस डील का हिस्सा न हो लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वह गहरा प्रभाव रखता है और कई देशों की जलवायु नीति को प्रभावित कर सकता है. कई देश क्लाइमेट फाइनेंस और इमीशन कम करने के लक्ष्य तय करने के मामले में अमेरिका के पीछे छुप जाते हैं. कोयले का प्रयोग घटाना हो या क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी का मामला अमेरिका का दख़ल हर बारीकी पर रहता है.
उधर चीन पूरी दुनिया में बड़ी महाशक्ति बन कर उभरा है और वह विकासशील और गरीब देशों के साथ विकसित देशों में भी काफी हद तक पैठ रखता है. यही नहीं क्लीन एनर्जी के बाज़ार चाहे वह सोलर पैनल या पवन ऊर्जा का सामान हो या फिर बैटरी कारों की तकनीक चीन का दबदबा पूरी दुनिया में है. कोरोना वायरस को लेकर चीन और अमेरिका में काफी तू-तू, मैं-मैं हो चुकी है. अब इन दो देशों के रिश्तों का अगले एक साल में वैश्विक जलवायु नीति पर कैसा असर रहता है यह देखना होगा.
जानकारों का कहना है कि कोरोना से निबटने के बाद जब दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़तें अपने वर्चस्व की लड़ाई शुरू करेंगी तो यह देखना अहम होगा कि वह विकास की दौड़ में वह क्या नीतियां अपनाती हैं.
भारत उन देशों में है जहां वैश्विक जलवायु नीति के बदलने का प्रभाव सबसे अधिक होगा. पूरे हिमालयी क्षेत्र में दस हज़ार छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं, जिनका अस्तित्व ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण संकट में है. भारत की 7,500 किलोमीटर लंबी समुद्र तट रेखा भी संकट में है
“हम नहीं चाहते कि जब ताक़तवर देश (कोरोना से मुक्त होने के बाद) अपने पुनर्निर्माण में अरबों-खरबों डॉलर लगायें तो वह सारा पैसा जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस जैसा कार्बन छोड़ना वाला फ्यूल) का व्यापार करने वाले कंपनियों पर लगायें. हम चाहते हैं कि इन सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के पास नये सिरे से साफ़ ऊर्जा पर निवेश करने का एक सुनहरा मौका होगा और हम एक नया लाइफ़ स्टाइल प्रमोट कर सकते हैं जो प्रकृति के करीब और उसके साथ दोस्ताना व्यवहार वाला हो.” ये कहना है, एक्शन एड इंटरनेशनल की क्लाइमेट पॉलिसी कॉर्डिनेटर टेरेसा एंडरसन का.
भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बाद चौथे नंबर पर है और अगले 10 सालों में उसके इमीशन तेज़ी से बढ़ेगें. उसका आकार इतना बड़ा है और भौगोलिक स्थित ऐसी है कि उसे जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा. इसलिये भारत उन देशों में है जहां वैश्विक जलवायु नीति के बदलने का प्रभाव सबसे अधिक होगा. पूरे हिमालयी क्षेत्र में दस हज़ार छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं, जिनका अस्तित्व ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण संकट में है. भारत की 7,500 किलोमीटर लंबी समुद्र तट रेखा भी संकट में है. इस तटरेखा पर 25 से 30 करोड़ लोग रोज़गार के लिये प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से निर्भर हैं. इन इलाकों में सुंदरवन जैसी विश्व धरोहर भी हैं जहां से बड़ी संख्या में विस्थापन ही नहीं बल्कि पूरी क्षेत्र के वजूद पर संकट है. दूसरी ओर भारत में कई एग्रो-क्लाइमेटिक ज़ोन हैं और 55% से अधिक खेती सिंचाईं के लिये मॉनसून पर निर्भर है. इसलिये क्लाइमेट चेंज का सबसे अधिक असर भारत पर ही पड़ने वाला है.
अभी कोरोना वायरस भारत और दुनिया के लिये सबसे बड़ा संकट है लेकिन अगर आईपीसीसी की रिपोर्ट्स और अन्य शोध देखें तो जलवायु परिवर्तन लंबे समय से मानवता को कुतर रहा है और उसकी चोट पिछले दो दशकों में बढ़ी है. भारत जैसे देशों की जीडीपी पर उसका नकारात्मक असर अब रिसर्च साबित कर रही हैं. भारत ही नहीं विश्व के तमाम गरीब और विकासशील देशों की जलवायु नीति इससे प्रभावित होगी.
कोरोना संकट भारत में कब तक चलेगा और यह हमारी अर्थव्यवस्था को कितना प्रभावित करेगा इसका स्पष्ट अंदाज़ा अभी नहीं लगाया जा सकता लेकिन यह तय है कि यह हमारी सामाजिक-आर्थिक हालात को काफी आघात पहुंचा सकता है. ऐसे में वैश्विक जलवायु नीति पर अपना प्रभाव बनाना और देश के हितों की रक्षा करना कोरोना संकट के बाद सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये.
[हृदयेश जोशी पत्रकार और लेखक हैं. वह पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा पर लिखते हैं. उनकी किताब Rage of the River, The Untold Story of the Kedarnath Disaster पेंग्विन इंडिया से प्रकाशित हुई है.]
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