Published on Apr 23, 2020 Updated 0 Hours ago

उम्मीद करनी चाहिए कि अगली बार जब चीन बहुपक्षीय मंचों पर अपना एजेंडा या उम्मीदवार थोपने की कोशिश करेगा तो इसका ज़ोरदार विरोध होगा. अपनी सोच को दूसरों पर लागू करने या इस संकट के ज़रिए अपना नेतृत्व साबित करने के बदले इस बार चीन की प्रतिष्ठा को ही आघात पहुंचा है.

कोविड-19:  चीन महामारी का सच बदलने में कामयाब नहीं हो पाएगा

इस वक़्त चिंता जताई जा रही है कि चीन कोविड-19 महामारी का इस्तेमाल कर विश्व के नेतृत्व का दावा करेगा. एक प्रतिष्ठित विश्लेषण में बताया गया है कि महामारी वैश्विक व्यवस्था को नया आकार दे सकती है. इस चिंता की एक बड़ी वजह है चीन का विशाल और पारदर्शी दुष्प्रचार. प्रोपब्लिका की छानबीन से पता चला है कि ट्विटर पर चीन मज़बूती से और लगातार दुष्प्रचार कर रहा है. हालांकि, कॉलमनिस्ट अभिजीत अय्यर-मित्रा के मुताबिक़ ज़्यादातर दुष्प्रचार नाकाम रहे. चिंता का एक और पहलू ये है कि संकट की इस घड़ी में अमेरिका ने नेतृत्व की अपनी भूमिका छोड़ दी. जैसा कि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सीन लूंग ने कूटनीतिक भाषा में कहा, ‘अगर अमेरिका नेतृत्व नहीं करता है तो अंत में कोई और करेगा.‘ इस तरह की चिंताएं बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई हैं. हालांकि, चीन के पास जो दौलत है वो उसे ताक़त देती है लेकिन उसका तानाशाही वाला सत्ता का सिस्टम अपने हिसाब से सच को बदलने की उसकी कोशिश की राह में बड़ा रोड़ा है ख़ासतौर पर कोविड-19 जैसी महामारी के दौरान.

बीजिंग अलग-अलग कारणों से मौजूदा संकट के दौरान अपनी सोच को बढ़ावा देने में बड़ी दिक़्क़तों का सामना करेगा. पहली वजह है कि जिस त्रासदी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया है, उसके लिए चीन को ज़िम्मेदार न बताना पूरी तरह से झूठ पर आधारित है. छल-कपट और झूठ बोलने की उम्मीद सरकारों से की जा सकती है लेकिन जैसा कि विद्वान जॉन मीयरशायमर ने कहा है कि जितना हम सोचते हैं, उतना सरकारें एक-दूसरे से झूठ नहीं बोलतीं और इस वजह से चीन का बर्ताव अलग दिख जाता है. नेतृत्व करने वाले देशों और नेतृत्व की महत्वाकांक्षा रखने वाले देशों से कपट की उम्मीद रख सकते हैं लेकिन मार्था फिनमोर उस वक़्त सही हैं जब वो कहती हैं कि ‘अनर्गल कपट ताक़त की सच्चाई को खोखला करता है.‘ चीन ने इतना खुल्लम-खुल्ला झूठ बोला कि चीन की सरकार के सभी दावे अब संदेह के घेरे में हैं. इसमें वुहान में मरने वालों की संख्या भी शामिल है. इससे भी बढ़कर दूसरों को खोखला करने वाले और ख़ुद का विज्ञापन करने वाले दुष्प्रचार में अंतर है. पहले वाला दुष्प्रचार आम तौर पर आसान है ख़ासतौर पर जब बात अमेरिका की हो क्योंकि लोग कम-से-कम अमेरिकी ग़लती को मानने के लिए तैयार रहते हैं. हालांकि, तब भी कोई ये मानने को तैयार नहीं होगा कि महामारी की शुरुआत अमेरिका ने की जैसा कि चीन ने बताने की कोशिश की. लेकिन दूसरे तरह का दुष्प्रचार यानी चीन का ख़ुद को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना कुछ संदेह की नज़रों से देखा जाएगा. इसकी बड़ी वजह चीन की चाल-ढाल है.

हाल के दिनों में रूस और चीन ने दुनिया की राय पर असर डालने के लिए वैकल्पिक मीडिया स्रोतों को प्रायोजित करने की भरपूर कोशिश की. दूसरी तरफ़ पश्चिमी मीडिया का असर अपने-अपने देशों में सीमित करने की भी कोशिश की. वो कुछ हद तक दूसरी कोशिश में सफल रहे जबकि पहली कोशिश में नाकाम

दूसरा, सॉफ्ट पावर की सोच बनाने के लिए पर्याप्त हार्ड पावर होना ज़रूरी है. सॉफ्ट पावर को आम तौर पर हार्ड पावर का विकल्प माना जाता है लेकिन ये मानना ज़्यादा सही होगा कि दोनों सहयोगी हैं. पिछले कई दशकों से दुनिया की सबसे प्रभावशाली ताक़त रहने के दौरान अमेरिका ने सॉफ्ट पावर का वैश्विक भंडार बना लिया है. इसकी शुरुआत अमेरिका ने न्यूज़ मीडिया पर नियंत्रण से की. ग्लोबल मीडिया पावर में असमानता कोई नई घटना नहीं है. ‘उत्तर और दक्षिण के बीच सूचना के प्रवाह में असमानता’ की शिकायत ने 1970 के दशक के दौरान नये अंतर्राष्ट्रीय सूचना और संचार व्यवस्था (NWICO) की मांग को जन्म दिया. हालांकि, इससे कुछ बदला नहीं. हाल के दिनों में रूस और चीन ने दुनिया की राय पर असर डालने के लिए वैकल्पिक मीडिया स्रोतों को प्रायोजित करने की भरपूर कोशिश की. दूसरी तरफ़ पश्चिमी मीडिया का असर अपने-अपने देशों में सीमित करने की भी कोशिश की. वो कुछ हद तक दूसरी कोशिश में सफल रहे जबकि पहली कोशिश में नाकाम.

वैचारिक तौर पर अमेरिकी न्यूज़ मीडिया बेहद बंटा हुआ है और इस पर अमेरिकी सरकार का नियंत्रण नहीं है. लेकिन ये कमज़ोरी होने के बदले वास्तव में उसे काफ़ी विश्वसनीय बताता है. चीन के पैसे ने उसे प्रतिस्पर्धी न्यूज़ प्लैटफॉर्म बनाने में मदद की लेकिन वो असरदार ढंग से अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने में नाकाम रहे हैं और आने वाले लंबे समय तक भी वो ऐसा नहीं कर पाएंगे. बिना किसी सवाल के चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति है लेकिन ये अभी भी दूसरी महाशक्ति ही है. विशाल आर्थिक और सैन्य क्षमता के बावजूद अमेरिका को अपने लिए फ़ायदेमंद सोच बनाने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और इसमें वो अक्सर नाकाम हो जाता है. चीन की कमज़ोरी ख़ासतौर पर उस वक़्त उजागर हो जाती है जब वो कोविड-19 या हांगकांग प्रदर्शन या दक्षिणी चीन सागर जैसे मुद्दों पर अमेरिकी सोच को चुनौती देने की कोशिश करता है. इन सभी मुद्दों को लेकर चीन के बर्ताव और उसके दोषी होने पर व्यापक सहमति न सिर्फ़ अमेरिकी मीडिया बल्कि बाक़ी जगह भी है. इससे चीन के लिए अपनी सोच को बढ़ावा देना बेहद मुश्किल हो जाता है.

चीन की कमज़ोरी ख़ासतौर पर उस वक़्त उजागर हो जाती है जब वो कोविड-19 या हांगकांग प्रदर्शन या दक्षिणी चीन सागर जैसे मुद्दों पर अमेरिकी सोच को चुनौती देने की कोशिश करता है. इन सभी मुद्दों को लेकर चीन के बर्ताव और उसके दोषी होने पर व्यापक सहमति न सिर्फ़ अमेरिकी मीडिया बल्कि बाक़ी जगह भी है

तीसरा, चीन की तानाशाही कई मायनों में उसके लिए स्वाभाविक घाटे का सौदा है ख़ासतौर पर तब जब वो ख़ुद को सॉफ्ट पावर दिखाने की कोशिश करता है. अगर चीन का दुष्प्रचार नाकाम होता है तो इसकी बड़ी वजह चीन की ये समझने में नाकामी है कि स्वतंत्र मीडिया कैसे काम करता है और कैसे बेहतरीन तरीक़े से अपनी सोच को रखें. ये ऐसी चीज़ नहीं है जिसे बदला जा सके और चीन सिर्फ़ पैसे फेंककर या प्रोपगैंडा डिपार्टमेंट के प्रमुख को बदलकर इस समस्या का समाधान नहीं कर सकता. चीन को लगा कि वो महामारी से जुड़े उपकरणों की सप्लाई करके और बिना अपनी ज़िम्मेदारी को कबूले दुनिया का भरोसा जीत लेगा. लेकिन यहां उससे अनुमान लगाने में ग़लती हो गई.

इसी तरह, चीन के तानाशाही मॉडल का प्रभावशाली होना भी सवालों के घेरे में है. हालांकि, क्वॉरन्टीन को लेकर चीन ने ऐसे कठोर क़दम अपनाए जो सिर्फ़ एक तानाशाही सरकार कर सकती है और इसकी वजह से चीन के भीतर महामारी फैलने से रुकी लेकिन सरकार से अलग आवाज़ को दबाने और शुरुआत में संकट को समझने में नाकामी को लेकर सवाल भी हैं. अगर चीन की सरकार शुरुआत में ख़तरे की जानकारी देने वाले लोगों जैसे डॉक्टर ली वेनलियांग को सुनती तो संकट को बेहतर तरीक़े से सुलझाया जा सकता था और इसको फैलने से रोका जा सकता था. असहमति और अलग-अलग आवाज़ को बर्दाश्त करने की ज़रूरत को लेकर ये सबक़ है और ये चीन के अलावा दूसरे देशों पर भी लागू होता है. स्पष्ट रूप से तानाशाही के नुक़सान का ये अच्छा उदाहरण है.

निश्चित रूप से ये सवाल उठेंगे कि दूसरे देश इस महामारी से कैसे निपटे लेकिन चीन का दोष और झूठ अब सवालों से परे है. इस घटना ने गुपचुप तरीक़े से संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन के नियंत्रण की कोशिशों और ऐसे नियंत्रण की क़ीमत का भी पर्दाफ़ाश कर दिया है. उम्मीद करनी चाहिए कि अगली बार जब चीन बहुपक्षीय मंचों पर अपना एजेंडा या उम्मीदवार थोपने की कोशिश करेगा तो इसका ज़ोरदार विरोध होगा. अपनी सोच को दूसरों पर लागू करने या इस संकट के ज़रिए अपना नेतृत्व साबित करने के बदले इस बार चीन की प्रतिष्ठा को ही आघात पहुंचा है. अगर चीन इससे उबर भी जाता है तो उसके तानाशाही सिस्टम के साथ मूलभूत नुक़सान है जिसकी वजह से उसे अपनी सोच और सॉफ्ट पावर का प्रचार करने में मुश्किल होगी.

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