Published on Jan 05, 2023 Updated 0 Hours ago

अगर चीन की कोविड नीति नाकाम थी तो उस पर अचानक पलट जाना उससे भी बड़ी असफलता है 

कोविड-19: चीन में महामारी से जुड़ी अराजकता ने किस तरह से राजनीतिक ‘तानाशाही’ के मिथक को चकनाचूर किया!

कोविड-19 से जुड़ी पाबंदियों, जो कि 2020 में महामारी की शुरुआत से लेकर अब तक लगभग तीन वर्षों से थी, में ढील देने को लेकर चीन के यू-टर्न ने पूरे देश को तबाह कर दिया है. पाबंदियों में अचानक छूट देने की वजह से हेल्थकेयर सिस्टम और इमरजेंसी सेवाएं अस्त-व्यस्त हो गई हैं. ख़ून और दवाओं की कमी की ख़बरें आ रही हैं. इन हालात में वरिष्ठ नागरिकों की बढ़ती मौत की संख्या और अंतिम संस्कार की जगह पर लाशों के ढेर लगने की कहानियां सामने आ रही हैं. इन कहानियों को सामने लाने में सोशल मीडिया व्हिसलब्लोअर की भूमिका निभा रहा है. लेकिन चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वर्तमान संकट को सिर्फ़ “कोविड की एक नई परिस्थिति” बताया है. अगर चीन की कोविड नीति नाकाम थी तो उस पर अचानक यू-टर्न ले लेना उससे भी बड़ी असफलता है. 

पीछे की तरफ़ देखने पर ऐसा लगता है कि चीन की रणनीति में बड़ी कमियां थीं लेकिन खुले तौर पर चर्चा नहीं होने और सरकार के आदेश पर चलने वाले वैज्ञानिक समुदाय की वजह से इस मूर्खता को नज़रअंदाज़ किया गया.

जटिल समस्या

वुहान में जब महामारी की शुरुआत हुई, उस समय से ही इससे निपटना एक मुश्किल स्थिति थी. लेकिन महामारी की शुरुआत वाली जगह में वायरस पर नियंत्रण में शुरुआती सफलता ने हेकड़ी की एक सोच का निर्माण किया और इस विचार को बढ़ावा दिया कि महामारी से मुक़ाबला करने में चीन की रणनीति सही है. पीछे की तरफ़ देखने पर ऐसा लगता है कि चीन की रणनीति में बड़ी कमियां थीं लेकिन खुले तौर पर चर्चा नहीं होने और सरकार के आदेश पर चलने वाले वैज्ञानिक समुदाय की वजह से इस मूर्खता को नज़रअंदाज़ किया गया. उदाहरण के लिए, वायरस की पहचान करने के लिए सामूहिक रूप से लोगों का टेस्ट कराने का मतलब ये था कि बीमारी के इलाज के मुक़ाबले रोकथाम पर बड़ी रक़म खर्च की गई. नियमित रूप से टेस्ट कराने की योजना पर खर्च का भार स्थानीय सरकारों ने उठाया. इसके तहत लोगों के लिए 48 घंटे से लेकर एक हफ़्ते के भीतर नियमित अंतराल पर टेस्ट कराना ज़रूरी था. चीन की पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों, जहां 50 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं, में अगर हर 48 घंटे पर टेस्ट कराना पड़े तो एक साल में 1.45 ट्रिलियन युआन (218 अरब अमेरिकी डॉलर) का खर्च होता. ये रक़म 2021 में चीन की GDP का 1.27 प्रतिशत थी. चीन ने अपने टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत 18 से लेकर 59 साल के लोगों को टीका लगाने से की. शायद इसके पीछे ये भरोसा था कि काम-काजी लोगों को टीका लगाने से अर्थव्यवस्था को रफ़्तार मिलेगी. दूसरी तरफ़ एक बच्चे की नीति (जिसे अब ख़त्म कर दिया गया है) ने चीन में बुजुर्गों की आबादी में बढ़ोतरी की है. आर्थिक तौर पर बुजुर्गों का स्वस्थ रहना बेहद फ़ायदेमंद नहीं है और इसलिए बुजुर्गों को टीकाकरण में प्राथमिकता नहीं मिली. लेकिन ये दूसरे देशों की परंपरा ख़ास तौर पर भारत से हटकर था जहां बुजुर्गों को टीका लगाने में प्राथमिकता दी गई. बुजुर्गों को उस वक़्त टीका नहीं लगने की वजह से बाद में उन्हें टीका लगवाने के लिए प्रोत्साहित करना काफ़ी मुश्किल हो गया. 

दिसंबर 2022 में चीन की सरकार ने वरिष्ठ नागरिकों के लिए टीकाकरण के कार्यक्रम को तेज़ करने की कोशिशें फिर से शुरू कर दी. इसके तहत 80 वर्ष से ज़्यादा उम्र के (2020 में जिनकी आबादी 3 करोड़ 60 लाख थी) 90 प्रतिशत लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य तय किया गया. साथ ही जनवरी 2023 तक उन्हें कम-से-कम वैक्सीन की एक डोज़ लगाने का फ़ैसला लिया गया. महामारी की शुरुआत से लेकर अब तक तीन साल बीत चुके हैं और चीन ने इस दौरान संक्रामक बीमारी से निपटने का अनुभव एवं विशेषज्ञता हासिल कर ली है. लेकिन इसके बावजूद चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) ने दूसरों से नहीं सीखने का फ़ैसला लिया और हेल्थकेयर सिस्टम की क्षमता में बढ़ोतरी करने के बदले सामूहिक टेस्टिंग एवं केंद्रीकृत क्वॉरंटीन सेंटर पर क़ीमती संसाधनों को लगाना जारी रखा. अगर हेल्थकेयर सिस्टम पर खर्च किया जाता तो कोविड-19 से जुड़ी पाबंदियों में ढील देने पर केस में बढ़ोतरी होने की स्थिति से चीन बेहतर ढंग से निपट पाता. 

CCP के ख़िलाफ़ बढ़ता ग़ुस्सा

वैसे तो सख़्त कोविड-19 पाबंदियों में ढील देने को लेकर CCP का आंतरिक विचार-विमर्श सार्वजनिक तौर पर शायद ही कभी सामने आ सकेगा लेकिन इस बात के कुछ संकेत हैं कि सत्ताधारी पार्टी के विशिष्ट वर्ग को देर से ही सही लेकिन ये एहसास हुआ होगा कि आर्थिक परेशानियां अब राजनीतिक संकट में बदल रही हैं. पेकिंग विश्वविद्यालय की तरफ़ से करवाए गए एक अध्ययन के नतीजे से उजागर हुआ कि कोविड-19 की पाबंदियों के कारण अर्थव्यवस्था की हालत काफ़ी बिगड़ गई है. अध्ययन के अनुसार रोकथाम के जो उपाय किए गए थे, उनकी वजह से 2022 में बेरोज़गारी का स्तर 2020 में वुहान में महामारी के चरम पर होने के दौरान के स्तर पर पहुंच सकता है. अनुमान के मुताबिक़ 2020 के मध्य में चीन के बेरोज़गार लोगों की संख्या लगभग 9 करोड़ 26 लाख थी जो काम-काजी आबादी का क़रीब 12 प्रतिशत थी. बढ़ती बेरोज़गारी 1989 में तियानानमेन स्क्वायर पर सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह के कारणों में से एक था और ये घटना अभी भी CCP की घबराहट बढ़ाती है. वास्तव में अलग-अलग समूहों के द्वारा विभिन्न कारणों से CCP के निरंकुश स्वभाव के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए हैं जैसा कि ग्रामीण बैंकों में पैसे जमा करने वाले लोगों के द्वारा पैसे निकालने पर रोक के विरोध में सड़कों पर उतरने से दिखा और छात्रों के समूहों ने CCP की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया था. लोगों के द्वारा असंतोष जताने को लेकर चीन सरकार का जवाब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और ख़ुद को एक वैश्विक ताक़त समझने वाले देश की तरह नहीं बल्कि एक स्तरहीन देश की तरह था. बैंक में पैसे जमा करने वाले लोगों ने “हमारे जमा पैसे नहीं तो मानवाधिकार नहीं” और “हम हेनान सरकार के भ्रष्टाचार और हिंसा के ख़िलाफ़ हैं” जैसे पोस्टर लगाकर प्रदर्शन किया तो उसके जवाब में उन पर हमले किए गए. 

ये घटना संकेत देती है कि चीन के लोग बेहद ग़ुस्से में हैं और बेचैन सरकार पहले से ज़्यादा अत्याचार के साथ जवाब दे रही है. नवंबर 2022 में छात्रों के प्रदर्शन के दौरान भी चीन सरकार का जवाब इस तरह से था कि “दुश्मन ताक़तें” उनको प्रेरित कर रही हैं. ये संकेत देता है कि CCP ने लोगों के मिजाज़ को पूरी तरह ग़लत समझा है. वैसे CCP के एजेंडे में देर से ही सही, आर्थिक प्राथमिकता को जगह मिली है. इसका प्रमाण दिसंबर 2022 में हुए केंद्रीय आर्थिक काम-काज के सम्मेलन से मिलता है जहां आमदनी बढ़ाने और उद्योग को सुधारने पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया लेकिन ये देखना बाक़ी है कि चीन का कॉरपोरेट जगत ज़ीरो-कोविड रणनीति को लेकर सरकार के यू-टर्न के कारण दूर रहने और संक्रमण में बढ़ोतरी की चुनौतियों से कैसे निपटती है. 

अपने बुरे काम को छिपाने के लिए CCP विज्ञान का सहारा लेती है

कहावत है कि हंगामे की वजह से किया गया बदलाव वास्तविकता को नहीं बदलता है बल्कि वैसी ही हालत बनी रहती है और ये कहावत चीन पर पूरी तरह लागू होती है. 50 के दशक में आधुनिक चीन के संस्थापक माओत्से तुंग ने पक्षियों को ख़त्म करने का एक अभियान शुरू किया क्योंकि उन्हें लगता था कि पक्षियों की वजह से फसल को नुक़सान होता है. लेकिन इस अभियान का एक नतीजा ये हुआ कि कीड़ों की संख्या में काफ़ी बढ़ोतरी हुई और उन्होंने अनाज के भंडार को बर्बाद कर दिया. इसकी वजह से चीन में अकाल पड़ा जिसमें लाखों लोगों की मौत हुई. पश्चिमी देश लगातार इस बात को दोहराते हैं कि चीन माओ के युग की ज़्यादतियों और एकतरफ़ा फ़ैसलों से आगे बढ़ गया है. लेकिन संक्रमण, जिसे नवंबर तक जानलेवा कहा गया था, से लड़ाई को लेकर चीन के द्वारा ज़ीरो-कोविड रणनीति का लगातार पालन करने और उसके बाद चीन के द्वारा ये घोषित करना कि वायरस का ख़तरा कम हो गया है, ये दिखाता है कि माओ के युग के सनक भरे फ़ैसलों में बदलाव नहीं हुआ है. 

अतीत की तरह इस बार भी एक राजनीतिक उद्देश्य और एक राजनीतिक प्रणाली के लिए सुविधाजनक विज्ञान, जो एक व्यक्ति यानी शी जिनपिंग की सनक पर आधारित है, इसने चीन की एक अरब से ज़्यादा आबादी को नुक़सान पहुंचाया है.

अतीत की तरह इस बार भी एक राजनीतिक उद्देश्य और एक राजनीतिक प्रणाली के लिए सुविधाजनक विज्ञान, जो एक व्यक्ति यानी शी जिनपिंग की सनक पर आधारित है, इसने चीन की एक अरब से ज़्यादा आबादी को नुक़सान पहुंचाया है. इससे भी बढ़कर, डैनियल बेल जैसे विद्वानों ने अपनी किताब ‘द चाइना मॉडल’ में ये दलील दी है कि CCP इसलिए सफल रही है क्योंकि ये एक राजनीतिक प्रतिभा संपन्न लोगों की पार्टी है जिससे बेहतर सरकारी व्यवस्था और नीतियां मिलती हैं. लेकिन कोविड-19 महामारी को लेकर चीन की बदइंतज़ामी और पाबंदियों को अचानक एवं अराजक ढंग से हटाने के फ़ैसले ने इस झूठ को उजागर कर दिया है कि चीन का सिस्टम बेहतर है. 

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