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जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास, खाद्य सुरक्षा और पेंशन की बात है, तो भारत में सामाजिक सुरक्षा के लिए कई नीतियां हैं. लेकिन, इनमें से अधिकतर नीतियां संगठित क्षेत्र तक ही सीमित हैं
कोविड-19 के संकट का भारत के अर्थ कुशल, प्रवासी मज़दूरों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर बहुत भयानक दुष्प्रभाव देखने को मिला है. उनके हाथ से नौकरियां निकल गईं. उनके पास सामाजिक सुरक्षा की कोई सुविधा नहीं है. और इसके अलावा वो एक अनजान शहर में फंसे हुए हैं. ये ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे इस देश को तब भी निपटना होगा, जब भारत में कोविड-19 की महामारी का प्रकोप ख़त्म हो जाएगा. मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की धारा 22 कहती है कि समाज के हर सदस्य को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है. अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन (ILO) के मूलभूत सिद्धांत और मानक, तमाम क्षेत्रों में काम करने वालों का संरक्षण करते हैं. इन सिद्धांतों में किसी भी संगठन से संबंध रखना, समान काम के लिए समान वेतन, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था, बाहर से आए मज़दूरों का संरक्षण, महिला कामगारों के यौन उत्पीड़न की संभावनाएं समाप्त करने समेत कई अन्य उपाय शामिल हैं.
वर्ष 2018-19 के लिए भारत का आर्थिक सर्वे कहता है कि देश के 93 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में काम करते हैं. जबकि, 2018 में आई, नीति आयोग कि ‘स्ट्रैटेजी फॉर न्यू इंडिया ऐट 75’ कहती है कि भारत के असंगठित क्षेत्र में देश के लगभग 85 प्रतिशत कामकाजी लोग काम करते हैं
वर्ष 2018-19 के लिए भारत का आर्थिक सर्वे कहता है कि देश के 93 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में काम करते हैं. जबकि, 2018 में आई, नीति आयोग कि ‘स्ट्रैटेजी फॉर न्यू इंडिया ऐट 75’ कहती है कि भारत के असंगठित क्षेत्र में देश के लगभग 85 प्रतिशत कामकाजी लोग काम करते हैं. भले ही, देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या के स्रोत को लेकर मतभिन्नता हो, लेकिन ये एक हक़ीक़त है कि देश की अधिकतर कामकाजी आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है. और इस हक़ीक़त से कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता है. असंगठित क्षेत्र के ये कामगार देश की कुल राष्ट्रीय आमदनी में पचास प्रतिशत का योगदान करते हैं. साथ ही साथ ये देश की मानव पूंजी का एक बड़ा हिस्सा हैं. अगर हम इस बात पर ग़ौर करें कि आज देश की एक बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर है, तो उन्हें इस महामारी के दौरान क़ानूनी और आर्थिक संरक्षण देना एक बहुत बड़ा काम होगा. जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास, खाद्य सुरक्षा और पेंशन की बात है, तो भारत में सामाजिक सुरक्षा के लिए कई नीतियां हैं. लेकिन, इनमें से अधिकतर नीतियां संगठित क्षेत्र तक ही सीमित हैं.
2011 की जनगणना के अप्रवासी आंकड़ों का विश्लेषण करके इसके निष्कर्ष 2017 के आर्थिक सर्वे में जारी किए गए थे. इनका आधार रेलवे में यात्री परिवहन और कोहोर्ट आधारित अप्रवास मानक (CMM) थे. 2011 की जनगणना एवं 2007-2008 के राष्ट्रीय सैंपल सर्वे पर आधारित अनुमान ये बताते हैं कि देश की कुल कामकाजी आबादी का 17 से 29 प्रतिशत हिस्सा अप्रवासी मज़दूर हैं. अंदरूनी अप्रवास में पिछले कुछ वर्षों से लगातार इज़ाफ़ा होता देखा जा रहा है. हर साल अंतरराज्यीय मज़दूर अप्रवास का औसत 2001 से 2011 के बीच लगभग 50 से 60 लाख व्यक्तियों का रहा है. इसलिए, अंतरराज्यीय अप्रवासी आबादी लगभग छह करोड़ है. और ज़िलों के बीच अप्रवास लगभग 8 करोड़ है. 2011 से 2016 के बीच काम काज को लेकर भारत में नागरिकों के अंदरूनी प्रवास का आकलन लगभग 90 लाख है. यानी, लगभग इतनी संख्या में लोग काम काज की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य आए और गए.
हाल के अप्रवास के संकेतों को पढ़ने का प्रयास करें, तो पता चलता है कि महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भारी संख्या में लोग रोज़गार की तलाश में आते हैं. ये लोग अधिकतर हिंदी ह्रदयस्थल क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश से इन राज्यों में काम करने के लिए जाते हैं. पश्चिम बंगाल में भी बहुत से लोग काम की तलाश में जाते हैं. रोज़गार की तलाश में जो लोग पश्चिम बंगाल जाते हैं, उनमे से अधिकतर झारखंड, उत्तर प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्य हैं. महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल अपने अपने क्षेत्र की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राज्य हैं. और ये दोनों ही राज्य, क्रमश: पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों व पूर्वी और उत्तरी इलाक़ों के अप्रवासी कामगारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. इसीलिए, इस लेख में हम इस बात की विशेष रूप से समीक्षा करेंगे कि इन दोनों राज्यों ने किस तरह से अपने यहां काम करने वाले अप्रवासी मज़दूरों के हितों का संरक्षण किया. ख़ास तौर से हम ये देखेंगे कि, कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान, इन्होंने मज़दूरों के लिए कौन से क़दम उठाए.
जहां तक महाराष्ट्र में अप्रवासी मज़दूरों के काम धंधे की बात है तो राज्य के सूखा प्रभावित इलाक़ों से अक्सर लोग मज़दूरी के लिए शहरों में जाया करते हैं. शहरी क्षेत्र में वो, ईंट बनाने, निर्माण कार्य, टाइल के कारखानों और चीनी के कारखानों में काम करते हैं. वर्ष 1991 से 2001 बाहर से आए मज़दूरों के कारण मुंबई की आबादी में 43.7 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. हालांकि अब महाराष्ट्र में, राज्य के भीतर कामगारों के अंदरूनी प्रवास में कमी आई है. जबकि, उसके बाद से ही तमिलनाडु और में अंदरूनी कामगारों के अप्रवास में वृद्धि हुई है. वहीं, दूसरे राज्यों से कामकाजी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के मामले में गुजरात का सूरत शहर, मुंबई को ज़ोरदार टक्कर दे रहा है.
कोविड-19 के कारण जिस तरह से मौतें हो रही हैं और जितनी तेज़ी से संक्रमण हो रहा है, उससे महाराष्ट्र आज देश में नए कोरोना वायरस के संक्रमण का सबसे बड़ा ह़ॉटस्प़ॉट बन गया है. अब चूंकि, महाराष्ट्र में ही सबसे अधिक अप्रवासी मज़दूर भी काम करते हैं, इसीलिए राज्य सरकार ने बाहर से आकर काम करने वाले लोगों के रहने और खाने के लिए 45 करोड़ रुपए के पैकेज का एलान किया था. सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा दाखिल की गई एक स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार, जहां तक अप्रवासी मज़दूरों के लिए अस्थायी शिविर और राहत कैम्प की बात है, तो इनमें से 65 फ़ीसद अकेले केरल में हैं. लेकिन, अप्रवासी मज़दूरों के लिए 1135 शिविरों के साथ महाराष्ट्र पूरे देश में दूसरे नंबर पर है.
छह अप्रैल को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने एलान किया था कि उनके राज्य की सरकार ने राज्य भर में 4 हज़ार 653 शिविर स्थापित किए हैं. इन शिविरों में चार लाख 54 हज़ार 142 मज़दूर रह रहे हैं. इसके अलावा, महाराष्ट्र सरकार, पूरे राज्य में पांच लाख 53 हज़ार 025 अप्रवासी मज़दूरों और बेघर लोगों को खाना उपलब्ध करा रही है. ऐसे उपायों के बावजूद, अप्रवासी मज़दूरों के राज्यों के लिए ट्रेन चलने की ग़लत ख़बर के कारण, 14 अप्रैल को अप्रवासी मज़दूरों और स्थानीय लोगों की भारी-भीड़ पास के स्लम से बांद्रा स्टेशन पर जमा हो गई थी. ये लोग इस उम्मीद में स्टेशन पर इकट्ठे हो गए थे कि ट्रेन चलेगी तो वो अपने घरों को जा सकेंगे. साथ ही साथ इनमें से कई मज़दूर खाने का जो राशन मिल रहा था, उसके ख़िलाफ़ भी अपनी नाराज़गी का इज़हार कर रहे थे. ऐसी ही घटना महाराष्ट्र के पड़ोसी राज्य गुजरात के सूरत शहर में भी हुई. जहां पर कपड़ा मिलों में काम करने वाले सैकड़ों मज़दूर, घर जाने की मांग करते हुए, स्टेशन पर जमा हो गए थे.
पश्चिम बंगाल में अधिकतर अप्रवासी मज़दूर निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करते हैं. या फिर वो घरेलू नौकर, ड्राइवर जैसे रोज़गार में संलग्न हैं. हक़ीक़त ये है कि इन अप्रवासी मज़दूरों की एक बड़ी तादद हर साल खेती के सीज़न में कृषि क्षेत्र में भी काम करते हैं. इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश की असुरक्षित सीमा से आने वाले अवैध अप्रवासियों की भी भारी समस्या है.
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता और राज्य के कई अन्य इलाक़ों में पूरे देश में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही लॉकडाउन कर दिया गया था. इसी कारण से पश्चिम बंगाल में लॉकडाउन के बाद अप्रवासी मज़दूरों की भगदड़ की वैसी समस्या देखने को नहीं मिली, जैसी की बिहार और उत्तर प्रदेश के मज़दूरों के साथ देखी गई थी
जैसा कि अलग अलग क्षेत्रों में लोगों ने, अप्रवासी कामगारों की ‘देख भाल की नैतिकता’ का सवाल उठाया है. पश्चिम बंगाल में भी बेहाल और परेशान मज़दूरों के भारी संख्या में पैदल ही जाने के परेशान करने वाली तस्वीरें देखने को मिली हैं. कोलकाता का प्रमुख अंतरराज्यीय रेल टर्मिनस, यानी हावड़ा स्टेशन, फंसे हुए मज़दूरों की शरणगाह बन गया है. क्योंकि यहीं से पश्चिम बंगाल के तमाम ज़िलों और उत्तरी पूर्वी भारत को लोगों की आवाजाही होती है. इन मज़दूरों के पास न तो पर्याप्त खाना पानी है और न ही साफ सफाई की सुविधाएं हैं.
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता और राज्य के कई अन्य इलाक़ों में पूरे देश में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही लॉकडाउन कर दिया गया था. इसी कारण से पश्चिम बंगाल में लॉकडाउन के बाद अप्रवासी मज़दूरों की भगदड़ की वैसी समस्या देखने को नहीं मिली, जैसी की बिहार और उत्तर प्रदेश के मज़दूरों के साथ देखी गई थी. 26 मार्च को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 18 राज्यों की सरकारों को चिट्ठी लिखी और अपील की कि पूरे देश में फैले अप्रवासी मज़दूरों की मदद के लिए आपसी समन्वय से एक नीति और व्यवस्था बना कर काम किया जाए. अप्रवासी मज़दूरों की भगदड़ के कारण, पश्चिम बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गहरी चोट लगेगी. क्योंकि लॉकडाउन के बाद ग्रामीण इलाक़ों में मज़दूरी में गिरावट आनी तय है. क्योंकि गांवों में अब बड़ी संख्या में मज़दूर उपलब्ध होंगे. क्योंकि अन्य राज्यों में काम कर रहे बहुत से मज़ूदर अपने गांव लौट रहे हैं. हालांकि, कोलकाता में 27 रात्रि शिविर खोलने जैसे कई उपाय करके बाहर से आए मज़दूरों की मदद करने का प्रयास किया गया है. इसके अलावा मज़दूरों को काम देने वालों को इस बात के सख़्त निर्देश दिए गए हैं कि वो उनकी तनख़्वाह में कटौती न करें. साथ ही मज़दूरों को खाना बांटने जैसे क़दम भी उठाए जा रहे हैं. लेकिन, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़े में मज़दूरों का संकट इतना भयावाह है कि उसकी सही तस्वीर मीडिया में नहीं आ पा रही है.
कोविड-19 की महामारी ने अप्रवासी मज़दूरों की ख़राब स्थिति से जुड़ी तमाम कमियों को उजागर कर दिया है. अब इन कमियों को दूर करने के लिए एक व्यापक राष्ट्रव्यापी दूर दृष्टि और नीति की आवश्यकता होगी, ताकि इन मज़दूरों के हितों का संरक्षण किया जा सके
कोविड-19 की महामारी ने अप्रवासी मज़दूरों की ख़राब स्थिति से जुड़ी तमाम कमियों को उजागर कर दिया है. अब इन कमियों को दूर करने के लिए एक व्यापक राष्ट्रव्यापी दूर दृष्टि और नीति की आवश्यकता होगी, ताकि इन मज़दूरों के हितों का संरक्षण किया जा सके. अब अप्रवासी मज़दूरों की संख्या से जुड़े आंकड़ों में सुधार की जो ज़रूरत है उसमें भारी कमी देखी जा रही है. इसके अलावा उन्हें श्रमिकों के लिए तय मानकों के हिसाब से सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएं भी देने की ज़रूरत है. भारत में काम की तलाश में होने वाले अंदरूनी अप्रवास से जुड़े आंकड़ों की भारी कमी है. इस क्षेत्र से जुड़े जो आधिकारिक आंकड़े हैं, वो पुरानी जनगणना पर आधारित हैं. इनमें अप्रवासी की जो तय परिभाषा है, उसे भी नए सिरे से परिभाषित किए जाने की ज़रूरत है. इस परिभाषा के अनुसार- कोई व्यक्ति जो ऐसी जगह रहता है, जो उसका न तो जन्म स्थान है न ही पिछला रिहाइशी स्थान है.
अब अप्रवासी कामगारों से जुड़े अद्यतन आंकड़ों के लिए सघन तरीक़े से अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है. हर राज्य में इस स्तर पर प्रयास किया जाना बेहद महत्वपूर्ण है. अगर इन अप्रवासियों के आंकड़े होंगे तभी तो उन्हें खाना पानी, रिहाइश, साफ़ सफाई और वित्तीय सेवाएं देने के लिए आवश्यक फंड का आकलन किया जा सकेगा. क्योंकि, अभी जो सीज़नल अप्रवासी कामगार होते हैं, वो इन सभी सुविधाओं से वंचित रहते हैं. इस मामले में ठोस आंकड़ों की कमी का ही नतीजा है कि तमाम देश अप्रवासी मज़दूरों के इस संकट का अचानक से सामना कर रहे हैं. आज किसी के पास भी इस संकट से जुड़ा कोई ठोस आधारभूत आंकड़ा नहीं है. क्योंकि अभी हमारे पास जो आंकड़े हैं, वो पुरानी जानकारी पर आधारित हैं.
राज्यों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो असंगठित क्षेत्र के लिए सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं में बढ़ती दिलचस्पी के साथ साथ अप्रवासी मज़दूरों का वर्गीकरण हो और उनकी गिनती हो. अब पहचान के सबूत न होने और राज्यों के बीच इस मुद्दे पर आपसी सहयोग न होने के कारण, फिर से ऐसा अप्रवासी संकट नहीं खड़ा होना चाहिए. राज्यों के बीच इस मुद्दे पर आपसी सहयोग की एक योजना तय होनी चाहिए, ताकि अंतरराज्यीय अप्रवासियों पर पड़ रहे दबाव को कम किया जा सके. और इसके लिए हमें किसी अगली महामारी के प्रकोप का इंतज़ार न करना पड़े.
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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...
Read More +Aditi Ratho was an Associate Fellow at ORFs Mumbai centre. She worked on the broad themes like inclusive development gender issues and urbanisation.
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